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प्रदर्शनकारियों पर दमन सरकार की बढ़ती घबराहट का नतीजा है

अगर भारत लोकतंत्र से धर्मशासन की तरफ़ जा रहा है तो प्रतिरोध ही केवल देश को बचाने का रास्ता है।
Excessive Crackdown

संविधान (संशोधन) क़ानून (सीएए), 2019 के विरोध ने केंद्र सरकार को हिला कर रख दिया है, जैसा कि हम जानते हैं, दिल्ली में क़ानून व्यवस्था की ज़िम्मेदार मोदी सरकार है, और कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकारें इसकी ज़िम्मेदार हैं। प्रतिरोध को दबाने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 को देश के कई हिस्सों में थोपा गया, और देश के कुछ हिस्सों में बड़ी तादाद में गिरफ़्तारी की गई, यह सब सत्तारूढ़ दल के भीतर घबराहट के संकेत हैं। इन प्रतिरोधों से एक बड़ा संदेह तो पैदा हो गया है कि सीएए को लागू करना अब इतना आसान नहीं होगा।

गुरुवार यानी 19 नवंबर को देश के काफ़ी बड़े हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए। किसी भी राजनीतिक दल के नेतृत्व की प्रतीक्षा किए बिना, सभी जगहों के छात्र और आम लोग इसमें शामिल हुए। सबसे पहला विरोध जो असम में शुरू हुआ था और फिर मेघालय से पश्चिम बंगाल पहुंचा, अब वह दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों तक फैल गया है, छात्रों ने इन प्रदर्शनों में तुरंत ख़ुद को इसका हिस्सा बना लिया। यह छात्र ही थे जिन्होंने विरोध प्रदर्शनों को पूरे देश में प्रोत्साहित किया और उन्हें एक सुसंगत राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदल दिया। हालांकि, गुरुवार आते-आते कुछ राजनीतिक दलों को अपनी सुस्ती दूर कर आंदोलन में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि लोग सड़कों पर ख़ुद उतर रहे थे।

कुछ दलों ने नागरिकों के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के बजाय अपनी अलग-अलग रैलियों मे शामिल होने का रास्ता चुना, जो दिल्ली में बैठे निज़ाम और भाजपा को कहीं कड़ा संदेश भेज सकता था। उदाहरण के लिए, कोलकाता में, 17 वामपंथी दलों ने रामलीला मैदान से एक रैली का आयोजन किया वह भी तुरंत एक नागरिक रैली निकाले जाने के बाद। और कांग्रेस ने भी अपनी रैली अलग से निकाली। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी एक अलग रैली की।

इन गड़बड़ियों के बावजूद, गुरुवार को यह स्पष्ट हो गया कि सरकार हिल गई है। भारत के सबसे बड़े प्रदेश और सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में धारा 144 लगाने का और क्या मतलब समझा जाएगा? उत्तर प्रदेश में गुरुवार को हुई पुलिस फ़ायरिंग में एक व्यक्ति मारा गया था और शुक्रवार को पुलिस गोलीबारी में मरने वालों की संख्या 10 हो गई थी, हालांकि पुलिस का दावा है कि कुल छह लोगों की मौत हुई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बड़े गर्व से घोषणा की कि दंगाइयों की पहचान सीसीटीवी रिकॉर्डिंग के ज़रीये की जा रही है और राज्य को हुए नुक़सान की भरपाई प्रदर्शनकारियों की संपत्ति को ज़ब्त कर पूरा किया जाएगा। यह भी सच है कि इन दो दिनों में लखनऊ सहित कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए थे। उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रमुख ने दावा किया कि उनके बलों ने गोली नहीं चलाई थी। बेशक, क्रोध में भी नहीं।

मंगलुरु में पुलिस की गोलीबारी से उस वक़्त दो लोगों की हत्या हो गई जब प्रदर्शनकारी मंगलुरु उत्तर के पुलिस स्टेशन को आग लगाने की कोशिश कर रहे थे। इस घटना से इनकार नहीं किया गया। कुछ ही दूरी पर, कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में, पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की घेरेबंदी कर ली थी, जिसमें समाजशास्त्री, इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा, पद्म भूषण पुरस्कार 2009 से सम्मानित हैं भी शामिल थे। गुहा के साथ पुलिस के अभद्र व्यवहार ने  अंतर्राष्ट्रीय आक्रोश को भड़का दिया। निषेधात्मक आदेशों को दरकिनार करते हुए, आईआईएम, बैंगलोर के छात्रों और फ़ैकल्टी सदस्यों ने तीन-तीन के बैचों में रिले विरोध प्रदर्शन किया।

दिल्ली में, 1,200 प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया गया, जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी राजा, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी और पार्टी नेता प्रकाश करात, बृंदा करात और निलोत्पल बसु शामिल थे; अन्य गिरफ़्तार किए गए लोगों में कांग्रेस के संदीप दीक्षित और अजय माकन और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और हर्ष मंदर भी शामिल थे। नई दिल्ली, मध्य दिल्ली और लाल किला क्षेत्र के कुछ हिस्सों में धारा 144 लगाई गई थी, लेकिन बावजूद इसके जंतर मंतर पर नागरिकों का जनसैलाब उमड़ पड़ा, जहां रात 8:00 बजे तक भीड़ प्रदर्शन करती रही। इस दिन इक्कीस मेट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए थे।

ज़्यादातर जगहों पर विरोध प्रदर्शन बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण रहे। मुंबई में, अगस्त क्रांति मैदान में 25,000 प्रदर्शनकारी इकट्ठे हुए थे और बिहार में वामपंथी दलों ने सड़क और रेल सेवाओं को ठप्प कर दिया था। कोलकाता में, उल्लिखित रैलियों के अलावा, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक रैली का नेतृत्व किया और सीएए पर संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह की मांग की। जयपुर में, एक स्वर्ण पदक विजेता छात्र ने सीएए का विरोध करने के लिए एक काली पट्टी पहनकर अपने दीक्षांत समारोह में भाग लिया। उन्हें हिरासत में लिया गया और उनसे सवाल किया गया कि उन्होंने यह काला बैंड क्यों पहना, बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। भारत के अधिकांश हिस्सों से हिंसा की कोई रिपोर्ट नहीं मिली।

सीएए के ख़िलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शनों से कई निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, जो प्रदर्शन एक सप्ताह के अधिक समय से जारी है, जिनका समापन गुरुवार को देश भर में हुए समन्वित विरोध में हुआ। सबसे पहले, सरकार के योग्य नेता बचते घूम रहे हैं। इस आंदोलन का एक अप्रत्याशित नतीजा यह है कि सरकार ने अब राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को मना करना शुरू कर दिया है। इसने गुरुवार को कई अख़बारों में विज्ञापन जारी कर कहा कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी अभी लागू नहीं की जाएगी।

सरकार ने एक बयान भी जारी किया जिसमें कहा गया कि अखिल भारतीय एनआरसी (या भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर) तैयार करने की कोई तत्काल योजना नहीं है। इसे अधिसूचित किया जाना था और इसके कार्यान्वयन के लिए कोई नियम और निर्देश नहीं बनाए गए हैं। गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने भी स्पष्ट किया कि सीएए को लागू करने के नियमों को अभी तक लागू नहीं किया गया है और सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद ही ऐसा होगा। इसकी उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रदर्शनकारी तब तक केंद्र सरकार की ‘सामान्य स्थिति’ के संस्करण का विरोध करते रहेंगे, जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय अपना फैसला नहीं सुना देता है।

एक और मुद्दा है जो जामिया के और बंगाल के कुछ हिस्सों में विरोध प्रदर्शनों से बाहर आया है। वह है संघी एजेंटों की उत्तेजक भूमिका की। जामिया के छात्रों पर दिल्ली पुलिस ने हमला किया उन्हे हॉस्टल, शौचालय, कैंपस की मस्जिद और लाइब्रेरी से बाहर निकाल पीटा गया। ऐसा नहीं है कि वे किसी घिनौने अपराध यानी हिंसक कृत्यों, बर्बरता और इस तरह के अपराध के लिए गिरफ़्तार किए गए हों। इससे छात्रों के विरोधों को साख मिलती है कि वे ऊपर दिए गए किसी भी अपराध में शामिल नहीं थे, बल्कि वे तो शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध कर रहे थे। कुछ तोड़-फोड़ और आगजनी वहाँ से अच्छी ख़ासी दूरी पर हुई थी।

बंगाल में भी, रेलवे की संपत्ति के साथ तोड़-फोड़ और हमलों का कोई मतलब नहीं है, जब कि बनर्जी और अन्य लोगों ने सरकार और सत्तारूढ़ दल की तरफ से बार-बार आश्वासन दिया कि राज्य में न तो एनआरसी और न ही सीएए लागू होगा। इससे यह संदेह पैदा होता है कि कई एजेंट हिंसा के लिए लोगों को उकसा और भड़का रहे थे।

इस धारणा को तब बल मिला जब ट्रेनों पर पत्थर फेंकने के लिए लुंगी और सर पर मुस्लिम टोपी पहनने वाले छह लोगों को मुर्शिदाबाद ज़िले से गिरफ़्तार किया गया। स्थानीय लोगों ने उन्हें पकड़ कर पुलिस को सौंप दिया। उनमें से एक, लोगों ने कहा कि, अभिषेक सरकार नामक एक भाजपा कार्यकर्ता है। छह लोग जो सभी हिंदु थे ने कहा कि उन्होंने लुंगी और मुस्लिम टोपी  इसलिए पहनी हुई थी क्योंकि वे एक YouTube वीडियो की शूटिंग कर रहे थे, जिससे एक स्पष्ट झूठ का उजागर हुआ। उनमें से पांच के ख़िलाफ़ जिनमें तीन नाबालिग हैं के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया गया है।

उत्तर प्रदेश में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो कार्यकर्ताओं को कथित रूप से सार्वजनिक संपत्ति के साथ तोड़-फोड़ करते हुए देखा गया। कई प्रदर्शनकारियों ने बताया कि उनमें से कुछ लोग अजीब और संदिग्ध सी हरकतें कर रहे थे। पुलिस, ऐसा लगता है कि बजाय शांति कायम करने के माहौल को भड़काने पर अधिक ज़ोर दे रही थी।

इसके अंतिम निष्कर्ष पर इस तथ्य के साथ पहुंचा जा सकता है कि दिल्ली, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में, पुलिस और अन्य प्रशासन ने जो कार्रवाई की वे असंगत थीं और 'असामान्य' थीं, जैसा कि गुहा ने मीडिया को कहा। कर्नाटक के किसी भी हिस्से में सीएए के विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से ऐसा अनुभव नहीं किया गया और निश्चित रूप से वहाँ हिंसा भी नहीं हुई। तो प्रशासन ने धारा 144 को लगाकर क्यों उकसाने का काम किया? सुप्रीम कोर्ट ने इन वर्षों में कई निर्णय दिए हैं कि जब प्रशासन धारा 144 लागू करता है, तो यह निर्णय तर्क की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। कर्नाटक में, यह निश्चित रूप से खरा नहीं उतरा।

न ही उत्तर प्रदेश में, जहां सीएए के खिलाफ व्यापक विरोध के हिंसक होने या अन्यथा घटना का कोई इतिहास था। आदित्यनाथ ने गुरुवार को कहा था कि राज्य में 8 नवंबर से धारा 144 लागू है और राज्य में किसी को भी विरोध करने का अधिकार नहीं है। हैं ना आश्चर्यजनक। लगभग 3,000 राजनेताओं और कार्यकर्ताओं को नोटिस भेजे गए थे कि वे विरोध प्रदर्शनों में भाग न लें। हम सब जानते हैं कि दिल्ली और अलीगढ़ में क्या हुआ।

राष्ट्र की तरफ से ऐसी हिंसक प्रतिक्रियाएँ या हरकतें एक ऐसी धारणा की ओर इशारा करती हैं जिसे कई नागरिकों-शिक्षाविदों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और अन्य लोग कुछ समय से इंगित कर रहे हैं। एक अघोषित आपातकाल की स्थिति जिसके तहत विपक्ष के राजनेता, कार्यकर्ता, मीडिया हाउस, लेखक, फिल्म निर्माता और अन्य लोग सांस्कृतिक लोग; सोशल मीडिया में आलोचक; और आम नागरिकों को केंद्र और राज्यों के भाजपा शासन के सामने अपने अधिकार को फना करने के लिए कहा जा रहा है और उन्हें डराने की कोशिश की जा रही है।

विरोध दर्ज करने वाले और असंतुष्ट लोग ख़ुद को क़ानून के ग़लत पक्ष की तरफ़ पा रहे हैं, जैसा कि अपर्णा सेन, श्याम बेनेगल और अन्य के खिलाफ उस वक़्त राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर दिया जब उन्होंने एक खुला पत्र प्रधानमंत्री को भेजा था। देश भर में राजद्रोह के मुक़दमे बेताहाशा लगाए जा रहे हैं। कर्नाटक के दो विपक्षी नेताओं, दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों, विपक्षी नेताओं के खिलाफ आयकर छापे की आलोचना करने के लिए राजद्रोह अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है। मैंगलोर में, केरल के पत्रकारों को जेल में बंद कर दिया गया, सुविधाओं से वंचित रखा गया और उनसे बर्ताव अपराधियों की तरह किया गया।

और, निश्चित रूप से, हमारे सामने उदाहरण के लिए भीम-कोरेगांव मामला है, जिसमें मुख्य अभियुक्त, जो एक संघ परिवार का सदस्य है उसे आज़ाद घूमने की अनुमति दी हुई है, जबकि दस सामाजिक कार्यकर्ताओं, उनमें से कुछ वकील और शिक्षाविद हैं को दो खेप में गिरफ़्तार किया गया। जून और अगस्त 2018 में उन पर 'अर्बन नक्सल' होने का आरोप लगाया गया जो कि कट्टर सांप्रदायिकतावादी लोगों द्वारा गढ़ा गया टर्म है, और उन पर आरोप लगाया कि वे प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रच रहे थे। प्रधानमंत्री की हत्या वाला आरोप हंसी का पात्र बन जाता यदि ख़तरनाक चीजों और समय का एक हिस्सा नहीं होता। उनमें से नौ अभी भी जेल में हैं।

भाजपा भारत को दो हमलों से एक साथ मारने की कोशिश कर रही है। पहला, यह भारत को एक पुलिस राज्य में बदलने की कोशिश कर रहा है। अब "सत्तावाद" या अधिनायकवाद तेजी से एक कमजोर सबब बनता जा रहा है। यह भारत को एक सांप्रदायिक समाज और धर्मतंत्र में बदलने की कोशिश कर रहा है। ये दोनों आपस में जुड़े हैं। फासीवादी गठजोड़ को हमेशा कोई चाहिए जिसे वे नीचा दिखा सके। यदि नाजियों के पास यहूदी थे, तो भाजपा के पास तो पूरा का पूरा गुलदस्ता है: मुस्लिम, घुसपैठिए और पाकिस्तान। जब प्रधानमंत्री कह सकते हैं कि कोई भी प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ों से पहचान सकता है, उनका मतलब है कि वे मुस्लिम हैं, और फिर वे कहते हैं कि सभी पाकिस्तानियों को नागरिकता देने की कांग्रेस की जुर्रत कैसे हुई? क्या वास्तव में ऐसा हुआ?

फ़ासीवाद को भी विचलन चाहिए। सीएए और एनआरसी भी इसी विचलन की रणनीति का हिस्सा हैं। वे अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन से ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, जो सबसे ग़रीब तबक़े पर मार कर रही है। और यह तथ्य कि यह सरकार केवल सर्कस-जैसे स्टंट कर सकती है, इसके भीतर शासन करने की क्षमता शून्य के बराबर है, क्योंकि नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, में सुशासन की बुनियादी ज़रूरतों को समझने या उन पर ध्यान देने की न तो रुचि है और न ही क्षमता दिखाई देती है।

इस बात की आशा की जानी चाहिए कि लोग स्वयं के हितों का ख़याल रखते हुए अवसर आने पर इन्हें सत्ता से बाहर करने के लिए वोट डालेंगे।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Excessive Crackdown on Protesters Expose Govt Nervousness

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