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विशेष: भगत सिंह के बाद क्रांतिकारी आंदोलन का क्या हुआ?

भगत सिंह की शहादत के बाद भी उनके साथी समाजवाद और आज़ादी के झंडे को उसी जोशो-खरोश के साथ उठाए रहे। आज भगत सिंह के जन्मदिवस पर उनके सभी साथियों को याद करना भी ज़रूरी है। तभी हम 1920-1930 के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास और आज के समय में उसकी प्रासंगिकता को सही तरीके से समझ पायेंगे।
Bhagat Singh

भगत सिंह 1929 में गिरफ्तार हो गए थे लेकिन वह जेल के अन्दर से भी क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक नेतृत्व करते रहे। बाहर सेनापति चंद्रशेखर आज़ाद बेहद सक्रिय रहे। लेकिन फ़रवरी-मार्च 1931 तक ये दोनों सूरमा शहीद हो गए। अधिकतर साथी जेल की सलाखों के पीछे पहुंच चुके थे। फिर भी जो बचे चंद साथी जेल के बाहर थे उन्होंने क्रांतिकारी पार्टी को पुनर्गठित करने का प्रयास किया। मेरठ जिले के गढ़मुक्तेश्वर में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (हिसप्रस) का नया कमांडर इन चीफ़ चुनने के लिए मीटिंग बुलाई गई। मेरठ जिले के पार्टी इंचार्ज राजेंद्रपाल सिंह ‘वारियर’ बताते हैं, “जहां संयुक्त प्रांत के साथी सुरेन्द्र पांडे को चुनना चाहते थे, वहीं पंजाब के साथियों ने यशपाल (भविष्य के हिंदी उपन्यासकार) का साथ दिया। अंत में यशपाल ही नए सेनापति चुने गए"| लेकिन अगले ही वर्ष यशपाल भी पुलिस के साथ एक मुठभेड़ में गिरफ्तार हो गए। चंद्रशेखर आज़ाद के साथ अल्फ्रेड पार्क वाली मुठभेड़ में, जिसमें उनकी शहादत हो गई थी, उपस्थित रहे सुखदेवराज ने भी पंजाब और जम्मू में कुछ हाथ-पैर मारा लेकिन अधिक सफलता हाथ न लगी |

कम्युनिस्ट पार्टी में प्रवेश

भगत सिंह आदि पर जो लाहौर षडयंत्र केस चला था उसके अभियुक्तों में सबसे पहले अजय घोष छूट कर आए। उन्होंने बाहर आते ही कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली, जैसा कि जेल में भगत सिंह और साथियों ने तय किया था। जेलों के अंदर भी आगे चलकर साथियों ने कम्युनिस्ट कंसोलिडेशन बना लिया। बाहर के साथियों को भी कम्युनिज्म से सहानुभूति थी लेकिन वे हिसप्रस को भंग नहीं करना चाहते थे। उन्होंने सुरेन्द्र पांडे को अपना नया कमांडर-इन-चीफ चुना। पांडे ने उत्तर प्रदेश में पार्टी के एक जनसंगठन 'प्रांतीय नवयुवक संघ' की स्थापना की और कम्युनिस्टों के साथ मिलजुल कर काम किया लेकिन जल्दी ही वे भी गिरफ्तार हो गए।

नए क्रांतिकारी नेताओं का उदय

इसी दौरान युवा क्रांतिकारी राजेन्द्र निगम ने हिसप्रस से अलग अपना एक छोटा सा क्रांतिकारी दल बना लिया। इसमें उन्होने भविष्य के दो धुरंधर किसान नेताओं - हलधर बाजपई और शिवकुमार मिश्र को भी शामिल किया। बंगाल के शेखर गांगुली (जो आगे चलकर भाकपा में गए) का भी साथ मिला। गौरतलब है कि कई मजदूर वर्ग के साथियों को भी इस दल में शामिल किया गया। ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों से घबरा गई और उसने एक ही दिन में कानपुर ओर देहरादून के अनेक स्थानों पर छापा मारकर कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। उनपर कानपुर-देहरादून षडयंत्र केस चलाया गया। मिश्र और गांगुली इस मामले में बच गए और चुपचाप कानपुर और उन्नाव के क्षेत्र में काम करते रहे। जब पार्टी को धन की आश्यकता हुई तो उन्होंने डॉ. सेन नामक कानपुर के एक प्रसिद्ध एवं धनवान डॉक्टर का अपहरण कर लिया और फिरौती की मांग की। लेकिन पुलिस ने उनके ठिकाने को चारों तरफ से घेर लिया और दोनों को फरार होने पड़ा। मिश्र छुपते-छुपाते उन्नाव में अपने गांव पहुंचे और कालांतर में जिले के बड़े कम्युनिस्ट नेता के रूप में उभरे।

राजस्थान और पूर्वांचल में

राजस्थान में भगत सिंह के बचे साथियों ने अपने दल को पुनः संगठित किया और अजमेर को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। रामसिंह के नेतृत्व में पार्टी ने सीआईडी अफसर डोगरा को गोली से उड़ाने का फैसला किया जो क्रांतिकारियों को झूठेमूठे केसों में फंसाता था। रामसिंह की गोली से डोगरा तो बच गया लेकिन इस केस में उन्हें कालापानी की सज़ा हो गई। कालापानी जेल में रामसिंह भी कम्युनिस्ट कंसोलिडेशन में शामिल हो गए और बाहर आकर आगरा क्षेत्र ने पहले भाकपा और फिर माकपा के बड़े नेता हुए। दक्षिण भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का डंका बजाने वाले शंभूनाथ आज़ाद भी जेल से छूटने के बाद अपने गृहस्थान आगरा-इटावा क्षेत्र के बड़े कम्युनिस्ट नेता बने।

पूर्वांचल में क्रांतिकारियों की एक दूसरी ही धारा सक्रिय थी। सन् 1937 में आजमगढ़ के झारखंडे राय के नेतृत्व में हिसप्रस नाम से ही एक नया दल इन लोगों ने बनाया और पिपरीडीह ट्रेन डकैती, आंकसपुर-नंदगंज रेल डकैती, बाबतपुर कांड, सहजनवा कांड जैसे हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम दिया। 1937 में ही पुराने क्रांतिकारी जोगेशचंद्र चटर्जी जेल से छूट कर आए और उनके आह्वान पर हिसप्रस और बंगाल की अनुशीलन समिति एक हो गए। दोनों ने मिलकर एक नया दल बनाया – रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी-  जो आज भी वाममोर्चा का एक घटक है। भारत छोड़ो आंदोलन में इस दल ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस आंदोलन में 'निहिलिस्ट पार्टी' और 'लाल सेना' जैसे अन्य दल भी उभरे। इस प्रकार भारत के सशस्त्र क्रन्तिकारी 15 अगस्त 1947 तक सक्रिय रहे और आज़ादी के बाद अधिकतर कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए क्योंकि समाजवादी भारत बनाने की असली लड़ाई यही पार्टी लड़ रही थी ।

भगत की विरासत

भगत सिंह के सबसे करीबी साथियों में से एक, शिव वर्मा, 1946 में जेल से छूटते ही कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हो गए। अपनी आखिरी मुलाक़ात में भगत सिंह ने वर्मा से कहा था,

“प्रभात! (वर्मा का पार्टी में नाम) मैं तो जल्द ही सभी मुसीबतों से छुटकारा पा जाऊंगा लेकिन तुम लोगों को अभी लम्बी लड़ाई लड़नी है... तुम्हें दुनिया को दिखाना है कि भारतीय क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी दे सकते हैं... इस लड़ाई में तुम्हे रुकना नहीं है, टूटना नहीं है और कभी हार नहीं माननी है...”

वर्मा ने कभी हार नहीं मानी। आजाद भारत में भी वे कई बार जेल गए और आगे चलकर माकपा के संस्थापकों में से एक हुए। अजय घोष तो भाकपा के महासचिव तक चुने गए। बटुकेश्वर दत्त, यशपाल, विजय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, दुर्गादेवी वोहरा, सुशीला मोहन कम्युनिस्ट पार्टी में न होते हुए भी अलग-अलग तरीकों से मजदूर-किसान आंदोलनों और प्रगितिशील राजनीति में सक्रिय रहे। भगत सिंह के वरिष्ठ साथी डॉ. गया प्रसाद पार्टी के टिकट पर कानपुर से विधायक चुने गए। किशोरीलाल पंजाब के बड़े किसान नेता हुए और गोवा के मुक्ति संघर्ष में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। धन्वन्तरी जम्मू-कश्मीर में बड़े सक्रिय रहे और यहाँ के भूमि-सुधारो को लागू करवाने में उन्होंने निर्णायक रोल अदा किया।

इस प्रकार भगत सिंह की शहादत के बाद भी उनके साथी समाजवाद और आज़ादी के झंडे को उसी जोशो-खरोश के साथ उठाए रहे। उनके समकालीन अन्य क्रांतिकारी भी जैसे जयबहादुर सिंह, पब्बर राम, मन्मथनाथ गुप्त आदि भी जनता के आंदोलनों और वामपंथी राजनीति से जुड़े रहे। आज भगत सिंह के जन्मदिवस पर उनके इन सभी साथियों को याद करना भी ज़रूरी है। तभी हम 1920-1930 के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास और आज के समय में उसकी प्रासंगिकता को सही तरीके से समझ पायेंगे।

(लेखक क्रांतिकारी आंदोलन पर शोध कर रहे हैं।)

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