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FRA: वनाधिकार के लिए लड़ाई तेज करेंगे सोनभद्र और लखीमपुर के निर्भर समुदाय

सोनभद्र और लखीमपुर के साथियों ने दिखाई संघर्ष की नई राह, प्रशासनिक और राजनीतिक जन-दबाव से ही हासिल किया जा सकेगा वनाधिकार
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"लोकतंत्र में जन दबाव यानी संगठित संघर्ष का महत्व सर्वविदित है। पुरानी कहावत भी है कि "दबाव से ही रस निकलता है। संगठित जन दबावों के आगे ही सरकारें झुका करती है और लोगों (जनता) को उनके संवैधानिक हक हकूक मिलने का काम होता है। ताजा मामला वनाधिकार कानून के तहत आदिवासियों और वनों पर निर्भरशील समुदायों के अधिकारों यानी वनाधिकार का है जिसे लेकर सोनभद्र और लखीमपुर खीरी के साथियों ने संगठित तरीके से राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव बनाकर, अधिकार पाने को संघर्ष की एक नई राह दिखाई है।"

सोनभद्र की बात करें तो यहां करीब 32 गांवों के आदिवासियों ने वनाधिकार कानून-2006 के तहत सामुदायिक अधिकारों के लिए 2018 में दावे फार्म भरे थे जो आज भी लंबित पड़े हैं। अधिकार मिलना तो दूर, कोई सुनवाई तक नहीं की गई है। आदिवासियों ने पारंपरिक शैली में नृत्य और गीत गाते हुए जुलूस निकाल कर डीएम सोनभद्र को अपने दावे फार्म सौंपे थे। उन्हें उपखंडीय समिति को भेजा जाना था जो नहीं भेजे गए है। जिला स्तरीय समिति ने इन दावों को तवज्जो ही नहीं दी। नतीजा चार साल से ये (सामुदायिक) दावे डीएम दफ्तर में ही धूल फांक रहे हैं। ग्रामीणों ने कई बार गुहार भी लगाई मगर सब व्यर्थ, कुछ नहीं हुआ। लेकिन अब जन दबाव काम करता दिख रहा है।

वनाधिकार कानून के तहत सभी 32 ग्राम सभाओं के दावे एसडीएम की अध्यक्षता वाली उपखंडीय समिति को भेज दिए जाने चाहिए थे। वो इनका परीक्षण करती। इसके बाद डीएम की अध्यक्षता वाली जिला स्तरीय समिति को अधिकारों को मान्यता देनी थी। यह प्रक्रिया की गई होती तो अब तक वन भूमि पर लोगों के हक हकूक को मान्यता मिलने का काम कभी का हो गया होता। लेकिन इसे दुर्भाग्य कहें या विडंबना, नौकरशाही की निष्क्रियता वाली कार्यप्रणाली के चलते चार साल में चीजें जस की तस ठहरी पड़ी हैं। अब भले उत्तर प्रदेश की योगी सरकार लाख विकास-विकास चिल्लाती रहे और कानून के राज तथा तेज फैसले लेने वाली सरकार होने का राग अलापती रहे लेकिन हकीकत यह है कि राज्य सरकार ने भी इस विशेष (वनाधिकार) कानून के क्रियान्वयन को समयबद्ध तरीके से उचित कदम उठाने की जहमत नहीं उठाई।

यही नहीं, उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून पर अमल का जिम्मा जिस समाज कल्याण विभाग पर है, उसके मंत्री संजय कोल न सिर्फ खुद आदिवासी समाज से आते है बल्कि सोनभद्र के ही रहने वाले हैं। वर्तमान में ओबरा विधानसभा से विधायक हैं। वहीं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद भी कई सालों से दिवाली का त्योहार आदिवासियों के साथ उनके बीच टोंगिया गावों में मनाते रहे हैं। इतने पर भी लोगों को, वनाधिकार कानून के तहत उनके व्यक्तिगत अधिकार तक भी नहीं मिल सके है तो सरकार के विकास और कामकाज के दावों का सच जाना समझा जा सकता हैं। इसके साथ ही महत्वपूर्ण यह भी है कि एक लाख से ज्यादा व्यक्तिगत दावे भी करीब 2009 से लंबित पड़े हैं।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन मामले को प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर उठाती आ रही हैं। 2019 के चुनाव में सपा मुखिया अखिलेश यादव ने भी सोनभद्र दौरे के दौरान अपनी एक जनसभा में सामुदायिक अधिकारों को प्राथमिकता देने का ऐलान किया था। अब राज्य सरकार ने पिछले महीने व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर कुछ सक्रियता दिखाई है। मुख्यमंत्री के सोनभद्र आने और व्यक्तिगत अधिकारों के प्रमाण पत्र बांटने की सूचना पर प्रशासनिक अधिकारी भी कुछ हरकत में दिखे है। लेकिन इस सब से इतर लोगों ने ग्राम सभा के अधिकार और वनाधिकार कानून के तहत सामुदायिक अधिकारों को देने की मांग उठाई है जिसके दावे फार्म 2018 से ही डीएम कार्यालय में पड़े धूल फांक रहे हैं। ग्राम सभा के पदाधिकारी इसे लेकर मंत्री संजय कोल से भी मिले। 

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की अध्यक्ष सुकालो गोंड के नेतृत्व में करीब 32 ग्राम सभाओं के वनाधिकार पदाधिकारियों ने समाज कल्याण मंत्री संजय कोल से मिलकर मांग की कि उन सभी गावों ने 2018 में जिलाधिकारी के पास अपने सामुदायिक दावे फार्म जमा किए थे जो आज भी लंबित पड़े है। उनका जल्द से जल्द निपटारा किया जाए। खास है कि संजय कोल को अभी हाल ही में समाज कल्याण मंत्री बनाया गया है। लोगों ने मंत्री को कानून के बारे में समझाते हुए कहा कि हमें व्यक्तिगत पट्टा नही चाहिए। हमें हमारी दखल की जमीन पर सामुदायिक अधिकार की मान्यता चाहिए। इसके साथ ही सभी ने 17 अक्टूबर को दुद्धी एसडीएम से मिल कर आगे की कार्यवाही में तेजी लाने की मांग की। सुकालो के अनुसार, एसडीएम ने शीघ्र सकारात्मक कार्यवाही का भरोसा प्रतिनिधिमंडल को दिया है।

सुकालो ने बताया कि एसडीएम के सामने उन्होंने पूरा मामला रखा है और जल्द से जल्द दावों के निस्तारण की मांग की है। कहा कि हमारा जितना दखल है उस पर हमारे सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाए। बताया कि दावे फार्मों का निस्तारण वनाधिकार कानून के तहत किया जाना है। सुकालो के अनुसार एसडीएम ने सकारात्मक कार्यवाही का भरोसा दिया है। कहा सभी दावों का संबंधित तीनों तहसील दुद्धी, रॉबर्ट्सगंज और ओबरा के एसडीएम स्तर से निस्तारण होना है।

समाज कल्याण मंत्री संजय कोल के सामने भी पूरा मामला रखा गया है और समाज हित में आगे बढ़कर लोगों को उनके सामुदायिक अधिकार दिलाने को आवश्यक कदम उठाने की मांग की है। सोनभद्र से समाजवादी पार्टी के पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड के खुलकर आदिवासियों के संघर्ष में साथ खड़े होने से राजनीति भी गरम हो उठी हैं। एसडीएम के यहां भी पूर्व विधायक साथ रहे। सुकालो के अनुसार, हम अपने अधिकार लेकर रहेंगे। इसके लिए राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों स्तर पर मजबूती से लड़ाई लड़ी जाएगी।

उधर, दुधवा नेशनल पार्क लखीमपुर खीरी में 18 गावों के सामुदायिक अधिकारों की मान्यता का मामला 2013 से लंबित है। ज्ञात रहे दुधवा नेशनल पार्क के अंदर सूरमा गांव जिसके, कि हाईकोर्ट से विस्थापन के आदेश तक हो गए थे, उस गांव को तत्कालीन प्रदेश सरकार ने 2011 में इस विशेष वनाधिकार कानून के तहत ही मान्यता दी थी। वर्तमान में भी इन सभी गांव के दावे एसडीएम की अध्यक्षता वाली उपखंडीय समिति से पास हो गए थे। लेकिन डीएम की अध्यक्षता वाली जिला स्तरीय समिति के द्वारा, वन विभाग के कहने पर गैर कानूनी तरीके से खारिज कर दिए गए। 

वनाधिकार कानून के तहत जिला स्तरीय समिति को दावे खारिज करने का अधिकार नहीं है। वो रिव्यू के लिए उपखंडीय समिति या ग्राम सभा को वापस कर सकती है। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते है कि वनाधिकार कानून एक विशेष कानून है जिसमें सारे अधिकार ग्राम सभा में निहित है। चौधरी के अनुसार, चूंकि कानून में वन भूमि को राजस्व का दर्जा दिया जाना है और जिला प्रशासन को उसे मान्यता देना होता  हैं। इसलिए अगर दावे प्रक्रिया में कोई कमी है तो जिला प्रशासन उन्हें ग्राम सभा को वापस कर सकता है। लेकिन खारिज नहीं कर सकता। इस कानून में खारिज करने का कोई प्रावधान ही नहीं है। कानून वन भूमि पर अधिकार को मान्यता देने का है, खारिज करने का नहीं।

इसे लेकर पलिया तहसील की इन 18 ग्राम सभाओं ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य निगरानी समिति को नोटिस देते हुए प्रतिवाद किया। तब जाकर उन्होंने सभी दावों को जिला स्तरीय समिति के माध्यम से वापस उपखंडीय समिति को भेजा है। पिछले दिनों सूरमा आदि गांवों के आदिवासियों ने इसी मुद्दे पर सांस्कृतिक तौर तरीकों से पारंपरिक वेशभूषा में यूनियन के बैनर तले पलिया तहसील तक पैदल मार्च किया था और सभी गावों के सामुदायिक दावों के निस्तारण में तेजी लाए जाने की मांग की थी।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी, पलिया लखीमपुर और सोनभद्र जिले में सामुदायिक अधिकारों को पाने के लिए साथियों की प्रशासनिक और राजनीतिक जन दबाव की रणनीति से खासे उत्साहित है। उनका कहना है कि लोकतंत्र में संवैधानिक हक हकूक जन दबाव से ही मिलते हैं। पलिया के बाद सोनभद्र में साथियों के संघर्ष को उत्साहजनक बताते हुए चौधरी कहते हैं कि सुकालो जी के नेतृत्व में सोनभद्र के साथियों ने प्रभावी कदम उठाया हैं। जब तक सरकार के उपर राजनीतिक जन दबाव नहीं पड़ेगा तब तक अधिकार नहीं मिल सकते। इसके लिए सोनभद्र के जुझारू साथियों का क्रांतिकारी अभिनन्दन। दुधवा क्षेत्र में भी काफी अच्छा प्रयास चल रहा है। वहां भी साथी काफी हद तक प्रशासनिक और राजनीतिक दबाव बनाने में कामयाब हो रहे हैं। 

चौधरी के अनुसार, संगठित तरीके से जो वार्ता शुरू की गई है ये बहुत ही सराहनीय प्रयास है। इस प्रभावी कदम के जरिये सोनभद्र के साथियों ने राजनीतिक और प्रशासनिक दायरे में अपने इरादे जता दिए है ये बहुत जरूरी था। उनको (प्रशासन को) पता चल गया होगा कि अब टालमटोल से काम नहीं चलेगा। निश्चित तौर पर इसका असर बहुत दूर तक जाएगा। अब कोई रोक टोक नहीं चलेगा। सभी क्षेत्रों के लिए यह संघर्ष एक मिसाल बनेगा और राह दिखाने का काम करेगा। 

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा कहती हैं कि लखीमपुर और सोनभद्र दोनों जिलों की मिसाल के आधार पर एक मजबूत कार्यनीति बनाए जाने की जरूरत है जो भविष्य के लिए महत्वपूर्ण होगा। सभी साथियों को इसके लिए बहुत बहुत बधाई। इंकलाब ज़िन्दाबाद। कहा कि इस मजबूती और राजनीतिक समझ को हमें, हमारे बाकी आदिवासी और वन आश्रित समुदायों और देश भर के तमाम संघर्षशील साथियों के बीच लेकर जाना होगा। संविधान सही मायने में इसी प्रकार से लागू होगा।

साभार : सबरंग 

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