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क्या फ़ेशियल रेकग्निशन तकनीक फ़ेल हो सकती है?

विशेषज्ञों का कहना है कि बायोमेट्रिक डाटा, जो व्यक्तिगत और संवेदनशील डाटा है, इस तकनीक का इस्तेमाल करने से पहले किसी क़ानून या नीति का होना ज़रूरी है, क्योंकि यह अभिव्यक्ति, सभा और आंदोलन करने की आज़ादी पर रोक लगा सकती है।
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Image Courtesy : The Hindu

नई दिल्ली : केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 11 मार्च को संसद को बताया कि सुरक्षा एजेंसियों ने 24-26 फ़रवरी तक राष्ट्रीय राजधानी के पूर्वोत्तर क्षेत्र में सांप्रदायिक अशांति पैदा करने वाले दंगाइयों की पहचान करने के लिए फ़ेशियल रिकग्निशन (चेहरे की पहचान) तकनीक का इस्तेमाल किया है। इस हिंसा में 53 लोगों ने अपनी जान गंवा दी और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। करोड़ों की संपत्ति या तो राख हो गई या इतनी क्षतिग्रस्त हो गई की उसकी मरम्मत भी नहीं की जा सकती है।

शाह ने दिल्ली में हुई हिंसा पर दशकों की सबसे ख़राब संसदीय बहस के दौरान लोकसभा में कहा, “हमने दंगाइयों की पहचान करने के लिए चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है। हमने इसमें मतदाता का आईडी डाटा, ड्राइविंग लाइसेंस और अन्य सभी सरकारी डाटा फीड किए हैं। इस सॉफ्टवेयर के माध्यम से पहले ही 1,100 से अधिक लोगों की पहचान की जा चुकी है।"

गृह मंत्री ने पहली बार माना और विस्तार से बताया, कि “उत्तर प्रदेश से आए 300 से अधिक लोग यहां दंगे का कारण बने। हमने यूपी से जो फेशियल डेटा मंगाया है, उससे साफ़ होता है कि यह गहरी साज़िश थी।”

एआईएमआईएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन) के प्रमुख नेता असदुद्दीन ओवैसी की अपील कि निर्दोष लोगों को इस सॉफ्टवेयर के माध्यम से नहीं घसीटा जाना चाहिए, गृहमंत्री ने कहा कि: "ओवैसी साहब, यह सॉफ्टवेयर है। यह धर्म नहीं देखता है, यह कपड़े भी नहीं देखता। यह केवल चेहरा देखता है और चेहरे के माध्यम से व्यक्ति पकड़ा जाता है।”

हालांकि शाह ने सॉफ्टवेयर के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी नहीं दी (कि यह बायोमेट्रिक्स या अन्य डाटा पर आधारित है आदि) या कौन सी क़ानून की एजेंसी इसे चला रही है।

इस बीच, आलोचकों और विशेषज्ञों ने आम आदमी की निजता का सवाल और उससे जुड़ी चिंताओं को उठाया और सरकार से ऐसी तकनीक को लागू करने से पहले एक नीति या क़ानून बनाने का आग्रह किया है। उन्होंने कहा कि क़ानून या नीति मज़बूत होनी चाहिए और गोपनीयता के प्रभाव का आकलन होना चाहिए क्योंकि प्रौद्योगिकी समस्याओं से भरी होती है और वह किसी भी एक जांच में संदिग्ध नागरिकों के रूप में वैध नागरिकों को गलत तरीके से पहचानने करने की क्षमता रखती है।

स्वचालित फेशियल रिकॉग्निशन (एएफआर) तकनीक कैमरों का उपयोग कर चेहरों की फोटो लेटी है और फीड किए गए देता के आधार पर संदिग्ध लोगो की पहचान के लिए दोबारा जांच करती है।

इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन के अनुसार, बिना अदालत की अनुमति के किसी भी क़ानून की अनुपस्थिति में प्रशासन ‘आधार’ के डेटा के जरिए किसी भी व्यक्ति के बायोमेट्रिक डेटा तक पहुंच सकती है और उसका उपयोग कर सकती है - जो केएस पुत्तास्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 2019 के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है। 

अपराधियों की पहचान करने के लिए तकनीक के परिष्कार पर सवाल उठाते हुए, समूह ने कहा कि सिस्टम की सटीकता के आंकड़े खतरनाक रूप से कम हैं। अगस्त 2019 के उत्तरार्ध में, दिल्ली पुलिस ने लापता बच्चों को खोजने के मामले में सिस्टम द्वारा लिंगों के बीच अंतर करने में विफल हो गया था।

देवदत्त मुखोपाध्याय, डिजिटल अधिकार संगठन के एसोसिएट वकील, ने कहा कि भारत में चेहरे की पहचान तकनीक में विभिन्न समस्याएं मौजूद हैं।

उन्होंने कहा कि "चेहरे की पहचान प्रणाली की सटीकता इस बात पर निर्भर करती है कि विक्रेता कौन है, किस तरह के प्रशिक्षण डेटा का उपयोग किया गया था, सिस्टम के तकनीकी विनिर्देश क्या हैं आदि। दिल्ली पुलिस ने मूल रूप से लापता बच्चों की पहचान करने के लिए उनके चेहरे की पहचान प्रणाली का अधिग्रहण किया, लेकिन इस कार्य में सिस्टम अचानक विफल हो गया। जैसा कि दिल्ली पुलिस और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष स्वीकार किया था, 2018 में इस प्रणाली की सटीकता दर 2 प्रतिशत थी जो 2019 में घटकर 1 प्रतिशत रह गई और यह लड़कों और लड़कियों के बीच अंतर भी नहीं कर पाई थी।”

मुखोपाध्याय ने आगे कहा कि चेहरे की पहचान की तकनीक अभी विकसित हो रही है और इन प्रणालियों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से पहले इनकी सटीकता और भेदभावपूर्ण पूर्वाग्रहों के बारे में चिंताओं को संबोधित किया जाना चाहिए।

विदेशी न्यायालयों में स्थिति का उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा कि "अमेरिकी संदर्भ में, प्रयोगसिद्ध साक्ष्य का एक महत्वपूर्ण निकाय है जो बताता है कि वहाँ चेहरों को पहचानने की तकनीक अफ्रीकी-अमेरिकियों और महिलाओं को गलत पहचानने की अधिक संभावना रखती है। इन पूर्वाग्रहों के कारण, कई राज्यों ने चेहरे की पहचान तकनीक के उपयोग पर रोक लगा दी है या उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया है।”

दूसरी बड़ी चिंता, भारत में चेहरे की पहचान तकनीक के इस्तेमाल को नियंत्रित करने में किसी भी क़ानूनी ढांचे की अनुपस्थिति का होना है।

“हमारे देश में न केवल चेहरे की पहचान तकनीक के इस्तेमाल को अधिकृत करने वाला कोई  विशिष्ट क़ानून है, बल्कि हमारे पास अभी तक सामान्य डाटा सुरक्षा क़ानून भी नहीं है। चेहरे की विशेषताएं एक प्रकार का बायोमेट्रिक डेटा है, जिसे संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा के रूप में वर्गीकृत किया गया है और बिना सहमति के उसके उपयोग की जरुतरत और अनुपात के लिए संवैधानिक सिद्धांतों का कड़ाई से पालन होना चाहिए।”

उन्होंने बताया कि, चेहरे की पहचान करने वाली प्रणाली मौजूदा निगरानी के बुनियादी ढांचे को नागरिकों की वास्तविक समय की निगरानी के लिए उपयोग करने की अनुमति देगा। “देश भर में सीसीटीवी कैमरों की बड़े पैमाने पर मौजूदगी है और वह भी बिना किसी क़ानूनी आधार या प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के हो रहा है। सीसीटीवी कैमरा और चेहरे की पहचान तकनीक के साथ, सरकार के लिए किसी भी समय किसी भी नागरिक को ट्रैक करना संभव होगा। इसलिए, भले ही चेहरे की पहचान प्रणाली 100 प्रतिशत सटीक हो, जो कि वह निश्चित रूप से सटीक नहीं हैं, फिर भी वे बड़े पैमाने पर निगरानी की सुविधा का इस्तेमाल कर सकते हैं और यह सब अभिव्यक्ति, सभा और नागरिकों की आवाजाही की स्वतंत्रता पर गलत प्रभाव का काम करेगा।

एक पूर्व शीर्ष पुलिस अधिकारी, जो शहर की पुलिस में रहे हैं, ने बिना स्पष्ट दिशानिर्देशों के चेहरे की पहचान की तकनीक का उपयोग करने के ख़तरों पर चिंता जताई है। “चेहरे की छवि आपकी सबसे संवेदनशील बायोमेट्रिक जानकारी है। यह किसी की पहचान है। एक बार इस पहचान के चोरी हो जाने पर, यह व्यक्ति के जीवन को एक बुरे सपने में बदल सकता है।” उन्होंने नाम न छपने की शर्त पर उक्त बातें कहीं।

“स्वतंत्रता गोपनीयता की गारंटी देती है। आपके पास गोपनीयता की ठोस नींव के बिना मुक्त लोकतांत्रिक समाज नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि क़ानून या न्यायिक प्राधिकरण के अभाव में इसका उल्लंघन कैसे हो सकता है?

पूर्व शीर्ष पुलिस अधिकारी ने यह भी कहा कि "क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों ने चेहरे की पहचान सॉफ्टवेयर के उपयोग को गोपनीयता की चिंताओं के कारण दुनिया भर के कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया है," यह कहते हुए कि "इसमें पाए दोष के कारण इसमें असंतोष की आवाज को रोकने की क्षमता है।"

हालांकि बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक और शिक्षाविद अभयानंद ने भी महसूस किया कि प्रौद्योगिकी पर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है और इसके दुरुपयोग होने की क्षमता है, फिर भी उन्होंने कहा कि इससे जांचकर्ताओं को काफी हद तक मदद मिली है।

उन्होंने आगे कहा कि “हमने बिहार में 2005 के विधानसभा चुनावों में इस तकनीक का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए किया था कि कोई भी मतदाता कई बार वोट न डाले। सबसे पहले, हमें विभिन्न बूथों से वीडियो रिकॉर्डिंग मिली, फिर हमने गतिविधि में लिप्त लोगों की पहचान करने के लिए सॉफ्टवेयर को लगाया। फेस रिकग्निशन सिस्टम बड़े डेटा एनालिटिक्स पर आधारित है। आप विशाल डेटा बेस से निष्कर्ष निकालते हैं। यह झूठी सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणाम देता है। इसकी सटीकता यह निर्धारित करती है कि सॉफ्टवेयर कितना अच्छा है!” 

आगे उन्होंने स्वीकार करते हुए कहा कि प्रौद्योगिकी का उपयोग "गलत तरीके से किया जाता है और हाँ इसमें गोपनीयता की समस्या भी मौजूद है", उन्होंने कहा: "इस तकनीक का उपयोग करने का क़ानून अभी तक विकसित नहीं हुआ है। लेकिन इसके इस्तेमाल से कोई समस्या नहीं है। यह जांच के दायरे को कम करता है; हालाँकि, इसके आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती है। हम अभी सटीकता के उस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं। यह केवल एक संकेत देता है। उदाहरण के लिए, हमें एक एक्स मिला है, यह जांच को एक दिशा देगा और जांच को सही दिशा में ले जाएगा।”

लेकिन गृह मंत्री का मानना इस बात की पुष्टि करता है कि भारत में एजेंसियां सक्रिय रूप से इसका इस्तेमाल कर रही हैं और वोटर आईडी कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस की छवियों के साथ इसे फीड कर रही हैं ताकि अभी भी छवियों और संभवतः सीसीटीवी फुटेज में चेहरे की पहचान की जा सके।

दिल्ली, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में पुलिस नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआईसी) के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की निगरानी के लिए विभिन्न तरीकों से ड्रोन 'और सीसीटीवी फुटेज का उपयोग किया जा रहा है।

यही कारण है कि कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने इसकी आलोचना कराते हुए काहा कि किसी भी प्रगतिशील लोकतंत्र में नागरिकों के चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर को बिना किसी सुरक्षा या उस पर क़ानून बनाए बिना इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।

'सीपीआर डायलॉग्स 2020 के दो दिन के कॉन्क्लेव में पॉलिसी पर्सपेक्टिव्स: 21 वीं सदी का भारत, शीर्षक पर बोलते हुए थरूर ने कहा कि "ऐसा पता चला है कि दिल्ली पुलिस सरकार विरोधी प्रदर्शनों को फिल्माती है और फिर एएफआरएस में उसके फुटेज को लोड करती है।" इस कार्यक्रम को सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने आयोजित किया था।

उन्होंने कहा कि ''संभावित विपक्षी प्रदर्शनकारी'' की पहचान करना लोकतंत्र के विचार से मेल नहीं खाता है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Using Facial Recognition Tech May Falsely Identify Lawful Citizens as Suspects, Say Experts

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