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किसान आंदोलन: तानाशाही और तबाही के 7 साल बनाम प्रतिरोध और उम्मीद के 6 महीने
देश के बदलते एजेंडा और जनता की नयी उभरती एकता में संघ-भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति की मौत के बीज छिपे हुए हैं। आइए किसान आंदोलन के अब तक के ऐतिहासिक अवदान के प्रमुख बिंदुओं पर गौर करते हैं।
लाल बहादुर सिंह
25 May 2021
किसान आंदोलन: तानाशाही और तबाही के 7 साल बनाम प्रतिरोध और उम्मीद के 6 महीने
Image courtesy : The Indian Express

26 मई को मोदी राज के 7 साल पूरे हो रहे हैं और उसी दिन राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन के 6 महीने पूरे हो रहे हैं।

इस दिन संयुक्त किसान मोर्चा ने मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध दिवस मनाने और मोदी सरकार के पुतले जलाने का आह्वान किया है। देश के 12 प्रमुख विपक्षी दलों ने किसान-आंदोलन के इस आह्वान का समर्थन किया है और मोदी सरकार से अपना अड़ियल रवैया छोड़कर किसानों की मांगें मानने की अपील की है। इसके अतिरिक्त तमाम जनसंगठनों और शख्सियतों ने भी अपना समर्थन घोषित किया है।

21 मई को पत्र लिखकर किसानों ने प्रधानमंत्री को अपनी पीड़ा और संकल्प से अवगत कराया। किसान नेताओं ने उन्हें याद दिलाया कि पिछले 6 महीने से जाड़ा, गर्मी, बारिश, आंधी, तूफान सब झेलते हुए देश के अन्नदाता उनके द्वार पर बैठे न्याय की गुहार लगा रहे हैं। 470 किसान शहीद हो चुके हैं, लेकिन, सरकार 22 जनवरी के बाद से, अर्थात पिछले 4 महीने से उनसे वार्ता तक नहीं कर रही है। 

किसान नेताओं ने कहा है कि हम महामारी के जानलेवा खतरे को अच्छी तरह समझते हैं और न तो किसानों के, न ही किसी और के जीवन को अनावश्यक खतरे में डालना चाहते, पर, यह सरकार है जो कोविड के भयावह दौर में भी किसानों को सड़क पर बैठने के लिए मजबूर कर  उनके जीवन को जोखिम में डाल रही है। हम यह साफ करना चाहते हैं कि हमारे पास पीछे हटने का विकल्प नहीं है क्योंकि हमारा अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है, ये कानून हमारे तथा हमारी आने वाली पीढियों के लिए जीवन मरण का सवाल हैं।

प्रधानमंत्री से तत्काल हस्तक्षेप की अपील करते हुए उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर वार्ता पुनः शुरू नहीं होती और काले कानूनों की वापसी तथा MSP की कानूनी गारण्टी की उनकी मांगें नहीं मानी जातीं, तो 26 मई को पूरे देश में काला दिवस मनाया जाएगा और इसके बाद आंदोलन को और तेज किया जाएगा।

प्रधानमंत्री ने हमेशा की तरह किसानों के पत्र का कोई जवाब नहीं दिया, पर उनके कृषि मंत्री ने पुराने रुख पर सरकार के अड़े रहने के संकेत दिए।

महामारी की दो-दो लहरों के दौरान जान की बाजी लगाकर अपनी खेती और आजीविका बचाने के लिए लड़ते देश के अन्नदाता के प्रति मोदी जी की यह चरम संवेदनहीनता किसानों की सामूहिक स्मृति  में दर्ज होती जा रही है और वे माकूल समय पर निश्चय ही इसका जवाब देंगे।

जहाँ तक 3 कानूनों की बात है, सच तो यह है कि वे कानून अब मर चुके हैं, उनके अब से डेढ़ साल होल्ड पर रखने के सरकार के प्रस्ताव को ही मान लिया जाय तो 2023 में जब 2024 के चुनाव सामने होंगे, ऐसे अलोकप्रिय कानूनों को लागू करने के बारे में कोई सरकार सोच भी नहीं सकती। दरअसल, कारपोरेट घरानों और विदेशी वित्तीय धनकुबेरों के प्रति अपनी अविचल स्वामिभक्ति के सुबूत तथा नवउदारवादी सुधारों के प्रति अपनी आस्था के दस्तावेज के बतौर मोदी जी इन कानूनों को कागज पर जिंदा रखना चाहते है। दूसरे, तीन कानूनों का राग छेड़कर मोदी ने जो सेल्फ-गोल कर लिया अर्थात MSP की कानूनी गारण्टी की मांग को आंदोलन की प्रमुख मांग बना दिया, उसके चक्रव्यूह में अब वह फंस गई है।

आंदोलन पूरी गरिमा और ओज के साथ  जारी है और निरंतर विकासमान है, 10 दिन के अंदर दूसरी बार हिसार में खट्टर सरकार की सारी किलेबंदी को ध्वस्त करते हुए 24 मई को हजारों किसानों ने जुझारू शक्तिप्रदर्शन करके अपने फौलादी इरादों का इजहार कर दिया कि वे  सरकार से दो दो हाथ करने को तैयार हैं। खट्टर सरकार को घुटने टेकने पड़े, किसानों पर लगे सभी फर्जी मुकदमे वापस हुए, टूटी गाड़ियों के मुआवजे की बात सरकार ने मानी और दिल का दौरा पड़ने से जिस किसान की मौत हुई थी, उनके परिजन को नौकरी देने की मांग भी माननी पड़ी।

किसानों के नए जत्थे लगातार बॉर्डरों पर पंहुँच रहे हैं।

जाहिर है आंदोलन की अनगिनत नई संभावनाएं अभी भविष्य के गर्भ में हैं, पर 6 महीने से uninterrupted जारी इस आंदोलन की अभी ही जो उपलब्धियां हैं, उनके बल पर  यह न सिर्फ आज़ाद भारत के सबसे लंबे समय तक चलने वाले, सबसे बड़े आंदोलन के रूप में, बल्कि हमारे लोकतन्त्र के इतिहास में सबसे बुनियादी और दूरगामी महत्व के आंदोलन के रूप में दर्ज हो गया है।

आइए, इसके अब तक के ऐतिहासिक अवदान के प्रमुख बिंदुओं पर गौर करते हैं।

1-  किसान आंदोलन ने सरकार के लोकतंत्र विरोधी चेहरे को बेनक़ाब किया

किसान नेताओं ने बेहद पीड़ा के साथ मोदी जी को लिखे अपने पत्र में नोट किया है कि आज देश में अगर लोकतांत्रिक सरकार होती तो  इन कानूनों को कभी का वापस ले चुकी होती  क्योंकि इन्हें जिन किसानों के हित में लागू करने की बात की जा रही थी उन्होंने जब इसे पहले ही खारिज कर दिया, फिर इन्हें लागू करने का क्या औचित्य था?

सचमुच, यह एक अकेला तथ्य ही यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि देश मे आज जो निज़ाम है उसका लोकतंत्र के उसूलों और मूल्यों से कोई लेना देना नहीं है। मौजूदा हुक्मरानों के लिए लोक की आकांक्षाओं, उनके जीवन, उनकी भावनाओं की कोई कीमत नहीं है, वे नागरिक नहीं बस उनके लिये वोट  हैं। मोदी राज के 7 साल पूरे होने पर किसान ही नहीं, पूरा देश आज जान की कीमत चुका कर इस तल्ख हकीकत को समझ पा रहा है कि किस तरह चुनावों की बलिवेदी पर कोविड की दूसरी लहर का सरकार प्रायोजित जनसंहार  ( इलाहाबाद उच्च न्यायालय के शब्दों में ) रचा गया।

मोदी सरकार ने सरासर अलोकतांत्रिक ढंग से किसान प्रतिनिधियों से बिना विचार विमर्श किये, चोर दरवाजे से अध्यादेश द्वारा इन काले कानूनों को थोप दिया और फिर राज्यसभा में लोकतंत्र की हत्या करके बिना मत-विभाजन कराए कानून का जामा पहना दिया। किसानों ने जब विरोध के अपने संवैधानिक अधिकार को बुलंद किया, तो सरकार उन्हें कुचलने के लिए लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को पार कर गयी। पर किसान आंदोलन ने पूरी तरह शांतिपूर्ण रास्ते पर कायम रहते हुए सरकार के क्रूर, लोकतंत्र विरोधी चेहरे को पूरी दुनिया के सामने नंगा कर दिया। मोदी सरकार की पूरी दुनिया में किरकिरी हुई और उसे लोकतांत्रिक जनमत की आलोचना का शिकार होना पड़ा।

2- किसान आंदोलन ने मोदी सरकार के कारपोरेटपरस्त चेहरे को बेनक़ाब किया

किसानों के इतने प्रबल विरोध की भी परवाह न करते हुए बलात इन कानूनों को थोपने की सरकार की  हठधर्मिता ने किसानों की आंख खोल दिया और उन्हें  यह दिखा दिया कि मोदी जी जनता के नहीं अम्बानी-अडानी के हित में काम कर रहे हैं। यह सच उनकी अनुभूति का हिस्सा बन गया कि दरअसल सरकार  देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के हित में उनके गले में फांसी का फंदा डाल रही है और उन्हें मार देने पर आमादा है।

इस रहस्योद्घाटन ने मोदी की जो निःस्वार्थ जननायक की छवि  कारपोरेट पूँजी और मीडिया की सालों की कोशिश से गढ़ी गयी थी, उसे धूल-धूसरित कर दिया है। दरअसल, इस छवि के कारण ही नोटबन्दी जैसी तमाम विनाशकारी नीतियों व कदमों के बावजूद जनता ने उन्हें मौका दिया था, पर अब किसान आंदोलन ने उनके कारपोरेटपरस्त चेहरे को बेनकाब करके राज करते रहने के उनके नैतिक प्राधिकार को मरणांतक चोट पहुंचाई है जिसे final touch देने और रही सही कसर पूरी करने का काम उनके संवेदनहीन, अक्षम नेतृत्व के कारण हो रहा कोविड का जनसंहार कर रहा है। 

जाहिर है, किसान ऐसे जनद्रोही शासन के खिलाफ जान की बाजी लगाकर लड़ने के लिए खड़े हो गए हैं और उनका संकल्प है कि वे आखिर तक इस लड़ाई को लड़ेंगे। सरकार का कोई दमन, कोई तिकड़म, बांटने-खरीदने-बदनाम करने की कोई साजिश उन्हें न परास्त कर पाई है, न कर पायेगी।

3-  किसान आंदोलन ने देश का एजेंडा बदला

वैसे तो CAA-NRC विरोधी आंदोलन ने भी मोदी राज की निरंकुशता को जबरदस्त चुनौती दी था, पर विमर्श हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी से बाहर नहीं निकल पा रहा था। यह श्रेय किसान-आंदोलन को जाएगा कि इसने पूरे देश में 7 साल से सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा गोदी मीडिया की मदद से चलाए जा रहे विभाजनकारी सामाजिक-राजनैतिक विमर्श को पूरी तरह बदल दिया है। जनता के जीवन से जुड़ा सेकुलर डेमोक्रेटिक एजेंडा- खेती-किसानी के घाटे, मजदूरों की छंटनी और मजदूर-विरोधी कानून,  युवाओं के रोजगार-शिक्षा, भर्ती , सार्वजनिक उद्यमों और राष्ट्रीय सम्पदा की बिक्री और अब अंततः जनता की जीवन-रक्षा, स्वास्थ्य का सवाल - आज विमर्श के केंद्र में आ गया है। देश का पूरा नैरेटिव बदल गया है।

4-  किसान-आंदोलन सांप्रदायिक फ़ासीवाद के विरुद्ध धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का निर्णायक मोर्चा बना

किसान-आंदोलन ने विभाजन की राजनीति को पीछे धकेल कर फिर से सांप्रदायिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता को, जिसे पिछले दिनों गम्भीर क्षति पहुंचाई गई थी, मजबूत करने का काम किया है। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से ( जिससे पैदा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने 2014 में मोदी के राज्यारोहण में बड़ी भूमिका निभाई थी) पूरे यूपी, विशेषकर पश्चिम में  जिस सांप्रदायिक विभाजन की खाई को लगातार चौड़ा किया गया था, उसे किसान आंदोलन से पैदा किसान एकता ने पाट दिया है। 

26 जनवरी का घटनाक्रम इसमें मील का पत्थर साबित हुआ। लाल किले पर झंडा प्रकरण के माध्यम से किसान-आंदोलन को कुचलने और किसान नेताओं को राष्ट्रद्रोह से लेकर UAPA के फर्जी मुकदमों के तहत जेलों में सड़ाने की पूरी योजना अंतिम चरण में थी, ठीक उसी अंदाज में जैसे भीमाकोरे गांव हिंसा या शाहीन बाग़ आंदोलन की पृष्ठभूमि में दिल्ली हिंसा के नाम पर हुआ था। 

पर 28 जनवरी को गाजीपुर बॉर्डर पर टिकैत के आंसुओं ने, जो दरअसल विश्वासघात, अपमान और जुल्म के खिलाफ व्यापक किसान समुदाय के आंसुओं की ही केंद्रित अभिव्यक्ति थे, जब बाजी पलट दी, तो न सिर्फ आंदोलन का पुनर्जन्म हुआ बल्कि किसानों की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शिक्षा भी पूरी हुई। उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार का नंगा फासिस्ट चेहरा पहचान लिया, उन्हें यह समझ मे आ गया कि अपने चहेते कारपोरेट घरानों की सेवा में वह उन्हें कुचलने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है, उसे किसी धर्म से कोई मतलब नहीं, सांप्रदायिक विभाजन तो उसकी राज करने की रणनीति है। किसानों की आंखें खुल गईं, किसान एकता ने एक नए जनतांत्रिक आधार पर हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता के एक नए युग का सूत्रपात कर दिया। इतना ही नहीं, किसान आंदोलन ने मोदी के कारपोरेट राज तथा कृषि की सर्वग्रासी तबाही के खिलाफ ग्रामीण समुदाय की सभी जातियों और वर्गों के बीच भी विकास के कारपोरेट रास्ते के विरुद्ध नए  लोकतांत्रिक आधार पर एकता की भावना पैदा किया है। पूरा एजेंडा विभाजनकारी मुद्दों से जन-प्रश्नों की ओर मुड़ गया है।

देश के बदलते एजेंडा और जनता की नयी उभरती एकता में संघ-भाजपा की फासीवादी राजनीति की मौत के बीज छिपे हुए हैं।

5-  किसान आंदोलन ने कृषि के कारपोरेटीकरण की नवउदारवादी मुहिम पर विराम लगाया

किसान आंदोलन को इस बात का श्रेय जाएगा कि इसने कृषि जैसे महत्वपूर्ण सेक्टर में विध्वंसक नवउदारवादी सुधारों को चुनौती देकर और व्यवहारतः रोककर देश की अर्थव्यवस्था और कृषि पर निर्भर विराट आबादी के जीवन को बड़े विनाश से बचा लिया है। गहराते आर्थिक संकट और कोविड कि तबाही के दौर में किसानों का यह प्रतिरोध अर्थव्यवस्था के दूसरे sectors में नवउदारवादी सुधारों के रोल बैक के लिए जनांदोलनों की प्रेरणा बन सकता है और आने वाले दिनों में सरकारों को बड़े नीतिगत बदलाव के लिए बाध्य कर सकता है। आज चौतरफा कृषि विकास का प्रश्न भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन की धुरी है, जो बड़े पैमाने पर कृषि तथा कृषि-आधारित उद्यमों के माध्यम से रोजगार सृजन, घरेलू पूँजी निर्माण और विराट आंतरिक बाजार के सृजन द्वारा आत्मनिर्भर राष्ट्रीय विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

6-  किसान आंदोलन ने सुस्पष्ट भाजपा-विरोधी राजनीतिक दिशा अख़्तियार की

आंदोलन मुद्दा आधारित मांगों पर केंद्रित रहा है, पर कृषि कानून कारपोरेटपरस्त हैं, यह शुरुआत से ही किसानों को समझ में आ गया था।  इसके बावजूद आंदोलन इस अर्थ में अराजनीतिक था कि वह न किसी पार्टी का समर्थक था न विरोधी। लेकिन जैसे जैसे आंदोलन आगे बढ़ा, सरकार और भाजपा दोनों का आंदोलन के खिलाफ शत्रुतापूर्ण रुख खुलकर सामने आता गया। 

किसान-आंदोलन ने  अपने 6 महीने के अनुभव की रोशनी में अराजनीतिक दिशा से आगे बढ़ते हुए अब सुस्पष्ट भाजपा-विरोधी राजनीतिक दिशा अख्तियार कर ली है। क्योंकि यह राजनीतिक दिशा आंदोलन के विरुद्ध भाजपा और उसकी सरकारों के शत्रुतापूर्ण रुख के प्रति एक स्वाभाविक response के बतौर उभरी है, इसलिए किसानों के बीच इसकी स्वीकार्यता है और यह उनकी अनुभूति का हिस्सा बन गया है।

इस तरह अब खुलकर भाजपा को चुनावी राजनीति में मजा चखाने की रणनीति के साथ किसान-आंदोलन अगले चरण में प्रवेश कर गया है।

बंगाल विधानसभा और उत्तर प्रदेश पंचायत चुनावों में इस रणनीति की सफलता से उत्साहित किसानों का अगला राजनीतिक लक्ष्य अगले राउंड के चुनावों में भाजपा को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में पटखनी देना है, पंजाब में तो ऐसे ही उसकी जमानत जब्त होनी है।

इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने " मिशन UP और उत्तराखंड " शुरू करने का फैसला किया है और  BKU (टिकैत) के महासचिव युद्धवीर सिंह को जिम्मेदारी सौंपी गई है, जो पूरे मिशन को अंजाम देने के लिए कार्ययोजना तैयार कर मोर्चा के सामने पेश करेंगे।

24 मई को हिसार में किसानों की विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए  आंदोलन के सबसे वरिष्ठ व सम्मानित नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने कहा कि यह दुनिया का अनोखा ऐसा आंदोलन है जो सीधे कारपोरेट के खिलाफ चल रहा है, इसलिए पूरी दुनिया की निगाह हमारे आंदोलन पर लगी हुई है। बेशक नवउदारवाद के समूचे राजनीतिक अर्थतंत्र ( political economy ) के लिए इस किसान आंदोलन के नतीजे और प्रभाव युगान्तकारी महत्व के साबित हो सकते हैं।

फासीवाद के विरुद्ध जनता के सच्चे लोकतंत्र के लिए भारतीय जनगण के जीवन-मरण संग्राम में किसान आंदोलन उम्मीद की सबसे बड़ी किरण है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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