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विश्लेषण: किसान आंदोलन नए चरण में, सरकार की दिशा साफ़, पर निपटने के तरीक़े पर असमंजस

यह स्पष्ट है कि सरकार आंदोलन के विराट फलक ग्रहण करते जाने से दबाव में ज़रूर है, पर कारपोरेटपरस्त कृषि कानूनों को आगे बढ़ाने के लिए वह कृत संकल्प है।  इसका साफ़ ऐलान उसने आम बजट में कर दिया है।
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कृषि कानूनों और MSP को लेकर सरकार की किसान-विरोधी दिशा और उस पर बढ़ने का इरादा बिल्कुल स्प्ष्ट है, इसकी पुष्टि ताजा बजट की घोषणाओं से भी हुई है। पर आंदोलन से कैसे निपटा जाय, सरकार इसे लेकर भारी पसोपेश में लगती है। गाजीपुर बॉर्डर पर कीलें लगवाना और फिर उसे हटवाना इसी दुविधा का संकेत है।

26 जनवरी के साजिशी कुचक्र से निकलते हुए किसान आंदोलन अब उभार और प्रतिरोध के एक नए चरण में प्रवेश कर गया है,   किसानों ने आज 6 फरवरी को पूरे देश मे हाईवे पर 3 घण्टे के चक्का जाम के जुझारू कार्यक्रम का ऐलान किया है ।

संयुक्त किसान मोर्चा ने घोषणा किया है , "लगातार हो रहे अत्याचारों, सीमाओं पर बैरिकेडिंग में वृद्धि, विरोध स्थलों पर इंटरनेट को निलंबित करने, किसान आंदोलन का समर्थन करने वालों व स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले ट्विटर अकाउंटों को निलंबित करने ,कृषि क्षेत्र के लिए बजट के आवंटन में कमी के विरोध में 6 फरवरी को दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक चक्का जाम किया जायेगा। "

प्रधानमंत्री के एक फोन कॉल की दूरी वाले बहु प्रचारित बयान के जवाब में किसान नेताओं ने साफ ऐलान कर दिया है कि जब तक सरकार की दमनात्मक कार्रवाइयों पर रोक नहीं लगती और वार्ता के लिए अनुकूल, स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल बहाल नहीं होता, तब तक कोई वार्ता नहीं होगी।

28 जनवरी को गाजीपुर बॉर्डर पर नाटकीय घटनाक्रम के बाद राकेश टिकैत अचानक आंदोलन का सबसे लोकप्रिय चेहरा बन कर उभरे हैं। यद्यपि, अतीत के ट्रैक-रेकॉर्ड के कारण, जिसके लिए उन्होंने सार्वजनिक तौर पर आत्मालोचना भी की है, उन्हें अभी आंदोलन का विश्वसनीय चेहरा बनना बाकी है, इसीलिए आज के चक्का जाम से UP और उत्तराखंड को अलग रखने के उनके फैसले को जो सम्भव है कि रणनीतिक कारणों से किया गया हो, कुछ लोग शंका की दृष्टि से देख रहे हैं।

बहरहाल, इस समय किसानों का मनोभाव क्या है, इसे बिल्कुल सटीक स्वर देते हुए राकेश टिकैत ने कहा है कि अब यह गरीब की रोटी के साथ किसान की पगड़ी बचाने की भी लड़ाई है और किसान इससे पीछे नहीं हट सकते।

26 जनवरी के लाल किला प्रकरण से सरकार के हाथ में जो पहल आयी थी, लगता है उसके इर्द-गिर्द आंदोलन से निपटने का मास्टरप्लान तैयार किया गया था। किसान नेताओं को राष्ट्रद्रोह से लेकर UAPA तक की धाराओं में फंसाकर, कथित  गद्दारों के खिलाफ लम्पटों की प्रायोजित दंगाई, हमलावर भीड़ को उतारकर, सैन्य-बलों को लगाकर धरना-स्थलों से किसानों को एक एक कर उजाड़ देने और आंदोलन को कुचल देने की रणनीति पर सरकार आक्रामक ढंग से बढ़ रही थी। परन्तु 28 जनवरी को गाजीपुर बॉर्डर के अप्रत्याशित नाटकीय घटनाक्रम ने सरकार की योजना पर पानी फेर दिया, टिकैत के आंसुओं में व्यक्त किसानों की पीड़ा की बाढ़ में आंदोलन के खिलाफ खड़ी की गई झूठ की दीवार ढह गई और अपने विरुद्ध साजिश पर आमादा सरकार के खिलाफ गुस्से से भरे पश्चिम UP, हरियाणा, पंजाब के किसानों का सैलाब दिल्ली की ओर चल पड़ा।

किसान आंदोलन का नया पुनर्जन्म हो गया। पंजाब के बाद अब हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान में भी यह जनांदोलन बनता जा रहा है। इस पूरे इलाके में किसान/,खाप पंचायतों/ महापंचायतों की बाढ़ आ गयी है।

ऐसा लगता है कि सरकार इस नई स्थिति से कैसे निपटा जाय, इस पर सटीक रिस्पांस अभी तय नहीं कर पा रही है।

एक ओर प्रधानमंत्री वार्ता की बात कर रहे है, दूसरी ओर अभूतपूर्व दमनात्मक कदम उठाये जा रहे हैं, जैसा आज़ाद भारत मे कभी हुआ नहीं। दो महीने से एकदम शांति पूर्ण ढंग से, अहिंसक आंदोलन पर बैठे अपने ही क़िसानों को बैरिकेड की दीवारें, कील-कांटे खड़े करके जिस तरह घेरा जा रहा है, उनकी बिजली काट दी गयी है, लंगर और टॉयलेट तक के लिए पानी के टैंकर नहीं पहुंचने दिए जा रहे, इस सब को देखकर लोगों को ब्रिटिश राज की कहानियाँ याद आने लगी हैं। न सिर्फ किसान नेताओं वरन पत्रकारों और राजनेताओं पर भी राष्ट्रद्रोह और UAPA के तहत मुकदमे कायम हो रहे हैं,  स्वतन्त्र पत्रकारों को जेल में डाला जा रहा है, सोशल मीडिया सीधे निशाने पर है, इंटरनेट बंद है क्योंकि सरकार की निगाह में आंदोलन के पुनर्जीवन के लिए ये ही सबसे बड़े villain हैं ।

यह समर्पण करने, टूटने और भागने के लिए किसानों को मजबूर करने की रणनीति है।

लेकिन इससे किसानों में और गुस्सा बढ़ता जा रहा है।

दमन के बल पर आंदोलन को कुचलने की मुहिम का उल्टा असर हो रहा है। पंजाब की ही तरह अब यह हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी जनांदोलन की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है। तमाम जिलों में हो रही खाप/किसान महापंचायतों ने सरकार की नींद उड़ा दी है।

आंदोलन का राजनीतिक समर्थन बढ़ता जा रहा है और इसकी अब ग्लोबल echo भी सुनी जा सकती है। किसान आंदोलन के समर्थन में उठ रही अंतरराष्ट्रीय आवाजों पर जिस तरह सरकार ने प्रतिक्रिया दी है, वह इसकी भारी घबराहट दिखाता है। चर्चित अश्वेत पॉपस्टार रिहन्ना और 18 वर्षीय पर्यावरण ऑइकन ग्रेटा के बयानों के बाद पहले विदेशमंत्री की सफाई, फिर गृहमंत्री की प्रतिक्रिया और फिर ताबड़तोड़ बॉलीवुड और खेल जगत की नामचीन हस्तियों की ओर से प्रायोजित बयानों का सिलसिला, IT सेल की ओर से # India Together, #IndiaAgainstPrapaganda की बाढ़ आ गयी है। सरकार ने भारत को बदनाम करने की कथित अंतरराष्ट्रीय साजिश की जांच शुरू कर दी है।

साफ है, किसान आंदोलन के देश और विदेशों में बढ़ते समर्थन से घबराई सरकार का प्रचार युद्ध आंदोलन को राष्ट्रद्रोही बताकर deligitimise करने की JNU छात्र-आंदोलन से लेकर शाहीन बाग़ आंदोलन तक कि आजमाई हुई रणनीति से संचालित है - आंदोलन विदेशी शह पर टुकड़े टुकड़े गैंग की साजिश है जो भारत को कमजोर और बदनाम करने के उद्देश्य से किसानों को गुमराह करके चलाया जा रहा है, जिसमें कम्युनिस्टों और विपक्ष की मिलीभगत है।

यह स्पष्ट है कि सरकार आंदोलन के विराट फलक ग्रहण करते जाने से दबाव में जरूर है, पर कारपोरेटपरस्त कृषि कानूनों को आगे बढ़ाने के लिए वह कृत संकल्प है।

देश में चल रहे इतने बड़े किसान आंदोलन के बावजूद सरकार ने हाल ही में पेश बजट में आंदोलन के बुनियादी प्रश्नों से जुड़ी खतरनाक घोषणा करके किसान आंदोलन के प्रति अपने रुख और दिशा का ऐलान कर दिया है।

इस संदर्भ में बजट में सबसे महत्वपूर्ण घोषणा FCI के सम्बंध में है जो आंदोलन के केंद्रीय विषय -MSP पर सरकारी खरीद से सीधे जुड़ी हुई है।

वित्तमंत्री ने घोषणा की है कि अब तक FCI को छोटी बचत योजनाओं के फंड ( National Small Savings Fund ) से जो कर्ज मिलता था, वह अब बंद किया जा रहा है। इसका MSP पर सरकार द्वारा खरीद और PDS द्वारा देश के 80 करोड़ गरीबों को मिलने वाले सस्ते खाद्यान्न वितरण योजना दोनों पर गम्भीर असर होगा। दरअसल, यह बदलाव इन दोनों प्रश्नों- MSP और PDS-पर सरकार की दिशा का सूचक है।

दरअसल FCI किसानों से MSP पर जो खरीद करती है और सस्ते दर पर PDS में गरीबों को देती है, उस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार से उसे सब्सिडी मिलने का प्रावधान है। पर, असलियत में बेहद कम सब्सिडी उसे मिल पाती है, 2019-20 में FCI को 3 लाख 17 हजार करोड़ सब्सिडी की जरूरत थी, पर उसे मात्र 75 हजार करोड़ राशि मिली। बाकी पैसा अब तक सरकार की लघु बचत योजनाओं के फंड (NSSF ) से 8% ब्याज दर पर FCI उधार लेता था। यह कर्ज लगातार बढ़ते हुए 31 मार्च 2020 तक 2 लाख 54 हजार करोड़ हो गया है।

अब जब सरकार ने यह तुलनात्मक रूप से सस्ता कर्ज़ NSSF से FCI को मिलने पर रोक लगा दिया है, तब FCI को बेहद मंहगी दरों पर इसे बाजार से लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

जाहिर है,   भारी कर्ज़ में डूबे FCI द्वारा यह MSP पर खरीद को हतोत्साहित करेगा और अंततः इस समूची MSP-PDS व्यवस्था को अवसान की ओर ले जायेगा ।

सरकार की इस घोषणा ने किसान आंदोलन द्वारा उठाये जाए सवालों और आशंकाओं को बिल्कुल सही साबित कर दिया है और इस झूठ को बेनकाब कर दिया है कि ये कानून किसानों के हित में हैं और वे गुमराह हैं।

इन नीतियों का सबसे भयावह असर हमारी खाद्यसुरक्षा और ग्रामीण आजीविका पर पड़ेगा। अर्थशास्त्री प्रो. बिश्वजीत धर ने अपने पेपर,  "India Compromises its WTO Strategy"  में इस तथ्य को बेहद शिद्दत से नोट किया है कि इन कानूनों के क्रियान्वयन के बाद WTO और द्विपक्षीय FTA की वार्ताओं में अब तक हमारी सरकारों द्वारा अपने कृषि क्षेत्र की रक्षा के लिए जो रणनीति अख्तियार की जा रही थी, अब इन कानूनों के लागू होने के बाद, उस पर पानी फिर जाएगा। हमारी सरकारें अब तक इन वार्ता-चक्रों में बेहद convincing ढंग से यह समझाने में सफल होती थीं कि भारत में 86% छोटी और सीमांत जोतें होने के कारण हमारी कृषि मूलतः खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका पर केंद्रित है, इस आधार पर वे वैश्विक agri-business की असमान प्रतियोगिता ( unfair competition ) से भारतीय कृषि को बचाने हेतु विदेशी अनाज के अंधाधुंध आयात के खिलाफ tariff protection देने तथा अपने किसानों को तरह तरह की सब्सिडी देने की नीति को वे justify कर पाते थे।

अब जबकि कृषि कानूनों का पूरा फोकस निर्यात को बढ़ावा देना और भारत को कृषि उत्पादों का export hub बनाना है, तब वैश्विक कृषि बाजार के अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े खिलाड़ी भारत के खाद्यान्न निर्यात पर WTO शर्तों का सवाल उठाते हुए level-playing फील्ड की मांग करेंगे और भारत को अपना बाजार पूरी तरह विदेशी कृषि उत्पादों के लिए खोलने का दबाव बनाएंगे।

प्रो. धर ने सवाल उठाया है कि क्या भारत का कृषि क्षेत्र अकूत सरकारी सहायता से संचालित US, EU, ऑस्ट्रेलिया से खाद्यान्न के खुले आयात की प्रतियोगिता झेल पायेगा। उन्होंने आशंका जाहिर की है इसके फलस्वरूप भारत की 60% आबादी की आजीविका के आधार भारतीय कृषि क्षेत्र में अभूतपूर्व उथलपुथल मच जाएगी।

बेहतर हो कि सरकार चौतरफा विनाश की इस राह पर बढ़ने और दमन के बल पर आंदोलन को कुचलने से बाज आये।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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