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किसान आंदोलन: भाजपा सरकार की कॉरपोरेट समर्थक नीतियों के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक संघर्ष

डेढ़ लाख से ज़्यादा प्रदर्शनकारी किसानों ने लाठीचार्ज, पानी की तोपों, आंसू गैस और झूठे आरोपों में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां जैसी पुलिस बर्बरता का मुक़ाबला प्रेरक साहस के साथ किया है और कड़ाके की ठंड का सामना करते हुए राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर जमे हुए हैं।
किसान आंदोलन
सिंघु बॉर्डर पर किसानों का विरोध प्रदर्शन

भारत इस समय तीन कृषि क़ानूनों और बिजली (संशोधन) बिल के ख़िलाफ़ किसानों की तरफ़ से लड़े जा रहे एक ऐतिहासिक संघर्ष का गवाह बन रहा है। यह संघर्ष कई मायने में अभूतपूर्व है। जिस समय मैं इस आलेख को लिख रहा हूं, वह आधी रात वक़्त है,और हमारे चारों तरफ़ 1.5 लाख से ज़्यादा लोग हैं, जिनमें बुज़ुर्ग, नौजवान, बच्चे, महिलायें, बीमार, विकलांग हैं, ये सबके सब दिसंबर की हार तोड़ती ठंड में पिछले सात दिनों (आज, 5 दिसंबर को आंदोलन 10वें दिन में प्रवेश कर गया है।) से दिल्ली के बॉर्डर पर खुले आसमान के नीचे जमे हुए हैं।

दिल्ली-रोहतक हाईवे पर टिकरी बॉर्डर पर 12 किमी तक 4,800 से ज़्यादा वाहन हैं और दूसरी तरफ़ एनएच-1 के सिंघु बॉर्डर (दिल्ली-चंडीगढ़ हाईवे) पर तक़रीबन 12,000 वाहन 18 किमी तक फैले हुए है। पूंजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष को लेकर उनका दृढ़ संकल्प अद्भुत है।

इन प्रदर्शनकारी किसानों ने लाठीचार्ज,पानी की तोपों, आंसू गैस और झूठे आरोपों में बड़े पैमाने पर की जा गयी गिरफ़्तारियों जैसी पुलिस बर्बरता का मुक़ाबला प्रेरक साहस के साथ किया है और कड़ाके की ठंड का सामना किया है। यह बात चौंकाने वाली है कि हरियाणा सरकार ने संविधान में निहित संघीय मूल्यों के ख़िलाफ़ खुले तौर पर यह कहते हुए विरोध किया है कि वे पंजाब के किसानों को हरियाणा से गुज़रने की अनुमति नहीं देंगे। हालांकि, किसानों ने पुलिस की तरफ़ से खड़ी की गयी तमाम उन बाधाओं को पार कर लिया, जिनमें राजमार्ग पर खोदे गये खाई भी शामिल थे, जिससे हरियाणा सरकार का किसान विरोधी चरित्र उजागर होता है।

पक्के इरादों वाले किसान

दिल्ली के बाहर के लोग इस विरोध प्रदर्शन और किसानों के साथ हो रहे क्रूर हमले को लेकर चिंतित हैं। इस संघर्ष के बने रहने को लेकर कई आशंकायें और चिंतायें हैं, लेकिन प्रदर्शनकारियों का उत्साह और दृढ़ संकल्प एक अलग कहानी कहती है। वे अभीतक एकमद शांत हैं,और पूरी मानसिक और भौतिक तैयारियों के साथ डटे हुए हैं। उनकी गाड़ियां (जिनमें ज़्यादातर ट्रॉलियां हैं) राशन से भरे हुए हैं और उनके दिलों में साहस है।

तमाम अनिश्चितताओं के बावजूद वे मज़बूती से अड़े हुए हैं, और यह दृढ़ संकल्प उनके संघर्ष के मक़सद को लेकर उनकी प्रतिबद्धता का ही नतीजा है। पूरे जोश के साथ ऊंचे स्वरों में नारे लगातीं,आक्रामक तरीक़े से बैरिकेड तोड़तीं, सभी बाधाओं को पार करतीं उनकी तस्वीरें पूरे भारत के लोगों को आकर्षित और प्रेरित कर रही हैं, लेकिन जिस बात से ज़्यादा प्रेरणा ली जानी चाहिए,वह उनका धैर्य और उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति है।

इस संघर्ष में नौजवान की बड़ी तादाद है और वे पूरी ज़िम्मेदारी के साथ इसमें भागीदारी कर रहे हैं। यह इस आम धारणा के बिल्कुल उलट है कि नौजवानों का ज़मीन से कोई जुड़ाव नहीं हैं और खेती-बाड़ी में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। पंजाब के नौजवान अपनी ज़मीन, खेती-बाड़ी और इसे बचाने को लेकर पूरी तरह से चिंतित हैं। प्रदर्शनकारी सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से से भरे हुए हैं, लेकिन पुलिस की ओर से बार-बार उकसाये जाने के बावजूद उन्होंने हिंसा का सहारा नहीं लिया है।

इस कृषि क़ानून में क्या है ?

जहां दुनिया कोविड-19 महामारी के बीच संघर्ष कर रही है और कई देशों की सरकारें अपनी नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ जाकर सामाजिक कल्याणकारी उपायों को अपना रही हैं,वहीं नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भारत सरकार कॉरपोरेट को फ़ायदा पहुंचाने के लिए अपने नवउदारवादी क़ानूनों को आगे बढ़ाने में कोई कोर क़सर नहीं छोड़ रही है। मज़दूर वर्गों और उनके श्रम के अधिकारों के साथ-साथ पूरे कृषि क्षेत्र पर हमला किया जा रहा है और किसानों को बाज़ार की दया के हवाले करते हुए कॉर्पोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए नये सिरे से पूरे ढांचे को तैयार किया जा रहा है।

सभी संसदीय प्रक्रियाओं और लोकतांत्रिक मूल्यों को धता बताते हुए तीन कृषि बिलों को राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। ये तीन बिल हैं- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020, कृषि (सशक्तीकरण और संरक्षण) मूल्य एक विश्वास और कृषि सेवा क़रार विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020 और ये तीनों बिल अब क़ानून बन चुके हैं।

इन क़ानूनों पर बहुत क़रीब से नज़र डालने पर कृषि समुदाय की चिंतायें और पीड़ा सामने आ जाती हैं। ये अधिनियम किसानों को कृषि-व्यवसायों, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों की दया के हवाले कर देंगे। ये निजी खिलाड़ियों और कृषि-कारोबार पर लगे सभी तरह के विनियमन या नियंत्रणों को ख़त्म करने की मांग करते हैं। ये अधिनियम अपने आप में हमारे देश के संघीय सिद्धांतों के ख़िलाफ़ एक सीधा-सीधा हमला है और राज्य सरकारों के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, क्योंकि कृषि राज्य का एक विषय है।

इस बीच सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी यह दावा करती रही है कि कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अध्यादेश, 2020' ने किसानों को आज़ाद कर दिया है। इसके साथ ही मुख्यधारा के ज़्यादतर मीडिया ने किसी भी क़ीमत पर किसी को भी अपने उत्पाद बेच देने के लिहाज़ से इन क़ानूनों को किसानों की ‘आज़ादी’ क़रार दिया है। लेकिन, हक़ीक़त तो यही है कि किसी भी क़ीमत पर किसी भी किसान से किसी भी उत्पाद को ख़रीदने को लेकर ये क़ानून किसानों को नहीं,बल्कि कॉर्पोरेट को ‘आज़ादी’ देते हैं।

ये नये कृषि क़ानून कृषि उपज मंडी समितियों को हटाना चाहते हैं। एपीएमसी अधिनियमों को 1960 और 1970 के दशक में उन बड़े व्यापारियों और बड़े ख़रीदारों के एकाधिकार की शक्तियों पर एक लगाम लगाने के लिए पेश किया गया था, जो ऐतिहासिक रूप से अपनी आर्थिक शक्ति और अतिरिक्त-आर्थिक साधनों का इस्तेमाल ग़रीब किसानों से कम क़ीमतों पर अनाज खरीदने के लिए किया करते थे। एपीएमसी अधिनियमों ने नीलामी की एक ऐसी प्रणाली शुरू की, जिसे कृषि उपज की ख़रीद में प्रतिस्पर्धा लाने के लिए बनाया गया था।

इसके लागू किये जाने की कई सीमायें हैं, लेकिन व्यापारियों और बड़े ख़रीदारों को किसानों से सीधे अधिसूचित मंडियों के बाहर से उत्पाद ख़रीदने की अनुमति देने का मतलब होगा कि उत्पाद की नीलामी के बिना और बड़े व्यापारियों और ग़रीब किसानों के बीच द्विपक्षीय बातचीत के ज़रिये ख़रीदी जायेगी। ऐसी प्रणाली स्वाभाविक रूप से उन किसानों के हितों के ख़िलाफ़ ही झुकी होगी,जिन्हें लाभकारी मूल्य नहीं मिल सकेगा। इसके अलावा, इस क़ानून में कहीं भी इस बात का ज़िक़्र नहीं है कि क़ीमत एमएसपी से कम नहीं होनी चाहिए। यह एपीएमसी पर दी गई क़ीमत की गारंटी भी नहीं दे रहा है। इसमें एमएसपी का ज़िक़्र तक नहीं है।

'कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य अश्वासन और कृषि सेवा क़रार विधेयक,2020 को लेकर इस बात का दावा किया जाता है कि इससे जहां कॉन्ट्रैक्ट खेती की सुविधा मिलेगी, वहीं प्रायोजक नामक कोई कंपनी या व्यक्ति विशिष्ट फ़सल पर विशेष ख़रीद अधिकारों के बदले में किसान (उत्पादक) को बीज, उर्वरक, क़र्ज़ या इसी तरह की ज़रूरी चीज़ें  मुहैया करायेगा। यह प्रायोजक (ख़रीदार) और निर्माता के बीच का एक अग्रिम अनुबंध है।

इस क़ानून के ज़रिये कृषक समुदाय को बाज़ार के हवाले कर दिया जायेगा और कथित प्रायोजकों का किसानों के उत्पादों पर एकाधिकार हो जायेगा। इस समझौते के नियम और शर्तें मौजूदा नीतियों और किसान समुदाय की दयनीय स्थिति के चलते प्रायोजक का पक्ष लेंगे। इनमें से ज़्यादातर किसान सीमांत किसान हैं,जिन्हें असहाय छोड़ दिया जायेगा।

जैसा कि इस क़ानून के नाम से ही पता चलता है कि यह क़ानून क़ीमत का आश्वासन तो देता है,लेकिन इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई ज़िक़्र तक नहीं है। मूल्य निर्धारण के आधार को लेकर किसी तरह की कोई अस्पष्टता नहीं है। इसे मूल्य परिवर्तन या ऐसे अन्य मानदंडों के नाम पर विभिन्न कारकों के हवाले कर दिया गया है। यह क़ानून उत्पादकों के मुक़ाबले प्रायोजक को उत्पादों की कीमतें तय करने की पूरी आज़ादी देता है।

यह अधिनियम एक विवाद निपटान प्राधिकरण के गठन का भी प्रावधान करता है, जिसमें विवाद निपटान को लेकर एक सब-डिविज़नल मजिस्ट्रेट और तीन अन्य सदस्यों का ही प्रावधान है। इस अधिनियम के मामलों से जुड़े किसी भी मामले की सुनवाई के लिए सिविल कोर्ट को प्रतिबंधित कर दिया गया है। यह एक ऐसी प्रणाली है,जो हमेशा किसान के बजाय प्रायोजक का ही पक्ष लेगी,ख़ास तौर पर छोटे और सीमांत किसानों को असहाय बना दिया जायेगा।

आख़िरकार, यह अधिनियम कृषि-व्यवसायों की मांग और ज़रूरत के हिसाब से किसानों को हमेशा के लिए इस लिहाज़ से ग़ुलाम बना देगा कि किसानों पर ख़ास तौर पर उन्हीं फ़सलों को पैदा करने का दबाव होगा,जो मुनाफ़े के ख़्याल से अधिकतम निर्यात के लिए सबसे उपयुक्त होंगे।

इसके अलावा, आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA) में संशोधन से आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज़ और आलू जैसी वस्तुओं को हटा दिया जायेगा। इससे न सिर्फ़ खाद्य सुरक्षा को ख़तरा होगा, बल्कि इन उपरोक्त क़ानूनों के सिलसिले में व्यापारी और कृषि व्यवसायी, किसानों से सीधे-सीधे असीमित मात्रा में अनाज ख़रीद सकेंगे और आपात स्थितियों में उन उत्पादों की जमाखोरी भी कर सकेंगे। ख़ास तौर पर मौजूदा महामारी जैसे संकट के दौर में आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी को रोकने के लिए यह आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA) एकलौता सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम था। उपभोक्ता अनिवार्य रूप से प्रभावित होंगे और ऐसी स्थिति में हम कृषि-कारोबारियों की ऐसी अनियंत्रित शक्ति के साथ कृत्रिम अभाव, जमाखोरी और कालाबाज़ारी के साथ-साथ मूल्य वृद्धि की कल्पना कर सकते हैं।

दूरगामी निहितार्थ

इन तीन कृषि अधिनियमों से न सिर्फ़ किसान प्रभावित होंगे,बल्कि खेती-बाड़ी में लगे कामगारों के जीवन और आजीविका पर भी काफी हद तक दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। जिस भूमि पुनर्वितरण को लेकर लंबे समय से सवाल किया जा रहा है,वह सवाल भी नये तरीक़े से प्रभावित होगा। बड़े पैमाने पर कृषि परिवारों से आने वाले काश्तकार सीधे-सीधे प्रभावित होंगे। कॉन्ट्रैक्ट खेती को अपनाने के बाद,उनकी पहुंच किसी भी जोत तक नहीं होगी,क्योंकि बड़े कॉरपोरेट्स का खेती पर एकाधिकार होगा और कॉर्पोरेट सीधे-सीधे भू-स्वामियों (उत्पादकों) के साथ अनुबंध करेंगे।

कृषि के निगमीकरण (Corporatisation) के साथ ही खेती का मशीनीकरण हो जायेगा,जिससे कृषि श्रमिकों के लिए कार्य-दिवस कम हो जायेंगे। इसके साथ ही खाद्यान्न के मुक़ाबले निर्यात वाले उपयुक्त नक़दी फ़सलों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जायेगा। सरकारी मार्केट यार्ड (एपीएमसी अधिनियम के कमज़ोर पड़ने के कारण) के अभाव में निजी ख़रीद को बढ़ावा दिये जाने के चलते सरकारी ख़रीद में कमी होगी,राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा होगा और वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली सीधे-सीधे प्रभावित होगी,जो सबके लिए भोजन को सुनिश्चित करने का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

देशव्यापी संघर्ष

इन तीन कृषि अधिनियमों और चार श्रम क़ानूनों का अधिनियमन सही मायने में बड़ी पूंजी के सामने मोदी सरकार के आत्मसमर्पण को दर्शाता है। राज्य ने खाद्य सुरक्षा,लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर कृषि उपज की गारंटी और न्यूनतम मज़दूरी के प्रावधान की अपनी ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया है।

ट्रेड यूनियनों के गठन और शोषण के ख़िलाफ़ श्रमिकों की सामूहिक सौदेबाजी के मौलिक अधिकार को ख़त्म किया जा रहा है। इन क़ानूनों का जी जान के साथ विरोध किये जाने की ज़रूरत है,जिनका लोगों और लोगों के संगठनों की तरफ़ से बड़े पैमाने पर और एकजुट प्रतिरोध किये जाने की आवश्यकता हैं।

भले ही महारमारी का ख़तरा अभी टला नहीं है, लेकिन इस उद्देश्य के साथ 250 से ज़्यादा किसानों और कृषि श्रमिक संगठनों का मंच,अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने विरोध का आह्वान किया। पंजाब में तक़रीबन 30 संगठन इस राज्य-स्तरीय समन्वय समिति का हिस्सा हैं।

जैसे ही किसानों का संघर्ष तेज़ हुआ, वैसे ही प्रदर्शनकारियों ने रेलवे पटरियों पर कब्ज़ा कर लिया और रिलायंस के स्वामित्व वाले पेट्रोल पंपों और पंजाब में अडानी के गोदाम / भंडारों के सामने अनिश्चितकालीन धरना देना शुरू कर दिया। किसानों के दो महीने तक संघर्ष करने के दौरान केंद्र सरकार ने पंजाब में आवाजाही करने वाली मालगाड़ियों सहित सभी ट्रेनों को रोककर इस संघर्ष के ख़िलाफ़ साज़िश रच दी, हालांकि प्रदर्शनकारी कुछ दिनों बाद ही रेलवे पटरियों से हट गये और वे अपने धरने रेलवे प्लेटफ़र्मों के बाहर ले गये।

हालांकि, केंद्र सरकार की असंवेदनशीलता ने किसानों को अपनी इस लड़ाई को राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर ले जाने के लिए मजबूर कर दिया है। अब तक,केंद्र सरकार अपने विचार-विमर्श को लेकर गंभीर नहीं रही है, इसके बजाय वह इन अधिनियमों से मिलने वाले "नहीं दिखने वाले" फ़ायदे का दावा करते हुए अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है।

दिल्ली चलो से लेकर दिल्ली घेराव तक

26 और 27 नवंबर को केंद्रीय व्यापार संघों की आम हड़ताल के साथ-साथ एआईकेएससीसी ने पंजाब कोऑर्डिनेशन कमिटी के साथ मिलकर दिल्ली चलो का आह्वान किया था। सितंबर 2020 में घोषित किया गया था कि महामारी के बीच सार्वजनिक परिवहन की सीमाओं के चलते सिर्फ़ राष्ट्रीय राजधानी के पड़ोसी राज्यों के किसान इस मार्च में भाग लेंगे, जबकि अन्य अपने-अपने राज्यों में विरोध प्रदर्शन आयोजित करेंगे। ट्रेड यूनियनों ने भी किसानों के इस आह्वान को अपना समर्थन दिया था,जिसके तरहत उन्होंने 27 नवंबर को किसानों के साथ दिल्ली में एक मार्च आयोजित करने का फ़ैसला लिया था।

किसानों ने 25 नवंबर को पंजाब के अलग-अलग हिस्सों से मार्च करना शुरू कर दिया, हरियाणा के मुख्यमंत्री ने इस बात का ऐलान कर दिया कि इन किसानों को राज्य की सीमा में घुसने की अनुमति नहीं दी जायेगी। हालांकि, हरियाणा के किसानों ने पंजाब के किसानों के हरियाणा में प्रवेश करने से पहले ही राज्य के भीतर खड़े किये गये तमाम बैरिकेड तोड़ दिये।

पुलिस की तरफ़ से हो रहे बर्बर ज़्यादतियों का सामना करते हुए और दो दिनों से ज़्यादा चले इस संघर्ष के बाद पंजाब-हरियाणा में अलग-अलग जगहों पर आगे बढ़ रहे किसान आख़िरकार तमाम बैरिकेड तोड़ते हुए, आंसू गैस और पानी के तोपों का बहादुरी से मुक़ाबला करते हुए दिल्ली में दाखिल हो गये। इतिहास में बहुत कम ऐसे उदाहरण मिलते हैं,जब किसानों के मार्च को रोकने के लिए पुलिस ने सड़क पर खाई खोद दी हो।

उसके बाद से प्रदर्शनकारी किसान दो राष्ट्रीय राजमार्गों के बॉर्डर पर जमे हुए हैं। प्रदर्शनकारी किसानों ने ग़ाज़ियाबाद की दिल्ली-यूपी बॉर्डर और नोएडा के दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर दो और राजमार्गों को अवरुद्ध कर दिया है। नये जत्थे (विरोध करने वाले किसानों के समूह) प्रतिदिन विरोध स्थलों पर आ रहे रहे हैं और कई किसान संगठन इस चल रहे संघर्ष में शामिल हो रहे हैं। इस सबके बीच केंद्र सरकार ने अब तक दो दिनों तक चले नाकाम बातचीत के साथ एक उदासीन रवैया अपनाया हुआ है। इसके बजाय केंद्र ने इस आंदोलन को दो-फाड़ करने में अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी है, बातचीत को लेकर चुनिंदा समूहों को ही दावत दे रही है। इस सबके बावजूद, इस आंदोलन ने भारत के ग्रामीणों को इस तरह लामबंद कर दिया है,जिसकी मिसाल इससे पहले कभी नहीं देखी नहीं गयी थी।

मोदी सरकार की किसानों को बदनाम करने की कोशिश

इस बीच भाजपा की अगुवाई वाली सरकार और उसके आईटी सेल ने बड़े पैमाने पर इस संघर्ष को ख़ालिस्तान की साज़िश के रूप में चित्रित करने की कोशिश की है,लेकिन वे बुरी तरह नाकाम रहे हैं। इसके बाद यह दावा किया गया कि यह महज़ पंजाब के किसानों का संघर्ष है,इस दावे के पीछे का मक़सद इस संघर्ष को बांटना और किसानों के देशव्यापी मुद्दे को कमज़ोर करना है।

चूंकि महज़ दिल्ली के आसपास के राज्यों से मार्च किये जाने और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश के किसानों को ही इस मार्च में भाग लेने का फ़ैसला एक सोचा-समझा फ़ैसला था। इस बात को क़ुबूल करने में किसी तरह की झिझक नहीं होनी चाहिए कि भीड़ का बड़ा हिस्सा पंजाब से आये किसानों का है और इस संघर्ष की तीव्रता भारत के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले पंजाब और हरियाणा में कहीं ज़्यादा है। ऐसा इसलिए भी है कि इन दोनों राज्यों के किसान बुरी तरह प्रभावित होंगे,क्योंकि इन दोनों ही राज्यों में ख़रीद का बुनियादी ढांचा बहुत अच्छा है।

पंजाब में 95% से ज़्यादा चावल पैदा करने वाले किसान और हरियाणा के लगभग 70% किसान इस ख़रीद प्रणाली से जुड़े हुए हैं, जबकि उत्तर प्रदेश (3.6%), पश्चिम बंगाल (7.3%) ओडिशा (20.6%) और बिहार ( 1.7%) जैसे दूसरे प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों के किसानों में से बहुत कम को इस ख़रीद प्रणाली से फ़ायदा होता है। उत्तर प्रदेश गेहूं का सबसे बड़ा उत्पादक है,लेकिन इसके उत्पादन का तक़रीबन 11-12% ही सरकार द्वारा ख़रीदा जाता है।

सरकार और दक्षिणपंथी ताकतें यह तर्क दे रही हैं कि किसान गुमराह हैं और विरोधी, विपक्षी दलों से प्रेरित हैं, प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी भी इसी तरह के तोतारटंत झूठ बोल रहे हैं। हालांकि यह तर्क औंधे मुंह गिर जाता है, क्योंकि एनडीए के सबसे पुराने सहयोगी के तौर पर अकाली दल ने एनडीए छोड़ दिया है और उनकी एकलौती मंत्री इन कृषि क़ानूनों को लेकर केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे चुकी हैं।

हरियाणा में बीजेपी की सहयोगी रही जननायक जनता पार्टी ने इन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की मांग की है। भाजपा के एक सहयोगी, हनुमान बेनीवाल को सरकार के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। यह किसी एक संगठन या पार्टी का आंदोलन नहीं है, बल्कि इसे पूरे भारत और विदेशों से भी व्यापक मिल रहा है। दिल्ली के निवासी पूरे दिल से इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।

स्थानीय होटलों और निवासियों ने प्रदर्शनकारियों के लिए अपने दरवाज़े तक खोल दिये हैं। विभिन्न नागरिक समाज संगठनों, छात्रों, युवाओं, महिलाओं, शिक्षकों आदि से जुड़े संगठनों ने इस संघर्ष को अपना पूर्ण समर्थन दिया है और सहायता प्रदान की है। प्रदर्शनकारियों के पास राशन के साथ-साथ दूसरे खाद्य पदार्थों की पर्याप्त आपूर्ति है,इसके बावजूद स्थानीय लोगों ने विरोध स्थलों पर लंगर लगाना शुरू कर दिया है। इस सिलसिले में हरियाणा के रोहतक के उस गांव की एक मिसाल दी जा सकती है,जिसने एक दिन में 2,500 लीटर दूध टिकरी बॉर्डर पर भेजा है। पश्चिम बंगाल के डॉक्टरों की दो टीमों और तेलंगाना के अलावा दिल्ली के डॉक्टरों ने भी विरोध स्थलों पर अपने-अपने शिविर शुरू कर दिये हैं।

जहां एक तरफ़ लोग इस मुद्दे पर लामबंद हो रहे हैं और किसानों के साथ खड़े हैं, वहीं दूसरी तरफ़ चुनी हुई भारत सरकार की मंशा अलग योजनायों पर काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री की अगुवाई में अलग-अलग मंत्री किसानों के ख़िलाफ़ एक अलग ही तरह का रुख़ अख़्तियार कर रहे हैं। किसानों के दबाव में विचार-विमर्श शुरू करने और बातचीत को लेकर केंद्र सरकार को 3 दिसंबर के बजाय 1 दिसंबर की तारीख़ तय करने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

सरकार को सिर्फ़ पंजाब के किसान नेताओं को आमंत्रित करने की उनकी प्राथमिक रुख़ के बजाय एआईकेएससीसी के नेतृत्व को भी इस बातचीत में बुलाने के लिए भी मजबूर होना पड़ा था, सरकार का मक़सद नेतृत्व के बीच दो-फाड़ करना था।

एक दिसंबर को सरकार के साथ पहले दौर की बातचीत इसलिए अनिर्णायक साबित हुई,क्योंकि किसान नेताओं ने आपत्तियों को देखने और चिंताओं का अध्ययन करने के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाने के सरकारी प्रस्ताव को खारिज कर दिया। उन्होंने सरकार से कहा कि ऐसी समितियों से अतीत में किसी तरह का कोई नतीजा नहीं निकला है। एआईकेएससीसी ने देश भर में किसानों के आंदोलन को तेज़ करने का आह्वान किया है।

युद्ध के मैदान में दोनों पक्षों के बीच साफ़-साफ़ लाइन खींच गयी है। इस लाइन की एक तरफ़ किसान और वे ताकतें हैं,जो सार्वजनिक क्षेत्र को बचाना चाहते हैं, और दूसरी तरफ़ भाजपा सरकार और उनके कॉर्पोरेट सहयोगी हैं। भाजपा ने जय जवान- जय किसान के नारे को भी अलग तरीक़े से परिभाषित कर दिया है। जहां जवान सीमा पर है, देश को उन ख़तरों से बचा रहे हैं,जो इस समय के शासन के तहत अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया है,वहीं  केंद्र सरकार ने किसानों को राष्ट्रीय राजधानी के बॉर्डर पर बैठने के लिए मजबूर कर दिया है।

इस आंदोलन ने भाजपा और उसके सहयोगियों को पूरी तरह सरेआम कर दिया है। इसने उस हिंदुत्व की राजनीति को भी चुनौती दे दी है, जिसका मक़सद लोगों को धार्मिक और जातिगत आधार पर बांटना है। जीवन और आजीविका पर हो रहे हमले ने लोगों को सभी धर्मों, जातियों, राज्यों और अलग-अलग राजनीतिक प्रतिबद्धता  को एकजुट कर दिया है। भाजपा और उसकी राजनीति से लड़ने का एकमात्र तरीक़ा लोगों के ज़रिये लड़ा जाने वाला यही संघर्ष है।

किसान आने वाले दिनों में उग्र संघर्ष के लिए कमर कस रहे हैं, मज़दूर वर्ग इसमें शामिल हो रहा है, और सभी तबके के लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। इस संघर्ष की जीत तय है और इस वीरतापूर्ण संघर्ष को लंबे समय तक याद रखा जायेगा।

(लेखक ऑल इंडिया एग्रीकल्चर वर्कर्स यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Farmers Movement: Historic Struggle Against BJP Govt’s Pro-Corporate Policies

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