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चौधरी चरण सिंह की विरासत को संवारने के लिए किसानों को जयंत चौधरी की ज़रूरत नहीं है

यह बात इतिहास में बेहतर ढंग से दर्ज़ है कि चरण सिंह सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के प्रति प्रतिबद्ध थे। यदि जयंत को पता होता कि उनकी राजनीतिक विरासत का नैतिक महत्व है, तो वे कभी भी उस सरकार के साथ नहीं जाते जो हिंदुत्व की राजनीति और सांप्रदायिकता की नींव पर बनी है।
Farmers
प्रतीकात्मक तस्वीर

साल 1979, यह साल मेरे लिए दो वजह से ख़ासा महत्वपूर्ण है। पहला, इस साल मेरे बड़े भाई का जन्म हुआ। दूसरा, चौधरी चरण सिंह के रूप में देश को पहला किसान प्रधानमंत्री मिला। चौधरी चरण सिंह और उनकी राजनीति का हमारे ग्रामीण समाज में इस कदर प्रभाव था कि मेरे भाई का नाम ही चरण सिंह रख दिया गया। जब थोड़े बड़े हुए तो गांव में साथ के बच्चे उनका नाम बिगाड़कर लेने लगे, जैसा की बचपन में लोग अक्सर करते रहते हैं। स्कूल में दाख़िला लेने गए तो शिक्षक ने कहा कि इस नाम को बिगाड़ना बहुत आसान है इसलिए नाम बदल देना ही ठीक रहेगा। मेरे किसान पिता को अपने बेटे का नाम बदलना मंज़ूर था लेकिन चौधरी चरण सिंह के नाम का बिगाड़ कतई नहीं। अंततः मेरे भाई का नाम बदल दिया गया और इस तरह उस समय चरण सिंह का नाम बिगड़ने से बच गया। लेकिन 9 फरवरी 2024 को जिस तरह राजनीतिक सौदेबाज़ी के तहत, ‘थोक के भाव’ भारत रत्न दिए जाने वाले नामों में चौधरी चरण सिंह का नाम शामिल किया गया। अगले दिन संसद में उनके पौत्र और राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी ने चरण सिंह की तुलना प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से की, उनकी सरकार की तुलना मोदी सरकार से की। उसको देखकर मुझे लगा की सिर्फ जिस नाम को बिगड़ने से रोकने के लिए मेरे किसान पिता ने अपने बेटे का नाम बदलना मुनासिब समझा, उन्हीं चौधरी चरण सिंह के नाम और राजनीतिक विरासत को उनके पौत्र जयंत चौधरी ने ही आज बिगाड़ने में कोई कमी नहीं रखी है।

ये एक भद्दा मज़ाक ही कहा जा सकता है कि जिस सरकार ने अपने शासनकाल में हुए किसान आंदोलन में 730 से ज्यादा किसानों की शहादत ले ली हो, उस सरकार को चरण सिंह सरकार जैसा कहा जाए। जिस सरकार ने लखीमपुर खीरी में किसानों को टायर तले रौंदने वालों को अपने मंत्रिमंडल में जगह दे रखी हो उसे चरण सिंह सरकार जैसा कहा जाए। जिस सरकार ने लगातार किसानों की सब्सिडी में कमी की हो, उसकी तुलना पहली बार बड़े स्तर पर किसानों के लिए विभिन्न प्रकार की सब्सिडी शुरू करने वाली चरण सिंह सरकार से किया जाए। जिस सरकार ने किसानों को कर्ज़ के बोझ तले दबाने का काम किया हो उसकी तुलना नाबार्ड जैसी संस्था बनाने वाली चरण सिंह सरकार से किया जाए। जिस सरकार ने किसान पृष्ठभूमि से आने वाली पहलवान बेटियों का शोषण करने वाले को अपना सांसद बना रखा हो और संरक्षण दे रखा हो उसको महिला सशक्तिकरण करने वाली सरकार बताते हुए चरण सिंह सरकार से तुलना की जाए।

चौधरी चरण सिंह के नाम की राजनीतिक विरासत का फायदा उठाने वाले, उनकी विचारधारा को इस तरह दरकिनार करने वाले और उनकी विरासत को बर्बाद वाले जयंत चौधरी को सबसे पहले जाकर सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ चरण सिंह के विचार और कार्यों के बारे में जानना चाहिए। अगर उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत का भार मालूम होता तो वे हिन्दुत्व की राजनीति और सांप्रदायिकता की नींव पर बनी सरकार के साथ इस तरह कतई नहीं जाते।

लेकिन बात यह भी है कि जयंत यह सब पढेंगे भी कहां? बाज़ार में आपको चरण सिंह की लिखी किताबें ही नहीँ मिलेंगी, उनपर लिखी हुई भी नहीं। जिस किसान ट्रस्ट के ऊपर चरण सिंह के विचारों और कार्यों के प्रकाशन की ज़िम्मेदारी है उसका कार्यालय आपको ढूँढने से भी नहीं मिलेगा। बड़ी मुश्किल से जब आपको ये पता चलेगा कि किसान ट्रस्ट का कार्यालय जयंत चौधरी को राज्यसभा सदस्य के तौर पर मिले आवास में पीछे की तरफ बने एक कमरे में है तो आपको वहाँ चरण सिंह पर प्रकाशित साहित्य के नाम पर मात्र 5-7 किताबें मिलेंगी। चरण सिंह द्वारा स्वयं लिखी गयी किताबें भी पूरी नहीं मिलेंगी। कुछ का तो प्रकाशन तक बंद हो चुका है। संसद में अपने भाषण में जयंत चौधरी ने कहा कि अब ज़्यादा लोग चौधरी चरण सिंह के बारे में जानेंगे, पढ़ने वाले उनके बारे में पढ़ेंगे। लेकिन किसान ट्रस्ट के अध्यक्ष के तौर पर चरण सिंह पर कुछ भी प्रकाशित करने में अरुचि रखने वाले जयंत चौधरी को ये भी बताना चाहिए कि अब उनके बारे में पढ़ने में रुचि रखने वाले पढ़ेंगे कहां से?

मैं उनके एनडीए के साथ गठबंधन में जाने से होने वाले राजनीतिक फायदे और नुकसान की बहुत गहराई में नहीं जाऊंगा क्योंकि ये तो राजनीति की बेहद सामान्य सी समझ वाला भी बता सकता है कि उन्हें इससे राजनीतिक लाभ कम, और नुकसान ही ज़्यादा होने वाला है। उन्होंने अपनी मृतप्राय हो चुकी पार्टी को किसान आंदोलन से मिले जीवनदान के बारे में भूलकर उस समय ये निर्णय लिया है जब दूसरा किसान आंदोलन दिल्ली के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है। महिला पहलवानों के शोषण का आरोपी न सिर्फ खुला घूम रहा है बल्कि बीजेपी से सांसद है। इन सब बातों को, पिछले 9 साल में मोदी सरकार द्वारा किसान विरोधी कार्यों को और हाथरस में खुद पर चले डंडों को भले ही जयंत चौधरी अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए भूल सकते हैं, लेकिन उनके ज़्यादातर वोटर और समर्थक नहीं भूलने वाले। चौधरी चरण सिंह को जानने और मानने वाले तो बिल्कुल भी नहीं।

मेरा जुड़ाव किसान आंदोलन के कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ-साथ दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ रही किसान संतानों से भी है। इसके चलते लगातार उनसे बौद्धिक एवं राजनीतिक चर्चाएं करने का अवसर मिलता रहता है। पिछले तीन दिन में बड़ी संख्या में ऐसे सक्रिय लोगों से बातचीत करने पर एक बात साफ़ तौर पर निकलकर आई कि ये लोग जयंत चौधरी को तो जाने से नहीं रोक सकते लेकिन चौधरी चरण सिंह की विचारधारा पर चलते हुए उनकी राजनीतिक विरासत को उनके साथ जाने से ज़रूर रोक लेंगे। चौधरी चरण सिंह का नाम तो बिगड़ने नहीं देंगे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं शोधकर्ता हैं। विचार निजी हैं।)

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