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महाराष्ट्र में सियासी संकट के बीच मानसूनी आफ़त की चपेट में किसान

विदर्भ और मराठवाड़ा में भारी बारिश के कारण करीब साढ़े आठ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ की फसल डूब चुकी है। वहीं, चार हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बाढ़ के पानी में बह गई है।
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भंडारा के नज़दीक तुमसर क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति का दृश्य। तस्वीर: नंदू रहांगडले

महाराष्ट्र में पहले मौसम की अनिश्चितता, फिर ओलावृष्टि और उसके बाद अब भारी बारिश ने किसानों की खेती-बाड़ी का गणित बिगाड़ दिया है। राज्य के किसान खरीफ फसल की बुआई कर चुके थे, लेकिन भारी बारिश के चलते राज्य के कुछ इलाकों में तो किसानों की फसल इस सीमा तक चौपट हो चुकी है कि उन्हें दोबारा बुआई करनी पड़ सकती है, ऐसे में सवाल है कि मानसून के धोखे से बेहाल किसान इस संकट से कैसे उबर पाएंगे?

पिछले कुछ वर्षों से राज्य का पश्चिम महाराष्ट्र बाढ़ की चपेट में रहा है। लेकिन, इस मानसून में दृश्य ठीक उलटा है, जो विदर्भ और मराठवाड़ा सालों-साल सूखे से उबर नहीं पा रहा था, इस बार वहां भारी बारिश और बाढ़ की स्थिति बन गई है। बता दें कि विदर्भ और मराठवाड़ा में भारी बारिश के कारण करीब साढ़े आठ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ की फसल डूब चुकी है। वहीं, चार हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बाढ़ के पानी में बह गई है। लेकिन, कृषि क्षेत्र में हुए नुकसान का यह अभी शुरुआती अनुमान ही है। प्रशासन के स्तर पर नुकसान का आंकलन अभी जारी है। आने वाले समय में यदि यही हाल रहा तो भारी बारिश से नुकसान की मात्रा में और अधिक वृद्धि होने की आशंका जताई जा रही है। लेकिन, राज्य और केंद्र सरकार की ओर से अभी तक किसानों के लिए सहायता की घोषणा नहीं की गई है।

सूखे के तौर पर पहचाने जाने वाले विदर्भ और मराठवाड़ा अंचल में अत्यधिक बारिश हुई है। तस्वीर: शिरीष खरे

यदि विदर्भ और मराठवाड़ा में भारी बारिश और बाढ़ के कारण हुए नुकसान का अलग-अलग आकलन करें तो विदर्भ में जहां पांच लाख 70 हजार हेक्टेयर पर कृषि भूमि और फसलों को नुकसान पहुंचा है, वहीं मराठवाड़ा के 450 विकास-खंडों में से 182 में भारी बारिश से नुकसान की सीमा तीन लाख 78 हजार हेक्टेयर तक पहुंच गई है।

लेकिन, यदि खेतों में पानी जमा होता रहा तो आने वाले समय में किसानों को और अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में यदि किसानों को फिर से बुआई करनी पड़ी तो उत्पादन लागत बढ़ जाएगी। मानसून की अनियमितताओं के साथ ही बढ़ती महंगाई के कारण उत्पादन लागत में वृद्धि से कृषि संकट गहरा सकता है।

सीधे प्रभावित लोगों को राहत देने सहित आपदा प्रबंधन की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। राज्य सरकारें भारी बारिश जैसी प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में केंद्र सरकार के स्वीकृत प्रावधानों के अनुसार राज्य आपदा राहत कोष से राहत प्रदान करती हैं। गंभीर प्राकृतिक आपदा के दौरान निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार केंद्र सरकार के राहत कोष से भी अतिरिक्त वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।

पिछले साल की भारी बारिश के बाद, राज्य आपदा कोष और राज्य सरकार के फंड से 2,807 करोड़ रुपये देने का सरकार का निर्णय अक्टूबर के अंत में लिया गया था। लेकिन, इसके बाद आठ महीने तक प्रभावित किसानों को सीधी मदद नहीं मिल पाई थी। प्रधानमंत्री फसल योजना के लाभार्थी किसानों को सहायता मिलने में देरी, अपर्याप्त सहायता की शिकायतें मिलती रही हैं। लेकिन, करीब हर साल यही स्थिति बनने के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारें अभी तक इस मुद्दे का प्रभावी समाधान खोजने में सफल नहीं हो पाई हैं।

राज्य में महाविकास अघाड़ी गठबंधन की ओर से विपक्ष के नेता अजीत पवार ने विदर्भ, मराठवाड़ा और राज्य के अन्य उन हिस्सों में जहां भारी बारिश हुई है, को भीषण प्राकृतिक आपदा घोषित करने की मांग की है। उन्होंने किसानों को राहत देने के लिए तत्काल विधानसभा का सत्र बुलाने की भी मांग की है। लेकिन, यह पूरी मांग कागजी नियमों में उलझ कर रह गई है। दरअसल, कहा यह जा रहा है कि ओलावृष्टि को अकाल घोषित करने का कोई प्रावधान नहीं है और सूखा संहिता केवल सूखे की स्थिति के बारे में है। वहीं, यदि एक दिन में 65 मिमी से अधिक बारिश होती है, तभी इसे सरकारी प्रावधानों में 'अत्यधिक वर्षा' कहा जाता है, जबकि विदर्भ और मराठवाड़ा में हुई भारी बारिश एक दिन में 65 मिमी से कम हुई है, हालांकि इस बारिश से किसानों को अत्यधिक नुकसान उठाना पड़ रहा है, लेकिन दूसरा संकट यह है कि केंद्र सरकार ने 'अत्यधिक वर्षा' के कारण मिलने वाले मुआवजे के मानदंड में बदलाव नहीं किया है।

दूसरी तरफ, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष जनवरी से जून के बीच के छह महीनों में विदर्भ और मराठवाड़ा में 1,270 किसानों ने आत्महत्या की है। सबसे ज्यादा 548 आत्महत्याएं अमरावती संभाग में हुई हैं। वहीं, 256 किसान आत्महत्याएं नागपुर संभाग में हुई हैं। विदर्भ में यवतमाल जिला सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याओं के कारण बदनाम रहा है। गौर करने वाली बात यह है कि यवतमाल जैसे जिलों में इस साल भारी बारिश की तीव्रता भी अधिक रही है। दूसरी तरफ, मराठवाड़ा में बीते छह महीने में 466 किसान आत्महत्याएं हुई हैं। यही वजह है कि इस साल फिर खेती से आमदनी नहीं होने पर बढ़ते कर्ज और हताशा में किसानों के आत्महत्या करने की आशंका व्यक्त की जा रही है।

एक ओर सूखा तो कभी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। मौसम की अनिश्चितता से किसान परेशान हैं। वहीं, दूसरी ओर छोटे व मध्यम किसानों के पास अभी भी कृषि के लिए आवश्यक उत्पादन लागत और उससे होने वाली आय के बीच संतुलन नहीं है। बढ़ती महंगाई, खेतिहर मजदूरों की कमी, परिवार का भरण-पोषण, बच्चों की शिक्षा और बेटी की शादी के खर्च के कारण किसान जीवन भर कर्ज में डूबा रहते हैं। फिर भी वे बस दिन-रात खेतों से इस उम्मीद में काम करते रहते हैं कि आज या कल हमारे सिर पर कर्ज का बोझ कम हो जाएगा। एक कृषि प्रधान देश में कृषि विकास के लिए विभिन्न योजनाओं को संयुक्त रूप से लागू करने, किसानों के श्रम को महत्व देने और कृषि व्यवसाय को ऊर्जा प्रदान को करने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों की आवश्यकता होती है। लेकिन, मानसून परिवर्तन लेकर सरकारों के पास ठोस उपाय नहीं हैं। नीतिगत स्तर पर जब तक इस संकट के संबंध में बड़े निर्णय नहीं लिए जाते हैं तब तक किसानों के लिए इस संकट से निकालने वाली वैकल्पिक स्थिति नहीं बन सकते, कृषि क्षेत्र में अच्छे दिन नहीं आ सकते और किसान आत्महत्याएं में कमी दूर की बात रह जाएगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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