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महाराष्ट्र: क्या तालाबों की अनदेखी ने बढ़ाईं किसानों की आत्महत्याएं?

राज्य में 40 हजार से अधिक रिसाव तालाबों को वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया जाए तो किसानों को अपनी फसल के लिए बरसात पर कम निर्भर रहना पड़ेगा।
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यदि राज्य में 40 हजार से अधिक रिसाव तालाबों को वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया जाए तो यह किसान आत्महत्याओं वाले इलाकों की तस्वीर बदल सकते हैं। प्रतीकात्मक तस्वीर पुणे जिले स्थित एक तालाब की। साभार: महाराष्ट्र राज्य जल-संसाधन विभाग।

महाराष्ट्र जो कई क्षेत्रों में देश का नेतृत्व करता है अफसोस कि किसान आत्महत्याओं में भी सबसे आगे है। दरअसल, राज्य पर लगे इस कलंक को मिटाने के लिए वर्ष में केवल एक फसल उगाने वाले किसान को टिकाऊ सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। यदि राज्य में 40 हजार से अधिक रिसाव तालाबों को वैज्ञानिक तरीके से विकसित किया जाए तो किसानों को अपनी फसल के लिए बरसात पर कम निर्भर रहना पड़ेगा और ऐसा हुआ तो हो सकता है कि किसानों की आत्महत्याओं से जुड़े आंकड़ों में कमी आए। लेकिन सरकार परंपरागत सिंचाई के साधनों को लेकर उपेक्षापूर्ण व्यवहार बरत रही है जबकि सरकार को सोचना यह चाहिए कि कैसे तालाबों के जरिए किसानों को राहत दी जा सकती है।

भारत में जलसंकट की स्थिति को लेकर पूरे देश के लिए योजना बनाने वाली संस्था 'नीति आयोग' की राय वॉटरशेड के बारे में बहुत कुछ कहती है। 'नीति आयोग' के अनुसार, देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक पानी की कमी का सामना कर रहे हैं।

कुल उत्पादित सतही जल संसाधनों का लगभग 40 प्रतिशत ही पेयजल के लिए उपयोग किया जाता है। वहीं, साफ पानी की कमी के कारण देश में हर साल 200,000 लोग मर जाते हैं। 14 जून, 2018 को प्रकाशित 'समग्र जल प्रबंधन सूचकांक' रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि यदि जल संकट से निपटने के लिए उचित योजना नहीं बनाई गई तो वर्ष 2050 में पानी की मांग आपूर्ति से अधिक हो जाएगी और ऐसा हुआ तो देश में हाहाकार मच जाएगा। इस रिपोर्ट के बाद ही केंद्र सरकार ने 'जल शक्ति अभियान' शुरू किया है। लेकिन महाराष्ट्र सहित देश भर में यह अभियान भी सरकारी रस्म और तामझाम की भेंट चढ़ गया है।

महाराष्ट्र में 70 प्रतिशत किसानों की जमीन सूखी

जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है तो यहां 'जलयुक्त शिवार' नाम से चलाए जा रहे पायलट परियोजना को शुरुआत में अच्छी प्रतिक्रिया और परिणाम हासिल हुए। इसके तहत सरकारी रिकार्ड में यह तथ्य दर्ज हुआ कि पेयजल के साथ संरक्षित सिंचाई के क्षेत्र अंतर्गत वृद्धि हुई है। इसका फायदा कृषि क्षेत्र को भी होने का दावा किया गया। इस बात में कहीं कोई संदेह नहीं कि कृषि जिस पैटर्न पर चल रही है उसमें कृषि उपज बढ़ाने के लिए सिंचाई या संरक्षित सिंचाई एक मूलभूत कारक है।

इस परियोजना के जरिए तालाबों को बनाने और उन्हें नया जीवन देने के लिए प्रयास किए गए थे। राज्य में इस तरह के प्रयास अहम हैं कि यहां लगभग 70 प्रतिशत से अधिक किसानों की भूमि शुष्क है, जबकि सभी साधनों से सिंचाई की सुविधा 30 प्रतिशत से भी कम है। राज्य शासन द्वारा इन शुष्क भूमि वाले किसानों को फिर से एक-फसली और दोहरी-फसल वाले के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जाहिर है कि किसान पूरी तरह मानसून पर ही निर्भर है इसलिए फसल उगाने वाला किसान आत्मघाती किसान साबित हो रहा है। बताया गया है कि अब तक हुई आत्महत्याओं में उन किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है जिनके पास सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है और जिसके चलते उनकी फसल बार-बार बारिश की बेरुखी के चलते उजड़ जाती है। इसलिए, इन किसानों को संकट से निकालने के लिए छोटी परियोजनाओं को भी प्राथमिकता में शामिल करने पर विचार किया जाना चाहिए।

मनरेगा कैसे हो सकती है मददगार

राज्य में तालाब बनाने के लिए मनरेगा एक उपहार की तरह साबित हो सकती है। इस योजना के तहत बड़ी संख्या में रिसाव तालाब बनाए जा सकते हैं जो साल में एक फसल लेने वाले किसानों के लिए वरदान साबित हो सकता है। इससे स्थानीय स्तर पर अधिक से अधिक मजदूरों को आजीविका मिलेगी वहीं इसके जरिए खेतों में सिंचाई के लिए तालाब भी बन जाएंगे। यह भी फैक्ट है कि राज्य में जब से मनरेगा लागू हुआ है इस योजना के तहत 40 हजार से अधिक तालाब बनाने की बात सरकारी रिकार्ड में दर्ज की गई है।

राज्य में रिसाव तालाबों की उपयोगिता को लेकर पुणे स्थित 'सिंचाई अनुसंधान एवं विकास निदेशालय' ने भी अपनी मुहर लगाई है। अपने 10 वर्षों के क्षेत्रीय अध्ययन के आधार पर निदेशालय ने निष्कर्ष निकाला है कि सिंचाई के अन्य साधनों के मुकाबले रिसाव तालाब कहीं अधिक कारगर साबित हुए हैं।

वहीं, तथ्यों के आधार पर कई जानकार बड़े बांधों की बजाय रिसाव तालाबों को बनाए जाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं कि इसमें बड़े निवेश और हजारों हेक्टेयर भूमि को डूबने से बचाया जा सकता है। वहीं, इसमें लगने वाली लागत भी करीब दो लाख रूपए और समय महज पांच से सात दिनों का ही है। इससे सात मिलियन क्यूबिक फीट पानी भूमिगत संग्रहित किया जा सकता है। इस स्थिति में करीब 200 एकड़ की गारंटीकृत सिंचाई प्रदान की जा सकती है।

फिर छोटी योजनाएं उपेक्षित क्यों?

सवाल है कि ऐसे तालाब जब प्रौद्योगिकी-पर्यावरण के अनुकूल हैं, हरित आवरण को बढ़ावा देते हैं, तापमान में कमी ला सकते हैं और मिट्टी के अत्यधिक क्षरण से बचा सकते हैं तो सरकारी स्तर पर प्राथमिकता के लिहाज से इस प्रकार की छोटी सिंचाई योजनाएं उपेक्षित क्यों हैं।

ऐसा तब है जब सरकार की अपनी रिपोर्ट में ही यह बात बार-बार सामने आ रही है कि रिसाव वाले तालाब बनाने से भारी मात्रा में हरित आवरण यानी फसलें पैदा की जा सकती हैं, पृथ्वी को गर्म करने वाली सूर्य की किरणें प्रकाश संश्लेषण के लिए ऊर्जा प्रदान कर सकती हैं, फसलों के माध्यम से कार्बन पृथक्करण न केवल मिट्टी के कटाव को नियंत्रित कर सकता है बल्कि वायुमंडल में गर्मी फैलाने की प्रक्रिया को भी नियंत्रित कर सकता है। साथ ही, प्रशासन के स्तर पर रिसाव तालाब से ग्रामीण जलापूर्ति की स्थिति में भी भारी सुधार होने की संभावना जताई जा चुकी है।

खास तौर से विदर्भ और मराठवाड़ा जैसे सूखा क्षेत्र में जहां किसान आत्महत्याएं आम हो चुकी हैं और सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं का अकाल है वहां रिसाव तालाबों को योजना में तरजीह देने से कम लागत और त्वरित तरीके से संरक्षित सिंचाई का प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है और किसान आत्महत्याओं को नियंत्रित करके राष्ट्रीय विकास विशेषकर कृषि क्षेत्र की दर में वृद्धि की जा सकती है। माना जा रहा है कि इससे राज्य की सकल आय के साथ-साथ कृषि क्षेत्र विशेषकर एकल फसली खेती की विकास दर में वृद्धि होगी। किसान समृद्ध होंगे और पर्यावरण में सुधार होगा। लेकिन यह बात सिर्फ मानने से नहीं बल्कि जमीन पर साकार होने से ही स्थिति में बदलाव लाएगी।

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