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1982 की गौरवशाली संयुक्त हड़ताल के 40 वर्ष: वर्तमान में मेहनतकश वर्ग की एकता का महत्व

19 जनवरी, 1982 के दिन आज़ाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार ऐसी संयुक्त हड़ताल का आयोजन किया गया था जो न केवल पूरी तरह से सफल रही बल्कि इसकी सफलता ने भविष्य में मजदूरों और किसानों की एकता कायम करते हुए संयुक्त संघर्षों के बीज बोए थे।
 Memorial
जनवरी, 1982 की हड़ताल के शहीदों की याद में तमिलनाडु में बनाया गया स्मारक।

19 जनवरी, 1982 को बनारस-मिर्जापुर रोड पर स्थित बाबर बाजार (जो तब के बनारस जिले में आता था और अब चंदौली जिले में है) में मजदूरों, किसानों, खेतिहर मजदूरों और छात्रों का एक विशाल जनसमूह प्रदर्शन कर रहा था। इस प्रचंड आंदोलन का आयोजन केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और महासंघों द्वारा बुलाई गई अखिल भारतीय हड़ताल के आहवाहन पर किया गया था। इस आंदोलन का नेतृत्व जिले के किसान नेता कॉमरेड भोला पासवान कर रहे थे। सुबह से ही आंदोलन में शिरकत करने के लिए लोगो के समूहों के समूह आ रहे थे। बनारस के छात्र इसमें बड़ी संख्या में जोश के साथ हिस्सा ले रहे थे। प्रदर्शनकारियों ने सड़क पर शांतिपूर्ण नाकाबंदी की थी जिसके चलते परिवहन पूरी तरह से बंद हो गया था। पुलिस ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के इस शांतिपूर्ण विरोध के खिलाफ क्रूर कार्यवाही शुरू कर दी और प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध फायरिंग की।

पुलिस फायरिंग में कॉमरेड भोला पासवान की मौत हो गई, लेकिन यह विरोध प्रदर्शन रुका नहीं। ऐसी कठिन परिस्थिति में कॉमरेड भोला पासवान के छोटे भाई, कॉमरेड लाल चंद पासवान जो एक छात्र थे और अशोक इंटर कॉलेज में एसएफआई इकाई के संयोजक थे, ने अत्यधिक साहस दिखाते हुए आंदोलन का नेतृत्व संभाला। युवा साथी लाल चंद पासवान भी पुलिस की गोली का शिकार हुए। एक ही परिवार के इन साथियों की शहादत के अलावा भी विभिन्न संगठनों के 32 साथी पुलिस कार्यवाही में घायल हो गए। लोगो के रोष और क्रोध से बचने के लिए मानवता की सारी हदें पार करते हुए उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार के निर्देशन पर पुलिस ने उनके परिवार को बताए बिना ही दोनों शहीदों के शवों को रामसांची में 75 किलोमीटर दूर ले जाकर जला दिया।

इसी दिन ट्रेड यूनियनों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में सफल हड़तालें आयोजित करते हुए वीरता और बलिदान की ऐसी ही कहानी तमिलनाडु के खेतिहर मजदूरों ने भी लिखी थी। पुलिस ने अन्नाद्रमुक सरकार के निर्देशन में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं और तीन साथियों की मौत हो गई। नागपट्टिनम जिले के थिरुमगनम में अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के कार्यकर्ता कॉमरेड अंजन और कॉमरेड नागूरन पुलिस की गोलीबारी में मारे गए और भारतीय खेत मजदूर यूनियन के एक कार्यकर्ता कॉमरेड ज्ञानशेखरन की थिरु थुरईपूंडी में मौत हो गई।

आज़ाद भारत के इतिहास में शायद पहली बार ऐसी संयुक्त हड़ताल का आयोजन किया गया था जो न केवल पूरी तरह से सफल रही बल्कि इसकी सफलता ने भविष्य में मजदूरों और किसानों की एकता कायम करते हुए संयुक्त संघर्षों के बीज बोए थे। भारत की मेहनतकश आवाम की इसी एकता ने, एक साल लम्बे चले किसान आंदोलन जिसमे ट्रेड यूनियनों  और खेत मज़दूरों की सक्रीय भागीदारी थी, भाजपा नेतृत्व की केंद्र सरकार को तीनो कृषि कानून वापिस लेने के लिए मज़बूर कर दिया। हमारे समय के सबसे बड़े और शांतिपूर्ण संघर्षों में से एक जिसमें 700 से अधिक किसानों की शहादत हुई ने किसान मजदूर एकता को फिर से परिभाषित किया है। इस आंदोलन में 'किसान मजदूर एकता' पिछले साल के दौरान सबसे ज्यादा लगाए जाने वाले नारों में से एक बन गया है। यह केवल एक नारा ही नहीं था परन्तु वास्तव में किसानो के साथ मज़दूर और मज़दूरों के साथ किसान साझे संघर्ष में कंधे से कन्धा मिलाकर लड़ाई लड़े हैं।  

इस वर्ष हम 19 जनवरी 1982 की ऐतिहासिक संयुक्त हड़ताल के 40 वर्ष पूरे होने पर संयुक्त कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं और याद कर रहें है उस इतिहास को जो भारत में मजदूर वर्ग के पक्ष में व्यवस्था परिवर्तन की यात्रा में और लोगों की लोकतांत्रिक क्रांति के माध्यम से एक समतावादी समाज की स्थापना के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। एक लम्बी संयुक्त लड़ाई में किसान मज़दूर एकता के परिचायक इस हड़ताल के दिन कुल मिलाकर 10 शहीदों (मजदूरों, किसानों और खेतिहर मजदूरों) ने देश के अलग अलग हिस्सों में सरकारों द्वारा किए गए क्रूर दमन का बहादुरी के साथ सामना करते हुए अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया। शहीदों में से ज्यादातर गरीब खेतिहर मजदूर थे जो मजदूर वर्ग के साथ एकजुटता में सड़कों पर उतर आए थे। इस देशव्यापी आम हड़ताल और बंद में व्यापक एकता और नेतृत्व ऐसा था कि पूरे देश में में शहरी और ग्रामीण सर्वहारा ने संयुक्त आंदोलन में एक साथ शामिल होते हुए स्वतंत्र भारत में जुझारू संघर्षों के इतिहास में सबसे शानदार अध्याय का नेतृत्व किया।

किसान मज़दूर एकता की परिचायक पहली संयुक्त हड़ताल एक साल से लगातार चल रहे अभियान का नतीजा थी। 23 मार्च, 1981 को दिल्ली में केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें 4 जून, 1981 को तत्कालीन बॉम्बे (अब मुंबई) में मज़दूरों का एक राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित करने का निर्णय लिया गया। यह सभी मज़दूर संगठनों को मज़दूरों के सांझे मुद्दों पर एकजुट कर सांझे संघर्षों  को शुरू करने का प्रयास था। इस अधिवेशन में पूरे देश से सीटू, एटक, इंटक, एचएमएस, बीएमएस जैसे प्रमुख ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों, सरकारी कर्मचारियों के अखिल भारतीय संघों के प्रतिनिधियों, सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों और अन्य लोगों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। अधिवेशन में पास किया गया 13-सूत्रीय मांग पत्र (डिमांड चार्टर) ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व के दूरदर्शी दृष्टिकोण को दर्शाता है। इस डिमांड चार्टर में मजदूर वर्ग की बुनियादी मांगों के अलावा, खेत मज़दूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी, खेत मज़दूरों के लिए एक व्यापक कानून, किसानों की उपज के लिए लाभकारी मूल्य,  सभी तरह की आवश्यक वस्तुओं जैसे खाद्यान्न, खाद्य तेल, कपड़ा, चीनी आदि की सहकारी दुकानों के नेटवर्क के माध्यम से रियायती कीमतों पर बिक्री जैसी मांगें शामिल थीं। चार्टर में उठाई गईं ये मांगें किसानों, खेत मज़दूरों और समाज के अन्य वर्गों को लामबंद करने की कुंजी थीं।

इस अधिवेशन ने 19 जनवरी, 1982 को एक अखिल भारतीय आम हड़ताल आयोजित करने और इसकी तैयारी के लिए क्षेत्रीय सम्मेलनों की एक श्रृंखला, देश के विभिन्न हिस्सों में रैलियों और एक संसद मार्च का आयोजन करने का निर्णय भी लिया। राष्ट्रीय अभियान समिति के बैनर तले हड़ताल का यह आह्वान केवल ट्रेड यूनियनों द्वारा किया गया था, लेकिन किसान, खेत मज़दूरों और जनता के अन्य हिस्से डिमांड चार्टर के आधार पर हड़ताल में शामिल हुए।

इस अधिवेशन के निर्णय के अनुसार ही 23 नवंबर 1981 को संसद तक एक विशाल मार्च का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से लाखों कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था। नज़ारा ऐसा था कि देश के सभी भागों से आए खेतिहर मजदूरों सहित मजदूरों से ‘बोट क्लब’ पूरी तरह भर गया था।  नेतृत्व के सचेत प्रयास से प्रतिरोध के माहौल निर्माण किया गया था जिसके परिणामस्वरूप हड़ताल को बड़ी सफलता मिली। केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने हड़ताल की तैयारी को बाधित करने के लिए हर हथकंडा इस्तेमाल किया। हड़ताल से पहले तबादलों, धमकियों, फर्जी मुकदमों का दौर चला और अंत में हड़ताल के दिन पुलिस फायरिंग हुई, लेकिन मजदूर वर्ग के इस वीरतापूर्ण प्रयास को दर्ज करने से इतिहास को कोई नहीं रोक सका।

जैसा कि पहले कई बार कहा गया है कि किसान मज़दूर एकता की यह केवल शुरुआत थी और हड़ताल के बाद भी ट्रेड यूनियनों ने इस एकता को जारी रखने का फैसला किया और मज़बूती से शहीदों के परिवारों के साथ खड़ी रही । तमिलनाडु में, सीटू ने हर साल प्रत्येक सदस्य से ₹1 लेने और हमारे शहीदों के परिवारों को देने का फैसला किया और पहले साल ही 40,000 रुपए का फंड इकट्ठा किया। तब से, ट्रेड यूनियनों की कई अखिल भारतीय हड़तालें आयोजित की गई हैं। हाल के दिनों में इन अखिल भारतीय हड़तालों में ग्रामीण मेहनतकश यानी किसान और खेतिहर मजदूर ग्रामीण बंद के माध्यम शामिल हुए जिससे हड़ताल काफी प्रभावी साबित हुई है।

इस हड़ताल का इतिहास हमें बताता है कि एकजुट संघर्ष के लिए मौजूद ठोस परिस्थितियों के बावजूद एकता बनाने के लिए एक सचेत प्रयास की आवश्यकता है। वर्तमान में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार अपनी जनविरोधी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और सांप्रदायिक हिंदुत्व की राजनीति के माध्यम से समाज के सभी वर्गों पर हमला कर रही है। मज़दूरों के मूल अधिकार छीने जा रहे हैं और चार श्रम संहिताओं के माध्यम से उनके भविष्य को संकट में डाला जा रहा है, कृषि क्षेत्र में सरकार अपनी जिम्मेदारी से हटते हुए और कृषि में बड़े निगमों के प्रवेश के लिए तीन कृषि कानूनों को लाकर किसानो के खिलाफ जंग छेड़े हुए थी, खेत मज़दूर जो ग्रामीण भारत में आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे वंचित मजदूर है लगातार घटते काम, न्यूनतम मजदूरी का आभाव, मनरेगा को साजिश के तहत ख़त्म करने के प्रयास और सामाजिक सुरक्षा ढांचे जैसे पीडीएस, सार्वजनिक क्षेत्र के स्वास्थ्य, शिक्षा, पेंशन आदि के कमजोर होने के कारण जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लगातार कम होती या स्थिर मजदूरी और महंगाई के साथ-साथ भारी बेरोजगारी (शहरी और ग्रामीण दोनों) ने स्थिति को और बदतर बना दिया है।

वर्तमान समय में किसान, ग्रामीण और शहरी सर्वहारा वर्ग की एकता अधिक महत्वपूर्ण है और न केवल सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ बल्कि बड़े कॉरपोरेट्स के खिलाफ भी एकजुट संघर्ष करने की आवश्यकता है । इस मामले में संयुक्त किसान आंदोलन ने एक मिसाल कायम की है। किसान आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि यह है कि मेहनतकश वर्ग ने अपने दुश्मन की पहचान कर ली है। किसान संघर्ष सत्ताधारी पार्टी के साथ-साथ नवउदारवादी आर्थिक निति और बड़े कॉरपोरेट्स के खिलाफ था। इसकी परिचायक है 'अंबानी- अदानी की सरकार' की बात का जनमानस के पटल पर घर कर जाना और किसान आंदोलन के द्वारा Jio सिम सहित कॉरपोरेट्स के उत्पादों के बहिष्कार के आह्वान को भारी जनसमर्थन मिलना। हालात यहाँ तक पहुँच गए थे कि इन कॉर्पोरेट को जनता में सफाई देनी पड़ी। यह है साझे दुश्मन की सही पहचान क्योंकि इन्ही कॉर्पोरेट्स के दबाव में सरकार मज़दूरों के लिए श्रम संहिता लाई है, सार्वजानिक उपक्रमो को इनके दबाव से ही ओने पौने दाम में बेचा जा रहा है, बेंको का निजीकरण किया जा रहा है, कल्याणकारी राज्य को कमजोर किया जा रहा है और छात्रों के खिलाफ नई शिक्षा नीति लाई है।

जब मेहनतकश वर्ग ने अपने खुद के अनुभवों से अपने दुश्मन की पहचान कर ली है, उसी समय उन्होंने अपने दोस्तों की भी पहचान कर ली है। आम तौर पर किसानों और मज़दूरों को महगाई और आय की असमानताओं के लिए एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है। लेकिन पिछले एक साल के संघर्ष के दौरान दोनों वर्गों पर भाजपा की नव-अर्थशास्त्र नीतियों का समान हमला हुआ है । सेंट्रल ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच ने एसकेएम के संघर्ष को अपना सक्रिय समर्थन दिया और संयुक्त किसान मोर्चे ने चार श्रम संहिताओं और पीएसयू के निजीकरण का मुद्दा भी उठाया। मनरेगा और पीडीएस के मुद्दों को ट्रेड यूनियनों और संयुक्त किसान मोर्चे ने उठाते हुए खेत मज़दूरों को अपने संघर्ष के करीब लाया है। किसान संघर्ष के समर्थन में मज़दूरों की भारी लामबंदी हुई और किसान और खेतिहर मजदूर ट्रेड यूनियनों द्वारा बुलाई गई हड़तालों का हिस्सा बन गए।

यह परिणाम है मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और किसानों के नेतृत्व के सचेत प्रयासों का । किसानों की जीत के बाद नेतृत्व की ओर से इस एकता को जारी रखने की बात दोहराई गई। पिछले सात वर्षों के दौरान भारत के सामने एक बड़ा सवाल था कि कैसे भाजपा और आरएसएस की विभाजनकारी हिंदुत्व की राजनीति, जो लोगों की एकता को धार्मिक और जातिगत पहचान के आधार पर तोडती है, का सामना किया जाये। इसका उत्तर मज़दूरों, खेतिहर मजदूरों और किसानों की एकता और मुद्दों पर आधारित उनके संयुक्त संघर्ष में निहित है। इस संघर्ष को आम लोगों के व्यापक समर्थन की आवश्यकता है। वर्तमान स्थिति यह है समाज के सभी हिस्से एक सत्तावादी सरकार के खिलाफ संघर्ष में लगे हुए हैं, जो नाजियों की फासीवादी विचारधारा के भारतीय संस्करण हिंदुत्व की विचारधारा द्वारा निर्देशित है। देश की मेहनतकश जनता की यह लड़ाई 19 जनवरी 1982 की अखिल भारतीय हड़ताल के शहीदों की विरासत की निरंतरता है।

सीटू, अखिल भारतीय किसान सभा और अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन ने इस दिन को पूरे देश में मनाने का फैसला किया है। विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये इस ऐतिहासिक दिन के महत्व को उजागर करते हुए भारत को नवउदारवादी नीतियों और भाजपा के नेतृत्व में सांप्रदायिकता के दोहरे हमले से बचाने के लिए भविष्य के संघर्षों के लिए मेहनकश की एकता को और मजबूत किया जायेगा।

(लेखक अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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