आज 'भारत बंद' है
आज भारत बंद है। किसानों का भारत बंद, किसानों के हक़ में भारत बंद। खेती को कॉरपोरेट के हवाले करने के विरोध में भारत बंद, तीन ‘काले क़ानून’ वापस लिए जाने की मांग को लेकर भारत बंद। सरकार किसानों की ताक़त तौलना चाहती है लेकिन यह विडंबना ही है कि एक लोकतांत्रिक देश की सरकार अपने नागरिकों की, अपने किसान-मज़दूर, अपने अन्नदाता की ताक़त तौलना चाहती है!, उस नागरिक, उस जनता की ताक़त जिसने उसे ताक़त बख़्शी, जिसने उसे ‘सरकार’ बनाया।
यह विडंबना है कि सरकार आम जनता की बात तभी सुनती है जब वो सड़क पर उतरकर अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं। जब वो उसे अपनी ताक़त का एहसास करा देते हैं।
दिसंबर की ठुठराती ठंड में दिल्ली के दरवाज़े पर लगातार धरना देने के बाद किसान सरकार को बातचीत की मेज़ तक तो खींच लाए हैं, लेकिन अफ़सोस सरकार अभी भी टाल-मटोल की मुद्रा में है। और किसानों को बंद के लिए मजबूर कर दिया गया है। इस देश को बंद में झोंकने के लिए किसान नहीं सरकार ज़िम्मेदार है, वरना क्या वजह है कि उसने न किसानों की मांग मानने की कोई कोशिश की, न उन्हें बंद न करने के लिए मनाने की।
अजब है कि किसान-मज़दूरों के बलबूते बनी ये सरकार अब जानना चाहती है कि देश के अन्नदाता किसान का देश में कितना समर्थन है, कौन-कौन उसके साथ हैं ये बेहद हास्यापद है। जिस देश के परिचय की पहली लाइन ही यही है कि “भारत एक कृषि प्रधान देश है”, उस देश में कौन किसानों के साथ नहीं होगा या किसे किसानों के साथ नहीं होना चाहिए!
हां, बस एक संगठन किसानों के साथ नहीं है, वो है आरएसएस से जुड़ा भारतीय किसान संघ। यह अच्छा भी है ताकि लोग समझ सकें कि केवल ‘भारतीय’ या ‘किसान’ नाम रख लेने से न कोई भारतीय हो जाता है, न किसान। 26 नवम्बर को हुई ऐतिहासिक आम हड़ताल में भी आरएसएस से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ ने शिरकत नहीं की थी। मोदी सरकार के विरुद्ध यह पांचवी औद्योगिक हड़ताल थी और 1991 में नवउदारवादी सुधारों के बाद से देश की 20वीं आम हड़ताल।
गौर कीजिए कि आरएसएस से जुड़े ज़्यादातर संगठन और दल में भारतीय शब्द जुड़ा है लेकिन जहां भारतीय जनता खड़ी होती है ये वहां नहीं होते। चाहे वो भारतीय किसान संघ हो या भारतीय मज़दूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद हो या फिर भारतीय जनता पार्टी।
उस श्रमिक हड़ताल को किसानों ने भी समर्थन दिया था और आज सारे मज़दूर संगठन (भारतीय मज़दूर संघ को छोड़कर) इस बंद में किसानों के साथ हैं।
आज के बंद को सभी प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दलों, 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों, भारत के बैंकों, बीमा क्षेत्र, विश्वविद्यालय और स्कूल के शिक्षकों/अधिकारियों, छात्रों, नौजवानों सहित महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के संगठनों, सशस्त्र बलों के अवकाशप्राप्त सैनिकों, फ़िल्म उद्योग से जुड़े कामगारों, अनौपचारिक क्षेत्र और अनुबंध कामगारों, आदि सहित सैकड़ों अन्य संगठनों ने समर्थन किया है। यहां तक कि कवि, लेखक, पत्रकार भी लिख रहे हैं कि Poets for farmers, Writer for Farmers, Journalist for farmers.
इस 'बंद' का आह्वान तब किया गया जब मोदी सरकार अपने तीन कृषि क़ानून वापस लेने को तैयार नहीं हो रही है। किसान जान रहा है कि ये क़ानून उसके लिए मौत का फ़रमान हैं, फांसी का फंदा हैं। पहले ही उसकी हालत ख़स्ता है, ऊपर से ये तीन नए क़ानून न केवल उसकी उपज की आमदनी बल्कि उसकी ज़मीन, उसकी आज़ादी ही छीन लेंगे। इसलिए वह चाहता है कि ये क़ानून वापस हों और अगर सरकार वाकई किसानों के हित में कुछ सोचती है तो फिर एमएसपी की गारंटी करते हुए नए क़ानून बनाएं जाएं।
ये तीन क़ानून हैं क्या, जिनका इतना विरोध हो रहा है, जिसके लिए किसान करो या मरो की स्थिति में आ गया है।
ये तीन क़ानून हैं-
1. कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार अधिनियम -2020
2. कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) अधिनियम 2020
3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020
गौरतलब है कि ये तीनों क़ानून इसी कोरोना आपदा काल में सितंबर माह में बिना किसी समुचित चर्चा के संसद में पास कर दिए गए। राज्यसभा में इन बिलों को लेकर कैसा हंगामा हुआ पूरे देश ने देखा लेकिन सभापति महोदय ने केवल ध्वनिमत के आधार पर इतने महत्वपूर्ण बिल पास करा दिए। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी मिलने के बाद ये बिल 27 सितंबर को क़ानून के तौर पर प्रभावी हो गए। आपको ये जानकर हैरत होगी कि जब कोरोना अपने चरम पर था तब मोदी सरकार की सबसे पहले चिंता 44 श्रम कानूनों के बदले चार श्रम सहिंता (लेबर कोड) बनाने और तीन कृषि कानूनों को लेकर थी। वे क़ानून जो न मज़दूर चाहते हैं, न किसान। किसी किसान या किसी किसान संगठन ने इन तीन कृषि कानूनों की मांग नहीं की लेकिन सरकार कॉरपोरेट के दबाव में इतनी जल्दी में थी कि उसने इन्हें संसद में ले जाने से पहले जून में तत्काल अध्यादेश के जरिये लागू कर दिया। मतलब जब पहली चिंता कोरोना पीड़ितों के इलाज, वैक्सीन की खोज और चौपट हो गई अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी को दूर करने के लिए युद्धस्तर पर कार्य करने की थी, मोदी सरकार बिना मांगे मज़दूर और किसानों के खिलाफ क़ानून बनाने में लगी थी और उसे अध्यादेश के जरिये थोपने का काम कर रही थी।
वाम दलों और अन्य संगठनों ने सड़क से लेकर संसद तक और सुप्रीम कोर्ट तक में इन क़ानूनों को चुनौती दी है। सभी इन क़ानूनों को भारत की संवैधानिक व्यवस्था के संघीय ढांचे का उल्लंघन मानते हैं।
किसान तो लगातार इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका कहना है कि ये क़ानून खेती की मौजूदा प्रणाली, कृषि उत्पाद के कारोबार और यहां तक कि इन उत्पादों के भंडारण और मूल्य निर्धारण की प्रणाली को भी तबाह कर देंगे। इसलिए मसला केवल MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का नहीं है। उसके बारे में तो सीधे तौर पर ये क़ानून कुछ नहीं कहते। बल्कि इन क़ानूनों से पैदा हुई आशंकाओं को देखते हुए इस बात ने ज़ोर पकड़ लिया है कि ये क़ानून तो वापस किए ही जाएं, एमएसपी को लेकर गारंटी दी जाए और इसको लेकर अलग से क़ानून बनाया जाए।
लेकिन मोदी सरकार किसानों की कोई बात मानने को तैयार नहीं और आज नौबत भारत बंद की आ गई। 26-27 नवंबर से शुरू हुए ‘दिल्ली चलो’ के प्रदर्शन और घेराव के बाद बस इतना हुआ है कि सरकार बातचीत की मेज़ पर आई है। लेकिन 5 दिसंबर को हुई पांचवें दौर की बातचीत में भी सरकार कुछ मामूली संशोधनों को तैयार हुई है जबकि किसान पूर्ण रूप से इन कानूनों की वापसी चाहते हैं। अब बंद के बाद कल 9 दिसंबर को छठे दौर की बातचीत होगी। देखना दिलचस्प होगा कि इसका क्या परिणाम निकलता है।
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