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ग्रामीण भारत में कोरोना-41: डूबते दामों से पश्चिम बंगाल के खौचंदपारा में किसानों की बर्बादी का सिलसिला जारी !

इस बात की सूचना प्राप्त हुई थी कि यहाँ के किसानों ने अपनी टमाटर, भिन्डी और हरी मिर्च की फसल को सड़कों के किनारे फेंक दिया था, क्योंकि बदले में उन्हें जो कीमतें दी जा रही थी, उतने में तो सब्जियों को मण्डी तक पहुँचाने का भाड़ा भी पूरा नहीं पड़ रहा था।
ग्रामीण भारत में कोरोना-41
चाय की पत्तियों का प्रसंस्करण (प्रतीकात्मक तस्वीर) 

ग्रामीण भारत में कोविड-19 से सम्बन्धित नीतियों को लागू करने के दौरान पड़ रहे प्रभावों की झलकियों को प्रस्तुत करती यह जारी श्रंखला की 41वीं रिपोर्ट है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी इस श्रृंखला में कई शोधकर्ताओं की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों के गाँवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर रिपोर्टों को उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख सूचना-प्रदाताओं के साथ की गई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार किया गया है।

यह खौचंदपारा गाँव की एक रिपोर्ट है जोकि छोटा सालकुमार ग्राम पंचायत और फलकटा सामुदायिक विकास खंड के अंतर्गत पड़ता है। यह गांव उत्तरी पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में स्थित है, और गाँव की सीमा जहाँ एक तरफ भूटान के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा के तौर पर रेखांकित है, वहीँ दूसरी तरफ यह असम के साथ एक अन्य राज्य की सीमा के तौर पर इसे साझा करता है। यह गांव भूटानी हिमालयन रेंज की तलहटी के बीच दोआर्स क्षेत्र में स्थित है। इस गाँव का पूर्वी भाग प्रसिद्ध जलदापारा नेशनल पार्क के साथ भी अपनी सीमा साझा करता है। सबसे नजदीक में पड़ने वाला बाजार उमाचरणपुर यहाँ से 9 मील की दूरी पर स्थित है, जहाँ पर बैंक, एटीएम, हाई स्कूल,  रोजाना लगने वाली सब्जी मंडी, एक स्वास्थ्य उप-केंद्र और एक डाकघर मौजूद हैं। खौचंदपारा से निकटतम अस्पताल और कॉलेज लगभग 18 किमी की दूरी पर फलकटा ब्लॉक शहर में पड़ते हैं।

मैंने 10 मई से 15 के बीच में खौचंदपारा में मौजूद उत्तरदाताओं से उनके उपर लॉकडाउन के कारण पड़ रहे प्रभावों का आकलन करने के लिए उनके साथ टेलीफोनिक साक्षात्कार की एक श्रृंखला आयोजित की थी। मेरे उत्तरदाताओं में ई-रिक्शा चालक, सब्जी विक्रेता, किसान, प्रवासी श्रमिकों के परिवार के लोग, चाय बागान में काम करने वाले श्रमिक और जंगल से मिलने वाली गैर-इमारती लकड़ी इकट्ठा करने वाले लोग शामिल थे।

मैं अपनी व्यक्तिगत हैसियत में इन तमाम उत्तरदाताओं से परिचित हूँ और लॉकडाउन के दौरान राहत कार्य चलाने वाले संगठन के साथ मेरे काम के अनुभव के दौरान उनमें से कुछ के साथ मुझे बातचीत का अवसर भी प्राप्त हुआ था।

लॉकडाउन का कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

भारत की जनगणना (2011) के अनुसार खौचंदपारा में कुल 1,151 परिवार निवास कर रहे थे, और यहाँ की कुल जनसंख्या 5,222 लोगों की थी, जिसमें लिंगानुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 931 महिलाओं का था। खौचंदपारा की साक्षरता दर 61.71% थी, जोकि राज्य और राष्ट्रीय औसत से कम थी। यह गाँव मुख्य रूप से विभिन्न अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के लोगों से बसा हुआ है। अनुसूचित समुदाय के लोगों में नामासूद्र, धोबी और राजबंशी जातियाँ प्रमुख हैं। जबकि मेच या बोडो, संथाल, ओरांव और मुंडा इस गाँव में प्रमुख अनुसूचित जनजाति समुदाय हैं।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय मिलकर गाँव की कुल आबादी के 84.25% हिस्से को निर्मित करते हैं। अनुसूचित जाति समुदाय के लोग जहाँ इस गाँव की कुल आबादी का 52.54% हिस्सा हैं वहीँ अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोग कुल आबादी के 31.71% हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं।

जनगणना वर्ष के हिसाब से गांव में लगभग 2,200 लोग मजदूरी करते थे। गाँव की अर्थव्यवस्था मुख्य तौर पर कृषि, लघु व्यवसाय और गैर-इमारती लकड़ी के उत्पादों पर आधारित है। खेती के नाम पर खौचंदपारा के ग्रामीण धान, गेहूं, सरसों, आलू, मक्का, मिर्च, टमाटर, गोभी और अन्य फसल उगाते हैं। यहाँ ग्रामीण चाय और सुपारी जैसी बागबानी वाली फसल और जूट जैसे नकदी फसल की भी खेती करते हैं।

लॉकडाउन की घोषणा के वक्त रबी की फसल जैसे कि आलू, टमाटर, मिर्च, भिन्डी और मूली की फसल कटने और बाजार में बिकने के लिए पूरी तरह से तैयार खड़ी थी। ऐसी सूचना मिली थी कि किसानों ने बेचने के लिए तैयार टमाटर, भिंडी और हरी मिर्च की फसलों को सड़कों के किनारे फेंक दिया था, क्योंकि इसके लिए उन्हें जो दाम दिए जा रहे थे, उसमें तो सब्जियों की परिवहन लागत भी पूरी नहीं हो पा रही थी। यह इलाका आलू की खेती के लिए मशहूर है, और फसल तैयार हो जाने पर मुख्य तौर पर इसे असम और भारत के अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बेच दिया जाता है। लॉकडाउन के दौरान इस बार यहाँ के किसानों को अपने आलू को बेहद सस्ते दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि उन्हें साहूकारों से लिए गए कर्ज को चुकाने की मजबूरी थी।

बत्तीस वर्षीय अर्जुन दास एक ई-रिक्शा मालिक है और वह खुद ही इसे चलाता है। उसके पांच सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण इसी ई-रिक्शा की कमाई पर निर्भर है। जबसे लॉकडाउन की घोषणा हुई थी, तबसे उसके पास कमाई का कोई साधन नहीं रह गया था। ऐसे में उसने अपनी बचत किये हुए पैसे में से किसानों से सब्जियों की खरीद कर, स्थानीय बाजार में एक छोटा सब्जी का स्टाल खोल लिया था। लेकिन इससे भी उसे पर्याप्त कमाई नहीं हो पा रही थी, जैसा कि उसका कहना है "यहाँ सब्जियां बेहद सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। लेकिन इसके बावजूद मुश्किल से ही कोई इंसान सब्जी खरीदने के लिए राजी होता है, क्योंकि लोगों के हाथ में पैसा ही नहीं है।"

गाँव में रोजगार के प्रमुख स्रोतों के तौर पर अड़ोस-पड़ोस के गांवों से सब्जी और पशुधन को जयगांव-फुएंसथोलिंग गलियारे के माध्यम से भूटान के विभिन्न बाजारों में निर्यात किया जाता था। खौचंदपारा से तकरीबन चौंतीस किमी की दूरी पर स्थित जयगाँव बाजार, भूटान के साथ व्यापार के लिए एक प्रमुख केंद्र के तौर पर मशहूर है। यहाँ से भूटान को बिजली और इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण, हार्डवेयर, टायर, चाय, वस्त्र, दवाइयां, व्यक्तिगत सौंदर्य और स्वच्छता के उत्पाद, थोक में अनाज की सप्लाई, छोटे वाहन, मोटर बाइक, लोहा और स्टील उत्पाद निर्यात किये जाते हैं। वहीँ भूटान की ओर से भारत को डोलोमाइट, सीमेंट, स्टोन चिप्स, आलू, पैकेज्ड फूड, संतरे और इलायची का निर्यात होता है। 6 मार्च को पहले कोरोनावायरस मामले के प्रकाश में आने के बाद से ही भूटान की सरकार ने अपने देश की सीमा को सील कर दिया था। नतीजे के तौर पर खौचंदपारा के वे विक्रेता जो जयगांव बाजार में बेचने के लिए आसपास के गांवों से पोल्ट्री, सब्जियां, मछली, दूध और अन्य उत्पादों को इकट्ठा कर लाते थे, उन सभी के पास अब कमाई का कोई स्रोत नहीं रह गया था।

इसके साथ ही खौंचनपारा और अड़ोस-पड़ोस के गाँवों के अनेकों प्रवासी मजदूर भूटान की निर्माण परियोजनाओं में कार्यरत हैं। भूटान में दैनिक मजदूरी की दरें जहाँ अकुशल श्रमिक के लिए 450 से 500 रुपये और कुशल श्रमिक के लिए यह दर 600 से 650 रुपये के बीच है, वहीँ गाँव में दी जाने वाली दैनिक मजदूरी की दरें (अकुशल श्रम के लिए 300 और कुशल श्रम के लिए 450 रुपये) से ये काफी अधिक हैं। छोटा सालकुमार ग्राम पंचायत के दूसरे गाँवों के कई लोगों का भी भूटान में रोजगार छिन चुका है, और यहाँ तक कि उनमें से कुछ लोग काम की जगहों से अपने गाँवों को वापस नहीं लौट सके हैं।

चूंकि लॉकडाउन की वजह से भूटान के बाजारों से आपूर्ति की श्रृंखला टूट चुकी है, इसके चलते आमतौर पर गांव के भीतर किसानों को अपनी उपज के उचित दाम मिल जाया करते थे, वह अब नहीं मिल पा रही है। इस बीच अप्रैल के मध्य में असम-बंगाल की सीमा के भी आंशिक रूप से सील कर दिए जाने के बाद से हालात और भी अधिक खराब हो चुके हैं। किसान अपनी उपज को स्थानीय बाजारों में पहले से काफी कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर हैं। उदाहरण के लिए लॉकडाउन के दौरान कुछ हफ्तों तक आलू 10 रुपये प्रति किलोग्राम और टमाटर 5 रुपये प्रति किलो के भाव बिक रहा था। ये कीमतें लॉकडाउन घोषित होने से पहले की कीमतों के लगभग आधे के बराबर थीं।

खौचंदपारा, बड़ाईतरी और उमाचरणपुर गाँवों के लिए निकटतम दैनिक बाजार उमाचरणपुर बाजार है। तब्लीगी जमात वाली घटना के प्रकाश में आने के बाद से इस बाजार में बैरिकेडस लगाकर आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, क्योंकि कथित तौर पर यह खबर थी कि दिल्ली के निज़ामुद्दीन में धार्मिक आयोजन के लिए इकट्ठा हुए लोगों में इस क्षेत्र के भी कुछ लोगों ने शिरकत की थी। इसके बाद पुरानी सब्जी मंडी से कुछ सौ मीटर की दूरी पर एक खाली स्थान पर नई सब्जी मंडी की भी शुरुआत की गई थी। खौचंदपारा के निवासी शिवाशीष मंडल (58) का पुराने बाजार में किराए के कमरे में किराने की एक छोटी सी दुकान है। उनके अनुसार "लॉकडाउन की वजह से पहले से ही बाजार में ग्राहक ना के बराबर थे, और उपर से अब नये बाजार के खुल जाने के कारण मुश्किल से ही कोई ग्राहक अब इस बाजार में नजर आता है। मुझे अपने परिवार के भरण-पोषण का इंतजाम करने के साथ-साथ इस दुकान का किराया भी भरना पड़ता है। मेरे लिए अब अपने परिवार के चार सदस्यों का पेट पालना काफी मुश्किल होता जा रहा है।"

सुपारी और चाय के बागानों पर पड़ता असर

खौचंदपारा की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुपारी के बाग़ एक और महत्वपूर्ण हिस्से के तौर पर हैं। सुपारी उगाने के लिए खेती योग्य भूमि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यहाँ उपयोग में लाया जा रहा है। यह फसल इस गाँव की सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसलों में से एक है, और साल में एक बार मार्च-अप्रैल के महीनों के दौरान इसकी कटाई और बिकवाली होती है। ग्रामीणों के अनुसार जलदापारा नेशनल पार्क से हाथियों, सूअरों और बंदरों जैसे जंगली जानवरों के झुण्ड अक्सर रात में खेतों में हल्ला बोलते हैं और धान, आलू, मक्के, और अन्य सब्जियों की फसलों को तहस-नहस कर डालते हैं। चूंकि हाल के वर्षों में इन घटनाओं में लगातार बढोत्तरी देखी गई थी, इसलिए अब ग्रामीणों ने कम नष्ट किये जाने वाली फसल के विकल्प के तौर पर सुपारी की खेती करने का फैसला किया।

39 वर्षीय परिमल रे अपने एक एकड़ जमीन पर सुपारी की फसल उगाते हैं। इस साल कटाई के सीजन के बीच में ही लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई थी। हालाँकि वे अपनी सारी फसल को एक स्थानीय सुपारी प्रसंस्करण करने वाले कारखाने को बेचने में कामयाब रहे, लेकिन बदले में उन्हें कोई नकदी अभी तक नहीं मिल सकी है। "चटाल मालिक (सुपारी प्रोसेसिंग यूनिट) ने मुझे स्पष्ट कर दिया था कि जब तक लॉकडाउन की स्थिति समाप्त नहीं हो जाती और उसके बाद वह असम के बाजारों में प्रोसेस्ड सुपारी के निर्यात का कोई प्रबंध नहीं कर लेते, तब तक वे कुछ भी दे पाने की स्थिति में नहीं हैं।" वे आगे कहते हैं कि उनके पास इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं बचा था, क्योंकि यदि फसल कटाई में देरी होती तो आगामी सीजन की उत्पादकता प्रभावित हो सकती है।

गाँव में दो बड़े चाय बागान, खौचंदपारा टी एस्टेट और मदारीहाट लैंड प्रोजेक्ट (एमएलपी) भी मौजूद हैं। डंकन इंडस्ट्रीज लिमिटेड के स्वामित्व वाले एमएलपी चाय बागान का विस्तार तीन गांवों खौचंदपारा, उमाचरणपुर और मध्य मदारीहाट तक फैला हुआ है। साल 2015 से ही प्रबंधन द्वारा एमएलपी बागान को छोड़ दिया गया है। इसी के साथ मदारीहाट लैंड प्रोजेक्ट (एमएलपी) के 975 स्थायी श्रमिकों और उनके परिवार का भविष्य भी अधर में लटक गया है। इस बीच मजदूरों ने मदारीहाट लैंड प्रोजेक्ट के स्वामित्व वाली 250 हेक्टेयर भूमि पर अवैध कब्जा जमाकर वहाँ से हरी पत्तियों को चुनकर पत्तियों की खरीद करने वाले कारखानों को बेचने का काम शुरू कर दिया है।

2000 के दशक की शुरुआत से ही चाय बागानों में चल रहे संकट को देखते हुए, उत्तरी बंगाल के चाय बागानों से भारी संख्या में नौजवान काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर चुके थे। इनमें से ज्यादातर लोगों को केरल, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में निर्माण क्षेत्र, कपड़ा मिलों और रेस्तरां में रोजगार मिला हुआ है। उनमें से कुछ लोग लॉकडाउन की घोषणा से पहले ही गाँव लौटने में कामयाब रहे, लेकिन उनमें से अधिकतर लोग अपने काम की जगहों पर ही अटके हैं। उनके परिवारों के लिए यह भारी चिंता और भय का बड़ा स्रोत बना हुआ है।

24 मार्च को जब राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, तो उत्तर बंगाल के सभी चाय बागानों के काम को ठप कर दिया गया था। बागान मालिकों के संगठनों ने राज्य सरकार और केंद्र सरकार से अनुरोध किया था कि कम से कम 25% कार्यबल के साथ उन्हें काम करने की अनुमति दी जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि इस दौरान वे सीजन की पहली कटाई (जिसे "पहले फ्लश" के रूप में जाना जाता है) के बीच में थे, जोकि पूरे सालभर में चाय के सबसे उत्पादक और लाभदायक सीजन के तौर पर जाना जाता है। पहले फ्लश सीज़न के दौरान तोड़ी जाने वाली पत्तियाँ सबसे बेहतरीन चाय मानी जाती हैं, और आमतौर पर निर्यात के लिए इनकी भारी माँग रहती है। इसी के चलते राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बीच में ही उत्तर बंगाल के चाय बागानों को 13 अप्रैल को फिर से खोल दिया गया था। मजदूर भी काम पर आने के लिए मजबूर थे, क्योंकि न तो बागान मालिक और ना ही सरकार उन्हें खाने के लिए राशन और अवकाश पर वेतन प्रदान करने की जिम्मेदारी उठाने को तैयार थे।

मिसाल के तौर पर 48 वर्षीया महिला अंजलि ओरांव आदिवासी समुदाय से सम्बद्ध हैं, जो खौचंदपारा में चाय बागान श्रमिक के तौर पर कार्यरत हैं। आज से कुछ साल पहले, शराब पीने की लत के चलते लीवर खराब हो जाने के कारण उनके पति की मौत हो गई थी। उनके पास अपने चार बच्चों के लालनपालन की जिम्मेदारी है, जिनमें से तीन बच्चे स्कूल जाते हैं। इस बीच उनका बड़ा बेटा काम के सिलसिले में केरल चला गया था और अंजलि को अपने घर का खर्चा चलाने के लिए चाय बागान में काम करके मिलने वाली मजदूरी के साथ-साथ बेटे द्वारा भेजे गए धन पर निर्भर रहना पड़ता है।

सरकारी सहायता और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थिति

राज्य सरकार ने सितंबर 2020 तक सभी जरूरतमंद परिवारों को उनके राशन कार्ड की श्रेणी के अनुसार मुफ्त राशन देने का वादा किया था। हालांकि पश्चिम बंगाल ने इस बीच कई स्थानों पर राशन बाँटने वाले डीलरों के खिलाफ अनेकों विरोध प्रदर्शनों को होते देखा है, जिसमें लाभार्थियों की शिकायत है कि यह प्रणाली दोषपूर्ण है। इसमें कई परिवार पीडीएस सिस्टम से बाहर कर दिए गए थे, क्योंकि उनके पास सरकार द्वारा हाल ही में जारी किये गए डिजिटल राशन कार्ड नहीं हैं। यही वजह है कि नए राशन कार्ड को बनवाने के लिए या अपने पुराने कार्ड को अपडेट करने के लिए हजारों की संख्या में ग्रामीणों को ब्लॉक कार्यालय फलकाता में खाद्य आपूर्ति कार्यालय के बाहर कतारबद्ध देखा गया था। भीड़ को काबू में रखने के लिए हालांकि बांस की एक अस्थायी बैरिकेड तैयार की गई थी, और पुलिस बल की ओर से कुछ नागरिक स्वयंसेवकों को तैनात किया गया था, लेकिन सामाजिक दूरी का पालन नहीं किया जा रहा था। कुछ ऐसे भी लोग थे जिनके पास राशन कार्ड नहीं थे, उन्हें अस्थाई कूपन वितरित किये जा रहे थे, ताकि वे पीडीएस दुकानों से राशन ले सकें।

बोडो समुदाय की एक आदिवासी महिला उत्तरा कारजी (36) अपने तीन बच्चों और शारीरिक तौर पर अक्षम पति के साथ जंगल के समीप बने एक झोपड़ी में रहती हैं। अपनी आय के स्रोत के रूप में वह जंगल से गैर-इमारती लकड़ी इकट्ठा कर इसे स्थानीय स्तर पर बेच दिया करती थी। लेकिन जबसे लॉक डाउन की शुरुआत हुई है, स्थानीय बाजार के बंद रहने के कारण वह इस काम को कर पाने में असमर्थ है, और इस प्रकार उसके पास अपनी आय का मुख्य स्रोत खत्म हो चला है। उसके घर के नजदीक में ही एक प्राथमिक विद्यालय है, जहाँ से उसके बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना के तहत दोपहर के भोजन की व्यवस्था हो जाया करती थी। लॉकडाउन शुरू हो जाने के बाद से स्कूल ने राज्य सरकार द्वारा जारी मिड-डे मील के दिशानिर्देशों के अनुसार उसके परिवार को कुछ किलो चावल और आलू दिए थे, लेकिन यह नाकाफी साबित हुआ है।

केंद्र सरकार की घोषणा के अनुसार उज्ज्वला योजना के तहत प्रत्येक परिवार को बैंकों के जरिये सब्सिडी देकर तीन एलपीजी सिलेंडर मुहैय्या कराये जाने का प्रावधान है। इसकी वजह से भी बैंक काउंटरों के आगे लंबी-लंबी कतारें लग गईं और इन लम्बी कतारों से निपटने के लिए एक अस्थायी काउंटर को बनाना पड़ा था।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एमजीएनआरईजीए) योजना के तहत खौचंदपारा के कई ग्रामीणों के पास जॉब कार्ड बने हुए हैं, लेकिन लॉकडाउन के दौरान इस योजना के तहत चलने वाले कामों पर अस्थायी तौर पर रोक लगा दी गई थी। गाँव में मौजूद पंचायत सदस्यों ने सूचित किया है कि राज्य अधिकारियों की ओर से मनरेगा के तहत फिर से काम शुरू करने के निर्देश प्राप्त हो चुके हैं, लेकिन साथ ही साथ स्वास्थ्य विभाग के दिशानिर्देशों और निर्देशों के पालन को भी अमल में लाना होगा।

समापन टिप्पणी

संक्रमण के खौफ और लॉकडाउन के लागू रहने के चलते गाँव में जीवन एक तरह से ठहर सा गया है। लॉकडाउन और आय का कोई साधन न बचे रहने की वजह से ग्रामीणों की दयनीयता पहले से काफी अधिक बढ़ चुकी है, जोकि पहले से ही गरीबी और अभाव में जी रहे थे। भूटान के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा और असम के साथ राज्य की सीमा के बंद हो जाने का अर्थ है कि भारी संख्या में ग्रामीणों के पास अब कोई काम नहीं रह गया है। लॉकडाउन लागू हुए कई सप्ताह बीत जाने के बाद भी पीडीएस सभी कमजोर तबकों तक नहीं पहुँच सका है, और मनरेगा योजना के तहत काम भी अभी तक शुरू नहीं हो सका है। रोजगार और कमा-खा सकने के अवसरों के अभाव में, ग्रामीण आसन्न भुखमरी और भूख का सामना करने के लिए विवश हैं।

लेखक मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गुवाहाटी में सीनियर रिसर्च फेलो हैं। आप खौचंदपारा में ही जन्में और पले-बढ़े हैं, और चाय बागानों पर अपनी डॉक्टरेट की थीसिस के सिलसिले में आवश्यक फील्डवर्क के दौरान इस इलाके का दौरा करते रहे हैं, और बाद के दिनों में भी यह सिलसिला जारी रहा है।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-

COVID-19 in Rural India XLII: How Sinking Prices Doom Farmers in Khauchandpara of West Bengal

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