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नारीवादी नवशरन सिंह के विचार: किसान आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी से क्यों घबराती है सरकार

महिलाएं सार्वजनिक और गणतंत्र दोनों क्षेत्रों में अपनी मौजूदगी का दावा मजबूती से रख रही हैं, जैसा उन्होंने सीएए विरोधी प्रदर्शनों में किया था। 
नारीवादी नवशरन सिंह के विचार: किसान आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी से क्यों घबराती है सरकार

26 जनवरी को नई दिल्ली में ट्रैक्टर परेड होने से पहले, किसान आंदोलनों की तरफ देश का ध्यान जाने की एक अहम वजह थी, महिलाओं की दिखाई देने वाली खास भागीदारी। ये महिलाएं पंजाब से दिल्ली आई थीं, सड़कों पर बने तंबुओं में हफ्तों में रहीं, किसानों की मांगों के समर्थन में जम कर नारे लगाए, उनके मुद्दों पर भाषण दिए,  सामुदायिक रसोई का बेहतर प्रबंध किया और इस दौरान आयोजित होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इन महिलाओं में से कुछेक के गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड  में हिस्सा लेने के लिए ट्रैक्टर सीखने की तस्वीरें भी सामने आईं, ये तस्वीरें उनकी बराबरी की सुदृढ़ हिस्सेदारी की प्रतीक थीं। क्या इन महिलाओं का दिल्ली की परिधि पर धरना-प्रदर्शन के लिए बैठने का निर्णय स्वायत्त था, खुद की मर्जी से लिया गया फैसला था? क्या पंजाब में होने वाले प्रदर्शनों में महिलाओं के हिस्सा लेने का कोई इतिहास है?

इन सवालों के जवाब के लिए न्यूज़क्लिक ने नवशरन सिंह से बातचीत की,  जिन्होंने ग्रामीण पंजाब की महिलाओं के साथ काम किया है और उनके मुद्दों व सरोकारों पर लिखा भी है। वह जुबान के सेक्सुअल वायलेंस एंड इम्यूनिटी इन साउथ एशिया के सात खंडों परियोजना से संबद्ध रही हैं। जुबान एक नारीवादी प्रकाशन संस्था है। नाटक के क्षेत्र में मशहूर शख्सियत गुरशरन सिंह की बेटी के रूप में, नवशरन ने ग्रामीण पंजाब के थिएटर में शानदार किरदार निभाए हैं। नवशरन ने बताया कि किस तरह प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन महिलाओं को बदलाव के लिए सक्रिय भागीदार होने के लिए लामबंद कर रहा है।

क्या महिलाओं ने 26 जनवरी को हुए ट्रैक्टर परेड में हिस्सा लिया था? यह परेड जिस तरह से खत्म हुआ, उस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

हां, महिलाओं ने तय रास्तों पर अपने ट्रैक्टर और ट्रॉली में परेड में हिस्सा लिया था।  26 जनवरी की पहली रात कड़ाके की ठंड थी। फिर भी मैंने पाया कि टिकरी बॉर्डर (दिल्ली में किसानों के तीन प्रदर्शन स्थलों में से एक) पर महिलाएं रैली में भाग लेने के लिए तैयार हो रही थीं। बार-बार मुझसे कह रही थीं, ‘हम दिल्ली अपने अधिकारों के लिए आए हैं, उन्हें हासिल करके रहेंगे। यह संदेश है, जिसे हम रैली के माध्यम से सरकार को देना चाहते हैं।’ उनके पास ऊनी कपड़े तैयार थे, वे 3:00 बजे भोर में ही जग जाने की योजना बना रही थी और रास्ते के लिए रोटी बनाने की बात कर रही थीं। मोर्चा स्थल पर काम का बंटवारा इस तरह से था कि मर्द सब्जियां  बनाएंगे,  थाली  धोएंगे-और महिलाएं रोटी बनाएंगी। 

फिर, 26 जनवरी को कुछ महिलाओं ने सहसा अपने को लाल किले में ‘पाया’। मैं नेशन फॉर फार्मर्स टीम की एक सदस्य हूं, जो सरोकारी नागरिकों का एक समूह है। यह समूह लाल किले पर हुई घटनाओं के बारे में साक्ष्य इकट्ठा कर रहा है। हम उन सबूतों के आधार पर जानते हैं कि पुलिस ने किसानों के परेड के लौटने के तय रास्ते पर बैरिकेड्स लगा रखे थे और इसके जरिये उनका रास्ता बदल दिया था। उन महिलाओं ने मुझसे कहा कि वे अपने तय रास्ते से ही जाना चाहती थीं, इस पर अड़ी भी थीं। पर वे अपने को लाल किले में सहसा पाकर दहशत में थीं। उन्होंने अपने लोगों को कॉल करने की कोशिश की थी, लेकिन मोबाइल फोन वहां काम नहीं कर रहा था। इंटरनेट ठप पड़ा हुआ था, इसलिए वे रास्ते के नक्शे की सुविधा का इस्तेमाल नहीं कर सकीं। उन्होंने कहा कि उन लोगों ने वहीं अपने ट्रैक्टर छोड़ दिए और ऑटो रिक्शा लेकर अपने कैंप लौट आईं। 

वे निश्चित रूप से ट्रैक्टर परेड के इस तरह से समाप्त होने पर अवश्य ही निराश हो गई होंगी।  क्या अभी वे उसी मन:स्थिति में हैँ?

26 जनवरी की शाम को वे निस्संदेह बुरी तरह हताश-निराश थीं। उन्होंने धरना-प्रदर्शन स्थल पर स्वयं से एक दूसरे के बारे में पूछा था। लगभग सभी का अनुभव यही था कि पुलिस ने उन्हें लाल किले की तरफ मोड़ दिया। ये महिलाएं दीप सिंधु (गायक-अभिनेता) और उन लोगों से काफी नाराज थीं, जिन्होंने उनके कैम्प लौटने के रास्ते जानबूझ कर बदल दिये थे। इन महिलाओं ने मुझसे कहा, ‘हमें यह लड़ाई जीतने के लिए बुद्धि और बल दोनों चाहिए।’ 28 जनवरी को, जब सिंघु बोर्डर के प्रदर्शन स्थल पर हमला किया गया, तो इसमें कई महिलाएं भी जख्मी हुई थीं। उनमें से कुछेक की कलाइयों पर मरहम पट्टी लगी थीं, और वे सरकार को माफ करने के लिए तैयार नहीं थीं। वे बड़ी तादाद में धरना-प्रदर्शन स्थलों पर लौटीं।

हम किसानों की गवाही, साक्ष्यों के आधार पर यह जानते हैं कि पुलिस ने बैरिकेड्स के जरिए उनके तय रास्ते को बदल दिया, जिसे होकर उन्हें अपने कैम्पों में लौटना था। उन महिलाओं ने मुझसे कहा कि वे अपने तय रास्ते से ही जाना चाहती थीं और इस पर अड़ी भी थीं। वे अपने को लाल किले में सहसा पाकर दहशत में थीं। उन्होंने अपने लोगों को कॉल करने की कोशिश की थी, लेकिन मोबाइल फोन वहां काम नहीं कर रहा था। इंटरनेट ठप पड़ा हुआ था, इसलिए वे रास्ते के नक्शे की सुविधा का इस्तेमाल नहीं कर सकीं। उन्होंने कहा कि, उन लोगों ने वहीं अपने ट्रैक्टर छोड़ दिए और ऑटो रिक्शा लेकर अपने कैंप लौट आ गईं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसान महिलाओं ने राकेश टिकैत (उत्तर प्रदेश के भारत किसान यूनियन नेता) के लिए पानी के घड़े लाई थीं, जो गाजीपुर बार्डर के प्रदर्शन स्थल पर थे। अधिकतर महिलाएं, खासकर हरियाणा से आने वाली महिलाएं सिंघु बॉर्डर पर पहुंच रहीं हैं। उन्होंने सामुदायिक रसोई को फिर से शुरू कर दिया है, जो 3 दिन से ठप पड़ गया था। उन महिलाओं ने बाकायदा मंच से इसकी घोषणा की कि वे यहां टिकने के लिए आई हैं और कि असल लड़ाई तो अब शुरू हुई है। उनकी इस दमदार मौजूदगी का संदेश सरकार को जाना चाहिए। 

2019-20 में नागरिकता संशोधन अधिनियम  (सीएए) के विरोध में हुए प्रदर्शन ने भी शहरी भारत की महिलाओं का ध्यान अपनी ओर खींचा था, जबकि तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध जारी किसानों का मौजूदा प्रदर्शन में ग्रामीण भारत की महिलाएं हिस्सा ले रही हैं। दो दो अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आईं महिलाओं के दो अलग-अलग मुद्दों पर भिन्न विरोध के क्या मायने हैं?

ग्रामीण और शहरी पृष्ठभूमियों में अंतर के अलावा एक और अंतर है। नई दिल्ली के शाहीन बाग में या देश के अन्य हिस्सों में, सीएए के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वालीं ज्यादातर महिलाएं ऐसी थीं, जिन्होंने पहली बार किसी प्रदर्शन में हिस्सा लिया था। भेदभावकारी नागरिकता कानून के संदर्भ में, जिसका बड़ी संख्या में लोगों ने विरोध किया था, प्रदर्शनकारी महिलाएं नागरिकता की जेंडरकृत अवधारणा का भी विरोध कर रही थीं।

नागरिक दायरे में, निजी और सार्वजनिक युग्म, में महिलाओं के नागरिकता के जेंडरकृत अनुभव स्पष्ट हैं। यह  द्विआधारी व्यवस्था यह निर्देशित करता है कि सार्वजनिकता का संबंध पुरुषों से है, जबकि निजता का मतलब स्त्रियों से है। सीएए विरोधी प्रदर्शनों में महिलाओं ने स्वयं की सार्वजनिकता का दावा किया- और गणतांत्रिक होने का भी।

नागरिकता के जेंडरकृत विचार से आपका क्या मतलब है?

महिलाओं को नागरिक अधिकार में भेदभाव झेलना पड़ रहा है।  नागरिकता का उनका जेंडरकृत अनुभव यह द्विआधारी व्यवस्था  निर्देशित करता है कि सार्वजनिकता का संबंध पुरुषों से है जबकि निजता का मतलब स्त्रियों से। सीएए विरोधी प्रदर्शनों में महिलाओं ने स्वयं की सार्वजनिकता का दावा किया-और गणतांत्रिक होने का भी।

सीएए के विरोध में प्रदर्शन कर रहीं महिलाओं को अपनी सार्वजनिकता का दावा किस वजह से करना पड़ा?

शाहीन बाग की कई महिलाएं विरोध में उतर आई थीं क्योंकि उन्होंने असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) को तैयार होने के दौरान लोगों के हुए बुरे अनुभवों पर गौर किया था। एनआरसी में जो संदर्भ शामिल किए जा रहे थे, वे पूरी तरह अबूझ थे, अस्पष्ट थे- यद्यपि वे ये काम नागरिकों की भूमि पर उनके अधिकार के जरिये, परिवार की वंशावली के जरिए और राज्य के दस्तावेजों में दर्ज उनकी मौजूदगी के जरिए कर रहे थे। 

हम जानते हैं कि स्त्रियों के पास कोई जमीन नहीं होती, जमीन से स्त्रियों का रिश्ता केवल उनकी मजदूरी का होता है।  परिवार में बेटी की उनकी पहचान बहू के रूप में रूपांतरित होती है। जब बेटी की शादी हो जाती है और उन्हें ससुराल जाना पड़ता है, तब दूसरे राज्यों के दस्तावेजों में वे बमुश्किल ही दर्ज हो पाती हैं। असम में एनआरसी ने बड़ी संख्या में महिलाओं को रजिस्टर से बाहर रखा था। इससे महिलाओं  ने यह अनुभव किया कि उनकी असुरक्षा भिन्न प्रकार की है, इस अर्थ में (जेंडर और वर्ग की दृष्टि से अपनी कमतर हैसियत के कारण) कि अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए जरूरी दस्तावेज हासिल करना, उनके लिए संभव नहीं है। इसीलिए सीएए के विरोध में चल रहे प्रदर्शन स्थलों पर यह नारा दिया गया कि “हम कागज नहीं दिखाएंगे।” 

किसान प्रदर्शन में हिस्सा ले रहीं महिलाओं के बारे में क्या कहना है?

टिकरी और सिंधु बॉर्डर पर धरना-प्रदर्शन कर रहीं ये महिलाएं कोई पहली बार ऐसे आंदोलन में शिरकत नहीं कर रही हैं। उनकी भागीदारी भी अकस्मात नहीं हुई है। पंजाब में महिलाएं कम से कम एक दशक पहले से अपने अधिकारों के लिए लामबंद होती रही हैं, खासकर वाम दलों के किसान यूनियनों के जरिए।  ये महिलाएं सीमांत और लघु किसान परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। लामबंदी के दौरान, किसान यूनियनों को महिलाओं की नागरिकता के सवाल, सार्वजनिक क्षेत्र में उनके अधिकार और लोकप्रिय संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी के अधिकार पर विचार करना पड़ा है। किसान संगठनों ने इस पर गहराई से विचार किया है। हालांकि इन सवालों के जवाब अभी नहीं मिले हैं। लेकिन इन सवालों पर बहस का रास्ता खुल गया है। बहुत सारी किसान यूनियनें  8 मार्च को बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाती रही हैं। वे पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में सभा-समारोह का आयोजन करती रही हैं और इसमें व्याख्यान देने के लिए बाहर से विशेषज्ञों को बुलाती रही हैं। इन किसान यूनियनों में-भारतीय किसान यूनियन (एकता उगरहन)- का एक नारा है, ‘जब महिलाएं किसी आंदोलन में भाग लेती हैं, वह आंदोलन खिल उठता है।’ 

एक विचार है कि किसान यूनियनों ने रणनीतिक कारणों से महिलाओं को दिल्ली  बुलाया है। यहां तक कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआइ) ने भी टिप्पणी की, “प्रदर्शन में महिलाएं और बुजुर्गों को क्यों  शामिल किया गया है?”

संघर्षों में पंजाब की महिलाओं की भागीदारी को मैं पिछले सात-आठ सालों से देखती रही हूं।  मुख्य न्यायाधीश की यह टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है।  मैं उन लोगों से इत्तेफाक नहीं रखती, जो मानते हैं कि उनका यह वक्तव्य महिलाओं के प्रति पुरुषों की मानसिकता को दर्शाता है। नहीं, मुख्य न्यायाधीश की इस टिप्पणी का मतलब बहुत गहरा है। इसका मतलब सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की मौजूदगी को खारिज करना है, उसे नकारना है। इसी न्यायपालिका ने सुधा भारद्वाज की जमानत याचिका को खारिज कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय अच्छी तरह से जानता है कि सीएए विरोधी महिला प्रदर्शनकारियों जैसे गुल्फिसा फातिमा, इशरत जहां, नताशा अग्रवाल और देवांगना कालिता को कठोरतम गैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून (यूएपीए) के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है।  किसान संघर्षों में महिलाओं की भागीदारी को लेकर सीजेआइ की टिप्पणी का कोई मायने नहीं है। 

क्या आप यह कहना चाह रही हैं कि महिलाओं के प्रति सर्वोच्च न्यायालय का रुख सार्वजनिक क्षेत्र में हिस्सेदारी के उनके अधिकार को खारिज करने से कहीं अधिक है?

हां, मेरा पुख्ता विश्वास है कि वे चाहते हैं कि  भारत की 50 फ़ीसदी आबादी अपने घरों में बंद रहे। वे उन्हें बाकी बचे 50 फीसद के सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकारों को तय करने के लिए छोड़ दें। 

क्या कृषि के तीन कानून पुरुषों  के बनिस्बत महिलाओं को भिन्न अर्थों में प्रभावित करते हैं?

किसान आंदोलन का बाबस्ता महज तीन कानूनों के विरोध तक ही सीमित नहीं है। यह लंबे समय से चले आ रहे खेती-किसानी के संकट, जिसने व्यापक रूप से किसान परिवारों को प्रभावित किया है, के बीच निर्मित-विकसित हुआ है।  पंजाब से मिले आधिकारिक डाटा से जाहिर होता है कि सन 2000 और 2015 के बीच लगभग17,000 किसानों ने आत्महत्याएं कीं।  कुछ-कुछ किसान परिवारों में तो एक से अधिक व्यक्तियों ने खुदकुशी की थी। इन परिवारों की कई महिलाओं ने पिछले महीने पंजाब से टिकरी बॉर्डर पर प्रदर्शन में भाग लेने आई थीं।  वे अपने साथ अपने उन प्रिय जनों की तस्वीर भी साथ लाई थीं,  कुछ महिलाओं तो अपने पति और ससुर की भी तस्वीरें लाई थीं, जिन्होंने खेती में लगातार जारी संकट से तंग आकर खुदकुशी कर ली थी।  कृषि संकट ने उनके शरीर पर बुरा प्रभाव डाला था।  परिवार के पुरुष सदस्यों के मर जाने के बाद इन महिलाओं को अपने घर में दो जून के खाने का इंतजाम करना था और परिवार को चलाना था, अपने बच्चों  की पढ़ाई-लिखाई का भी बंदोबस्त करना पड़ा था।

इन महिलाओं ने  किसान मजदूर खुदकुशी पीड़ित परिवार कमेटी (केएमकेपीपीसी)  की  स्थापना की और उनके जरिए अपने को संगठित करने की कोशिश की,  जो किसानों की आत्महत्या को एक सांस्थानिक हत्या मानती हैं।  विश्वविद्यालय की एक युवा छात्र करनजीत कौर इस कमेटी की संस्थापक हैं। उनके पिता ने खुदकुशी कर ली थी।  करनजीत गांव-गांव जा-जाकर उन महिलाओं के डाटा इकट्ठा करती रही हैं, जिनके पति, बेटे, पिता और ससुर ने खुदकुशी की थी-और वे आज बेसहारा हैं। इसलिए कृषि संकट को लेकर महिलाओं के अनुभव ज्यादा गहन और सघन हैं। 

आपने कहा कि पंजाब की महिलाएं पिछले 10 सालों से लामबंद होती रही हैं।  आखिर उनकी इस लामबंदी की प्रेरणा क्या थी?

उनकी लामबंदी पंजाब में वाम मोर्चे की विरासत से जुड़ी हुई हैं।  इसमें सबसे महत्वपूर्ण, पंजाब में 1960 के दशक के उत्तरार्ध से प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन बहुत जीवंत होना है। आज के पंजाब में  कई ग्रामीण थिएटर ग्रुप काम कर रहे हैं और जिन्हें हम दिल्ली में किसानों के धरना-प्रदर्शन स्थलों पर कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए अक्सर देखते हैं।  इन थिएटर समूहों में से कई  एक मुख्य संगठन पंजाब लोक सभ्याचरक मंच जुड़े हैं,  जो प्रगतिशील सांस्कृतिक अभियानों के जरिए एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है।  यह समूह राजनीतिक थिएटर करते हैं।  इनमें महिलाएं-कलाकार और दर्शक-दोनों रूपों में भाग लेती हैं। 

राज्य चाहता है कि भारत की 50 फ़ीसदी आबादी अपने घरों में बंद हो जाए।  वह बाकी बचे 50 फीसद आबादी के सार्वजनिक क्षेत्र  के उनके अधिकारों को सुरक्षित कर सके। 

आपके पिता गुरशरन सिंह पंजाब लोक सभ्याचरक मंच के संस्थापक थे…

उन्होनें इसे और अन्य लोगों ने साथ मिलकर इसको स्थापित किया था,  गुरशरन सिंह इसके संस्थापक-अध्यक्ष थे।  यह मंच पंजाब के सामाजिक क्षेत्र में लगातार अपनी स्थिति मजबूत बनाए हुए हैं।  गुरशरन सिंह का एक सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने थिएटर के लिए गांव में दर्शक पैदा किये।  दरअसल, जब वे देख लेते  महिला दर्शकों की तादाद पर्याप्त नहीं है, तो वे नाटक ही शुरू नहीं करते थे।  वह आस-पास के गांव में जाते और पाइड पाइपर की तरह उन्हें अपने कार्यक्रम स्थल पर ले आते। उनके ये कार्यक्रम प्राय: गरीब तबकों  और महिलाओं के रोजमर्रे के अनुभवों पर आधारित होते थे। यह नाटक औरतों के साथ होने वाले बलात्कार,  उन्हें पीटे जाने या उन्हें अपने घर से बेदखल किए जाने पर ही केंद्रित नहीं होते थे बल्कि वे महिलाओं की मजबूत तरफदारी पर टिके होते थे।  ये नाटक उन्हें  अपने दमन-शोषण को समझने के जरिया भी थे। 

पंजाब में एक दूसरी दिलचस्प परंपरा रात भर चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रही है।  यह परंपरा पंजाब में उग्रवाद के दौर में शुरू हुई थी।  पंजाब में,  जब रात के 9:00 बजे से लेकर सुबह 5:00 बजे तक कर्फ्यू लगा होता था तो लोग-बाग कहीं बाहर नहीं जा सकते थे।  फिर वे रात के 9:00 बजे एक जगह जमा होते और रात भर सांस्कृतिक कार्यक्रम देखते।  यह परंपरा  पंजाब में उग्रवाद के समाप्त होने के बाद भी जारी रही।

क्या ये नाटक कृषि संकट  को भी अपने विषय में शामिल करते हैं?

हां,  ये नाटक महिलाओं को इसकी कैफियत देते हैं कि क्यों उनका परिवार दिवालिया हो रहा है, तबाह हो रहा है, कि क्यों वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रही हैं,  और क्यों युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा है। इन नाटकों से दलित महिलाएं यह जानती हैं कि क्यों उनकी बेटियां महफूज नहीं हैं और क्यों उनकी देह पर उनकी मिल्कियत को मान्यता नहीं दी जाती। तो इस तरह के नाटकों को देखने के लिए बड़ी तादाद दर्शक आते थे, कई बार तो उनकी संख्या हजारों तक पहुंच जाती थी। यह सिलसिला आज भी जारी है।

क्या जाट सिख महिलाओं और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष का एक मसला है?

इस संघर्ष को समझने की जरूरत है। पंजाब में उनके बीच संबंध बनाने के लिए एक सजग राजनीतिक प्रयास जारी है।  हालांकि दलित पहचान और उसके दावे करने वाले विद्वतजन समाज के अन्य शोषित के साथ दलितों के गठबंधन के तकाजों का कभी आकलन ही नहीं किया।  दलित एजेंसी भी केवल दलित पहचान के सुदृढ़ीकरण तक सीमित है,  जो कि अधिकांश रूप में दलित मर्दानगी है। 

किस मायने में?

दलित सुदृढ़ीकरण के चिह्न दिख जाते हैं, जब दलित युवक अपनी मोटरसाइकिल पर गर्व से लिखवाए होते हैं-“चमार का बेटा”।  एक दलित आदमी के आगमन के रूप में उसका उत्सव मनाया जाता है, जो सदियों से जातिगत भेदभाव के चलते शक्तिहीन रहा है, और जो अब अपनी मूंछों पर ताव देकर जाट-सिखों के सामने उनकी बराबरी में खड़ा हो रहा है। इस निर्मित हो रही दलित पहचान और उसका दावा करने में दलित महिलाएं अभी भी असमर्थ हैं तो दूसरे शोषितों की तो बात ही जाने दें।

दलित पुरुषों के मुकाबले दलित महिलाओं के अनुभवों में विचित्र क्या है?

दलित महिलाएं जाति,  वर्ग,  और जेंडर के तिहरे शोषण को झेलती हैं। दलित महिलाओं की असुरक्षा दलित पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक है क्योंकि उन्हें यौन हिंसा के बुरे अनुभवों से भी गुजरना पड़ता है। यौन-सुरक्षा के उनके अधिकार और देह की स्वायत्तता हर समय नष्ट-भ्रष्ट हुई है। 

अनिवार्यत: यह तनाव इस तथ्य के साथ पैदा हुई है कि जाट सिख ताकतों ने  दलित महिलाओं पर अपनी मिल्कियत माना है?

हां,  लेकिन अब यह स्थिति बदल रही है और उसे चुनौती दी जा रही है।  यही वजह है कि आप दलितों के विरुद्ध ज्यादा हिंसा देखते हैं और  महिलाओं के साथ ज्यादा हिंसक बलात्कार के मामले देखते हैं। 

दलित एजेंसी, दलित आदमी को अपनी मूंछों पर ताव देते जाट-सिख के सामने  खड़े होने का उत्सव मनाता है,  जो अधिकांश रूप में दलित मर्दानगी है।  दलित महिलाएं इस निर्मित हो रही दलित पहचान और सुदृढ़ीकरण के क्षेत्र में आज भी अपनी जगह बनाने में असमर्थ है। 

क्या जाट सिख महिलाएं दलित महिलाओं से बलात्कार के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों में भाग लेती है?

हमने हाल के वर्षों में इसके कुछ शक्तिशाली उदाहरण देखे हैं।  मैं  इस प्रसंग में दो घटनाओं का जिक्र करूंगी,  जाट सिख महिलाओं ने 2014 में, मुक्तसर जिले के गंधार गांव में  नाबालिग दलित बच्ची के साथ हुए बलात्कार के विरोध में हिस्सा लिया था।  इसके पहले उन्होंने 2012 में,  इसी तरह बलात्कार  के विरोध  प्रदर्शन में हिस्सा लिया था जिस घटना को हम श्रुति बलात्कार मामले के रूप में जानते हैं।  ऐसे सभी प्रदर्शनों में महिलाएं जातिगत विभाजन से अलग एक महिला के रूप में बलात्कार के विरोध में सामने आई हैं।  किसान यूनियन के नेताओं और खेतिहर मजदूर यूनियन (जिसमें ज्यादातर दलित हैं)  ने जातिगत  दायरे से अलग, शोषक के विरुद्ध, एक व्यापक  गठबंधन बनाया था।  उन्हें लगा था कि अगर वे एक साथ आएं, तो दमनकारी से बेहतर तरीके से लड़ सकते हैं।

क्या जाति के दायरे से बाहर गठबंधन केवल यौन हिंसा के विरोध तक ही सीमित है?

यह गठबंधन अन्य मुद्दों पर भी बनते रहे हैं।  कुछ साल पहले मालवा क्षेत्र के कपास की फसल  लगातार तीन वर्षों तक व्हाइटफ्लाई से  तबाह होती रही थी।  इसके चलते इस क्षेत्र के किसान बर्बाद हो गए, वे भारी कर्ज में डूब गए।  उन दिनों बड़ी संख्या में किसानों और मजदूरों को खुदकुशी करते हुए सुना-देखा गया था। किसान यूनियनों के दबाव में पंजाब सरकार ने कपास उत्पादक किसानों को मुआवजा देने का फैसला किया था।  लेकिन  तब खेतिहर मजदूरों, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं थीं, का मामला भी सामने आया।  इन महिलाओं ने कहा कि उन्होंने भी बेरोजगारी का समय झेला है।  अगर कपास नहीं होगा, तो उन्हें काम कैसे मिलेगा? यह लड़ाई तब भूस्वामी किसान और दलित मजदूरों ने साथ मिलकर लड़ी थी।  किसान यूनियनें  मजदूरों के लिए मुआवजा पाने में सक्षम हुई थीं। इसी तरह, अक्टूबर 2010 में पंजाब सरकार ने मनसा जिले के गोविंदपुरा गांव में 806 एकड़ जमीन अधिग्रहित की थी, तब दलित मजदूरों के मुआवजे के लिए किसान और मजदूर यूनियनों ने मिल कर संघर्ष किया था।

विरोध प्रदर्शन अभियानों में अग्रिम मोर्चे पर दलित महिलाओं की भागीदारी का कोई एक उदाहरण है ?

पंजाब विलेज कॉमन लैंड (रेगुलेशन) एक्ट-1961 के तहत पंचायतों को अपनी जमीन को सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को लीज पर देने का अधिकार दिया गया है, बशर्ते कि इसमें से एक तिहाई हिस्से की जमीन अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित रखी जाएगी और  अलग से इसकी बोली अपेक्षाकृत कम रकमों पर लगाई जाएगी।  जाट सिख भू स्वामियों ने दलितों के नाम पर या छद्म  उम्मीदवारों के जरिए इस प्रक्रिया को ही बदल दिया।  2014 में,  संगरूर जिले के मतोई  गांव की  युवा दलित महिलाओं ने ऐसे ही एक प्रॉक्सी नीलामी को लेकर आसमान अपने सिर पर उठा लिया और इसकी जगह निष्पक्ष प्रक्रिया बहाल करने की मांग की।  उन्हें बुरी तरह पीटा गया।  पर वे अपनी मांग पर अड़ी रहीं और अपने हिस्से की  जमीन की मांग करती रहीं।  महिलाओं ने तब कहा था कि वे अपने गुजर-बसर के लिए जमीन चाहती हैं, और चूंकि वे अपने मवेशियों को पालने और शौच के लिए आने-जाने के दौरान अपमानित नहीं होना चाहतीं,  इसलिए भी वे जमीन चाहती हैं। समृद्ध पंजाब में खुले में शौच का रिवाज कायम है,  क्योंकि गरीबों के पास घर में शौचालय बनाने की जमीन और संसाधन नहीं हैं।

आज 100 से ज्यादा गांवों में, जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के बैनर तले दलित पंचायती जमीन के एक तिहाई हिस्से की नीलामी और उसका अधिग्रहण करते रहे हैं।  कई गांवों में,  दलित सहकारिता के आधार पर खेती कर रहे हैं।  इनके लिए हुए या  हो रहे सभी संघर्षों में दलित महिलाएं अग्रिम मोर्चे पर रही हैं।

जाट महिलाओं का दलित महिलाओं के प्रति कैसा रुख रहता है?

जाट सिख महिलाएं भी उनकी समजातीय नहीं हैं।  जो लघु और सीमांत किसान वर्ग में आने वाले परिवारों से  जुड़ी हैं, वे अपने को दलितों की साथिन के रूप में देखती हैं।  लेकिन जाति उन्हें परस्पर एक करने के बजाय विभाजक ही रह जाती है।  

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

Feminist Navsharan Singh on why State Fears Women Protesters in Farmer Movement

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