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सेंट्रल विस्टा की राह में आने वाले कानूनों को सरकार कर रही है नज़रअंदाज़

सरकार को कथित रूप से ‘वास्तु’ से जुड़े वास्तुकारों द्वारा इस बात को समझा दिया गया है कि जब तक यह खुद को गोलाकार संसद भवन से स्थानांतरित नहीं करती, सत्तारूढ़ भाजपा 2024 के आम चुनावों में अपनी सत्ता को बरक़रार नहीं रख पाएगी।
सेंट्रल विस्टा की राह में आने वाले कानूनों को सरकार कर रही है नज़रअंदाज़

दिल्ली में सेंट्रल विस्टा री-डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (सीवी) अपनी स्थापना की शुरुआत से ही अपारदर्शिता एवं अनेकों रहस्यों के कारण सुर्ख़ियों में बना हुआ है और जैसे-जैसे यह परियोजना विशाल पैमाने पर आगे बढ़ रही है, इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि जारी है। अपने दूसरे कार्यकाल की समाप्ति से पहले नए संसद भवन को समय पर पूरा कर लेने की खातिर भारत सरकार की ओर से जोरदार प्रयास चल रहे हैं, विशेषकर स्वंय प्रधानमंत्री के द्वारा, जिसमें देश के कानूनों से पूर्ण मुक्ति पा ली गई है; यहाँ पर इसका आशय दिल्ली मास्टर प्लान (एमपीडी) द्वारा निर्धारित भवन कानूनों से है। इन कानूनों का तयशुदा प्रक्रियाओं के तहत पालन नहीं किया जा रहा है और सरकारी फरमानों के द्वारा इन्हें कुचल दिया गया है। 

सेंट्रल विस्टा के रीडेवलपमेंट में तकरीबन 20,000 करोड़ रूपये की परियोजना में त्रिकोणीय आकार के नए संसद भवन का निर्माण, पीएम एवं उप-राष्ट्रपति के लिए नए आवास, नए केन्द्रीय सचिवालय भवन के निर्माण सहित राजपथ के साथ लगे मौजूदा भवनों को ध्वस्त करने जैसे कार्य शामिल होंगे।

जिन इमारतों को जमींदोज किया जाना है, उनमें वे भी शामिल हैं जो मात्र 40 साल पुराने हैं और उनमें से कुछ जैसे, जवाहर भवन है, जिसमें विदेश मंत्रालय स्थापित है। इस भवन को 220 करोड़ की लागत से निर्मित किया गया था और 2011 में कमीशन किया गया था, जिसे अत्याधुनिक वास्तुकला के तौर पर मान्यता प्राप्त है, को भी ध्वस्त किया जायेगा। 

जिन अन्य इमारतों को जमींदोज किया जाना है उनमें: इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, जनपथ; शास्त्री भवन; विज्ञान भवन, कृषि भवन, उप-राष्टपति निवास; राष्ट्रीय संग्रहालय; निर्माण भवन; उद्योग भवन; रक्षा भवन; राष्ट्रीय अभिलेखागार का एनेक्सी भवन; 7, रेसकोर्स रोड (प्रधान मंत्री का वर्तमान आवास) शामिल हैं। इस प्रोजेक्ट के लिए कुल निर्मित क्षेत्र के 4,58,820 वर्ग मीटर क्षेत्र को ध्वस्त किया जायेगा। 

नई आवाजें और सेंट्रल विस्टा का विरोध  

सीवी (सेन्ट्रल विस्टा) प्रोजेक्ट की स्थापना के बाद से ही इसे जिस प्रकार से और जिस ढंग से निपटाया गया, उसने कई विवादों को जन्म दिया है। धरोहर को लेकर कई सवाल उठाये गये थे, जिसमें पहले से ही मौजूद एक कामकाजी संसद भवन जब भली-भांति काम कर रहा था, उसके बावजूद इस प्रकार की फिजूलखर्ची की क्या आवश्यकता है, के साथ-साथ भवन उप-नियमों के उल्लंघन, हरित क्षेत्र का नुकसान, पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) के साथ छेड़छाड़, पेड़ों की कटाई एवं खुले सार्वजनिक स्थानों को सरकार के आगे सौंप देने जैसे सवाल बने हुए हैं। इसके अलावा क्यूसीबीएस प्रणाली को अनुमति देने वाली बोली प्रक्रिया में पूर्ण अस्पष्टता जैसे मुद्दे, जिसे कार्यों के लिए निविदा बोली लगाने के लिए उपर्युक्त माना जाता है और इसे संसद भवन के लिए डिजाईन पर विचार करने के लिए विवेकपूर्ण तरीके के तौर पर नहीं देखा जा सकता है। इसके साथ-साथ नई संसद के लिए विचारों में रचनात्मकता को स्थान देने के लिए निष्पक्ष स्पर्धा की अनुमति न देने जैसे सवाल भी अत्यंत प्रासंगिक बने हुए थे। सबसे मुखर और जोरदार आलोचना में कहा जा रहा है कि इस परियोजना में भूमि-उपयोग परिवर्तन से लेकर विरासत को संरक्षित रखने के नियमों में प्रक्रियाओं का घोर उल्लंघन किया गया है।  

अदालत में कई याचिकाएं दायर की गई थीं और आख़िरकार सर्वोच्च नयायालय ने 2:1 के विभाजित फैसले के साथ इस पर हरी झंडी दे दी, जिसमें यह कहा गया था कि सीवी रीडेवलपमेंट प्रोजेक्ट को जैसा भारत सरकार चाहती है, उसे आगे जारी रखा जाना चाहिये। हालाँकि, असहमित जताने वाले न्यायाधीश ने स्पष्ट तौर पर कहा कि कानून की निगाह में यह प्रोजेक्ट अवैध है।

जैसे ही काम आगे बढ़ना शुरू हुआ और महामारी ने देश को अपनी चपेट में ले लिया, लोगों के एक बड़े तबके से आवाजें उठने लगीं कि पीएम मोदी के नेतृत्व वाली यह सरकार बेकार की परियोजना पर जोर दे रही है और लोगों का पैसा बर्बाद कर रही है, और इसका सदुपयोग स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए और महामारी की चुनौती को कम करने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ऑक्सीजन की कमी, अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तरों की कमी के कारण लोग मर रहे थे और सरकारी व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई थी। रक्तरंजित कहानियाँ और नदियों, विशेषकर गंगा में तैरते शवों के दृश्य अत्यंत हृदय विदारक थे। 

ऐसी परिस्तिथि में सरकार ने सीवी प्रोजेक्ट को एक राष्ट्रीय महत्व की परियोजना करार दिया। जब दिल्ली समेत, देश के बड़े हिस्सों में लॉकडाउन लगा हुआ था, उस दौरान भी इस प्रोजेक्ट का काम द्रुत गति से जारी था। विभिन्न समूहों के लोगों द्वारा इस पर सवाल उठाये गए कि कम से कम महामारी के दौरान लोगों (निर्माण स्थल पर मौजूद श्रमिकों) की जिंदगियों को तो बक्श देना चाहिए और इस परियोजना को लॉकडाउन अवधि के दौरान रोक दिया जाना चाहिए। दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की गई एक याचिका पर याचिकाकर्ताओं के खिलाफ फैसला सुनाया गया और कार्य-स्थल पर काम करने की अनुमति जारी रही। 

लेकिन यही सब कुछ नहीं है! सरकार, सारे क़ानूनी पचड़ों में अपनी सफलता हासिल करने का दावा करने के बावजूद खुश नहीं है। मीडिया के कई हलकों ने भी विशेष रूप से महामारी के दौरान इस परियोजना के गैर-वाजिब होने को उजागर करने का काम किया है। 

इसके साथ ही इसे सरकार द्वारा दो बयानों को जारी करने के सन्दर्भ में देखा जा सकता है - पहला आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा इस परियोजना के बारे में एक वेब पोर्टल में पैसे की सरासर बर्बादी के तौर पर निरुपित किया गया था; और दूसरा खुद इसी मंत्रालय के मंत्री द्वारा नौकरशाहों के बयान के खिलाफ था, जिन्होंने सरकार से इस प्रोजेक्ट को वापस लेने के लिए कहा था। उक्त मंत्री ने न सिर्फ परियोजना का बचाव किया बल्कि यह भी कह डाला कि जिन लोगों ने इस पत्र पर दस्तखत किये हैं, वे ‘पढ़े लिखे गंवार हैं’ और ‘देश के लिए लानत हैं। इस सबसे उस हताशा का भी पता चलता है जिसके साथ यह सरकार इस परियोजना को आगे बढ़ा रही है। 

नए रहस्योद्घाटन 

लेकिन इस सबके अलावा और भी बहुत कुछ है। नए रहस्योद्घाटन में वेब पोर्टल पर मंत्रालय की प्रतिक्रिया और मंत्री के बयान दोनों से ही काफी कुछ पता चलता है।

सरकार में इतनी बैचेनी क्यों बनी हुई है, के बारे में देश के जाने-माने आर्किटेक्ट रोमी खोसला ने इस लेखक के साथ अपनी बातचीत में विस्तार से बताया। खोसला के अनुसार, इस सरकार की प्रेरक शक्ति सरासर इसके वैचारिक संकीर्णतावाद में छिपी है। कुछ ‘वास्तु’ शैली में काम करने वाले वास्तुकारों द्वारा उन्हें यह समझा दिया गया है कि जब तक वे (वर्तमान भाजपा सरकार) गोलाकार संसद से स्थानांतरित नहीं हो जाते, जो कि उनके लिये शुभ नहीं है, आगामी 2024 के चुनावों में केंद्र में वे अपनी सता को बरकरार नहीं रख सकेंगे। उन्होंने कहा, इसीलिये संसद भवन के निर्माण कार्य को समय सीमा के भीतर पूरा करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन स्तंभों में लिखे गए एक अन्य लेख में इस तर्क की उत्पत्ति पर चर्चा की गई थी, जिसका श्रेय लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष, मनोहर जोशी और वास्तु वास्तुकारों के इन समूह के बीच स्थापित हुए संवाद को जाता है। 

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा, इससे पहले कि ठोस खुलासों में जाया जाये, जिसे यहाँ पर फ्रेम किये जाने की जरूरत है, और वह यह है कि मोदी सरकार असल में जर्मन नेता हिटलर की विरासत को आगे बढ़ा रही है। उसी की तरह, मोदी नेहरु के आधुनिकतावाद और उनकी इमारतों, उनकी उपस्थिति, सरकार के साथ लोगों के संबंध को खत्म कर देना चाहते हैं। राजपथ के आसपास के खुले स्थान लोगों के लिए न सिर्फ पिकनिक मनाने के लिए इकट्ठा होने के लिए अहम थे, बल्कि इनसे शासन की भावना का भी अहसास होता था। इसे कलाकार विवान सुदारमन और आर्किटेक्ट प्रेम चंदावरकर द्वारा इंगित किया गया था। सरकार के साथ लोगों के इस संबंध को निश्चित तौर पर बदल देने की जरूरत महसूस की जा रही है, और ‘शासक-शासित’ संबंधों वाले मार्ग को प्रशस्त किया जा रहा है। केन्द्रीय सचिवालय के नए भवन के लिए जो योजना बनाई जा रही है उसमें सरकार की ताकत और लोगों की उन तक पहुँच न हो; ताकि लोगों को यह बताया जा सके कि सरकार सर्वशक्तिमान है और उन्हें निर्देशों का हर हाल में पालन करना चाहिये! 

नए मुद्दे सामने उभरे हैं 

बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्थानों को हड़पा जा रहा है: ईआईए (पर्यावरण प्रभाव आकलन) के प्रस्तुतीकरण के अनुसार, जो शुरुआत में नहीं था, छह स्थानों पर सार्वजनिक एवं अर्ध-सार्वजनिक सुविधाओं से लेकर सरकारी कार्यालयों तक भूमि-उपयोग में बदलाव को प्रस्तावित किया गया है। संसद भवन को एक पूर्व-निर्दिष्ट जिला पार्क वाले स्थान पर बनाया जा रहा है। 3.9 एकड़ से लेकर 24.7 एकड़ तक की लगभग 120 एकड़ की सार्वजनिक भूमि को सरकारी भवनों के लिए हड़प लिया जा रहा है और सार्वजनिक खुले स्थानों का अतिक्रमण किया जा रहा है। भूमि उपयोग में यह बदलाव पूरी तरह से अवैध है, क्योंकि दिल्ली मास्टर प्लान, जो इन क्षेत्रों को हेरिटेज स्थल या खुले स्थानों या निर्दिष्ट पार्कों के तौर पर नामित करता है। इन स्थलों को कानून के तहत निर्धारित प्रक्रिया का उल्लंघन कर किसी सरकारी आदेश द्वारा नहीं हड़पा जा सकता है। इस परियोजना के शुरू होने के बाद से ही आपत्तियां उठाई जा रही थीं कि निर्दिष्ट प्रक्रिया को बाधित किया जा रहा है। उदहारण के लिए, जन सुनवाई और जिस तरीके से डिजाईनों को मंजूरी दी गई थी, उस पर आपत्ति जताई जा रही थी। हालाँकि, सरकार ने आपत्तियों पर कोई कान नहीं दिया और वह प्रस्ताव के साथ आगे बढती गई है। 

सीपीडब्ल्यूडी एक स्थानीय निकाय बन चुका है: भवन योजना को मंजूरी स्थानीय निकाय द्वारा दी जाती है। यह देश भर में एक सार्वभौम नियम के तौर पर प्रचलित है। शहरों में स्थानीय निकायों के जिम्मे इस कार्य को सौंपा गया है। सेंट्रल विस्टा री-डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट में, ये विभिन्न स्थान एनडीएमसी (नई दिल्ली नगर पालिका परिषद) के तहत आते हैं, जो निर्वाचित नहीं होता है, लेकिन इसमें 13 सदस्य होते  हैं जिनमें से कुछ निर्वाचित विधायक, और कुछ अन्य को दिल्ली के मुख्यमंत्री द्वारा मनोनीत किया जाता है; बाकी लोग अधिकारी या नौकरशाह होते हैं। ऐसी स्थिति में एनडीएमसी को ही इन योजनाओं को मंजूरी देनी चाहिए थी। लेकिन बेहद हड़बड़ी और बैचेनी में भारत सरकार ने सीपीडब्ल्यूडी को एक स्थानीय निकाय के तौर पर बदलकर रख दिया है।

सीपीडब्ल्यूडी, जो एक डेवलपर होने के साथ-साथ केंद्र सरकार की एक निर्माण शाखा है, ने मौजूदा मामले में री-डेवलपमेंट परियोजना को खुद से मंजूरी दे रखी है। यहाँ तक कि डीयूएसी (दिल्ली शहरी कला आयोग), जिसका काम नक़्शे को मंजूरी देने का है, को इस प्रकार की अनुमति देने के लिए अधिकृत नहीं किया गया है। इसलिए, ये सब कुछ गैर-क़ानूनी है।

टीओडी परियोजना: यह बेहद हाल का मसला है। एक ट्रांजिट ओरिएंटेड डेवलपमेंट (टीओडी) प्रोजेक्ट वह है जिसमें इसके कुल क्षेत्र का 30% हिस्सा आवासीय होना चाहिए। इसमें पार्किंग की जगह को कम किया जाना चाहिए और अधिक से अधिक गतिशीलता को मेट्रो के जरिये किया जाना चाहिए था। यह पूंजीवादी विकासात्मक मॉडल के स्वरूपों में से एक है, जहाँ पर लोग मेट्रो के नजदीक रहते हैं और अपनी कारों का इस्तेमाल नहीं करते हैं, और इसके बजाय अपनी गतिशीलता के लिए सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते हैं।

रोचक तथ्य यह है, कि भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपने हलफनामे में विशेष तौर पर इस बात का उल्लेख किया है कि सेंट्रल विस्टा एक टीओडी परियोजना नहीं है, क्योंकि तब इसके कई मायने हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, क्या सेंट्रल विस्टा में राजपथ के साथ-साथ आवास भी बनाए जा रहे हैं, इत्यादि? लेकिन जैसा कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के प्रमुख वास्तुकार कहते आ रहे हैं कि यह एक विकासमान परियोजना है, जबकि केन्द्रीय आवास मंत्रालय ने वेब पोर्टल के जवाब में कहा था कि सेंट्रल विस्टा, एक टीओडी परियोजना है और यह इस प्रोजेक्ट के मार्गदर्शक सिद्धांतों का हिस्सा है।

दिल्ली के लिए एमपीडी 41 सेंट्रल विस्टा री-डेवलपमेंट प्रोजेक्ट पर लागू नहीं होता है और इसलिए, इस प्रोजेक्ट में टीओडी को लागू नहीं होना चाहिए। हालाँकि, मंत्रालय के जवाब से अभी भी यह स्पष्ट होना शेष है कि क्या टीओडी, मोदी के दिमाग के मार्गदर्शक सिद्धांतों में से एक है, ‘हर संकट में एक अवसर तलाशने के लिये’ – और क्या हम सेंट्रल विस्टा क्षेत्र से कुछ हिस्सा निजी कॉरपोरेट्स को बेचने जा रहे हैं? सरकार को हमें इस बारे में और अधिक बताना होगा। फिलहाल हम इस बारे में निश्चित तौर पर कह पाने की स्थिति में नहीं हैं।

मंत्रियों और नौकरशाहों के लिए विशाल स्थान: जैसा कि ऊपर कहा गया है, सेंट्रल विस्टा के लिए तकरीबन 4.5 लाख वर्ग मीटर क्षेत्र को जमींदोज किया जाना है, लेकिन लगभग 16.5 लाख वर्ग मीटर क्षेत्र में निर्माण कार्य किया जाना है। इससे निर्मित स्थल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता करीब 195 वर्ग फुट होती है। सचिवालय में कार्यबल का करीब 85% समूह वर्ग III और IV से आता है, जो प्रति व्यक्ति 60 वर्ग फीट से कम हिस्से पर काबिज होता है। वहीँ दूसरी तरफ मंत्रियों के पास प्रति व्यक्ति 3,000 वर्ग फुट से अधिक भूमि का कब्जा होगा, जो कि चार-बेडरूम वाले फ्लैट के आकार से बड़ा है। इसके अलावा इन नौकरशाहों के लिए योगा और संगीत कक्षों के निर्माण करने का भी प्रस्ताव है। बैठकों के आयोजन के लिए करीब 260 सम्मेलन कक्षों को प्रस्तावित किया गया है, जिसमें प्रत्येक कक्ष में 50 लोगों के साथ बैठकें आयोजित करने की क्षमता होगी। जहाँ सरकार अपनी घोषणाओं में न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन की को प्रस्तावित करती रही है, हकीकत यह है जिससे हम रूबरू हो रहे हैं।

एफएआर के साथ छेड़छाड़: फ्लोर एरिया रेशियो (एफएआर) उस स्थान को निर्धारित करता है जो एक निश्चित इमारत या परियोजना को हासिल होगा। यहाँ पर एफएआर को 120 से बढ़ाकर 200 कर दिया गया है, और इसे टीओडी प्रोजेक्ट बताने के पीछे की एक वजह यह भी है कि टीओडी की आड़ में परियोजना के लिए बढ़ा हुआ एफएआर हासिल किया जा सकता है।

इमारतों एवं पार्किंग पेड़ों की कटाई: यह बेहद विडंबनापूर्ण स्थिति है कि पहली बार डेवलपर के यह कहने के बजाय कि कुछ निश्चित पेड़ों को काटने की जरूरत है या किसी अन्य जगह पर प्रत्यारोपित किया जाएगा, यहाँ पर डेवलपर अर्थात सीपीडब्ल्यूडी ने अनुबंध में शामिल लाभार्थी से पूछा है कि वह बताये कि कुल कितने पेड़ों को प्रत्यारोपित किये जाने की आवश्यकता है। ईआईए और ईएमपी की रिपोर्टों के मुताबिक, ऐसे 3,750 पेड़ हैं जिन्हें या तो काटा जाना है या किसी अन्य स्थान पर ले जाया जाना है। इस प्रकार यह खुले और हरित दोनों ही स्थानों का नुकसान है। 

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट जो पूरी तरह से व्यक्तिपरक दिमाग से उपजी थी, ने निर्माण कानूनों, पर्यावरण, हेरिटेज, और वास्तुकला की प्रासंगिकता की अवहेलना की है, और लगातार विवादों में घिरी हुई है। जैसा कि इसके निर्माण वास्तुकार का कहना था कि जैस- जैसे यह विकसित होता जायेगा, हमारे लिए ढेर सारे आश्चर्य के पिटारे खुलने तय हैं। लेकिन त्रासदी यह है कि सरकार, कानून निर्माता, और कानून को अमल में लाने वाले ही निर्द्वंद होकर कानून का उल्लंघन कर रहे हैं।

लेखक शिमला, एचपी के पूर्व डिप्टी मेयर रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं। 

इस लेख को अंग्रेजी में इस लिंक के जरिए पढ़ा जा सकता है: 

For Central Vista, Govt Violates Law with Impunity

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