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आख़िर औरतों का अपने ही शरीर पर अधिकार क्यों नहीं है?

‘माई बॉडी माई राइट्स’ को लेकर महिलाएं लंबे समय से संघर्ष कर रही हैं। अब संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि दुनिया में 50 प्रतिशत महिलाओं को अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं है।
आख़िर औरतों का अपने ही शरीर पर अधिकार क्यों नहीं है?

“करोड़ों महिलाओं और लड़कियों का अपने ही शरीर पर हक़ नहीं है। उनकी जिंदगी दूसरों के अधीन है।"

ये शब्द संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की कार्यकारी निदेशक डॉक्टर नतालिया कनेम के हैं। नतालिया ने आधी आबादी को लेकर एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि अपने शरीरों पर अधिकार या शक्ति से वंचित किया जाना, महिलाओं व लड़कियों के बुनियादी मानवाधिकारों का हनन है। इस स्थिति से विषमताएँ और ज़्यादा गहरी होती हैं और लैंगिक भेदभाव के कारण हिंसा को बढ़ावा मिलता है।

उन्होंने दुनियाभर में महिलाओं की स्थिति बेहतर करने और उनके अधिकारों को सशक्त करने के लिए पुरुषों को सहयोगी बनने की सलाह दी। उन्होंने हर किसी से  भेदभाव को चुनौती दिये जाने का आग्रह किया, चाहे वो कहीं भी और कभी भी होता नज़र आए।

‘माई बॉडी माई राइट्स’ को लेकर महिलाएं लंबे समय से संघर्ष कर रही हैं। अपने ही शरीर पर अपने अधिकार के लिए पितृप्रधान समाज से लड़ रही हैं, अपनी आवज़ बुलंद कर रही हैं। बावजूद इसके दुनियाभर में महिलाओं के लिए समाज का नज़रिया कुछ खास बदलता नज़र नहीं आ रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि दुनिया में 50 प्रतिशत महिलाओं को अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं है। महिलाएं ऐसा लंबे समय से महसूस करती रही हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने इस मुद्दे को पहली बार उठाया है।

आपको बता दें कि बुधवार, 14 अप्रैल को संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष यानी यूएनएफपीए ने "मेरा शरीर मेरा अपना है" नाम से इस रिपोर्ट को जारी किया। इसमें पहली बार महिलाओं के अपने ही शरीर पर स्वायत्ता की कमी के विषय को संबोधित किया गया है। इस रिपोर्ट के अध्ययन में 57 देशों में महिलाओं के हालात पर रोशनी डाली गई है।

क्या है इस रिपोर्ट में?

इस रिपोर्ट में दुनियाभर में महिलाओँ की दयनीय स्थिति का खुलासा किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार चाहे यौन संबंध हों, गर्भ-निरोध हो या स्वास्थ्य सेवाओं को हासिल करने का सवाल, इन 57 देशों में लगभग 50 प्रतिशत महिलाओं को कई तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।

इस रिपोर्ट के लिए इन देशों में महिलाओं पर लगे उन प्रतिबंधों का अध्ययन किया गया है जो महिलाओं को बिना किसी डर के अपने शरीर से संबंधित फैसले लेने से रोकते हैं। कई प्रतिबंधों का नतीजा यह भी होता है कि महिलाओं के शरीर से जुड़े फैसले कोई और ले लेता है।

महिलाओं पर अंकुश लगाने के लिए हिंसा

रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का भी जिक्र है। अध्ययन में शामिल देशों में महिलाओं पर अंकुश लगाने के लिए बलात्कार, जबरन वंध्यीकरण या स्टेरलाइजेशन, कौमार्य परीक्षण और जननांगों को अंगभंग करने जैसे हमलों के बारे में भी बताया गया है।

यूएनएफपीए के अनुसार महिलाओं का उनके शरीर पर अधिकार न होने का व्यापक असर है। शरीर पर स्वायत्ता की इस कमी की वजह से महिलाओं और लड़कियों को गंभीर क्षति तो पहुंचती ही है, इससे आर्थिक उत्पादकता भी कम होती है और स्वास्थ्य प्रणाली और न्यायिक व्यवस्था का खर्च भी बढ़ता है।

कानून भी पीड़ित महिलाओं का नहीं देता साथ

अध्ययन के मुताबिक कई देशों में कानून भी पीड़ित महिलाओं का साथ नहीं देता है। रिपोर्ट में 20 ऐसे देशों के बारे में बताया गया है जहां ऐसे कानून हैं जिनकी मदद से कोई बालात्कारी पीड़िता से शादी करके कानूनन सजा से बच सकता है। रिपोर्ट में 43 ऐसे देशों के बारे में भी बताया गया है जहां शादीशुदा जोड़ों के बीच बलात्कार को लेकर भी कोई कानून नहीं है। इसके अलावा 30 से भी ज्यादा ऐसे देश हैं जहां महिलाओं के घर से बाहर आने जाने पर तरह-तरह के प्रतिबंध हैं।

सेक्स एजुकेशन की बात करें तो रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन किए गए देशों में से सिर्फ 56 प्रतिशत देशों में व्यापक सेक्स एजुकेशन उपलब्ध कराने को लेकर कानून या नीतियां हैं।

क्या निष्कर्ष है इस रिपोर्ट का?

रिपोर्ट में अध्ययन किए गए देशों के नाम पर ज़ोर न देकर दुनियाभर में महिलाओं की भयावह स्थिति पर ज़ोर दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्थिति का सामना करने के लिये विशेष परियोजनाओं और सेवाओं पर कहीं ज़्यादा किये जाने की ज़रूरत है।

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि असल और टिकाऊ प्रगति, ख़ासतौर से लैंगिक असमानता और किसी भी तरह के भेदभाव को मिटाने के लिए सामाजिक व आर्थिक ढाँचों में बदलाव बहुत जरूरी है।

कार्यकारी निदेशक डॉक्टर नतालिया कनेम ने कहा कि सच्चाई ये है कि लाखों महिलाएँ और लड़कियाँ, खुद अपने ही शरीरों पर अधिकार से वंचित हैं। उनकी जिंदगियों का नियंत्रण किन्हीं और लोगों के हाथों में होता है। ये वास्तविकता है कि आधी से ज़्यादा महिलाएं इस बारे में अपने ख़ुद के फ़ैसले नहीं ले सकतीं कि उन्हें यौन सम्बन्ध बनाने हैं या नहीं, गर्भ निरोधक इस्तेमाल करने हैं या नहीं और वो ख़ुद स्वास्थ्य देखभाल हासिल कर सकती हैं या नहीं, इन सबसे हम सबको क्रोधित होना चाहिये।

उन्होंने कहा, “इस अभियान में, पुरुषों को सहयोगी बनना होगा। ज़्यादा से ज़्यादा पुरुषों को ऐसी गतिविधियों व कृत्यों से बचना होगा जिनसे महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता पर असर पड़ता है और इस तरह से जीवन जीने के तरीके अपनाने होंगे, जो ज़्यादा न्यायसंगत और आनन्दकारी हों, जिससे हम सभी का फ़ायदा हो।”

महिलाओं का पुरुषों के बराबर हक़

गौरतलब है कि मीडिया में महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक़ दिए जाने पर ज़ोरदार बहस होती है। कहा जाता है कि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के साथ पुरुषों जैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए, उनके अधिकार एक जैसे होने चाहिए। लेकिन अगर महिलाओं को एक जैसी तवज्जो दी जाएगी तब किसी भी तरह की हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी और बहस तक की ज़रूरत नहीं होगी।

भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। एक ओर सरकार महिला सशक्तिकरण के तमाम दावे कर रही है तो दूसरी ओर घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं को सुरक्षा देने में नाकाम है। आखिर सोच और हकीकत में इतना अंतर क्यों? महिलाओं का स्वास्थ्य, शिक्षा, उनके साथ होने वाली यौन हिंसा, हत्या और भेदभाव जैसे कुछ मसलों में देश के आंकड़े भयावह हैं।

हाल ही में जारी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने में भारत काफी पिछड़ गया है और 156 देशों में किए गए सर्वे में भारत का स्थान 140वें नंबर पर है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के मुताबिक भारत ने साउथ एशिया में बेहद खराब परफॉर्म किया है। स्थिति ये है कि भारत की स्थिति अपने पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और म्यांमार जैसे देशों से भी पीछा है। भारत का परफॉर्मेंस साउथ एशिया में तीसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है। 

ऐसा लगता है कि महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की सिर्फ बात ही हमारे देश में की जाती है। महिलाओं को बराबरी का हक मिले, इसकी कोशिश न सरकार के स्तर पर हो रही है और न ही सामाजिक स्तर पर। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर किसी भी स्तर पर ईमानदार कोशिश की गई होती तो आज शायद तस्वीर दूसरी होती।

सरकार की भूमिका

महिला सुरक्षा में समाज के साथ ही सरकार की भी अहम भूमिका है। सरकार का मतलब सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय समझौते और राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग करना ही नहीं है। उसका उत्तरदायित्व घर के अंदर, बाहर, दफ़्तरों, फैक्ट्रियों, स्कूल और कॉलेज में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी होना चाहिए।

कुछ साल पहले नसबंदी शिविरों में महिलाओं की मौत की घटना ने ज़ोर पकड़ा था। बड़े पैमाने पर हुए नसबंदी ऑपरेशनों में कई महिलाओं की जान चली गई थी। तब सवाल उठा था कि आबादी नियंत्रण का एकमात्र हल नसबंदी ही क्यों है और वह भी सिर्फ़ महिलाओं के शरीर पर ही क्यों?

घर से लेकर अस्पताल तक महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक कम पहुंच पर भी लगातार सवाल उठते रहे हैं। मैरिटल रेप से लेकर गर्भनिरोधक उपायों तक और फिर कई बार मानसिक और शारीरिक तौर पर न तैयार होने के बाद भी बच्चा जनने पर ये सवाल अक्सर सामने आता रहता है कि क्या महिला का अपने शरीर पर अधिकार है या नहीं। हालांकि महिलावादी संगठन सालों से इस लड़ाई को लड़ रहे हैं। लेकिन अब समय आ गया है कि इसे लेकर सरकारों की भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए।

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