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पांच निर्वस्त्र स्त्रियां दुनियाँ की असंख्य निर्वस्त्र स्त्रियां हैं

यह जो मणिपुर की औरतों को निर्वस्त्र किया गया है, क्या उसकी भरपाई समाज,सत्ता,सरकार किसी प्रकार से कर सकती है? चंदन सिंह की कविता के जरिये मणिपुर की घटना और देश-दुनिया की स्त्रियों की मनोदशा और सवालों को समझने और समझाने की कोशिश करता अनुपम सिंह का आलेख
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: गूगल

“पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं”: चन्दन सिंह की इस कविता-शीर्षक में समय के अनुसार थोड़ा बदलाव करने का अधिकार होता तो मैं लिखती-‘पाँच निर्वस्त्र स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य निर्वस्त्र स्त्रियाँ हैं”।

यह कविता अभी इसलिए याद आयी कि भारत के भूगोल में एक राज्य है मणिपुर जो सारी सरकारी मशीनरी,मानवीय संवेदना,कोमलता,भारतीयता को दरकिनार कर पिछले कुछ महीनों से जल रहा है। क्यों जल रहा है यह मणिपुर? किसने लगायी है मणिपुर में यह आग? यह मार-काट,लूट-खसोट क्यों हो रही है मणिपुर में? जब यह सवाल मन में उठता है तब दिमाग किसी संजाल में उलझ जाता है। मणिपुर जल रहा है,क्योंकि मणिपुर को जलने दिया जा रहा है।

वीरेन डंगवाल कहते हैं—“यह रक्तपात यह  मारकाट जो मची हुई/लोगों के दिल दिल भरमा देने का ज़रिया है”दिल किसके भरमायें जा रहे हैं? और क्यों भरमायें जा रहे हैं? एक सवाल यह भी है। लेकिन इन सब राजनितिक-कूटनीतिक दांवपेचों के बीच यह भी समझना ज़रुरी है कि किसी भी प्रकार की हिंसा,टकराव,अपहरण व आधिपत्य कायम करने की कोशिश में स्त्री-देह को बदले की भूमि के रूप में क्यों चुना जाता है?

पहले आप चन्दन सिंह की –‘पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं’ ’शीर्षक कविता पढ़िए। तब हम शायद उस सनसनाहट को,उस सामूहिक शर्मिंदगी और हताशा और उस निरुपायता को साथ-साथ महसूस कर पायेंगे। और कविता के जरिये ही सवालों के जवाबों को टटोल पाएंगे।

खेतों में उग रही है कपास

प्रजननरत हैं रेशम के कीड़े

भेड़ नाई के यहाँ जा रही हैं

घूम रहा है चरख़ा

चल रहा है करघा

ख़ूब काते जा रहे हैं सूत

ख़ूब बुने जा रहे हैं कपड़े

ऐन इसी समय

पाँच स्त्रियों को नंगा किया जा रहा है

गाँव के बीचों-बीच

भरी भीड़ में

 

एक-एक कर नोचे जा रहे हैं सारे कपड़े

देह से अंतिम कपड़ों के नुचते ही

उनकी बाँहें और टाँगें

आपस में सूत की तरह गुँथकर बन जाना चाहती हैं

ख़ूब गझिन कपड़े का कोई टुकड़ा

 

गालियाँ बकती हुई बंद करती हैं वे अपनी आँखें

तो पलकें चाहती हैं मूँद लेना पूरा शरीर

आत्मा चाहती है बन जाना देह की चदरिया

पाँच स्त्रियों को बहुत चुभता है

दिन का अश्लील प्रकाश

भीड़ में कोई नहीं सोचता कि अब

फूँककर बुझा देना चाहिए सूर्य!

 

पाँच स्त्रियों को चलाया जाता है

यहाँ से वहाँ तक

वहाँ से वापस नहीं लौटना चाहती हैं

वे मुड़ जाना चाहती हैं

किसी पथरीले और जंगली समय की ओर

जब तन ढँकने का रिवाज नहीं था

अधिक से अधिक

देह की चमड़ी भर उतारी जा सकती थी

 

शर्म से लहूलुहान पाँच स्त्रियाँ

देह पर लाज भर लत्ता नहीं

धीरे-धीरे सारी लाज

सहमी हुई जा दुबकती है नाख़ूनों की ओट में

बची हुई मैल के बीच

 

जब पहली बार पृथ्वी पर

कपास को दूह कर काता गया होगा

पहला-पहला सूत

उसी समय पहले सूत से ही बुन दी गई होगी

पाँच स्त्रियों की नग्नता

 

पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं

कभी विज्ञापनों में

कभी माँ के गर्भ में ही

कभी पीट-पीटकर जबरन

नंगी की जाती हुई

और कभी-कभी तो कोई कुछ करता भी नहीं

अपने ही हाथों उतारने लगती हैं वे अपने कपड़े चुपचाप

 

अब क्या करना होगा इन्हें फिर से ढँकने के लिए?

अख़बार में छपी है ख़बर

पर कहता है दर्ज़ी कि नाप से कम है ख़बर

सदन में जो बहस हुई

नाप से कम है

कम है नाप से कविता

श्रीकृष्ण वस्त्रालय पर लगा हुआ है ताला

और वह रास्ता

जो जाता है यहाँ से गांधीनगर की ओर

जहाँ एशिया का सबसे बड़ा कपड़ा बाज़ार है

कहीं बीच में ही खो गया है

 

तो क्या अब हमारी इस पृथ्वी को अपनी धुरी पर

किसी लट्टू की तरह नहीं

बल्कि एक तकली की तरह घूमना होगा?

चन्दन सिंह की यह कविता भीड़ में निर्वस्त्र की गयी औरत की मनोदशा को छूने के बहुत ही करीब है। कविता उस पीड़ा को छूती है,ऐसा इसलिए नहीं कह पा रही हूँ,क्योंकि पता नहीं कोई भी कविता या कवि उस असहायता को, उससे उपजी पीड़ा और बेबसी को अभिव्यक्त कर भी पायेगा कि नहीं। इसबात को कविता में चन्दन सिंह स्वयं कहते है कि-‘कम है नाप से कविता’ लेकिन उसकी कोशिश करना और करते रहना ही एक तरीका होगा पीड़ित के साथ खड़ा होने,अन्याय को उजागर करने और अपनी संवेदना को अभिव्यक्त करने का। चन्दन सिंह की कविता ने इस सामूहिक निरुपायता और शर्मिन्दगी में हमें भी शामिल कर दिया है।

कविता हमारे सामने एक प्रश्न की तरह उपस्थित होती है। कि जब रेशम के कीड़े पाले जा रहे हैं धागे बनाने के लिए,उन धागों से वस्त्र बुने जायेंगे, जब भेड़ों की पीठ से उनके बाल उतारे जा रहे हैं ऊन बनाने के लिए,जिससे जाड़ें में भी हमारी देह का तापमान संतुलित रहे,कपास उगाया जा रहा है, कि हमारा तन ढका रहे और उगाने वाले गुर्बत में आत्महत्याएं कर रहे हैं। जब रेशम के कीड़े,भेड़ें और कपास उगाने वाले किसान-मजूर और न जाने कितने जुलाहे-बुनकर अपनी-अपनी क़ुर्बानी दे रहे हैं कि इस देश के बच्चों,जवानों, बूढों, अपाहिजों और औरतों का तन ढका रहे। कि हम दुनिया के सम्मुख इसलिए शर्मसार न हों कि हमारे देश के लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं। तब देश में उसी वक्त पाँच स्त्रियों को सत्ता-पितृसत्ता की हनक में निर्वस्त्र किया जा रहा है। यह कुर्बानी हमारे वर्तमान में ही नहीं हमारे अतीत में भी दी गयी है। गाँधी ने समूचे देश का तन ढकने, उसको विश्व के सम्मुख शर्मसार होने से बचाने के लिए लिए ही चरखा चलाया और सम्पूर्ण देशवासियों से चरखा चलाने का आह्वान भी किया, कि जिससे इन भूखे-दूखे लोगों का तन ढका रहे। जिस काम को अंग्रेज नहीं कर पाए उसे इस देश के लोगों ने अंजाम दिया। यह विडम्बना ही है कि इस देश की कि वे सारी कुर्बानियां आज व्यर्थ ही साबित हुयीं और हम दुनिया के सम्मुख शर्मसार हुए। एक स्त्री-नागरिक के रूप में सोचते हुए हमारी रूह हिल जाती है कि यह घटना कहीं भी, कभी भी और किसी के भी साथ घट सकती है।

यह कोई पहली बार नहीं है जब स्त्रियों को निर्वस्त्र करके घुमाया गया है, बल्कि हर प्रकार की हिंसा,लूट-दमन,आधिपत्य कायम करने में सत्ता इसी तरह के चरित्र में ढल जाती है। वैश्विक सत्ता हो,राष्ट्र-राज्य सत्ता हो, सामुदायिक-सांप्रदायिक सत्ता हो,सदियों पुरानी जाति-वर्ग की सत्ता हो या फिर निरी ग्रामीण सत्ता। बस सत्ता के घेरे छोटे-बड़े होते हैं। सत्ता,पितृसत्ता की तरह व्यवहार करती है और पितृसत्ता,सत्ता की तरह से। इसीलिए कविता कहती है कि‘ये पांच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं। जबकि स्त्रियों को निर्वस्त्र करके हमेशा सत्ता ही‘नग्न’होती है।

कविता आगे बढ़ती है-एक निर्वस्त्र स्त्री की मनोदशा से हमें संवेदित करने व जोड़ने की कोशिश करती है। देह से वस्त्र के अंतिम टुकड़े के हटते ही उन औरतों के हाथ-पाँव उनके वस्त्र बन जाना चाहते हैं,खूब गझिन वस्त्र। जब उनके हाथ-पाँव अपनी उघड़ी देह को ढकने में सक्षम नहीं होतें तो औरतें अपनी आँखे बंद कर लेती हैं। वे अपनी पलकों से आँखें नहीं बल्कि अपनी देह ही ढकने की कोशिश करती हैं। उनको लगता है आँख बंद करने से यह परिदृश्य बदल जायेगा। जब ऐसा नहीं होता तब अपनी आत्मा को ही वे एक चद्दर की तरह तान लेना चाहती हैं। वे उस समय किसी तृण की ओट में छुप जाना चाहती है। दिन का प्रकाश उन्हें अश्लील लगता है। वे चाहती हैं कोई बुझा दे इस चमकते सूरज को। यह उजाला उन्हें अब चुभता है। वे किसी अंधकार की गुफा में खो जाना चाहती हैं। वे जंगली युग की पहाड़ियों में छुप जाना चाहती हैं। वे उस आदिम अतीत में छुप जाना चाहती हैं,उस आदिम सभ्यता में चली जाना चाहती हैं, जहाँ वस्त्र पहनने की कोई भी रीति नहीं थी। सजा के तौर पर तब वस्त्र नहीं बल्कि देह की चमड़ी उतारी जाती थी। वे अपनी लहुलुहान आत्मा लिए उसी आदिम अतीत में चली जाना चाहती हैं।

कविता निर्वस्त्र होने के मानवीय संवेदन के पहलुओं पर बात करने के साथ उसके सैद्धांतिक नुक्ते की ओर भी संकेत करती है। कि कब और कैसे स्त्री के आत्म को रद्द करने,तहस-नहस करने की यह तरकीब सोच ली  गयी होगी। कविता की ये पंक्तियाँ कई गुत्थियों में से एक गुत्थी को कितनी आसानी से सुलझा देती है। कैसे कोई चीज हमारे जो हित के लिए बनायी जाती है,वही एक दिन हमारी मुख़ालफ़त में भी प्रयोग करली जाती है। कविता अभी भी अपनी संवेदना से ही हमें सुलझाने की कोशिश कर रही है। औरत माँ थी, औरत गुलाम थी, औरत बहन थी, पत्नी,बेटी,प्रेमिका थी औरत ही वेश्या थी। औरत के ही सिर लज्जा की पग रखी गयी और औरत को ही निर्वस्त्र किया गया। 

“जब पहली बार पृथ्वी पर

कपास को दूह कर काता गया होगा

पहला-पहला सूत

उसी समय पहले सूत से ही बुन दी गई होगी

पाँच स्त्रियों की नग्नता”

जब आदिम सभ्यता में वस्त्र पहनने की सहूलियतें नहीं थी तो स्त्रियों को निर्वस्त्र करके उनके स्वाभिमान,सम्मान और स्वत्व को नकारने की रीति भी नहीं थी। यह सब हमारी संस्कृति में तब शामिल हुआ जब हमने पहले पहल वस्त्र पहने। कविता वस्त्र और नग्नता के बीच के इस महीन सम्बन्ध को हमें बताती है। यानी वस्त्र पहनते ही हमने शर्म धारण किया और जब किसी जाहिल,खूंखार,अपराधी,पुरुषवादी सत्ता ने हमारे वस्त्र उतारे तो हम शर्मसार हुए। यानी जब हम मुक्त थे अपनी देहों में,अपनी देहों से तब हम किसी पर इस प्रकार की दैहिक या यौनिक हिंसा नहीं करते थे। यानी एक मर्दित,दमित सेक्सुअलिटी ही हिंसा,दमन, बलात्कार,अपराध का बायस बनती है। संस्कृति हर तरह का दमन इसलिए करती है कि यह विशाल व्यवस्था कथित सुचारू रूप से चलती रहे। लेकिन हम इस दमन के सूक्ष्म रूप को समय-समय पर वीभत्स, विकृत और ‘हल्क’ का रूप धरते देखते हैं। हर तरह की दमित सेक्सुअलिटी में हत्यारी, बलात्कारी, हिंस्र,बनावटी, झूठी, क्रोधी, दंगाई,सांप्रदायिक,विभाजित आत्मा कैद रहती है। जिसे पितृसत्ता और राजनितिक सत्ता सब प्रकार के पोषक तत्व प्रदान करती है।

कविता की इन पंक्तियों में यह भी संकेत छुपा है कि जो लोग स्त्रियों के पहनावे,उनके हँसने-बोलने,चलने,उठने,बैठने पर जितना अधिक‘ज्ञान’देते हैं उनमें उतना अधिक संभावना रहती है कि वक्त मिलने पर उसकी देह पर हमला सबसे पहले करेंगे। कविता समाज-संस्कृति के उन इलाकों,शक्ति संरचनाओं व उनके अन्य कारण भूत तत्वों की ओर भी इशारा करती है, जहाँ से इस तरह की हरकतों,कार्यवाहियों को बल प्रदान किया जाता है,अंजाम दिया जाता है। इसीलिए यह सिर्फ पांच या तीन या दो और एक औरतों के निर्वस्त्र किये जाने की कविता नहीं है बल्कि असंख्य औरतें हैं जो अलग-अलग रूपों और कारणों से‘निर्वस्त्र’ की जा रही हैं -

“पाँच स्त्रियाँ दुनियाँ की असंख्य स्त्रियाँ हैं

कभी विज्ञापनों में

कभी माँ के गर्भ में ही

कभी पीट-पीटकर जबरन

नंगी की जाती हुई

और कभी-कभी तो कोई कुछ करता भी नहीं

अपने ही हाथों उतारने लगती हैं वे अपने कपड़े चुपचाप”।

यह कविता अपनी मूल संवेदना में सिर्फ स्त्री देह को ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा तक को आवरण रहित करने की पीड़ा की ओर ध्यान दिलाती है। हमें उन कारण भूत तत्वों की पहचान कराती है जो स्त्री-अस्मिता को नकारने उसका उपयोग अपने हितसाधन के लिए करते हैं। कविता,बाज़ार-सत्ता-पितृसत्ता की इस त्रयी के संबंधों को उजागर करती है। कैसे पितृसत्ता,सत्ता की मुठभेड़ से बची स्त्री बाज़ार के जाल में गिर पड़ती है। कितनी ही विडम्बनापूर्ण पंक्ति है कि-“कभी-कभी तो कोई कुछ करता भी नहीं /अपने ही हाथों उतारने लगती हैं वे अपने कपड़े चुपचाप”।यह अकेली पंक्ति ही स्त्री की दोयम,नगण्य अमानवीय और दयनीय स्थिति को हमारे सामने रख देती है।

हम अपने अनुभव से यह कहते आये हैं कि देह के घाव तो भर जाते हैं कभी न कभी लेकिन आत्मा के घाव कई पीढ़ियों,कई सदियों तक नहीं भरते हैं। इतिहास उनको दफन करता है,मिट्टी डालता है उनपर लेकिन वे सिसकती हुई देखी जा सकती हैं। सभ्यताएं तक ढह जाती हैं लेकिन घाव से उपजी वे पीड़ाएं उन देहों से निकलकर खंडहर हुई सभ्यताओं के चौखट पर बिलखती रहती हैं। कविता भी यही बताती है कि स्त्री देह को तो ढका जा सकता है लेकिन सार्वजानिक रूप से निरावरण की गयी उसकी आत्मा, देश की आत्मा, भारत माता की आत्मा को किस वस्त्र से ढका जायेगा? कौन जुलाहा बुनेगा भारत देश की आत्मा के और भारत माता के लिए वस्त्र? कौन दर्जी उसे सिलेगा? किस बाज़ार में, किस दुकान पर मिलेगा वह वस्त्र जिससे सम्पूर्ण विश्व के सामने निर्वस्त्र हुई भारत देश की आत्मा और भारतीय औरत की अस्मिता और आत्मा को फिर से ढका जा सके?

आखिर! कैसे होगी उसकी भरपाई? क्योंकि कवि कहता है-हमारी संवेदनाएं उस निर्वस्त्र आत्मा का वस्त्र बनने के लिए बहुत कम हैं। कानून की, सरकार की, पक्ष की, विपक्ष की, अखबार की, टेलीविजन की,व्यक्ति की, संस्थाओं की,न्याय की सबकी जो भी पहल है, वह बहुत-बहुत कम है। हम जो इसके प्रतिरोध में हैं,हमारा प्रतिरोध भी बहुत कम है। कवि की कविता यानी काव्य संवेदना भी उसके आहात स्वाभिमान के नाप से बहुत कम है। तो क्या अब पृथ्वी को लट्टू की तरह नहीं बल्कि तकली की तरह घूमना होगा अपनी धुरी पर तब बुना जा सकेगा उस निर्वस्त्र देह,आत्मा का वस्त्र !

अपनी एक कविता में‘विद्रोही’लिखते हैं-

“एक औरत की लाश धरती माता

की तरह होती है दोस्तो!

जो खुले में फैल जाती है,

थानों से लेकर अदालतों तक।“

यदि औरत की लाश धरती माता की लाश है तो औरत की निर्वस्त्र देह भी इसी धरती माता की देह है। इसी प्रकृति की क्षत-विक्षत, निर्वस्त्र देह है औरत की देह। और सत्ता के,सरकार के,कानून के, प्रशासन के और न्यायदाताओं के सम्मुख निर्वस्त्र ही खड़ी है और चीख-चीखकर असंख्य सवाल कर रही है। यह जो मणिपुर की औरतों को निर्वस्त्र किया गया है, क्या उसकी भरपाई समाज,सत्ता,सरकार किसी प्रकार से कर सकती है? उनको निर्वस्त्र किये जाने का वीडियो जो हमारे सामने आया और पूरी दुनिया में पंहुचा है, उससे भारत की सभी जाति-धर्म-संप्रदाय और क्षेत्र की औरतों ने एक गहरा आघात और असुरक्षा महसूस की है। क्या भारत की औरतों को भयमुक्त,अ-सुरक्षा से मुक्त कर पायेगा हमारा कानून, हमारी सरकारें। या औरतों की सुरक्षा के नाम पर उनको बार-बार उसी अंधकार में फेंक देने की तरकीब अपनाई जाएगी और जब-जब हिंसा,हत्या,दमन,आधिपत्य का दौर चलेगा औरतों को उन्हीं अंधेरों से बार-बार घसीटकर सड़क पर लाया जायेगा और निर्वस्त्र किया जायेगा।

चन्दन सिंह इसी कविता में लिखते हैं कि अब इसकी भरपाई सिर्फ पृथ्वी कर सकती है। उसे अपनी धुरी पर लट्टू की तरह नहीं बल्कि तकली की तरह घूमना होगा। अब पृथ्वी को कातना होगा सूत। बनना होगा जुलाहा। बुनना होगा वस्त्र तभी भारतीय स्त्री की आबरू,आत्म,अस्तित्व,अस्मिता सुरक्षित होगी उसकी देह में।

लेकिन कोई भी कविता अपनी विस्तृत संवेदना में सिर्फ स्त्री-पुरुष की बाइनरी में नहीं बंधी होती है। भले वह उसकी यथास्थिति को कह रही हो। स्त्री व अन्य कमजोर पहचानों की देह व आत्मा के अनावरण की मानवीय गरिमा के साथ भी जुड़ती है। इसलिए यह कविता सिर्फ किसी स्त्री को निर्वस्त्र किये जाने की कविता भर नहीं है बल्कि कभी भी, किसी का भी आत्म, अस्तित्व, स्व को निर्वस्त्र किया जायेगा यह कविता उसकी पीड़ा को बयान करेगी।

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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