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महिला जज यौन उत्पीड़न मामला: POSH के मक़सद को कैसे कमज़ोर करता है?

POSH औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए अभियुक्‍त को सज़ा दिलाने का उपाय देता है। यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

"मैं भारत में काम करने वाली महिलाओं से कहना चाहती हूं कि वो यौन उत्पीड़न के साथ जीना सीखें। यही हमारे जीवन का सत्य है। POSH (यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम) एक्ट हमें बताया गया सबसे बड़ा झूठ है। कोई हमारी नहीं सुनता, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप शिकायत करेंगे तो आपको प्रताड़ित किया जाएगा।"

ये शब्द उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में तैनात उस महिला सिविल जज के हैं जिन्होंने हाल ही में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को एक पत्र लिखकर इच्छा मृत्यु की मांग की है। पीड़ित महिला जज ने इस पत्र में आरोप लगाया है कि एक डिस्ट्रिक्ट जज ने उनको शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया है। उनका कहना है कि कई बार शिकायत करने के बावजूद उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई जिसके चलते अब वो अपने सबसे बड़े अभिभावक सीजेआई चंद्रचूड़ से सम्मान पूर्वक अपना जीवन समाप्त करने की अनुमति मांग रही हैं।

आपको बता दें कि ये पत्र सोशल मीडिया पर वायरल है और फिलहाल चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने इस पर संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट से इस मामले की स्टेटस रिपोर्ट भी मांगी है। क्योंकि ये पूरा मामला न्याय देने वाली व्यवस्था से ही जुड़ा है। इसलिए इस पर क्या कार्यवाही होती है इस पर सबकी नज़र भी है। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं जब खुद न्यायालय में यौन हिंसा की घटनाएं सुर्खियों में हो। इससे पहले भी साल2019 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ उनकी पूर्व जूनियर असिस्टेंट ने यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे।

न्यायपालिका का उदासीन रवैया और समस्याजनक दृष्टिकोण

जस्टिस गोगोई पर आरोप लगाने वाली महिला ने एक चिट्ठी सुप्रीम कोर्ट के सभी 22 जजों को भेजी थी जिसमें जस्टिस गोगोई पर यौन उत्पीड़न करने इसके लिए राज़ी न होने पर नौकरी से हटाने और बाद में उन्हें और उनके परिवार को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगाए गए थे। तब जस्टिस गोगोई ने इसे न्यायपालिका को अस्थिर करने की एक 'बड़ी साजिश' बताया था और फिर पूरे मामले का नतीज़ा क्या रहा ये किसी से छिपा नहीं है।

हालांकि कई और मामलों में भी देखा गया है कि इस तरह के आरोप अक्सर आरोप बनकर ही रह जाते हैं। न्यायपालिका का उदासीन रवैया और समस्याजनक दृष्टिकोण न्याय की आस को और दूर कर देता है। जबकि अदालतों में होने वाले यौन हिंसा के लिए भी विशिष्ट कानून के अभाव में सुप्रीम कोर्ट के 1997के विशाखा फैसले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में अपनाए जाने वाले कानून और प्रक्रिया को सभी अदालतों पर निर्धारित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के घोषित कानून अदालतों सहित सभी संस्थानों पर लागू होते हैं।

साल 2013 में, संसद ने जब कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम,(POSH) 2013पारित किया तो इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय में यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं की सुरक्षा के लिए भी नियम बनाए। इन नियमों के तहत भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक लिंग संवेदीकरण और आंतरिक शिकायत समिति (GSICC) का गठन करना आवश्यक है। इसका उद्देश्य लैंगिक मुद्दों पर जनता को संवेदनशील बनाना और सुप्रीम कोर्ट परिसर के भीतर यौन उत्पीड़न की शिकायतों का समाधान करना है। POSHअधिनियम स्पष्ट रूप से अपने दायरे में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार के श्रमिकों को शामिल करता है। इसके अंतर्गत यौन उत्पीड़न की रोकथाम, निषेध और निवारण के लिए संस्थागत स्तर पर एक आंतरिक समिति (IC) और जिला स्तर पर एक स्थानीय समिति (LC) का गठन अनिवार्य है।

हालांकि अभी पिछले महीने ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले के दौरान स्पष्ट शब्दों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न जैसे विषयों पर सख्ती दिखाई थी। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ का कहना था कि कार्यस्थल पर किसी भी रूप में यौन उत्पीड़न को गंभीरता से लेना चाहिए। क्योंकि ये एक ऐसा मुद्दा है जिसने दुनियाभर के लोगों को परेशान कर रखा है। कोर्ट ने कहा था कि उत्पीड़न करने वाले को लोगों को कानून के चंगुल से बचने की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।

क्या है कार्य स्थल पर यौन शोषण से जुड़ा कानून?

भारतीय क़ानून में 'किसी के मना करने के बावजूद उसे छूना, छूने की कोशिश करना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, सेक्शुअल भाषा वाली टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफ़ी दिखाना या कहे-अनकहे तरीक़े से बिना सहमति के सेक्शुअल बर्ताव करना'- को यौन उत्पीड़न माना गया है। साल2013 में 'सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वुमेन ऐट वर्कप्लेस (प्रिवेन्शन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल)' लाया गया तो इस परिभाषा को जगह और काम से जोड़ दिया गया। यहां काम की जगह का मतलब सिर्फ़ दफ़्तर ही नहीं बल्कि दफ़्तर के काम से कहीं जाना, रास्ते का सफ़र, मीटिंग की जगह या घर पर साथ काम करना, ये सब शामिल है।

ये क़ानून सरकारी, निजी और असंगठित सभी क्षेत्रों पर लागू है। ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए कुछ सज़ा दिलाने का उपाय देता है। यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है जैसे संस्था के स्तर पर अभियुक्त के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई, चेतावनी, जुर्माना, सस्पेंशन, बर्ख़ास्त किया जाना वगैरह। हालांकि फोर्ब्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की सबसे बड़ी पर्यावरण, सामाजिक और शासन अनुपालन (ESG) शिकायत कंपनियों में कार्यस्थलों पर लंबित यौन उत्पीड़न के मामलों की संख्या में मार्च 2023 को समाप्त होने वाले वर्ष में 101प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। यानी शिकायतों का एक बड़ा बैकलॉग और कंपनियों की इसे हल करने में असमर्थता ICC के उद्देश्यों को धुंधला कर रही है। ये तब है जब इन संस्थानों में ICC है, देश में ऐसे सस्थान भी बड़ी संख्या में हैं, जहां ये आईसीसी हैं ही नहीं।

साल 2018 का ऐतिहासिक "#MeTooमूवमेंट

देश में साल 2018 का ऐतिहासिक "#MeTooमूवमेंट आपको याद ही होगा। इस ऑनलाइन आंदोलन का यही हासिल था कि पहली बार बड़ी संख्या में आम और ताक़तवर महिलाएं सार्वजनिक तौर पर अपने सीनियर्स औऱ बॉसेस के खिलाफ खुलकर सामने आईं। कई महिलाओं ने कार्यस्थल पर तो कईयों ने इससे इतर अपने शोषण की आपबीती बयां की। तब समाज के बड़े और तथाकथित कई सभ्य लोगों की सत्ता हिल गई थी। इसमें पत्रकार प्रिया समानी का मामला सबसे बड़ा था जो अदालत तक पहुंचा और उन्हें अपने ही उत्पीड़न मामले में उन्हें पूर्व मंत्री एमजे अकबर से मानहानि का केस झेलना पड़ा।

तब अदालत ने प्रिया रमानी के पक्ष में फैसला सुनाया था जिसे कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामले में मील का पत्थर कहा जा रहा था। एडिशनल चीफ़ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट रवींद्र कुमार पांडेय ने अपने 91 पन्ने के फ़ैसले में लिखा"समाज को समझना ही होगा कि यौन शोषण और उत्पीड़न का पीड़ित पर क्या असर होता है। यौन उत्पीड़न, पीड़ित के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को ख़त्म कर देता है। उत्पीड़न करने वाला हममें से कोई भी व्यक्ति हो सकता है।सामाजिक प्रतिष्ठा वाला व्यक्ति भी यौन उत्पीड़न कर सकता है।"

अदालत का कहना था कि यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली महिला को अवमानना के आपराधिक मुक़दमें में इसलिए नहीं सज़ा हो सकती कि मामला किसी की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा किसी दूसरे के जीने के अधिकार और महिला के सम्मान की क़ीमत पर नहीं की जा सकती है। महिलाओं के पास दशकों बाद भी अपनी शिकायत को स्वेच्छा से किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर रखने का अधिकार है।"

यहां एक बात जो समझने वाली है कि जब यौन उत्पीड़न की शिक़ायत आप अपने दफ़्तर की बनी इंटर्नल कंप्लेन कमेटी (ICC) के सामने करते हैं तो वो सिविल मामला होता है। लेकिन अगर उस मामले को लेकर आप पुलिस के पास जाते हैं तो वो क्रिमिनल यानी आपराधिक मामला हो जाता है। ICC में यौन उत्पीड़न की शिकायत करने के लिए 3 महीने की समय सीमा निर्धारित है। लेकिन आईपीसी में 2013 के बाद धारा 354 (यौन उत्पीड़न की धारा) में कुछ बदलाव कर नए सेक्शन जोड़े गए और 'लिमिटेशन पीरियड' को ख़त्म कर दिया गया। 2013 के पहले IPC की धारा 354 में ये 'लिमिटेशन पीरियड' तीन साल का था।

पढ़ने के साथ ही काम करने और उसमें बने रहने के लिए भी संघर्ष

गौरतलब है कि बांदा की महिला जज की शिकायतें बहुत गंभीर हैं। उनका कहना है कि सितंबर 2022 में उन्होंने हाईकोर्ट को इस मामले के बारे में लिखा था। वहां से उन्हें कोई राहत नहीं मिली। यहां तक की एक जांच शुरू कराने के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी। उन्होंने इसके लिए हजारों मेल लिखे, तब जाकर छह महीने बाद जांच शुरू हुई, जबकि PoSHएक्ट के मुताबिक तीन महीने में हो जाना चाहिए था। उन्होंने हाई कोर्ट की इंटरनल कंप्लेंट कमिटी को भी जुलाई 2023 में पत्र लिखा था लेकिन इस पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। पीड़ित जज का कहना है कि जज होते हुए भी वो सिस्टम से नहीं लड़ पाईं। अपने लिए निष्पक्ष जांच तक नहीं करा सकीं। पत्र के अंत में पीड़ित जज लिखती हैं कि पिछले डेढ़ साल से उन्हें एक चलती-फिरती लाश बना दिया गया है उनकी जिंदगी का कोई मकसद नहीं बचा है। और इसलिए वो अब अपने जीवन को सम्मानपूर्वक खत्म करना चाहती हैं।

जाहिर है जीवन के इस दर्द को समझना बहुत मुश्किल है। जैसा कि अदालत ने प्रिया रमानी वाले मामले में कहा था कि यौन उत्पीड़न,पीड़ित के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को खत्म कर देता है। इसलिए इसमें न्याय सुनिश्चित होना जरूरी है। ये संघर्ष तब है जब देश में कोई महिला पढ़-लिख कर एक मजबूत औहदे पर है। इस पूरे मामले से ये समझना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है कि आम महिलाओं को रोज़ाना कितना कुछ झेलना पड़ता होगा। हम भले महिला सशक्तिकरण की ढ़ेर सारी शाबाशियां ले लें लेकिन फिर भी इस सच्चाई को कोई नहीं झुठला सकता है कि लड़कियों को जितना संघर्ष पढ़ने के लिए करना पड़ता है उतना ही काम करने और उसमें बने रहने के लिए भी।

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