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पड़ताल: एमएसपी पर सरकार बनाम किसान, कौन किस सीमा तक सही?

तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने के अलावा किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी मिले इसे लेकर आंदोलन जारी है। इसको लेकर तमाम सवाल और दावे भी हैं। आइए करते हैं इसी की एक पड़ताल
पड़ताल: एमएसपी पर सरकार बनाम किसान, कौन किस सीमा तक सही?
मध्यप्रदेश के मुरैना के सबलगढ़ में आयोजित किसान रैली। फोटो साभार: अखिल भारतीय किसान सभा

नए कृषि क़ानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन के मोर्चे पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को लेकर किसान और सरकार आमने-सामने हैं। एमएसपी के निर्धारण और उसके आधार पर फ़सलों को ख़रीदने की सुनिश्चितता को लेकर इन दिनों एक लंबी बहस चल रही है। लेकिन, इस पूरी बहस के परिपेक्ष्य में कई ऐसे बिंदू छूट रहे हैं जिन पर किसानों को संदेह बढ़ता जा रहा है और इसलिए वे सरकार के सामने ख़ुलकर अपनी मांग रख रहे हैं। वहीं, दूसरी ओर ठीक इन्हीं बिंदुओं पर सरकार या उसके समर्थकों के दावे हैं कि किसानों की चिंता बेवज़ह हैं। लेकिन इसी के साथ वे सरकार की मज़बूरियां भी गिनाने लगते हैं, जिससे शक़ और गहरा जाता है।

उदाहरण के लिए, एमएसपी के नज़रिए से सरकार का एक दावा तो यह है कि एपीएमसी (कृषि उत्पाद बाज़ार समिति) मंडियों के समानांतर यदि निजी मंडियां खोल दी जाएं तो किसानों को उनकी उपज़ का ज़्यादा दाम मिलेगा। लेकिन इसी के उलट यही सवाल है कि जब सरकारी मंडी से भी ज़्यादा दाम प्राइवेट मंडी में मिलेगा तो फिर एमएसपी की गारंटी से इंकार क्यों है!

इसी तरह, सरकार समर्थक कई जानकारों का दूसरा दावा यह है कि एमएसपी का फायदा तो अनाज़ के सरप्लस उत्पादन करने वाले बड़े किसानों को ही मिलता है, इसलिए अस्सी फ़ीसदी तक छोटे किसान तो एमएसपी की मांग कर भी नहीं रहे हैं। जहां तक एमएसपी पर क़ानूनी गारंटी का मुद्दा है तो दोनों ही पक्ष इसकी जटिलताओं को भलीभांति समझते हैं। लेकिन, ख़ुले बाज़ार में अगर इसे लागू कराना संभव ही नहीं है तो सरकार समर्थकों के इस दावे की पड़ताल भी ज़रूरी है।

इसी से जुड़ी एक आशंका है कि यदि सभी फ़सलों पर किसानों को एमएसपी मिलने लगे तो क्या इससे मंहगाई बढ़ेगी। और, मान लीजिए यदि बढ़े भी तो क्या सरकार के पास इसे काबू करने के उपाय नहीं हैं।

इसके अलावा ऐसा क्यों है कि सरकार खाद्यान्न संग्रहण के लिए गोदामों की कमी, किसानों को सब्सिडी और बजट के मामले में भी ख़ुद को असहाय प्रस्तुत कर रही है। आख़िर में इन सभी मुद्दों को बारी-बारी से रखते हुए आख़िरी सवाल यही है कि एमएसपी को लेकर इनमें से हरेक मुद्दे पर सरकार के दावे किस सीमा तक सही हैं। दूसरी ओर, किसानों की मांगें किस हद तक ज़ायज़ हैं और क्यों?

क्या छोटे किसान को नहीं मिलता एमएसपी?

एमएसपी को लेकर कृषि क्षेत्र से जुड़ा एक वर्ग यह कह रहा है कि एमएसपी महज़ बड़े किसानों की मांग है। इस बारे में कृषि विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर एमएस राठौर कहते हैं, "एमएसपी पर सरकार द्वारा होने वाली 6 प्रतिशत की उपज़ ख़रीदी का फायदा वैसे भी बड़े किसानों को मिलता है। ऐसा इसलिए भी है कि छोटा किसान सरप्लस पैदावार कर ही नहीं पाता। देश में चार-पांच एकड़ तक के किसानों की हालत यह है कि पहले वे अपने घर-परिवार की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए साल भर का अनाज़ बचाकर रखना चाहते हैं। इसके बाद यदि मामूली उपज़ बचती भी है तो उसे वे नज़दीक ही ख़ुले बाज़ार में बेच देते हैं। भारत में ऐसे सीमांत और छोटे किसानों की संख्या अस्सी फ़ीसदी से ज़्यादा है। इसलिए यदि आप कहते हैं कि बहुत कम किसानों को एमएसपी मिल रही है तो फिर यह बात भी समझने की ज़रूरत है कि किसानों की कुल आबादी में कितना हिस्सा है जो सरप्लस पैदावार कर पा रहा है।"

दूसरी ओर, कई किसान नेता इस दावे को सच नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि ऐसा होता तो दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे विरोध-प्रदर्शनों से लेकर महापंचायतों में मुट्ठी भर बड़े किसान ही ज़मा होते। ज़मीनी सच्चाई यही है कि छोटे से छोटा किसान पेट भी भरता है और सरकारी मंडियों में एमएसपी पर अपना माल बेचना भी चाहता है। यदि व्यवस्था इसके अनुकूल न हो तो बात अलग है।

इस बारे में अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अशोक धवले कहते हैं, "छोटे से छोटा किसान भी कोई फ़सल इस उद्देश्य से उगाता है कि उसका कुछ भाग बेचकर वह दूसरी वस्तुओं को ख़रीद सके। फिर छोटा किसान भी तो खाने के अलावा लागत निकालना चाहेगा। इसलिए यदि वह अपनी ज़रूरत से थोड़ा भी ज़्यादा उगाए तो उसे सबसे ज़्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य की ज़रूरत पड़ती है। क्योंकि, बड़ा किसान तो भंडारण करके कुछ दिन रुक भी जाएगा, या थोड़ी कम कीमत हासिल करके लागत समायोजित भी कर लेगा, पर छोटे किसान को अगर थोड़ी-सी पैदावार में ही अच्छा भाव नहीं मिला तो उसका संकट बड़ा है।"

वहीं, छत्तीसगढ़ प्रगतिशीलशील किसान संगठन के नेता राजकुमार गुप्ता अपने अनुभवों के आधार पर बताते हैं कि सरकारी मंडी में एमएसपी पर अपनी फ़सल बेचने के लिए हर श्रेणी के किसान बड़ी संख्या में आते हैं। फिर उन्हें पीडीएस के तहत नाममात्र का पैसा ख़र्च करके खाने के लिए गेहूं और चावल मिल जाता है। ऐसे में कौन छोटा किसान होगा जो अपनी फ़सल को घर पर रखने की बजाय एमएसपी पर बेचकर दो पैसा नहीं कमाना चाहेगा।

इस बारे में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई-दिल्ली में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर विकास रावल बताते हैं, "यदि मान भी लें कि फ़सलों की सरप्लस पैदावार करने वाले किसानों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है तब भी तो करीब 60 प्रतिशत उपभोक्ताओं की आबादी के लिए खाद्य वस्तुएं उपलब्ध कराने वाले वर्ग का संरक्षण ज़रूरी है। यदि बड़े किसानों को लक्ष्य करके कोई यह कहें कि बहुत कम किसान ही एमएसपी मांग रहे हैं तो इससे सरप्लस ख़ेती करने वाले किसान हतोत्साहित ही होंगे। फिर एक सवाल यह भी है कि यदि किसी किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी न मिले तो वह फ़सल की सरप्लस पैदावार क्यों करना चाहेगा। ऐसी स्थिति में तो वह अपनी ज़रूरत के हिसाब से उगायेगा और खुद भी उपभोक्ता बनना चाहेगा। इसलिए यह दृष्टिकोण खाद्यान्न सुरक्षा की दृष्टि से नकारात्मक है।"

सरकारी मंडियां सीमित ख़त्म हुईं तो क्या ज़ारी रहेगा एमएसपी?

कई किसान नेता यह मानते हैं कि सरकारी मंडियों का जितना विस्तार होगा और वे जितनी सुदृढ़ बनेंगी एमएसपी की सुनिश्चितता उतनी अधिक बढ़ेगी। लेकिन, इसके बरक़्स नए क़ानूनों को लेकर किसानों का डर यही है कि मौज़ूदा मंडी व्यवस्था कमज़ोर हुई तो सरकार कहीं धीरे-धीरे एमएसपी पर किसानों से उनकी फ़सल ख़रीदने की बाध्यता से ही मुक्त न हो जाए!

हालांकि, सरकार का दावा है कि उसने निजी मंडियों को बढ़ावा देकर किसानों को उपज़ बेचने का विकल्प दिया है। इससे किसानों को उनकी उपज़ का बेहतर दाम मिलेगा। लेकिन, यदि ऐसा है ख़ुले बाज़ार में अपनी फ़सल बेचने वाले ज़्यादातर किसान अमीर क्यों नहीं होते।

किसान नेता अशोक धवले कहते हैं, "धान का एमएसपी 1868 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित है। लेकिन, देश के अधिकतम हिस्सों में किसान 800 से 1,200 रुपए क्विंटल पर अपना धान बेचने के लिए मज़बूर हैं। वजह यह है कि देश के अधिकतर राज्यों में किसानों के पास सरकारी मंडी में बेचने का विकल्प ही नहीं है। ऐसे में तो किसान के सामने विकल्पहीनता की ही स्थिति बनेगी। जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है कि यह मंडी सुधार का क़ानून है। यदि ऐसा है तो इसमें मंडियों को सुधारने का उल्लेख क्यों नहीं है। होना तो यह था कि मंडियों की संख्या बढ़ाई जाती तो किसानों के सामने अपनी फ़सल को अच्छी क़ीमत में बेचने का विकल्प भी मिलता, पर हो यह रहा है कि कृषि सुधारों के नाम पर पूरी व्यवस्था को ही निजी हाथों में सौंपे जाने की तैयारी की जा रही है।"

सवाल है कि कृषि क़ानून आने से मौज़ूदा मंडी व्यवस्था कमज़ोर क्यों होगी? इस बारे में राजकुमार गुप्ता कहते हैं कि सरकार ने नए क़ानून में अपनी मंडियों को बर्बाद करने का इंतज़ाम ख़ुद ही कर दिया है। यदि निजी मंडियों में ख़रीदी-बिक्री नि:शुल्क रहेगी तो कोई व्यापारी टैक्स देकर सरकारी मंडियों में क्यों जाएगा। ऐसे में सरकारी मंडियां कुछ सालों में अपनेआप ही बिना काम की हो जाएंगी। आज किसान मंडियों में लाइसेंस प्राप्त एजेंटों के ज़रिए अपनी उपज़ बेचता है तो व्यापारियों के टैक्स से राज्य की तिजोरी भी भरती है।"

नए कृषि क़ानूनों को लेकर एक दावा यह किया जा रहा है कि इससे एक बाज़ार बनेगा। इस बारे में एक अन्य किसान नेता बादल सरोज मानते हैं कि इससे दो बाज़ार बनेंगे। एक सरकारी मंडी बाज़ार और दूसरा ख़ुला बाज़ार। दोनों में अलग-अलग नियम होंगे। सरकारी मंडी में टैक्स लगेगा, जबकि निजी मंडी टैक्स फ़्री रहेगी। वे कहते हैं, "मौज़ूदा मंडी व्यवस्था में ख़ामियां हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। लेकिन, क़ानून में तो सरकारी मंडी व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की बजाय निजीकरण पर ज़ोर दिया गया है। दूसरा, इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि बाज़ार में व्यापारियों के लेन-देन, क़ीमत और ख़रीद की मात्रा से जुड़ी जानकारियां कैसे सार्वजनिक होंगी और सरकार कैसे उन पर निगरानी रखेगी।"

क्या एमएसपी पर क़ानूनी गारंटी से बढ़ेगी महंगाई?

कई किसान नेताओं का मत है कि एमएसपी पर क़ानूनी गारंटी न होने से सरकार हर साल रबी और ख़रीफ़ की फ़सलों के लिए एमएसपी घोषित तो करती है, फिर भी ख़ुले बाज़ार में किसान की उपज़ एमएसपी से बहुत कम क़ीमत पर ख़रीदी जाती है। आगे भी सरकार एमएसपी निर्धारित करती रहे मगर ख़ुले बाज़ार में एमएसपी का पालन न हो तो यह सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात है कि उसकी व्यवस्था को कोई नहीं मानता। वहीं, सरकारी मंडियों में भी कुल 23 फ़सलों की सूची में से सिर्फ़ गेहूं और धान की बहुत कम ख़रीदी होती है।

बादल सरोज बताते हैं कि कुछ साल पहले मध्य-प्रदेश के चंबल क्षेत्र में बाजरे की बंपर पैदावार हुई थी। एक बड़ा आंदोलन चलाने के बाद भी सरकारी मंडी में एमएसपी पर न के बराबर बाजरा ख़रीदा गया था। असल में सरकार उन फ़सलों की एमएसपी बढ़ा देती है जिन्हें वह न के बराबर ख़रीदती है। कई फ़सलों को ख़रीदने के लिए सरकार के पास मैकानिज़्म ही नहीं है। इसलिए एमएसपी पर क़ानूनी गारंटी ज़रूरी है।

राजकुमार गुप्ता कहते हैं कि आज भी बिना एमएसपी दिए व्यापारी किसानों से अवैध तरीके से फ़सलों की ख़रीदी करता ही है। लेकिन, क़ानून बनने के बाद ऐसे करने वाले व्यापारी और बड़ी-बड़ी कंपनियों पर सज़ा का प्रावधान भी लागू होगा। दरअसल, सरकार चाहती नहीं है कि ऐसी स्थिति बने जब प्रशासन को उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए मज़बूर होना पड़े। दूसरा, निजी क्षेत्र में यदि किसानों का माल ऊंचे भाव में बिका तो कॉर्पोरेट भी वस्तुएं के दाम बढ़ा देंगे। इससे महंगाई बढ़ेगी और सरकार इसे नियंत्रण में रखने की ज़िम्मेदारी से बचना चाहती है।

इस बारे में अशोक धवले कहते हैं, "यदि अडानी किसान से 18 रुपए किलो का बासमती चावल ख़रीदकर उसे बाज़ार में आठ से दस गुना अधिक दाम पर बेच रहा है तो सवाल है कि यह बीच का हिस्सा कहां जा रहा है और यहां सरकार को अपनी भूमिका तय करनी चाहिए या नहीं। ज़ाहिर है कि वह किसान को एमएसपी देकर भी नुकसान नहीं उठा सकता है। क्योंकि, वह पहले ही एक बड़े मार्जिन पर ख़रीदी-बिक्री कर रहा है। इसलिए यह तय है कि किसानों को एमएसपी देने के बावज़ूद वह घाटे में नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में वस्तुओं के दाम क्यों बढ़ाने चाहिए।"

इसी तरह, महंगाई के सवाल पर कई जानकार मानते हैं कि यह किसानों को एमएसपी देने से नहीं बल्कि कॉर्पोरेट को मुनाफ़ा देने से बढ़ेगी। बादल सरोज कहते हैं, "स्वामीनाथन आयोग में इसका उल्लेख है कि किसान के पास यदि ज़्यादा पैसा आएगा तो मुद्रा स्फ़ीति नहीं बढ़ेगी। ऐसे समय में सरकार को चाहिए कि वह अपनी खाद्य सब्सिडी को बढ़ाए। केंद्र चाहे तो बज़ट में इसके लिए संभावनाएं बनाई जा सकती हैं। पिछले छह सालों में मोदी सरकार ने बड़े-बड़े कॉर्पोरेट के छह से आठ लाख करोड़ रुपए माफ़ किए हैं। टैक्स में दी जाने वाले राहत का तो हिसाब ही नहीं है। यही मेहरबानी यदि सरकार किसानों पर कर दे तो ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था बूस्ट हो जाएगी और गांवों में रहने वाली एक विशाल आबादी के जीवन-स्तर में भी सुधार होगा। 

क्या एमएसपी के अनुकूल बाज़ार बनेगा?

विकास रावल मानते हैं कि आज सरकार ने बाज़ार की जो हालत कर दी है उसमें एमएसपी को क़ानूनी गारंटी देना आसान नहीं होगा। इसलिए आर्थिक नीतियों को उसके अनुकूल बनाने की पहल की जानी चाहिए। यह ज़िम्मेदारी सरकार की है कि वह खेती की लागत कम करने के प्रयासों पर ज़ोर देने वाली नीति को बढ़ावा दे। यदि लागत कम रही तो एमएसपी उत्पादन लागत से डेढ़ गुना देने पर भी कम ही रहेगी। सवाल यही है कि साल-दर-साल ख़ेती की लागत क्यों बढ़ रही है। इसके पीछे कारण है कि किसानों के नज़रिए से खाद, उर्वरक, बीज़, सिंचाई और बिज़ली के दाम बेहताशा बढ़ रहे हैं। ऐसे में यदि लागत बढ़ेगी तो कैसे किसानों के लिए खेती लाभ का सौदा बन सकती है। इसलिए आज की स्थिति में किसानों को वह मूल्य नहीं मिल पा रहा है जिसकी उन्होंने ज़रूरत है।

सवाल है कि किसान की लागत को न्यूनतम बनाने की दिशा में सरकार कैसे काम कर सकती है? इस बारे में विकास रावल कहते हैं, "सब्सिडी आप कम कर रहे हैं, जबकि इसे बढ़ाने के साथ इसकी प्रक्रिया में भी बदलाव की सख़्त ज़रूरत है। सारी सब्सिडी सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात पर केंद्रित होनी चाहिए कि किसान की लागत कैसे कम की जाए। अभी सब्सिडी का ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बीमा आदि कंपनियों की ज़ेब में चला जाता है। इससे किसान को कोई ख़ास लाभ होता नहीं दिख रहा है। इसकी बजाय सरकार  यह सोचे कि क्यों किसान कॉर्पोरेट से महंगा खाद, बीज और उर्वरक ख़रीद रहा है। सरकार क्यों नहीं कृषि विज्ञान केंद्रों में बीज तैयार करके उन्हें सस्ती दर पर किसानों को उपलब्ध कराती है। इसी तरह, सरकार द्वारा कीटनाशकों के दामों पर क्यों नहीं निगरानी तंत्र बनाया जा सकता है। यदि ग़लत नीतियों को ठीक करेंगे और किसान अनुकूल नीतियां बनाएंगे तो एमएसपी देना आसान हो जाएगा।

सरकार क्यों नहीं बढ़ा सकती गोदामों की संख्या?

आख़िरी में एक दलील यह भी दी जाती है कि यदि सरकार ने किसानों से एमएसपी पर ज़्यादा से ज़्यादा माल ख़रीदा तो रखेगी कहां। गोदामों को बनाने के लिए भी तो बहुत सारा पैसा चाहिए। इस बारे में अशोक धवले कहते हैं कि सरकार एक साल में तो सारे गोदाम बनाकर तैयार नहीं कर सकती। इसमें तो हर साल बज़ट ख़र्च करना होता है। सवाल है कि सरकार ने पिछले कुछ सालों से गोदाम बनाने बंद क्यों कर दिए। जबकि, पिछले कुछ सालों से प्राइवेट के विशालकाय गोदाम हरियाणा और अन्य ज़गहों पर क्यों बन रहे थे।

वे कहते हैं, "क़ानून पास होने के पहले प्राइवेट के गोदाम बनाने के कारण भी यह सरकार कठघरे में है। यदि सरकार को ही गोदाम बनाने होते तो यह क़ानून वह क्यों लाती। मतलब तैयारी बहुत पुरानी और प्रो-कोर्पोरेट है। सरकारी गोदामों की बजाय यदि खाद्यान्न  प्राइवेट गोदामों में जाएगा तो सवाल है कि देश की खाद्यान्न सुरक्षा कुछ मायने रखती है या नहीं। खाद्य-सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए तो कई सालों से गोदाम बनाए जा रहे थे।"

(शिरीष खरे पुणे स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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