ग्राउंड रिपोर्ट : बुरी हालत में हैं पूर्वांचल के मिर्च उत्पादक किसान, मंडियों में 5 रुपये/किलो बिक रही मिर्च
उत्तर प्रदेश के बनारस स्थित राजातालाब में सब्जियों की बड़ी मंडी है, जहां दूर-दूर से किसान अपनी फ़सल इस आस से लेकर आते हैं। कोशिश होती है कि उन्हें अपनी मिर्च की उपज के उचित भाव मिल जाए। मंडी के बाहर रोजाना मिर्च लदे वाहनों की लंबी कतारें लगी रहती हैं। सिर्फ बनारस ही नहीं, मिर्जापुर, सोनभद्र और गाजीपुर तक के किसान यहां अपना मिर्च बेचने आते हैं। इस मंडी के व्यापारी बताते हैं कि जो मिर्च की जो खेती मिर्जापुर के क्रियात इलाके में होती है उसकी गुणवत्ता सबसे अच्छी होती है और मांग भी।
राजातालाब मंडी में मिले ललित पटेल। वह सिर्फ आढ़ती ही नहीं, खुद मिर्च की खेती भी करते हैं। इसलिए इन्हें किसानों के मुश्किलों का एहसास है। कहते हैं, "इसी मंडी से हरी मिर्च कोलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, पटना जाती है। पिछले साल मिर्च की खेती से जो किसान मालामाल हुए थे वो इस बार अपनी बर्बादी पर आंसू बहा रहे हैं। पूर्वांचल के किसानों को मिर्च बिना खाए ही तीखेपन का अहसास करा रही है। इसकी कीमत में काफी कमी आ गई है, जिसके चलते वो बुरी हालत में है। हालत यह है कि किसानों को मिर्च की लागत निकलनी भी मुश्किल हो रही है। मंडियों में उपज कौड़ियों के भाव बिक पा रही है। भाव इतने ज़्यादा गिर गए हैं कि किसान काफी हताश हैं। हजारों उत्पादकों ने मिर्च की तोड़ाई ही बंद कर दी है। बहुतों ने अपनी फसलों को ट्रैक्टर के जुतवा दिया है और घाटे से बचने के लिए सरसों, चना अथवा मटर की बुआई करा दी है।"
ललित पटेल
ललित को नेताओं की जुमलेबाजी से ज्यादा रंज है। वह कहते हैं, "डबल इंजन सरकार दावा करती है पूर्वांचल के किसान मिर्च और टमाटर से मालामाल हो रहे हैं, जबकि हमारी स्थिति भिखारियों जैसी हो गई है। अबकी हमने दो एकड़ में मिर्च की खेती की और जबर्दस्त घाटे में चले गए। हमने तो इस उम्मीद के साथ मिर्च की खेती की थी कि मुनाफा होगा और खुशहाल होंगे। पूर्वांचल में मिर्च की खेती करने वाले किसानों की स्थिति जुआरियों से भी बदतर हो हो गई है। सिर्फ घाटा ही घाटा है।"
"पीएम नरेंद्र मोदी ने कुछ साल पहले हमारी मिर्च विदेशों में निर्यात कराने की बात कही थी। उस समय बड़ी उम्मीद जगी थी। विदेश की कौन कहे, अपने बनारस में हमारी मिर्च कोई नहीं पूछ रहा है। राजातालाब के अलावा हम किसी और मंडी का हाल नहीं जानते। यहां तो मंडी समिति के अफसर और कर्मचारी किसानों के साथ गुंडई कर रहे हैं। हमारी मिर्च पांच-छह सौ रुपये कुंतल की दर से बिक रही है और मंडी शुल्क लिया जा रहा है 12 से 15 रुपये के दाम पर।"
सरकार की नीतियां ख़राब
राजातालाब मंडी में काश्तकार रतन कुमार मिश्र से मुलाकात हुई जो वो अपना दुखड़ा सुनाने बैठ गए। वह मिर्जापुर प्रखंड के चुनार इलाके के बटउवां गांव से अपनी उपज के साथ यहां पहुंचे थे। वह बताते हैं, "अपनी मिर्च एक पिकअप गाड़ी में भरकर मंडी में आए हैं। मंडी तक एक बोरे का किराया उन्हें सौ रुपये पड़ा है और यहां का हाल यह है कि मिर्च की बोली इतनी नहीं लग पा रही है कि खेती का खर्च भी निकल सके। सौ दो सौ रुपये तो यहां चाय-नाश्ता और खाने के ही लग जाते हैं। मंडी में किसी चीज की सुविधा नहीं है। पीने और नहाने के लिए पानी तक नहीं है। शौचालय का इंतज़ाम नहीं है। शौच तक के लिए किसानों को दस रुपये देने पड़ते हैं। इतना पैसा कहां से लाऊं?"
किसान रतन कुमार मिश्र कहते हैं, "मिर्च, टमाटर और मटर की खेती के अलावा हमारे पास कोई काम नहीं है। हमारे गांव के नजदीक की सब्जी मंडी राजातालाब में है। अभी तो मिर्च पांच-छह सौ रुपये प्रति कुंतल के भाव बिक रहा है। कभी-कभी तीन-चार रुपये बेचने की नौबत आ जाती है। पिछले साल अच्छा रेट मिल गया था। अबकी पिछले साल की सारी कमाई डूब गई। सिंचाई, बुआई, खाद, बीज, तोड़ाई और माल भाड़, पल्लेदारी और मंडी शुल्क मिला दें तो हमें घर से लगाना पड़ रहा है। मेहनत से मिर्च की खेती की है, जिसे हम फेंक भी नहीं सकते। कुछ खेत हमने 25 हजार रुपये प्रति बीघा किराये पर ले रका है।"
अपने खर्च का ब्योरा देते हुए रतन कहते हैं, "पलेवा पर 1200, कल्टीवेटर से जुताई पर 1200, मिर्च के बीज पर 2100, नर्सरी तैयार करने पर नौ सौ रुपये खर्च हुआ। मिर्च रोपते समय 2500 रुपये, दो बार निराई पर 8000 रुपये, 5 से 6 बोरी डाई उर्वरक पर 7500 और गुड़ाई पर 2200 रुपये खर्च कर चुके हैं। मिट्टी चढ़ाने पर 2800 रुपये का खर्च आया है। इतना करने के बाद छह-सात बार कीटनाशकों का छिड़काव भी करना पड़ा है। इस पर 3000 से 3500 रुपये और कीटनाशकों का खर्च सात-आठ हजार रुपये हो चुका है। पूरे सीजन में 3500 रुपये मिर्च की सिंचाई करने में चला जाता है। मिर्च की फसल तैयार होने पर 160-180 रुपये एक दिन की मजूरी देनी पड़ती है।"
"एक मजदूर दिन भर में सिर्फ 50 किग्रा मिर्च ही तोड़ पाता है। हमारे गांव बटउंवा से मिर्च राजातालाब ले जाने में 140 रुपये ढुलाई खर्च आता है। इतना सब करने के बाद हमारी मिर्च बिक रही है 500 से 600 रुपये प्रति कुंतल और हमसे मंडी शुल्क की वसूली 1200 से 1500 रुपये के हिसाब से की जा रही है। पल्लेदारी के लिए दो-तीन रुपये बोरे देने पड़ते हैं, जिसका ब्योरा आढ़तियों की रसीद पर दर्ज नहीं होता है। भारी घाटे के चलते हमारे रातों की नींद उड़ी हुई है और सत्तारूढ़ दल के जुमलेबाज नेता दावा करते फिरते हैं कि किसानों की आमदनी दोगुनी हो गई है।"
अपनी व्यथा सुनाते हुए किसान रतन भावुक हो जाते हैं। वह यह भी कहते हैं, "आढ़तिये मोटे होते जा रहे हैं और किसान दुबला। लगता है कि आने वाले दिनों में खेती छोड़नी पड़ेगी। मुश्किल यह है कि किसानों के पास खेती के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मल्टीनेशनल कंपनियां अपने खाद-बीज और दवाओं का प्रचार कर रही हैं और हमारी जमीन जहरीली होती जा रही है। आबादी बढ़ रही तो उत्पादन भी चाहिए। उचित मूल्य न मिलने से किसान बेहाल हैं। 2022 तक अन्नदाता की आय दोगुनी करने का दावा फरेब साबित हुआ है।"
"हमारे परिवार में कुल छह सदस्य हैं। हमने तीन बीघे में मिर्च और टमाटर की खेती की है। ऐसे हालात में हम अपने बच्चों को न पढ़ा पा रहे हैं और और न ही ठीक से अपना पेट भर पा रहे हैं। यह स्थिति तब है जब हमारे गांव से भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर) की दूरी सिर्फ 12 किमी है। वहां बड़े-बड़े वैज्ञानिक हैं, लेकिन उनके होने न होने से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। गौर करने की बात है कि इनका रिसर्च हमारे खेतों तक नहीं पहुंच पा रहा है।"
राजातालब मंडी में मौजूद मिर्च उत्पादक किसान प्रमोद सिंह, अनिल कुमार सिंह, अशोक सिंह तिरंगा, उमेश पांडेय, शीतलेश्वर मंडी के संचालन पर सवाल खड़ा करते हैं। वो कहते हैं, "सरकार, प्रशासन और कृषि मंडी कर्ताधर्ता इसके संचालन का कोई तरीक़ा ही नहीं बना पाए हैं, जिससे किसानों में हाहाकार है। किसान अपनी मिर्च भले ही पांच-सात सौ रुपये प्रति कुंतल के भाव में बेचते हैं, लेकिन मंडी के अधिकारी और कर्मचारी 1200 से 1500 रुपये की दर से मंडी टैक्स की वसूली करते हैं। आखिर हमारे साथ यह नाइंसाफी क्यों हो रही है। सरकारी तंत्र फेल है और वह हमें हमारी उपज का सही दाम दिलाने में नाकाम साबित हो रहा है। विदेशी कंपनियों के बीज और दवाएं पापुलर हो रही हैं और हमारे अपने पारंपरिक खाद-बीज को कोई पूछने वाला नहीं है। बनारस के शहंशाहपुर में भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान तो हमारे लिए सफेद हाथी साबित हो रहा है।"
मिर्च के खेत में दवा का छिड़काव करता किसान
किसकी जेब गर्म हो रही?
मिर्जापुर के मझवा प्रखंड का एक गांव है मेड़ियां, जहां करीब 1400 बीघे में मिर्च की खेती होती है। हालांकि मेड़ियां के काश्तकार टमाटर, गेहूं, मटर, चना, मूंगफली का उत्पादन भी करते हैं। इन्हीं किसानों में एक हैं पप्पू सिंह। वह पिछले डेढ़ दशक से बेटर लाइफ फार्मिंग से जुड़े हैं। हर साल दस बीघे में मिर्च की खेती करते थे, लेकिन इस बार गंगा में आई बाढ़ और पिछाड़ की बारिश के चलते सिर्फ साढ़े तीन बीघे में मिर्च की खेती कर पाए। इन्होंने अपने खेतों में सेमनीज-3131, नामधारी 1101 और शनाया प्रजाति का मिर्च लगा रखा है।
पप्पू सिंह कहते हैं, "इस बार मिर्च की कमाई माटी हो गई। बुआई से पहले हमने हजारों रुपये का बीज खरीदा था। मिर्च की पहली तोड़ाई से ही हमें घाटा उठाना पड़ रहा है। हाईब्रिड प्रजाति के मिर्च तो मुश्किल से पांच से सात सौ रुपये प्रति कुंतल की दर से बिक पा रही है। हम तो हजारों रुपये खर्च करके बर्बादी की कगार पर खड़े हैं। मिर्च की एक एकड़ फसल में तोड़ाई से पहले 60-70 हजार रुपये की लागत आती है। मिर्च की खेती करने वालों के बारे में सरकार को तनिक भी चिंता नहीं है। सरकार को चाहिए कि घाटे से उबारने के लिए हमारे नुकसान की भरपाई करे। कई बार मिर्च की खेती करने वाले किसानों को सरकार अनुदान भी देती है, लेकिन उस धनराशि का पता ही नहीं चला। शासन से पैसा उद्यान विभाग के पास आता है और वहीं खत्म हो जाता है। किसानों को पता ही नहीं लगता है कि क्या-क्या आया और कहां चला गया? "
मिर्जापुर जिले चुनार इलाके के किसान पप्पू सिंह मेड़ियां गांव में रहते हैं। अबकी पांच बीघे में मिर्च की खेती कर रखी है। वह कहते हैं कि इस महंगाई के दौर में मिर्च के उत्पादन में भी ख़र्च बढ़ गया है। मिसाल के तौर पर वे बताते हैं कि एक बीघे में मिर्च बोने से लेकर मंडी तक लाने में एक किसान को कम से कम बीस से पच्चीस हज़ार का ख़र्च आता है। इस साल मिर्च की बिक्री 400 से 600 रुपये प्रति क्विंटल हो रही है, जबकि मिर्च की तोड़ाई और ढुलाई का खर्च ही पांच-छह सौ रुपये प्रति कुंतल आ रहा है। इस कारण काश्तकार बहुत परेशान हैं। प्रगतिशील किसान पप्पू सिंह कोई मामूली काश्तकार नहीं हैं। वैज्ञानिक तकनीक से मिर्च की खेती के चलते साल 2019 में वह 2019 जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैंड और फ्रांस जा चुके हैं। मल्चिंग तकनीक से मिर्च की खेती, ड्रिप एरिगेशन और ड्रोन से कीटनाशकों के स्प्रे आदि की तकनीक सीख चुके हैं। मिर्च की खेती के दम पर पप्पू सिंह की दोनों बेटियां बनारस के एक नामी स्कूल में एमबीए की पढ़ाई पढ़ रही हैं।
पप्पू सिंह
पप्पू सिंह "न्यूजक्लिक" से कहते हैं, "मिर्च की खेती से किसानों की जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आया है। पहले हमारे गांव के किसान सिर्फ चादर लपेटकर रहते थे और अब वो जैकेट व बूट पहनकर घूमते हैं। हर घर में बाइक और कारें आ गई हैं। रहन-सहन और खानपान बदल गया है। किसानों की यह तरक्की चार-पांच साल पहले की है। पीएम नरेंद्र मोदी ने जब के किसानों की आमदनी दोगुनी करने का जुमला उछाला है, तब से मिर्च के उत्पादक बेहाल हैं। हम साल 1980 से मिर्च की खेती करने आ रहे हैं। बायर की पहल पर बेटर लाइफ फार्मिंग अभियान के तहत हमने एक दशक पहले वैज्ञानिक तकनीक से मिर्च उगाना शुरू किया और कमाई बढ़ती चली गई। सरकार की उपेक्षापूर्ण नीतियों के चलते मिर्च उत्पादक किसान अबकी खून के आंसू रो रहे हैं।"
मेड़िया गांव में मिर्च के कई बड़े उत्पादक हैं। यहां करतार सिंह ने 22 बीघा, गुलाब सिंह ने 27 बीघा, विष्णु शरण सिंह ने 20 बीघा, मिठाई सिंह ने 35 और बलवंत सिंह 33 बीघे में मिर्च की खेती की है, लेकिन इस गांव के इन किसानों की हालत भी मिर्च की खेती करने वाले दूसरे किसानों जैसी ही है। खेती की लागत निकाल पाना इनके लिए मुश्किल हो गया है। मिर्जापुर के चौधरीपुर, बसारतपुर, मझवां, अदलपुरा, शहंशाहपुर, कठेरवां, मवैया, मढ़ियां, सीखड़, भुवालपुर, लालपुर, रामगढ़, बिट्ठलपुर, बगहां, धनैता, खानपुर, मंगरहां, मिश्रपुरा, मुंदीपुर, तम्मनपट्टी, सोनवर्षा, ईश्वरपट्टी, हासीपुर, छीतकपुर, भदैता आदि गांवों में पैमाने पर मिर्च की खेती की जा रही है, लेकिन सभी किसान खून के आंसू रो रहे हैं। किसानों के मुताबिक पिछड़ की बारिश से इस बार गर्चा की बीमारी का प्रकोप ज्यादा है।
किसानों का जो हाल राजातालाब मंडी में है, उससे बदतर स्थिति सोनभद्र के राबर्ट्सगंज स्थित सब्जी मंडी की है। यहां मिले अतरौलिया गांव (सोनभद्र) के किसान अनिल पटेल। वह कहते हैं, "मिर्च की खेती की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, क्योंकि इसमें किसानों को बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। लागत भी बढ़ती जा रही है। दूसरी फ़सलों में ऐसा नहीं है। मिर्च लगाने से लेकर उसे काटने तक हमने पांच से छह महीने तक का वक्त लगाया है और मंडी का हाल देख लीजिए, वहां किस भाव मिर्च बिक रहा है? खुले बाजार में मिर्च का भाव महंगा है और मंडी में कौड़ियों के दाम मिर्च बिक रही है। ऐसे में आख़िर जेब किसकी गरम हो रही है? हम तो यही सवाल पूछ रहे हैं।"
ये हालात क्यों पैदा हुए?
मिर्च की पड़ताल करते हुए "न्यूजक्लिक" की टीम सोनभद्र के मंगुराही गांव में पहुंची, जहां मिर्च के खेतों में ट्रैक्टर लगाकर फसल जोती जा रही थी। खेत के मालिक प्यारेलाल मौर्य से मुलाकात हुई तो उन्होंने मिर्च की खेती का अर्थशास्त्र समझाने की कोशिश की और कहा कि हमारी हालत जुआरियों से भी बदतर हो गई है। ये मिर्च किसी साल हमें लाल कर देती है तो कभी इसकी तरपराहट हमें आसूं बहाने पर मजबूर करती है। घाटे का सौदा साबित हो रही मिर्च की फसलों को खेत में क्यों रखे हुए हैं? प्यारेलाल बताते हैं, "हमने छह बीघे में मिर्च की फसल लगाई थी, जिसमें से दो बीघा फसल को जुतवा दिया। तीन बीघे घर की जमीन थी और तीस हजार रुपये में तीन बीघा जमीन किराये पर लिया था। दस हजार का बीज व मजूरी और ढाई हजार की जुताई बर्बाद हो गई। रेट काफी गिर गया है। पांच से सात रुपये के बीच भी उपज नहीं बिक पा रही है और तोड़ाई व ढुलाई का खर्च ही साढ़े पांच रुपये आ रहा है। दूसरी दिक्कत यह है कि मिर्च तोड़ने वाले मजदूर भी नहीं मिल रहे हैं। जो फसल बची है उसे अपनी किस्मत के भरोसे छोड़ दिया है। जब फलियां पक जाएंगी तब उसे तोड़कर बाजार में भेजने की कोशिश करेंगे। तब तक शायद नुकसान की थोड़ी बहुत भरपाई हो जाए।"
मंगुराही गांव में प्यारेलाल के पड़ोसी परमानंद मौर्य, राजेंद्र प्रसाद, विश्वनाथ मौर्य, शेषनाथ ने भी बारी-बारी से अपना दुखड़ा सुनाया। इस गांव में मिर्च की खेती करने वाले कई किसानों ने अपनी फसल पर रोटाबेटर चलवा दिया है। खेत की सिंचाई कराने के बाद उसमें सरसों और मटर की फसल लगा दी है। सोनभद्र के बंदरदेवा के प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह पटेल और राहुल सोनकर ने बाग पोखर गांव में किराये की जमीन लेकर मिर्च की खेती की है। इन्होंने भी अपने खेतों में मिर्च की तोड़ाई बंद करा दी है।
बरबसपुर खुटहनियां गांव के सूर्यमणि यादव, बंशनारायण, सुरेश बियार की चिंता भी मिर्च की खेती करने वाले दूसरे किसानों जैसी है। इन किसानों ने भी मिर्च की तोड़ाई बंद कर दी है क्योंकि फसल निकलाने से लेकर मंडी में पहुंचाने में डेढ़ गुना ज्यादा खर्च आ रहा है। इनका कहना है कि अबकी मिर्च का इतना भारी भरकम उत्पादन नहीं हो गया है कि सरकार ने भाव इतने कम कर दिए हैं। ज़मीन तो उतनी ही है। वह तो बढ़ नहीं गई है। इस बार मिर्च का भी अच्छा उत्पादन हुआ। सरकार की नीतियां ख़राब हैं। सरकार ही मिर्च का निर्यात ठीक से नहीं कर रही है, जिसके चलते किसान बेहाल हैं। उनका कहना था, "किसान अपनी फ़सल को लेकर मंडी तक बहुत मुसीबत से आते हैं। अब उन्हें भाव भी नहीं मिल पा रहा है। माल लाने वाली गाड़ी तक का किराया भी पूरा नहीं हो रहा है। इस कारण बहुत से किसानों ने मिर्च को तोड़वाना ही बंद कर दिया है। किसानों के सामने कोई विकल्प नहीं है वो आखिर क्या करें?"
सोनभद्र में मिर्च का खेत
टूटी रही किसानों की आस
पूर्वांचल में इस साल मिर्च की बंपर पैदावार हुई है, जिसके चलते इसके उत्पादन से पिछले पिछले सारे रिकार्ड टूट गए हैं। यूपी में उगाई जाने वाली मिर्च की कुल खेती में पूर्वांचल का योगदान 70 फीसदी है। अकेले सोनभद्र में सात हजार एकड़ में मिर्च की खेती होती है। सोनभद्र की मंडी में घोरावल, मद्धुपुर, अहरौरा, राबर्टसगंज से टमाटर और मिर्च आ रहा है। इससे कहीं बड़े रकबे में मिर्जापुर से सीखड़ प्रखंड के क्रियात इलाके में मिर्च की खेती होती है। यहां गंगा की तलहटी में हजारों किसान मिर्च और टमाटर की खेती करते हैं। दोनों फसलों का रेट इतना नीचे आ गया है कि अब भारी घाटा उठाने के अलावा किसानों के सामने कोई चारा नहीं है।
बनारस के आराजीलाइन, सेवापुरी, बड़ागांव, चिरईगांव व राजातालाब प्रखंड में साल 2021 में करीब 300 हेक्टेयर में इसकी खेती हुई और 900 टन से ज्यादा उत्पादन हुआ है। कुछ साल पहले 25 टन हरी मिर्च का निर्यात भी किया गया। निर्यात की उम्मीद के चलते साल 2021-22 में किसानों ने खेती का दायरा बढ़ा 350-400 हेक्टेयर और उत्पादन 1100 टन तक बढ़ा दिया। पिछले साल मुनाफा हुआ तो पिछली कमाई अबकी बर्बाद हो गई। बनारस के अराजीलाइन, सेवापुरी और बड़ागाव प्रखंड में मिर्च की खेती करने वाले हजारों किसानों को लगता है कि उनकी जिंदगी में मिर्च की तरपराहट जहर सरीखी हो गई है। मिर्च और टमाटर की खेती के बहुलता वाले इलाकों में सड़कें ठीक नहीं हैं। गाजीपुर और चंदौली के किसानों की स्थिति भी दूसरे किसानों जैसी ही है।
जिला उद्यान अधिकारी सुभाष कुमार कहते हैं, "काशी की मिर्च को जीआई टैग मिल चुका है। बनारस में पैदा की जा रही मिर्च में कैप्सीसिन की मात्रा अधिक होने से यह ज्यादा तीखी होती है। वहीं, बड़े उत्पादक राज्यों आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और कर्नाटक की मिर्च में ओलियोरिसन तत्व अधिक पाया जाता है। इससे मिर्च का रंग तो चटख लाल होता है, लेकिन कम तीखी होती है। काशी की मिर्च का छिलका मोटा और लंबाई कम (छह से सात सेमी) होती है। इस कारण पैकिंग के दौरान यह टूटती नहीं। साथ ही खाड़ी देश के लोगों को तीखा ज्यादा पसंद है तो उन्हें यहां की मिर्च खूब भा रही है। अब चिली फ्लैक्स, चिली सास और चिली पाउडर बनने से शहर को अलग पहचान मिलेगी।"
मिर्च, टमाटर आदि सब्जियों को विदेश भेजने का सपना दिखाने वाली डबल इंजन की सरकार ने बनारस के करखियांव में मैंगो व इंटीग्रेटेड पैक हाउस के लिए 12.24 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। एपीडा के सहायक महाप्रबंधक सीबी सिंह कहते हैं, "अत्याधुनिक इंट्रीग्रेटेड पैक हाउस में दो हजार स्क्वायर मीटर का एक बड़ा हाल बनाया जा रहा है। इसमें जापानी तकनीक से युक्त वाशिंग लाइन भी बनाई जाएगी। वहीं ग्रेडिंग शॉर्टिंग प्रोसेसिंग के लिए भी अत्याधुनिक मशीन लगाया जाना है। करखियांव में पैक हाउस बनने से पूर्वांचल के किसान लाभांन्वित होंगे। इससे फसल की गुणवत्ता बरकरार रहेगी। साथ ही यात्रा व्यय बचने से किसानों की आय भी बढ़ेगी।"
"इंटीग्रेटेड पैक हाउस के जरिए आम, आंवला, बेर, भिंड्डी, हरी मिर्च, करेला, लौकी, बैगन, मटर, गोभी, गाजर, खीरा, सिंघाड़ा, चुकंदर आदि फल एवं सब्जियों का निर्यात दुबई, शारजाह, दोहा, कुवैत, ओमान, ईरान, इराक, कतर, बहरीन, यूके, मलेशिया, इटली, जर्मनी, रूस, जापान तथा अन्य यूरोपीय देशों में किया जा सकेगा। पैक हाउस से साल भर फल और सब्जी भेजी जा सकेगी।"
पूर्वांचल के किसान विदेशी कंपनियों का मिर्च उगा रहे हैं, लेकिन बनारस का भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आईआईवीआर) उन तक अपनी पहुंच नहीं बना सका है। इस संस्थान के निदेशक डा.टीके बेहरा कहते हैं, "हमारे संस्थान ने मिर्च की मुक्त परागित किस्म (काशी अनमोल, काशी गौरव, काशी सिंदूरी, काशी आभा) और संकर किस्म (काशी रत्ना, काशी तेज, काशी सुर्ख) विकसित की है। काशी आभा (बुलेट मिर्च) तो सिर्फ निर्यात के उद्देश्य से विकसित की गई है। कई रोगों से लडऩे की क्षमता होने के साथ यह निर्यात, प्रसंस्करण व भंडारण के लिहाज से काफी बेहतर है। हाईब्रिड न होना भी इसे विशेष बनाता है। हमारे मिर्च की सभी प्रजातियां उत्पादन के मामले में हाईब्रिड प्रजातियों से बहुत अधिक पैदावार देती हैं। सरकार को चाहिए कि वो किसानों को जागरूक करे ताकि वो आईआईवीआर द्वारा खोजी गई मिर्च की प्रजातियां उगाएं और भारी मुनाफा कमाएं।"
खेती का दाम बढ़ने से डूब गई किसानों की पूंजी
दावे बड़े-बड़े, किसान बेहाल
बनारस के पूर्व जिला उद्यान अधिकारी लालजी पाठक आईआईवीआर के निदेशक डा.टीके बेहरा के दावे से इत्तेफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, "आईआईवीआर की मिर्च प्रजातियां किसी लायक नहीं हैं। विदेश की कौन कहे, इन्हें तो अपने देश में भी कोई नहीं पूछ रहा है। आईआईवीआर अपने ओवी प्रजातियों पर जोर नहीं दे रहा है। गौर करने की बात यह है कि बनारसी मिर्च में तरपराहट ज्यादा होने के बावजूद किसानों का जोर हाईब्रीड की विदेशी प्रजातियों पर ज्यादा जोर क्यों है? सीखड़ (मिर्जापुर), अराजीलाइन, सेवापुरी, गाजीपुर, सोनभद्र में भयंकर खेती हो रही है, लेकिन आईआईवीआर के मिर्च की खेती कोई नहीं करता। इनकी मिर्च किसी लायक होती तो किसान उसे हाथो-हाथ लेते, लेकिन ये तो सिर्फ वाहवाही लूटने में ही मगन हैं।"
उद्यानविद पाठक कहते हैं, "मिर्च भारत की प्रमुख मसाला फसल है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार साल 2021 में पूरे भारत में 3.1 अरब मिट्रिक टन मिर्च की फ़सल हुई थी और अबकी रकबा ज्यादा है। मौजूदा समय में देश में 7,92, 000 हेक्टेयर में मिर्च की खेती की जा रही है। यूपी के पूर्वांचल के अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा और राजस्थान प्रमुख मिर्च उत्पादक राज्य हैं। सरकार को चाहिए कि वो खाद्यान्न की तरह ही सब्जियों के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित करे। साथ ही मिर्च सरीखी सब्जियों के प्रसंस्करण के लिए पूर्वांचल में बड़े पैमाने पर औद्योगिक इकाइयों की स्थापना कराए। ऐसा नहीं किया गया तो मिर्च और टमाटर की खेती से हताश किसानों के सामने सुसाइड करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा।"
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