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गुजरात: पार-नर्मदा-तापी लिंक प्रोजेक्ट के नाम पर आदिवासियों को उजाड़ने की तैयारी!

गुजरात के आदिवासी समाज के लोग वर्तमान सरकार से जल, जंगल और ज़मीन बचाने की लड़ाई लड़ने को सड़कों पर उतरने को मजबूर हो चुके हैं।
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फ़ोटो- फर्स्टपोस्ट

वैसे तो इस देश में हमेशा से आदिवासी समाज हाशिये पर रहा है, लेकिन इन दिनों गुजरात में यह समाज भाजपा सरकार की पूंजीवादी नीतियों के कारण बिल्कुल ही गर्त में जाने को मजबूर हो चुका है। आदिवासियों को गुजरात की भाजपानीत सरकार की नीतियों ने इस कदर मजबूर कर दिया है कि वर्तमान में जब समूचा देश गर्मी के प्रकोप, गरीबी, महंगाई जैसी वीभत्स हालातों से परेशान है तो वहीं गुजरात के आदिवासी समाज के लोग मौजूदा सरकार से जल, जंगल और जमीन बचाने की लड़ाई लड़ने को सड़कों पर उतरने को मजबूर हो चुके हैं। 

गुजरात सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना पार-तापी-नर्मदा नदी जोड़ो परियोजना के विरोध में गुजरात के तमाम आदिवासी समाज के लोग विगत दिनों से लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहें हैं। क्योंकि यह परियोजना गुजरात के उन इलाकों में स्थापित होगी जो आदिवासी बाहुल्य इलाके हैं। अब यदि यह परियोजना पूर्ण होगी तो उस हालात में आदिवासी लोगों की खेतिहर और बेहद उपजाऊ भूमि को गुजरात सरकार द्वारा अधिग्रहण कर लिया जाएगा। लेकिन आदिवासी लोग अपनी जमीनों को किसी भी हालत में सरकार को नहीं देना चाहते हैं। इस लिहाज से गुजरात में सरकार और आदिवासी समाज के बीच एक जंग का माहौल पैदा हुआ है। इस मामले को लेकर आदिवासियों की ओर से अब तक 4 बड़े प्रदर्शन हो चुके हैं। वलसाड जिले के धरमपुर में 28 फरवरी को पहला बड़ा प्रदर्शन आदिवासी समाज के तरफ से हुआ, दूसरा प्रदर्शन 5 मार्च को तापी जिले में हुआ। तीसरा 11 मार्च को डांग जिले में प्रदर्शन हुआ और चौथा विरोध प्रदर्शन वलसाड जिले के कपराडा में हुआ। इस विरोध प्रदर्शन को समस्त आदिवासी समाज, आदिवासी समन्वय मंच आदिवासी एकता परिषद और नवसारी के कांग्रेस विधायक अनंत पटेल व दक्षिणी गुजरात के कांग्रेसी विधायकों का समर्थन हासिल है। 

आदिवासियों के लिए एक बुरा ख़्वाब है लिंक प्रोजेक्ट

कांग्रेस के नेता मोहनभाई पटेल का कहना है कि गुजरात में आदिवासी लोग वैसे ही स्टैच्यू ऑफ यूनिटी प्रोजेक्ट के कारण दर-बदर की ठोकरें खा रहे हैं सरकार ने जबरन किसानों की जमीन का अधिग्रहण कर लिया अब इसके बाद पार-नर्मदा-तापी लिंक प्रोजेक्ट के नाम पर सरकार एक बार फिर से आदिवासियों के साथ अन्याय पर उतारू है। एक तो आदिवासी भूमी कानून में सरकार ने फेरबदल किया ऊपर से अब इस जहालत के बाद तो आदिवासी कहीं का नहीं रहेगा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस परियोजना से 50000 आदिवासी प्रभावित होंगे। जिसके कारण आदिवासी सड़कों पर हैं।  

इस प्रोजेक्ट में गुजरात की तीन प्रमुख नदियों को एक साथ जोड़ा जाना है। ये तीन नदियां महाराष्ट्र के नासिक जिले से निकलने वाली और गुजरात के वलसाड जिले से होकर बहने वाली पार नदी, सापुतारा से निकलने वाली तापी नदी जो महाराष्ट्र और सूरत से होकर बहती है, और नर्मदा जो मध्यप्रदेश से निकलती है व महाराष्ट्र से होते हुए गुजरात के नर्मदा और भरूच जिले की ओर बहती है। इन तीनो ही नदियों को एक कॉमन नहर से जोड़ा जाना है ताकि जो अधिक पानी नदियों के बहाव से सीधे अरब सागर में चला जाता है उसे मोड़कर गुदरात के सौराष्ट्र और कच्छ जिलों को दिया जा सके। तापी और नर्मदा को एक साथ जोड़ा जाना है। इसका मकसद गुजरात के पश्चिमी घाट के अधिशेष क्षेत्रों से गुजरात के सूखाग्रस्त सौराष्ट्र और कच्छ जिलों को सिंचाई और पेयजल मुहैया कराना है। साथ ही साथ नहरों का निर्माण कर आस-पास के इलाकों में भी सिंचाई के लिए और पेयजल के लिए जल मुहैया कराना है। 

इस लिंक प्रोजेक्ट में मुख्य रूप से 7 बांधों का निर्माण कराना है, इसमें झेरी, केवलान, मोहनकावचली, पाइखेड़, चसमांडवा और चिक्कर बांध शामिल हैं। इनके अलावा दो सुरंगों का भी निर्माण शामिल है जो क्रमशः 5 किलोमीटर और आधी किलोमीटर की लंबाई की होंगी। 395 किलोमीटर लंबी मुख्य नहर के निर्माण से इन्हें जोड़ा जाएगा जिस पर छह बिजलीघर की निर्माण होना है। 7 बांधों में केवल एक बांध झेरी का निर्माण महाराष्ट्र के नासिक जिले में होना है बाकी के छह बांधों का निर्माण गुजरात के वलसाड और डांग जिलों में करना है। ये जिले आदिवासी बाहुल्य हैं।

आदिवासियों के गांवों का क्या होगा हश्र?

राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक प्रस्तावित बांधों के जलाशय निर्माण के कारण लगभग 6065 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी। इससे आदिवासी इलाकों के 61 गांव प्रभावित होंगे जिनमें से एक गांव तो पूरी तरह जलमग्न हो जाएगा और 60 गांव आंशिक रूप से जलमग्न होंगे। लिंक प्रोजेक्ट के दुष्परिणाम स्वरूप कुल 2509 परिवार प्रभावित होंगे। केवल केवलान जलाशय के निर्माण से ही गुजरात में 17 गांवों के 793 परिवार प्रभावित होंगे। 563 परिवार डाबदार जलाशयों से प्रभावित होंगे, 379 परिवार सात गांवों में फैले चसमांडवा जलाशय से प्रभावित होंगे, 345 परिवार चिक्कर जलाशय से और 331 परिवार पाइखेड़ जलाशय से प्रभावित होंगे। एनडब्ल्यूए की रिपोर्ट के मुताबिक इन जलाशयों के निर्माण के बाद प्रभावित परिवारों के घर और जमीनें जलमग्न हो जाएंगी। रिपोर्ट के मुताबिक जलाशयों के जद में आने वाले परिवारों को मुआवजा और पुनर्स्थापन किया जाएगा। 

लेकिन यही मुख्य वजह है आदिवासी लोगों की जिनका मानना है कि सरकार अपने वादे से मुकर जाएगी और वे कहीं के नहीं होंगे। क्योंकि आदिवासियों को पहले भी इस तरह से गुजरात के इकतरफ़ा विकास का दंश आदिवासियों को झेलना पड़ा है। 

विकास या विनाश!

ऐसा नहीं की पार-तापी-नर्मदा लिंक प्रोजेक्ट से ही केवल गुजरात के भोले-भाले गरीब और असहाय आदिवासी परेशान हैं इससे पहले भी गुजरात सरकार के इकतरफ़ा विकास के जद में ये आदिवासी आ चुके हैं। 

अगर बात करें उकाई बांध परियोजना की तो मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस परियोजना के कारण तापी जिले के लिंबी गांव के आदिवासी उकाई बांध परियोजना के कारण अपनी भूमी से वंचित कर दिए गए थे। मुआवजे की रकम को लेकर प्रदर्शन को मजबूर हुए और अंततः अपने ही गांव से विस्थापित भी हो गए। अब आज के दौर में इन मजलूमों के पास ना उनका जंगल है ना जमीन है, मजबूरन शहरों में मजदूर बनकर गुजर बसर की नौबत है। इन बातों को लेकर आदिवासी लोगों से बात करने पर एक ही जवाब सुनने को मिलता है आखिर ऐसे विकास का वे क्या करेंगें जिसमें उनके जल, जंगल और जमीनों को छिनकर उन्हें मजदूरी ही करना पड़े।

आदिवासियों के साथ हुए ज़ुल्म का गवाह हैं स्टैच्यू ऑफ यूनिटी!

यह तो आप सब जानते ही होंगे कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी स्मारक जिसमें सरदार वल्लभाई पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची इमारत को नर्मदा जिले के केवड़िया में स्थापित किया गया है। यह इलाका भी आदिवासी लोगों का है, जब इस स्मारक के निर्माण की बातें उठी थी तब भी आदिवासियों ने गुजरात सरकार के खिलाफ और नरेंद्र मोदी जी के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन किया था। लेकिन स्टैच्यू ऑफ यूनिटी मोदी जी का ड्रीम प्रोजेक्ट था। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इसकी रूपरेखा को तैयार करने के लिए 7 अक्टूबर 2010 को सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट का गठन किया गया उसके बाद आदिवासियों के जमीनों का अधिग्रहण हुआ उनके ना चाहते हुए, पहले यह इलाका ग्राम पंचायत के अंतर्गत आता था लेकिन सरकार ने इसे शहरी विकास कानून से जोड़ा ताकि भूमी अधिग्रहण में कोई दिक्कत ना हो। सरदार की प्रतिमा स्थापित की गई, केवड़िया और आसपास के इलाके के 14 गांवों की जमीनों को लेकर सरकार ने यहां के आदिवासियों को भूमिहीन बना दिया। विरोध करने पर स्टेट रिजर्व फोर्स की अलग नर्मदा बटालियन का गठन हुआ जो आदिवासियों के विरोध को कुंद कर सकें। अब यह बटालियन परियोजना स्थल पर 24 घंटे कैंप करती है। 

पढ़े-लिखे आदिवासी बताते हैं कि जब विरोध का सुर ऊंचा उठने लगा तब सरकार की ओर से आदिवासी युवाओं को पर्यटन स्थल की देखरेख करने के लिए गाइड की नौकरी का वादा किया गया था। लेकिन सरकार अब भी नौकरियां अपने कहे मात्रानुसार नहीं दे सकी है। यहां के आदिवासी बताते हैं कि जब स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को अधिक पर्यटक देखने नहीं आ सके तो पर्य़टन विभाग की ओर से इस एरिया को और अधिक विकसित करने का दबाव बन गया, लिहाजा अब यहां मानवनिर्मित झील और तमाम दर्शनीय साइट को डेवलप किया जा रहा है। यहां की उपजाऊ और हरी भरी भूमि व शानदार नर्मदा घाट की वादियों के कारण अब बड़े पैमाने पर उद्योगपति इस इलाके में पर्यटन की विलासितापूर्ण सुख सुविधाओं के निर्माण में लगें हैं। आदिवासियों ने दावा किया कि स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के पास परियोजना से नवगाम, केवड़िया, गोरा, लिंबडी, वागडिया और कोठी के 8000 लोग प्रभावित हुए हैं।

जरा सोचिए जिन गरीब आदिवासियों के पुरखों की जंगलों और जमीनों को लेकर स्टेट ऑफ द आर्ट बनाया जा रहा हो और उन्ही पर्यटक स्थलों पर उन जमीनों के स्वामियों को देखरेख की नौकरी करते हुए कैसा लगता होगा।

इस बात की भनक सरकार को भी है कि किस कदर आदिवासियों के साथ भाजपा सरकार पेश आई है लिहाजा फिलहाल इस मुद्दे पर कुछ दिनों तक डैमेज कंट्रोल की रणनीति अपनाई गई है, क्योंकि सूबे में इसी साल चुनाव भी है। 

आदिवासियों के मामलों को लेकर राजनीति भी गरम

गुजरात में इसी साल नवंबर-दिसंबर में चुनाव होने हैं, आदिवासियों की नाराजगी की भनक भाजपा सरकार को अच्छे से है साथ ही साथ भाजपा की सरकार इस बात को भी बड़े अच्छे से समझती है कि गुजरात में 15 फीसदी आदिवासी जनता निवास करती है। इसलिए सरकार की ओर से भी मान मनौवल का दौर जारी है, सुत्रों की माने तो आदिवासियों के लगातार विरोध प्रदर्शन के दबाव में सरकार केवल चुनाव तक रहेगी इसलिए फिलहाल आदिवासियों के सभी ज्वलंत मुद्दो पर या तो सरकारी मुलाजिम आदिवासियों को शांत करने में जुटे हैं या इन मुद्दों पर फिलहाल चुप्पी है।

राहुल गांधी ने गुजरात से फूंका आदिवासी सत्याग्रह का बिगुल  

कांग्रेस नेता राहुल गांधी मौके पर गरमाई आदिवासी सियासत में 10 मई को गुजरात के आदिवासी बाहुल्य इलाके दाहोद से आदिवासी सत्याग्रह रैली करके इन मामलों में और जान फूंक दी। राहुल ने आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के नारे को बुलंद करते हुए साफ तौर पर गुजरात में आदिवासियों के हाशिये पर लाए जाने के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया।राहुल ने यहां तक वादा कर डाला कि अगर कांग्रेस की सरकार गुजरात में बनी तो आदिवासियों के लंबित मुआवजे मिलेंगे, पार-नर्मदा-तापी लिंक प्रोजेक्ट को कांग्रेस बैन करेगी। 

सवाल

जाहिर है कि देश के जल, जंगल और जमीन पर आज भी अगर किसी का पहला हक है तो वो सिर्फ आदिवासियों का है, ऐसे में गुजरात की भाजपा सरकार और केंद्र की भाजपा सरकार क्या आदिवासियों को देश का हिस्सा नहीं मानती?

क्या आदिवासी समाज के लोगों से ज्यादा अच्छे तरीके से नदियों औऱ जंगलो को भाजपा संजो के रख सकती है? 

भाजपा ग़रीब-आदिवासियों की सुध कब लेगी? 

क्या जो बोल नहीं सकता, या जिनकी आवाज को ज्यादा लोग सुनना पसंद नहीं करते उनकी आवाज को हमेशा के लिए खामोश करने पर भाजपा तुली हुई है? 

आखिर में क्या विकास की यही परिभाषा है कि पहले विनाश किया जाए? 

विकास और पर्यावरण एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं कि अंधे विकास की लालसा में पर्यावरण को तार तार किया जाए। 

आखिर कब-तक आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन की जंग लड़नी पड़ेगी? फिलहाल मामला ठंडे बस्ते में हैं क्योंकि सूबे में चुनाव हैं, शायद इसलिए मोदी जी आदिवासियों के बीच रैली में भी दिखते हैं और उन्हें आज़ादी का सिपाही भी बताते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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