क्या यूपी सरकार से भाजपा के बाहर होने की उल्टी गिनती शुरू हो गई है?

2017 में, उत्तर प्रदेश ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को एक शानदार जीत मिली थी, जिसे 403 सदस्यीय विधानसभा में 312 सीटें मिलीं थी और उसके सहयोगियों को अन्य 14 सीटें मिलीं थी। गठबंधन - जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या एनडीए कहा जाता है - ने लगभग 42 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था। समाजवादी पार्टी (सपा)-कांग्रेस गठबंधन - एक प्रकार का महागठबंधन (एमजीबी) – सिर्फ 54 सीटें और 28 प्रतिशत वोट शेयर पाने में कामयाब रहा था, जबकि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) को सिर्फ 19 सीटें मिल सकीं, हालांकि उसके पास 22 प्रतिशत का वोट शेयर था। स्पष्ट रूप से, भाजपा की जीत निर्णायक और स्मारकीय थी, जो राज्य के इतिहास में सबसे बड़ी जीत थी। {न्यूज़क्लिक के विशेष चुनाव पृष्ठ से नीचे दिया नक्शा और डेटा देखें}
क्या यूपी विधानसभा में बीजेपी का विशाल वोट शेयर और यहां तक कि बड़ी तादाद में मिली सीटें इतनी कम हो सकती हैं कि वे 202 के आधे से भी नीचे आ जाए? निश्चित रूप से इसके लिए भूकंपीय उथल-पुथल की जरूरत होगी?
यदि आप इसे विशुद्ध रूप से अंकगणित के संदर्भ में देखें तो उत्तर काफी सरल है – बसपा-सपा का गठबंधन आसानी से वोट शेयरों और सीटों के हिसाब से इसे हरा देगा। लेकिन जीवन इतना सरल नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों के एक साथ आने के प्रयोग की शानदार विफलता के बाद, वे अलग हो गए हैं और चुनाव अलग-अलग लड़ने जा रहे हैं। तो इसका कोई आसान समाधान नहीं है।
वास्तविक स्थिति पर आधारित झुकाव भाजपा को उलट सकते हैं
एक और संभावना है, और हम दिखाना चाहेंगे कि इसकी बहुत अधिक संभावना है। यह इस तथ्य में निहित है कि भाजपा और बसपा दोनों अपने-अपने जनाधार खो रहे हैं और सपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को उनके क्षरण से सबसे अधिक फायदा हो रहा है।
ऐसा क्यों हो रहा है, इसके कारणों का खुलासा करने से पहले, आइए हम एक काल्पनिक स्थिति पर एक नज़र डालते हैं, यह दिखाने के लिए कि यूपी में भाजपा के वोटों के पहाड़ को नीचे लाने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। आइए मान लें कि कई कारणों से बीजेपी को अब 2017 में उतना समर्थन नहीं मिल रहा है, जितना कि 2017 में मिला था। किसान, विशेष रूप से पश्चिमी यूपी में, पार्टी से बहुत नाराज हैं, बढ़ती बेरोजगारी, मूल्य वृद्धि, गलत व्यवहार के चलते उनमें व्यापक असंतोष है। कोविड महामारी, अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जातियों और दलितों आदि की उपेक्षा, इसलिए, वे इस बार अपने वोट शेयर का लगभग 4-5 प्रतिशत खो सकते हैं।
बसपा को भी भाजपा के प्रति उसकी उदासीनता, अल्पसंख्यकों से संबंधित विभिन्न मुद्दों में उनकी ढिलाई और पिछले पांच वर्षों में राज्य को प्रभावित करने वाले किसी भी आर्थिक मुद्दे को उठाने में विफलता के कारण असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। मान लेते हैं कि वे भी अपने वोट शेयर का लगभग 4 प्रतिशत खो रहे हैं।
चूंकि सपा अब पश्चिम यूपी स्थित राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के साथ गठबंधन में है और छोटी जाति-आधारित पार्टियां (जैसे राजभर और कुर्मियों का प्रतिनिधित्व करने वाली) के एक समूह को भी गठबंधन में इकट्ठा किया है, और यहां तक कि पिछड़ी जातियों के कई प्रभावशाली भाजपा नेताओं को आकर्षित करने में भी कामयाब रही है। यह मान लेना उचित है कि भाजपा और बसपा दोनों का गिरा हुआ आधार सपा की ओर बढ़ेगा। तो फिर, ऐसी स्थिति में क्या होगा?
जैसा कि नीचे दिए गए नक्शे और आंकड़ों में दिखाया गया है, भाजपा और बसपा से दूर हो रहे मतदाताओं का बड़ा हिस्सा भाजपा गठबंधन को 117 सीटों तक हराने में पर्याप्त होगा, जिससे उनकी संख्या केवल 195 पर आ जाएगी, जो बहुमत के निशान से कम है। एसपी गठबंधन (नीचे दिए गए चार्ट में जिसे एमजीबी कहा गया है) 131 सीटें हासिल करेगा और कुल 193 सीटों तक पहुंच जाएगा। न्यूज़क्लिक का चुनावी पृष्ठ पाठकों को अंतःक्रियात्मक रुझानों को निर्धारित करने और परिणाम देखने में मदद करता है।
यह काल्पनिक अभ्यास केवल यह दिखाने के लिए है कि पिछले पांच वर्षों के भाजपा शासन और हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों पर आधारित निष्पक्ष और बहुत ही उचित धारणाएं वास्तव में भाजपा के ख़ेमे को उलट सकती हैं और राज्य को एक नए शासन को अपनाने के लिए रास्ता खोल सकती हैं। इसलिए जिस पार्टी के पास 42 प्रतिशत वोट शेयर और विधानसभा में 80 प्रतिशत सीटें हैं, उसके लिए अगले चुनाव में हारना असंभव नहीं है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि इस सरकार ने कैसा प्रदर्शन किया है, क्या इसने अपने वादों को पूरा करके लोगों को अपने साथ रखा है और क्या इसे उपलब्ध सर्वोत्तम विकल्पों के रूप में देखा जा सकता है।
भाजपा के ख़िलाफ़ काम करने वाले प्रमुख कारक
पिछले दो-तीन महीनों में भाजपा अपनी खोई जमीन को फिर से हासिल करने की पूरी कोशिश कर रही है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की परियोजनाओं की घोषणा या उद्घाटन किए और प्रत्येक असंगठित क्षेत्र के मजदूर के खातों में 1,000 रुपये स्थानांतरित किए, किसानों को आय सहायता के लिए पीएम किसान किस्त जारी करने के साथ जैसे सरकारी खर्च करने की होड़ मच गई है। और - एक अभूतपूर्व कदम में - उन तीन कृषि कानूनों को निरस्त करना जिनका किसान एक साल से विरोध कर रहे थे। योगी आदित्यनाथ सरकार ने युवाओं को टैबलेट/स्मार्ट फोन, मार्च 2022 तक अतिरिक्त खाद्यान्न वितरण योजना का विस्तार, विधवा पेंशन को 500 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये करने आदि जैसी विभिन्न योजनाओं की घोषणा की है।
हालांकि, आम लोगों के जीवन को तबाह करने वाले आर्थिक संकट के कारण यह सभी उपाय लोगों को पूरी तरह से खुश नहीं कर सकते हैं। किसान केवल तीन कानूनों को वापस लेने से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि उनमें से अधिकांश के लिए मौजूदा समर्थन मूल्य अभी भी उपलब्ध नहीं हैं। अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखा जाए तो कृषि श्रमिकों की मजदूरी मुश्किल से बढ़ी है। गन्ना बकाया का एक हिस्सा चुनाव से कुछ महीने पहले ही चुकाया गया है, लेकिन वह भी पूरी तरह से नहीं चुकाया गया है। मौसम के विभिन्न तरह के उतार-चढ़ाव की घटनाओं के कारण फसल के नुकसान के लिए मुआवजा बहुत कम दिया गया है और बहुत देरी से दिया गया है। और, योगी सरकार की तथाकथित गौ-संरक्षण नीतियों से पैदा हुई आवारा पशुओं की समस्या किसानों को परेशान कर रही है।
एक अन्य प्रमुख आर्थिक मुद्दा रोज़गार है। मोदी और योगी दोनों - और बहुचर्चित 'डबल इंजन' की सरकार - रोज़गार पैदा करने के मोर्चे पर पूरी तरह से विफल रहे हैं। दोनों ने ही लाखों-करोड़ों में नौकरियां पैदा करने का वादा किया था, जबकि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी या सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, क्रूर वास्तविकता यह है कि यूपी में पिछले पांच वर्षों में वास्तव में रोज़गार शुदा व्यक्तियों की संख्या में कमी आई है।
योगी सरकार द्वारा वेतन का भुगतान न करने के कारण कर्मचारियों के विभिन्न वर्गों (जिसे न्यूज़क्लिक ने रिपोर्ट किया था) के कई व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा है, जबकि राज्य में महामारी फैल रही थी। इनमें वे सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं जो नई पेंशन योजना के लिए आंदोलन कर रहे थे, साथ ही साथ विभिन्न अनुबंध कर्मचारी और यहां तक कि फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मचारी, जैसे डॉक्टर और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता/सहायिका भी विरोध में शामिल हैं।
योगी शासन से मध्यम वर्ग सहित लोगों के बड़े तबके का मोहभंग हो गया है जिसका एक महत्वपूर्ण कारण इसका महामारी का कुप्रबंधन है। लोगों में अप्रैल-मई 2021 में ऑक्सीजन सिलेंडर की बेताब खोज देखी गई, दवाओं की कमी, जरूरतमंद लोगों के प्रति सरकार की प्रतिशोधात्मक और कठोर प्रतिक्रिया और निश्चित रूप से, गंगा नदी में तैरती लाशों की तस्वीरें सबको याद हैं।
भाजपा के ख़िलाफ़ जाति गठबंधन आर्थिक संकट से पैदा हुआ है
पिछले कुछ दिनों में निवर्तमान विधानसभा के तीन मंत्री और कई विधायक भाजपा से इस्तीफा देकर सपा में शामिल हो गए हैं। इस भगदड़ के तहत इन जाति समुदायों ने भाजपा के 'विकास' के एजेंडे – यानि "सबका साथ, सबका विकास" में साथ लेने और उत्थान करने की भाजपा की सावधानीपूर्वक बनाई गई छवि को नाटकीय रूप से चुनौती दी है। इसके पीछे असली कारण गहरा और व्यापक आर्थिक संकट भी है जो इन वर्गों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहा है, क्योंकि वे समाज के सबसे अधिक कमजोर तबकों से आते हैं। वे या तो छोटे/सीमांत किसान हैं या भूमिहीन मजदूर हैं और आर्थिक संकट ने उन्हें तबाह कर दिया है।
इस बीच, बसपा के दलित आधार के साथ-साथ गैर-जाटव दलितों का भी, जिन्होंने कुछ हद तक भाजपा का समर्थन किया था, दोनों का मोहभंग हो गया है। बसपा अपना समर्थन खो रही है क्योंकि लोगों को पता नहीं है कि वह भाजपा के मुकाबले कहां खड़ी है। भाजपा को बार-बार दलित अत्याचारों पर न्यायोचित रुख न अपनाने के साथ-साथ आरक्षण विरोधी के रूप में देखा जाता है, खासकर जब से यह निजीकरण की प्रबल समर्थक हो गई है।
संक्षेप में, ये वे ताकतें हैं जो अब भाजपा के खिलाफ हैं, जिन्होंने पांच साल के कड़वे अनुभव के बाद इसे छोड़ दिया है। अपराध के खिलाफ भाजपा की तथाकथित बाहुबली नीति भी बड़े पैमाने बढ़ते अपराध के कारण विफल हो गई है। मुस्लिम समुदाय के प्रति उसकी शत्रुता और उसके बड़े स्तर पर हिंदुत्व के मुद्दे को उठाने ने केवल इस धारणा को जन्म दिया है कि वह वोट पाने और सत्ता में आने के लिए अवसरवादी रूप से धर्म का इस्तेमाल करने में रुचि रखती है।
इस प्रकार सभी कार्ड भाजपा सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं। ऊपर दिया भविष्यसूचक परिदृश्य इस बात का संकेत देता है कि पिछले पांच वर्षों में अपने विनाशकारी शासन के कारण भाजपा का गढ़ ढहता नज़र आ रहा है।
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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