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एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है...

जोश मलीहाबादी (5 दिसंबर 1898 - 22 फरवरी 1982):  जोश की इंक़लाबी शायरी आज और मानीखेज़ हो जाती है, जब सर्द रातों में किसान सड़कों पर हैं, नौजवान रोज़ी-रोज़गार के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं, मुल्क के दस्तूर को ताक़ पर रख दिया गया है।
Josh Malihabadi

हिन्दुस्तान पर आज़ादी हासिल करने का रंग चढ़ चुका था। हर शोबे में आज़ादी की हलचल मौजूद थी। ऐसे वक्त में मलीहाबाद के एक अदबी घराने में आज ही के दिन 5 दिसम्बर सन् 1898 में शब्बीर हसन ख़ान पैदा हुए। शब्बीर के पुरखे नवाबी हुकूमत के वक्त काबुल से भारत आए थे, आफरीदी पठानों का ये कुनबा पहले कुछ वक्त फरीदाबाद और फिर मलीहाबाद लखनऊ में आकर बस गया। फिरंगी हुकूमत में ये सूबा यूनाइटेड प्रॉविन्स कहलाता था। उनके घराने की उर्दू ज़बान पर हुकूमत थी, उन्होंने शायराना माहौल में ही आँखें खोलीं।  उन्हें विरासत में जागीर के बदले शायरी मिली। उसका असर शब्बीर हसन ख़ान पर यूँ हुआ कि जब उन्होंने शायरी करना शुरू किया तो अपना नाम जोश मलीहाबादी रख लिया।

यूं तो जोश उनकी रग-रग में मौजूद था, वो हिन्दुस्तान की आज़ादी की तहरीक से बहुत मुतास्सिर रहे। उनकी शख्सियत सत्ता विरोधी थी। इसी लिए उन्हें शायर-ए-इंकलाब कहा जाने लगा।

1918 में कांग्रेस के अहमदाबाद इजलास में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद से हुई। फिर ये ताल्लुकात ताउम्र कायम रहे। हिन्दुस्तान की आज़ादी के हवाले से उन्होने कई नज़्में भी कहीं। उनकी नज़्में अक्सर कम्पनी सरकार ज़ब्त कर लिया करती थी।

सीने में तलातुम बिजली का

आँखों में चमकती शमशीरें

सम्हलो कि वो ज़िन्दां गूँज उठा

झपटो कि वो क़ैदी छूट गए

उट्ठो कि वो बैठी दीवारें

दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें...

जोश मुशायरों में बहुत गरज कर पढा करते थे, उनकी आवाज़ से मंच पर जुम्बिश पैदा होती, इंकलाबी शायरी सुनने वाले वाह-वाह के साथ मालूम होता अभी मैदाने जंग में कूद पड़ेंगे।

भटक के जो बिछड गए है रास्ते पे आएंगे,

लपक के एक दूसरे को फिर गले लगाएंगे।

उनके बग़ावती तेवर का अन्दाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने 1925 में हैदराबाद में उस्मानिया यूनीवर्सिटी में मुलाज़िमत की, उस वक्त उन्होंने निज़ाम हैदराबाद के खिलाफ भी एक नज़्म कही,  निज़ाम को बहुत नागवार गुज़रा, उन्होने जोश से माफी मांगने को कहा, लेकिन जोश ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, जिसके चलते उन्हें हैदराबाद छोड़ना पड़ा। दिन गर्दिशों में भी गुज़रे लेकिन उन्होंने समझौता नही किया, आगे चल कर उन्होंने कलीम नाम से एक पर्चा निकाला उसमें उन्होंने फिरंगियों के खिलाफ़ दिल खोल कर लिखना शुरू किया। गोया उन्हें उनकी खुराक मिल गई। उन्होंने लिखा-

एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के

एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है।

जोश रवीन्द्र नाथ टैगोर के बारे में कहते थे कि उनकी जिन्दगी में इंसानियत, बराबरी, गंगाजमुनी तहज़ीब के तमाम रंग भरने में टैगोर का बड़ा हाथ था। टैगोर की दावत पर 6 महीना वह शान्ति निकेतन में जाकर रहे। वो उनकी जिन्दगी के बहुत अहम पलों में शुमार हुआ।

जोश ने “नया अदब”,  “आजकल” और “शालीमार पिक्चर्स” पूना में भी काम किया। तकरीबन 20 किताबें लिखीं। 1954 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। जोश को उर्दू ज़बान पर महारत हासिल थी, आलम तो ये था कि उनके सामने कोई एक लफ़्ज़ भी ग़लत बोल कर बच न पाता। वो उसे फ़ौरन टोकते और दुरूस्त कराते। एक रोज़ वो अपने एक दोस्त के घर हाज़िर हुए। लौटते वक्त उनकी बीवी ने कहा कि जोश साहब को दरवाजे तक छोड़ आएं। उनके ऐसा कहते ही जोश साहब ने पलट कर उन्हें देखा, बोले बीबी कबूतर छोड़े जाते हैं, तोते छोड़े जाते हैं, मेहमान छोड़े नही जाते उन्हें पहुंचाया जाता है।

ज़िन्दगी भर वतन परस्त, मानवता जिनका मज़हब था, उनके सामने एक ऐसा वक्त आया जब उन्हें लगने लगा कि हिन्दुस्तान में उर्दू ज़बान का अब कोई मुस्तक्बिल नहीं है। उर्दू ज़बान से उन्हें इन्तेहा प्यार था उसकी खि़दमत के लिए उन्होंने 1958 में पाकिस्तान का रुख किया, लेकिन वहाँ ज़बान की और खुद की बेकदरी ने उन्हें परेशान किया। पंजाबियत और उर्दू के बीच जंग जारी रही, उन्हें लगने लगा कि वह अपना ख्वाब यहाँ भी पूरा न कर पाएंगे, उन्होंने रिसाला निकाला, कुछ और काम किए, लेकिन उनसे वो एक न सम्हला। वहाँ उन्हें बहुत सदमा मिला।

पाकिस्तान उनके नेहरू प्रेम से वाकिफ़ था। वहाँ उनके खिलाफ एक माहौल बनने लगा। लोगों ने कहा कि सरकार ने आधा पाकिस्तान जोश को घूस में दे दिया है। तमाम अदीब, शायर और कार्टून साज़ों ने जोश के खि़लाफ लेख, कविता और कार्टूनों की भरमार कर दी। उन्हें ग़द्दार और भारत का एजेन्ट कहा जाने लगा। उनकी जिन्दगी, नाकामियों से भर गई। तिजारत भी फेल रही। लेागों ने उनका साथ नहीं दिया। 1966 में एक बार वो भारत आए। मुम्बई में एक अखबार को इंटरव्यू दिया। इस कारण पाकिस्तान सरकार ने उनसे उनकी सरकारी नौकरी भी छीन ली।

इस पर उन्होंने एक शेर कहा जो बहुत मशहूर हुआ-

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया

जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया।

 

इसका रोना नही कि तुमने किया दिल बरबाद

इसका रोना है बहुत देर से बर्बाद किया।

वहाँ उनके हालात न सम्हले, उन्होंने मुशायरों में जाना बन्द कर दिया, उनके आखिरी कुछ साल गुमनामी में गुजरे।

उनकी ज़िन्दगी बहुत विवादग्रस्त रही। उतनी ही उनकी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ चर्चित है, उनकी इस आत्मकथा को आज भी पाठक पढ़ना पसन्द करता है। उन्होंने अपनी सभी नाकामियों को इसमें खुल कर लिखा। उनका नाम ऊॅंचें दर्जे के शायरों में शुमार है।  उनकी यादों से न मलीहाबाद और न ही लखनऊ कभी ओझल हुआ। लखनऊ को वह हिन्दुस्तान की तहज़ीबी जन्नत कहा करते थे। जिक्र तो उन्होंने पीने-पिलाने की तहज़ीब का भी किया। 1982 में 83 वर्ष की उम्र में वह इस दुनियाए दारफानी से कूच कर गए। आज जोश नहीं है उनकी यादें बाक़ी हैं,  सारी उम्र लखनऊ और मलीहाबाद उनके दिल में बसा रहा।

ऐ मलीहाबाद के रंगी गुलिस्ता अल्विदा

अल्विदा ऐ सर जमीने सुबहे खन्दां अल्विदा

 

जब कभी भूले से अपने होश में होता हूँ मैं,

देर तक भटके हुए इंसान पर रोता हूँ मैं,

फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ,

इक न इक लेबिल हर एक माथे पे है लटका हुआ।

जोश मलीहाबादी को हम खिराजे-अक़ीदत पेश करते हैं। उनकी इंक़लाबी शायरी आज और मानीखेज़ हो जाती है, जब सर्द रातों में किसान सड़कों पर हैं, नौजवान रोज़ी-रोज़गार के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं, मुल्क के दस्तूर को ताक पर रख दिया गया है, फिरक़ापरस्ती अपनी जड़े जमाने में लगी है, गरीब-गु़रबा हाशिए पर ढकेल दिए गए हैं। महिलाओं पर हिंसा बढ़ गई है, जिसे हुकूमत शय दे रही है। ऐसे में एक इंक़लाब की दरकार है और ऐसे में जोश हमें बार-बार याद आयेंगे।

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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