Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हिजाब के विलुप्त होने और असहमति के प्रतीक के रूप में फिर से उभरने की कहानी

इस इस्लामिक स्कार्फ़ का कोई भी मतलब उतना स्थायी नहीं है, जितना कि इस लिहाज़ से कि महिलाओं को जब भी इसे पहनने या उतारने के लिए मजबूर किया जाता है, तब-तब वे भड़क उठती हैं।
Hijab
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

1990 के दशक के उत्तरार्ध में एक देर शाम हार्वर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर लीला अहमद और उनकी सहेली ने कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स में उन महिलाओं के एक ऐसे समूह से मुलाक़ात की थी, जिसमें सबके सब हिजाब या हेडस्कार्फ़ पहन हुए थे। 1940 के दशक में काहिरा में जन्मी और स्कूली शिक्षा हासिल करने वाली और पर्दा नहीं करने वाली अहमद इन महिलाओं की मौजूदगी से हैरान रह गयी थीं। उनके भीतर इस सवाल ने दस्तक दी थी कि "क्या कट्टरवाद संयुक्त राज्य में जड़ें जमा रहा है?"

इस सवाल ने उन्हें दस साल तक मुस्लिम जगत में हिजाब नहीं पहनने वाली और हिजाब पहनने वाली महिलाओं पर शोध करने के लिए प्रेरित किया, जिसके बाद उन्होंने ‘ए क्विट रेवोल्यूशन: द वील्स रिसर्जेंस, फ़्रॉम द मिडिल ईस्ट टू अमेरिका’ नाम की एक किताब लिखी।

अहमद की इस किताब से यह पता चलता है कि हिजाब के कई मायने हैं। जितना ही यह विरोध और प्रतिरोध का प्रतीक है, उतना ही अनुपालन और अनुरूपता का भी प्रतीक है। महिलाओं को हिजाब पहनने या उतरवाने के लिए मजबूर करने से सिर्फ़ नाराज़गी ही पैदा होती है।यह एक ऐसी हक़ीक़त है,जो हिंदुत्व के प्यादों को पता होनी चाहिए। यह एक ऐसा तथ्य है, जो न्यायपालिका के लिए भी कुछ हद तक प्रासंगिक है।

आइये, सबसे पहले हिजाब के उतरने की उस कहानी को जानते हैं, जो अरब जगत की बौद्धिक राजधानी काहिरा में अपने चरम पर पहुंच गयी थी।

हिजाब का ग़ायब होना

इतिहासकार अल्बर्ट होरानी ने 1956 में 'द वैनिशिंग वील ए चैलेंज टू द ओल्ड ऑर्डर' शीर्षक से एक आलेख लिखा था,जिसमें उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी कि मध्य पूर्व में हिजाब ख़त्म होने की राह पर है। उन्होंने हिजाब के ख़त्म होने की इस प्रवृत्ति के लिए क़ासिम अमीन की ‘द लिबरेशन ऑफ वूमेन’ नामक उस किताब को श्रेय दिया था, जिसके 1899 में छपते ही हंगामा खड़ा हो गया था।

अमीन का मानना था कि मिस्र को यूरोप के साथ चलना होगा। ऐसा कहने के पीछी उनकी यह दलील थी कि मिस्र पिछड़ा हुआ है, क्योंकि वहां की औरतें परदे में रहती हैं और घर तक ही सीमित रहती हैं। इस वजह से उन्हें इस बदल रही दुनिया में अपने बच्चों के सामाजिककरण के लिहाज़ से असमर्थ बना दिया है। हालांकि, हक़ीक़त तो यही थी कि अमीन यूरोप के साथ मिस्र के बढ़ते संपर्क, फ़्रांसीसी और ब्रिटिश विजय और कब्ज़े के सौजन्य से मिस्र में पहले से क़ायम विचारों को ही व्यक्त कर रहे थे।

ठीक है कि इस संपर्क ने मिस्र के लोगों को न सिर्फ़ ट्रेनों और ट्रामों जैसे तकनीकी चमत्कारों से अवगत कराया, बल्कि समानता, लोकतंत्र और योग्यता के आधार पर चुने गये लोगों का सत्ता पर काबिज होने के विचारों से भी अवगत कराया। ऐसा नहीं था कि मिस्र में बिना हिजाब वाली यूरोपीय महिलायें दुर्लभ थीं। यूरोपीय प्रभाव ने मिस्र की महिलाओं को शुरू में उनके बीच उच्च वर्ग और फिर मध्यम वर्ग को भी हिजाब छोड़ने के लिए प्रेरित किया था। अहमद समकालीन ब्योरों का हवाला देते हुए इस बात को साबित करती हैं कि हिजाब से बाहर होने की प्रवृत्ति कितनी तेज़ी से फैली।

मिसाल के तौर पर, बाद के दिनों में एक प्रमुख महिला कार्यकर्ता बनीं फ़िलिस्तीनी अनबारा ख़ालिदी ने 1910 में बहुत ही उल्लास के साथ इस बात का ज़िक़्र किया था कि मिस्र की महिलाओं ने दुनिया को "अनदेखी आंखों" के ज़रिये देखा है। उसी साल एक महिला पत्रकार ने हैरत जताते हुए कहा था कि पर्दे से बाहर हुईं ये महिलायें "आसमान से" टपकी हैं। 1914 में एक राष्ट्रीय समाचार पत्र, अल-सूफ़ुर या अनवेलिंग शुरू किया गया था। इसके संपादक ने लिखा था-"ऐसा नहीं कि मिस्र में सिर्फ़ औरतें ही पर्दा करतीं हैं...बल्कि हम तो एक परदे वाला एक राष्ट्र हैं।"

पर्दे से बाहर आने की रफ़्तार वास्तव में हैरतअंगेज़ थी, जो कि अहमद के इस उनके ख़ुद को छूती इस कहानी से भी साफ़ है: "इन दशकों के दौरान जवान होती उन महिलाओं(उदाहरण के लिए, 1908 में पैदा हुई मेरी मां की पीढ़ी की महिलाओं के साथ-साथ निश्चित ही रूप से मेरी ख़ुद की पीढ़ी की महिलाओं) की एक अच्छी-ख़ासी तादाद  ऐसी थी,जिन्होंने इसलिए कभी हिजाब हटाये ही नहीं, क्योंकि असल में उन्होंने कभी हिजाब डाले ही नहीं।"

पर्दे से बाहर आना सही मायने में लोकतंत्र, समानता और योग्यता के आधार पर सत्ता में भागीदारी के लिए चुने जाने के सिद्धांतों पर संगठित समाज बनने वाले मिस्र की तलाश का एक रूपक था। जैसा कि अहमद ज़िक़्र करती हैं कि महिलाओं के लिए तो यह अपनी पसंद के हिसाब से जीने और कपड़े पहनने की उनकी इच्छा की अभिव्यक्ति थी।

पर्दे हटाये जाने के विरोधी

लेकिन, पर्दे हटाये जाने के अपने विरोधी भी थे। 1908 में एक राष्ट्रवादी अख़बार के मालिक की पत्नी फ़ातिमा राशिद ने लिखा, “हिजाब कोई ऐसी बीमारी तो है नहीं, जो कि हमें रोके रखती हों। बल्कि यह तो हमारी ख़ुशी की वजह है..." 1914 में धार्मिक विद्वानों ने हिजाब नहीं पहनने वाली महिलाओं को क़ैद या जुर्माने की सज़ा देने के लिए सरकार से सिफ़ारिश की थी।

वे एक ऐसे विचारधारा के लोग थे, जिनका दावा था कि मिस्र यूरोप की नक़ल करके नहीं, बल्कि इस्लाम का रुख़ करके ही तरक़्क़ी हासिल कर सकता है। उनका मानना था कि मिस्र की मानसिकता को उपनिवेशवादी ग़ुलामी से मुक्त करने के लिए ज़रूरी है कि मिस्र का इस्लामीकरण किया जाये। ऐसा मानने वालों में सबसे प्रमुख हसन अल-बन्ना थे, जिन्होंने 1928 में मुस्लिम ब्रदरहुड की स्थापना की थी, जिन्होंने इस्लामीकरण की इस परियोजना के लिए मिस्रवासियों को लामबंद करने के लिहाज़ से स्कूलों, चिकित्सा सुविधाओं और कारखानों का एक नेटवर्क स्थापित किया था।

लेकिन, राजा फ़ारूक के शासन ने 1948 में मुस्लिम ब्रदरहुड को ख़त्म कर दिया और इसके लिए इसकी सशस्त्र शाखा में फैले लोगों की हत्याओं का सहारा लेना पड़ा था। फ़ारूक के अपदस्थ होने के बाद ब्रदरहुड ने 1954 में राष्ट्रपति जमाल अब्देल नासिर को मारने की कोशिश की थी। ब्रदरहुड नासिर की समाजवादी नीतियों, अखिल अरब राष्ट्रवाद और मिस्र को एक इस्लामी राज्य में बदलने से इनकार करने के ख़िलाफ़ थे।

नासिर ने ब्रदरहुड पर सख़्त कार्रवाई का आदेश दिया। हज़ारों को जेल भेज दिया गया। कई ऐसे लोग भी सऊदी अरब भाग गये, जो ब्रदरहुड की तरह ही यह मानते थे कि तमाम मुसलमानों को चाहिए कि वह अपनी पहचान को राष्ट्रीयता या जातीयता से न जोड़कर इस्लाम के साथ जोड़कर देखे। सऊदी अरब ने वहाबवाद को बाक़ी दुनिया में फैलाने के लिए अपनी उस मुहिम में ब्रदरहुड के उन बुद्धिजीवियों भी की भर्ती की, जिसने बढ़ते स्थानीय और 'विदेशी' प्रभावों को मिटाकर "शुद्ध इस्लाम" को फिर से स्थापित किये जाने की मांग की थी। उन्हें नासिर के सोवियत संघ के बजाय संयुक्त राज्य अमेरिका का ज़्यादा समर्थन हासिल था।

हिजाब के हटाये जाने की इस प्रमुख प्रवृत्ति के लिए एक चुनौती अपरिहार्य थी। सचाई तो यह है कि नक़ाब मिस्र से पूरी तरह से ग़ायब नहीं हुआ था। काहिरा से सटे अभावग्रस्त ज़िलों में महिलायें ख़ुद को उस "मिलाया लाफ़" से ढका करती थीं, जो सिर और शरीर को ढकने वाले कपड़ों के ऊपर पहना जाने वाला एक काला आवरण होता था। इसके अलावा, ख़ास तौर पर मध्यम वर्ग के रूढ़िवादी लोग यूरोपीय शैली के रंगीन स्कार्फ़ पहनते थे, जो कि सिर को ढंकने के बाद भी काफ़ी लंबे थे और ठोड़ी के चारों ओर बंधे होते थे।

नक़ाब की वापसी

ग़ायब होते नक़ाब की कहानी में तब एक मोड़ आ गया, जब 1967 के युद्ध में इस्राइल ने मिस्र को हरा दिया। इससे मिस्र में निराशा की लहर दौड़ गयी। वहां के लोगों ने यह कहते हुए मिस्र की इस हार का ठीकरा नासिर के सिर फोड़ा कि नासिर इस्लाम से दूर जा रहे थे। इस विचार को इसलिए भी बढ़ावा मिला, क्योंकि नासिर ने लोगों को शांत करने के लिए सार्वजनिक रूप से यह कहते हुए अपनी आस्था दुहरायी कि यह "अल्लाह की ओर से मिस्र को एक सबक़ सिखाने...एक नये समाज के निर्माण की कोशिश थी।" इसके बाद नासिर ने मुस्लिम ब्रदरहुड के कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा कर दिया था।

नासिर के उत्तराधिकारी,अनवर सादात ने संयुक्त राज्य को लुभाना शुरू कर दिया।इसके लिए उन्होंने ब्रदरहुड को अपने इस्लामी मुहुम को फिर से शुरू करने की इजाज़त दे दी, शर्त इतनी थी कि वे राजनीति से दूर रहें। उन्होंने विश्वविद्यालय परिसरों में वामपंथियों को दबाने के लिए उन्हें हथियार भी थमा दिये। ये वामपंथी सादात के पूंजीवाद का रुख़ करने के सबसे मुखर आलोचक थे।

हैरत नहीं कि हिजाब पहली बार 1970 के दशक की शुरुआत में विश्वविद्यालय परिसरों में सामने आया था। इसे फिर से सिर, गर्दन और ठुड्डी के चारों ओर लपेटे और बंधे हुए दुपट्टे के उसी रूप में लाया गया था, जैसा कि रूढ़िवादी तबका पहले पसंद करता था। लेकिन, यह अब रंगीन नहीं था और इसे उस "गिलबाब" के साथ पहना जाता था, जो लंबी-लंबी आस्तीन वाला एक लंबा, ढीला वस्त्र था। यह "ज़िया इस्लामी" या ब्रदरहुड की क़ानूनी पोशाक थी।

हालांकि मिस्र की छात्राओं की एक छोटे सी तादाद ने इसका विरोध किया, फिर भी फडवा एल गुइंडी और जॉन एल्डन विलियम्स जैसे विद्वानों के लिए हिजाब पहनने वाली इन नयी-औरतों का साक्षात्कार पर्याप्त रूप से ध्यान देने योग्य था। इन साक्षात्कारों का ज़िक़्र अहमद भी करती हैं और बताती हैं कि किस तरह 1967 के युद्ध ने उन्हें पश्चिम की नक़ल करने की निरर्थकता को लेकर लोगों में जागृति पैदा की। इज़राइल के साथ 1973 में हुए उस युद्ध में मिस्र को मिले फ़ायदे भले ही बहुत कम थे, लेकिन इस युद्ध को मिस्र के इस्लाम की ओर रुख़ करने के संकेत के तौर पर उद्धृत किया जाता है।

नक़ाब का नहीं होना अब उम्मीद की अलामत नहीं रह गयी थी। इसकी जगह हिजाब ने ले लिया था।

हिजाब के फैलने से झटका

हिजाब के चलन के फिर से शुरू हो जाने पर पत्रकार अमीना अल-सईद इसे "मृतकों के कफ़न" कहने को प्रेरित हुईं। हिजाब की इस वापसी पर माता-पिता और दादा-दादी ने निराशा जतायी और इस वापसी से शायद एल गुइंडी और विलियम्स को भी डर लगा।

हिजाब पहनने वाली लड़कियों और उनके बुज़ुर्गों के बीच की बहस को अहमद की 1971 में मेडिकल के पहले साल की छात्रा एकराम बशीर की एक कहानी के ज़रिये स्पष्ट रूप से सामने लाया गया है। हिजाब पहनी हुई बशीर विश्वविद्यालय की उन छात्राओं के बीच सबसे अलग दिख रही थीं, जिनकी पहनने की ख़ास शैली मिनीस्कर्ट थी।

बशीर की मौसी अक्सर उन्हें अपनी "बेवकूफ़ी बंद करने" के लिए कहती थीं ताकि उसके चाचा को इस बात की चिंता ख़त्म हो कि "इस तरह के कपड़ों में" उसके लिए पति की तलाश कैसे होगी। एक प्रोफ़ेसर अक्सर उसकी पोशाक पर टिप्पणी किया करता था। बेहद गर्मी वाले एक दिन उस प्रोफ़ेसर ने पूछा था कि वह अपनी पोशाक पर "यह चीज़" क्यों पहनी हुई हैं।इसक जवाब देते हुए बशीर ने कहा था, "क्योंकि मैं एक मुसलमान हूं।" इस पर प्रोफ़ेसर ने तैश में आकर कहा था, "मैं मुसलमान हूं, मेरी बीवी मुसलमान है, ये लोग(छात्र) भी मुसलमान हैं।"

लेकिन,यह सच है कि यह हिजाब इस्लामवादियों, ख़ासकर ब्रदरहुड के बिना फिर से चलन में नहीं आ सकता था। ये लोग हिजाब को मुनासिब तरीक़े या इस्लामी तरीक़े के रूप में पेश करते थे और समाज का इस्लामीकरण भी करते थे। उनका दबदबा उनके उन स्कूलों और अस्पतालों के नेटवर्क से भी बढ़ता गया था, जिनकी पहुंच निम्न वर्गों तक थी और जिनका रूख़ इस्लामी शिक्षा के प्रति नरम था।

हिजाब 1990 के दशक तक कपड़े पहनने का एक अपेक्षित तरीक़ा बन गया था। यह वही दशक था, जिसमें इस्लामवादी हिंसा में लिप्त थे और इससे सरकार अपनी शिक्षा प्रणाली को इस्लाम से मुक्त करने के लिए प्रेरित हो रही थी। इस तरह, कक्षा I से कक्षा V के बीच की लड़कियों को हिजाब पहनने पर रोक लगा दिया गया था और वरिष्ठ छात्रायें इसे पहन तो सकती थीं,लेकिन इसके लिए उन्हें अपने अभिभावकों से सहमति वाली चिट्ठियों को पेश करना होता था।

अपने साथियों को स्कूल में दाखिल लेने से वंचित होते देखकर स्कूली छात्रायें सहम जाती थीं। यहां तक कि जिन लड़कियों को हिजाब नहीं पहनना था, उन्होंने भी एकजुटता के साथ इसे पहनना शुरू कर दिया। विरोध शुरू हो गया, मीडिया ने इसकी आलोचना की, और माता-पिता ने विरोध किया। सरकार कई क़ानूनी मुकदमे हार गयी। लेकिन, आज भी महंगे रेस्तरां और रिसॉर्ट्स हिजाब पहनने वाली उन महिलाओं को इजाज़त नहीं देते हैं, जिन्हें निम्न वर्ग का माना जाता है, और जिनके ख़िलाफ़ सोशल मीडिया मज़ाक उड़ाता है।

हिजाब का अपना एक वर्गगत पहलू और प्रतीकात्मकता दोनों है।

हिजाब के लिहाज से चरम के दो राष्ट्र- ईरान और फ़्रांस

ईरानी शासक रेजा शाह पहलवी ने 8 जनवरी, 1936 को काश-ए-हिजाब फ़रमान जारी किया था, जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर स्कार्फ़ और चादर पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। उस शाही फ़रमान में पुलिस को ऐसा करने वाली महिलाओं के चेहरे से जबरन पर्दे को हटा दिये जाने का अधिकार दिया गया था। कई महिलाओं ने तो बाहर निकलना ही बंद कर दिया था। रूढ़िवादी परिवार अपने बच्चों को घर पर ही पढ़ाने लगे थे। पर्दा अब ईरान की राजनीति का एक अटूट हिस्सा बन गया था।

अंग्रेजों ने 1941 में रज़ा शाह को अपने बेटे मोहम्मद रज़ा शाह के हक़ में गद्दी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया, जिन्होंने महिलाओं को यह तय करने का हक़ दे दिया था कि पर्दा करना है या नहीं। बाद के दशकों में एक ऐसी नयी सार्वजनिक संस्कृति का उदय हुआ,जिसमें सामाजिक समारोहों में फ़ैशनेबल, नंगे सिर वाली महिलायें उन महिलाओं के साथ घुलमिल जाती थीं,जो चादर में लिपटी हुई होती थीं। लेकिन, चूंकि शाह के निरंकुश शासन से ईरान के लोग सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित हुए थे, तो उन महिलाओं ने भी उनके साथ जुड़ने के लिए चादरें पहन ली थीं। हालांकि इन महिलाओं में धार्मिक या अधार्मिक दोनों थीं। असल में उनकी ये चादर पश्चिम के शाह के समर्थन के ख़िलाफ़ ईरान की नाराज़गी का प्रतीक बन गयी थी।

1979 की क्रांति के बाद शाह सत्ता से बाहर होकर निर्वासन में चले गये और सर्वोच्च नेता अयातुल्ला रूहोल्लाह ख़ुमैनी ने यह फ़रमान सुना दिया कि महिलाओं को हिजाब पहनना होगा। 8 मार्च,यानी अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हज़ारों महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर इस फ़रमान का विरोध किया। बाद में ईरानी शासन ने हिजाब कोड को लागू करने के लिए हज़ारों अंडरकवर एजेंटों या गश्त-ए-इरशाद को तैनात कर दिया। एक ग़ैर सरकारी संगठन, जस्टिस फ़ॉर ईरान ने बताया कि 1993 और 2003 के बीच 30,000 महिलाओं को ग़ैर-मुनासिब तरीक़े से हिजाब पहनने को लेकर गिरफ्तार कर लिया गया था।

हिजाब के ख़िलाफ विरोध प्रदर्शन आज भी जारी है। 2006 में इन भेदभाव वाले क़ानूनों के ख़त्म करने के लिए दस लाख लोगों के हस्ताक्षर वाला ‘चेंज फ़ॉर इक्वेलिटी अभियान शुरू किया गया। सरकार ने इसके प्रमुख आयोजकों को गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन इस गिरफ़्तारी से पहले वे इस मुहिम के मक़सदों को समझा पाने के लिए एक बैठक बुलाने में कामयाब रहे। एक साल बाद, राष्ट्रपति कार्यालय के एक विभाग ईरानी सेंटर फ़ॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 49% ईरानी महिलायें हिजाब के अनिवार्य रूप से पहने जाने के विरोध में थीं।

2017 में व्हाइट वेडनस डे मुहिम शुरू की गयी थी, जिसमें पुरुषों और महिलाओं ने हर बुधवार को सफ़ेद कपड़े और सफ़ेद स्कार्फ पहते थे। महिलायें अपने सिर का स्कार्फ़ हटाती थीं और उन्हें ऊपर उठाने और लहराने के लिए छड़ी का इस्तेमाल करती थीं या फिर वे बस मौन रहती थीं। 27 दिसंबर को 31 साल की एक मां, विदा मोवाहेद  किसी बिजली के औजार वाले बक्से के ऊपर खड़ी हो गयीं, अपना हिजाब उतारा और उसे एक छड़ी पर उठाकर लहरा दिया। गिरफ़्तार होने के कुछ ही घंटे बाद उनकी यह विरोध वाली तस्वीर वायरल हो गयी।

शिक्षाविद फ़ेघे शिराज़ी के मुताबिक़, इस तरह का विरोध "महिला शक्ति और सविनय अवज्ञा के इस्तेमाल करते हुए अपनी उस आज़ादी को पाने का प्रतीक है,जिसके तहत वह ख़ुद तय करना चाहती हैं कि उन्हें क्या पहनना है या क्या नहीं पहनना है।"

इसके उलट पहनने की इस पसंदगी पर रोक फ़्रांस में अलग ही तरीक़े की है। फ़्रांस ने 2004 में पब्लिक स्कूलों में छात्रों के धार्मिक प्रतीकों को धारण करने पर प्रतिबंध लगा दिया था, हालांकि यह माना गया था कि मुस्लिम छात्रों को हेडस्कार्फ़ पहनने से रोकने के लिए ही यह उपाय अपनाया गया था। फ़्रांस ने 2010 में सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का पर प्रतिबंध लगा दिया था। फ़्रांसीसी सरकार की चलायी जा रही एक मुहिम का यह ऐलान था कि"गणतंत्र एक खुले चेहरे के साथ बन रहता है।"

फ़्रांसीसी सरकार ने पिछले ही साल सार्वजनिक सेवाओं के सभी निजी ठेकेदारों से लेकर सिविल सेवकों तक धार्मिक प्रतीकों को धारण करने वाले इस प्रतिबंध का विस्तार करने के लिए एक और क़ानून पारित कर दिया था। धर्मनिरपेक्षता के आड़ में मुसलमानों के ख़िलाफ़ इस भेदभाव के लिए न सिर्फ़ वामपंथियों ने राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों के ख़िलाफ़ प्रहार किया, बल्कि हैशटैग #HandsOffMyHijab के साथ एक जीवंत सोशल मीडिया अभियान भी शुरू हुआ।

ईरानी ग्राफ़िक(सचित्र) उपन्यासकार मर्जाने सत्रापी का जन्म और शिक्षा ईरान में हुए थे। आज वह पेरिस में रहती हैं। सत्रापी तब दस साल की थीं, जब इस्लामी क्रांति ने ईरान को झकझोर कर रख दिया था। सत्रापी ने द गार्जियन में लिखे अपने एक लेख में कहा था कि वह हिजाब पहनने के लिए मजबूर किये जाने से नाराज़ हैं।

हालांकि, सत्रापी ने आगे कहा, "मुझे पता है कि धार्मिक होने में धकेला जाना कैसा लगता था, इसलिए मुझे यह भी पता है कि धर्मनिरपेक्ष होने के लिए इसे कैसा होना चाहिए। आइये, हम वह ग़लती न करें, जो ग़लती कट्टरपंथियों ने ईरानी महिलाओं के साथ की थी। यह तो उसी तरह की हिंसा है।"

अल्जीरियाइयों की लड़ाई

हिजाब को लेकर फ़्रांस का यह रवैया उसके उपनिवेशवाद के इतिहास से जुड़ा हुआ है। फ़्रांसीसी औपनिवेशिक शासन ने अल्जीरियाई स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1958 में महिलाओं के चेहरे से पर्दा हटाने के सिलसिले में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक समारोह आयोजित किये थे। ऐसा यह बताने के लिए किया गया था कि अल्जीरियाई महिलायें ख़ुद के मुक्त किये जाने की इस नीति के चलते ही फ़्रांसीसियों का समर्थन करती हैं। बाद के सालों में यह पाया गया कि उनमें से ज़्यादातर महिलायें गरीब थीं और उन्हें अपने चेहरे से पर्दा हटाने के लिए मजबूर किया गया था।

जाने-माने उपनिवेशवाद-विरोधी बुद्धिजीवी फ्रांट्ज़ फ़ैनन ही थे, जिन्होंने उस फ़्रांसीसी सिद्धांत को संक्षेप में इस तरह प्रस्तुत किया था: "अगर हम अल्जीरियाई समाज की संरचना, प्रतिरोध की इसकी क्षमता को नष्ट करना चाहते हैं,तो हमें सबसे पहले इन महिलाओं को जीतना होगा; हमें जाकर उन्हें उस परदे के पीछे ढूंढ़ना होगा, जिसके पीछे वे छिप जाती हैं….”

पर्दा हटाने वाले उस कार्यक्रम ने कई अल्जीरियाई महिलाओं को उसके विरोध में नकाब पहनने के लिए प्रेरित किया था। लेकिन, इसमें शामिल महिलाओं ने पर्दे से बाहर लायी गयी महिलाओं की पश्चिमी रूढ़िवादिता का भी फ़ायदा उठाया। फ़्रांसीसी गार्ड बिना जांच किये ही उन महिलाओं को दूर हटा देते थे,जो ठेठ पश्चिमी पोशाक में होती थीं। चौकियों को बिना बाधा पार करते हुए उन्होंने प्रतिरोध करने वाले लड़ाकुओं को हथियार और गोला-बारूद तक पहुंचाये थे और कभी-कभी तो फ़्रांसीसी सैनिकों पर हमले भी शुरू कर दिये थे।

अल्जीरिया में फ़्रांसीसी शासन के 1962 में पतन हो जाने के बाद कई अल्जीरियाई महिलाओं ने शहरी क्षेत्रों में नकाब पहनना बंद कर दिया। लेकिन,एक बार फिर महिलाओं ने प्रतीक के रूप में इस हिजाब को अपनाने को लेकर तब आह्वान किया था, जब 2019 में राष्ट्रपति अब्देलअज़ीज़ बुउटफ्लिका के पांचवें कार्यकाल के जारी रहने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आयी थीं। उन्होंने अल्जीरियाई हिजाब पहना था। उन्हें उस जानी-मानी जमीला बोहिरेड ने संबोधित किया था, जिन्हें औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष के दौरान एक कैफ़े पर कथित रूप से बमबारी करने के लिए मौत की सज़ा (जिसे बाद में कारावास में बदल दिया गया था) सुनायी गयी थी।

भारत के लिए सबक़

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए 9/11 के हमलों के बाद कुछ मुस्लिम महिलाओं ने अपमान और हिंसा से बचने के लिए हिजाब पहनना बंद कर दिया था। लीला अहमद ने अपनी किताब में कहा है कि 9/11 के बाद के उन संकटग्रस्त महीनों में सबसे उल्लेखनीय बात जो थी,वह थी कि ग़ैर-मुस्लिम महिलायें मुस्लिम महिलाओं के उस अधिकार पर ज़ोर दे रही थीं कि वे क्या पहनें और क्या नहीं पहनें। इसी तरह की अहम बातें 2002 में वाशिंगटन पोस्ट की एमिली वैक्स की रिपोर्टिंग में भी थीं,जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय परिसरों में हिजाब पहनने वाली मुस्लिम छात्राओं की तादाद में साफ़ तौर पर इज़ाफ़ा हुआ था। उन्होंने वैक्स से कहा था कि "हिजाब पहनकर वे और भी गर्व महसूस करती हैं, मुस्लिम होने का उन्हें फ़ख़्र है ...।"

वैक्स जैसी दूसरी रिपोर्टों का हवाला देते हुए अहमद लिखती हैं, "उन मायनों में तो साफ़ तौर पर (हिजाब) पहनने वाले अलग-अलग समाजों वाला वही सिलसिला दिखता है।" लेकिन,अहमद का निष्कर्ष है कि एक ऐसा विषय, जो इन सभी समाजों के लिए बराबर है, वह है- हिजाब की बहुसंख्यकों के विचारों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध या विरोध का संकेत बन जाने की क्षमता, इसे पहनने वालों को अपनी विरासत और मूल्यों की पुष्टि करने वाला एक स्पष्ट रूप से असंतुष्ट अल्पसंख्यक बनाना और मुख्यधारा के समाज की ग़ैर-बराबरी और नाइंसाफ़ी को चुनौती देने का प्रतीक बन जाना।

अहमद का यह निष्कर्ष दरअस्ल कर्नाटक के हिजाब विवाद का सार है। अगर हिजाब पहनने वाली लड़कियां कक्षा में बराबरी के भाव को कमज़ोर करती हैं, तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की नयी संसद और अयोध्या के राम मंदिर के भूमि पूजन में भागीदारी को फिर क्या कहा जाये। हर गुज़रते महीने में सार्वजनिक स्थानों का बढ़ता हिंदूकरण हैरतअंगेज़ है।

मुद्दा यह नहीं है कि पॉपुलर फ़्रट ऑफ़ इंडिया हिजाब का विरोध करने वाली इन महिलाओं का समर्थन कर रहा है या नहीं। असली बात तो अहमद के इस निष्कर्ष में निहित है कि हिजाब अपने पहनने वालों को एक असंतुष्ट अल्पसंख्यक के रूप में दिखाता है। बात वही है,जिसे उपन्यासकार सतत्रापी कहती हैं और वह यह कि-महिलाओं को हिजाब उतारने या पहनने के लिए मजबूर करना हिंसा है। यह पूरा विवाद एक सबक़ है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

History of how Hijab Vanished and Reappeared as Symbol of Dissent

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest