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काश! मोहन जी महात्मा को समझ पाते

यह सही है कि भागवत जी के नाम में मोहन है और महात्मा गांधी के नाम में भी मोहन था। लेकिन सिर्फ इतने से मोहन जी महात्मा को समझ लेंगे यह जरूरी नहीं।
काश! मोहन जी महात्मा को समझ पाते

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत जी ने सन् 2021 के पहले दिन एक विचित्र बयान दिया। उनका कहना था, ``सभी भारतीय मातृभूमि की पूजा करते हैं लेकिन गांधीजी ने कहा था कि मेरी देशभक्ति मेरे धर्म से आती है। इसलिए अगर आप हिंदू हैं तो आप स्वाभाविक रूप से देशभक्त हैं। आप अवचेतन में हिंदू हो सकते हैं या आपको जागरण की आवश्यकता है लेकिन हिंदू कभी भारत विरोधी नहीं हो सकता है।’’ मोहन भागवत जी `हिंद स्वराज’ पर लिखी गई एक किताब के विमोचन में अपनी बात रख रहे थे। उन्होंने और भी बहुत सी बातें कहीं जो उतनी चौंकाने वाली नहीं हैं जितनी ऊपर कही गई बात इसलिए उनकी इस समझ पर चर्चा होनी चाहिए।

इस बीच दिल्ली के गाजीपुर बार्डर पर धरने पर बैठे एक किसान ने अपने साथियों की मौत से उदासीन सरकार से नाराजगी जताते हुए कहा कि यह सरकार और कंपनियां हमें नागरिक नहीं मानतीं। वे हमें कोल्हू में पिराई के लिए इस्तेमाल होने वाले गन्ने की तरह समझती हैं। गन्ने का इस्तेमाल करके मिलें चीनी बनाती हैं और मुनाफा कमाती हैं और सरकारें हमसे वोट लेकर अपनी वैधता और ताकत बढ़ाती हैं।

सरकार और कारपोरेट के गठजोड़ पर यह टिप्पणी धर्म और देशभक्ति के विमर्श के समांतर चल रही चिंताओं की एक झलक है। दरअसल गांधी और उनका देश विकास और हिंदुत्व के आख्यान में इस तरह से उलझ गया है कि वहां नागरिक चारा और फिर बेचारा बनता जा रहा है। शायद गांधी को समझा गया होता तो वैसा न होता।

इस विमर्श को समाजवादी विचारों से प्रभावित प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने अपनी आखिरी पुस्तक ` हिंदुत्व आर हिंद स्वराज’ (Hindutva or Hind Swaraj) में बहुत प्रभावशाली ढंग से उठाया है। यूआर अनंतमूर्ति गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में हुए उभार से चिंतित थे और उन्होंने कहा भी था कि वे उस देश में नहीं रहना चाहते जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों। यह एक संवेदनशील लेखक का वैसा ही बयान था जैसा कभी अवतार सिंह पाश ने कहा था कि `जिस राज्य के मुख्यमंत्री भजनलाल विश्नोई हों हम उस राज्य का नागरिक होने से इनकार करते हैं।’ अपने उसी भावुक प्रवाह में गांधी, सावरकर, गोडसे और नरेंद्र मोदी के चरित्र और विचारों को समझाते हुए एक लंबा निबंध लिखा था जिसे सन 2016 में हार्पर पेरिनियल ने प्रकाशित किया और उसकी भूमिका प्रसिद्ध समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन ने लिखी है।

यह आलेख बहुत स्पष्ट शब्दों में कहता है भारत का आने वाला समय गांधी के हिंद स्वराज और सावरकर के हिंदुत्व के बीच टकराव का है। यह भारत को तय करना है कि वह दोनों विचारों में से किसको अपनाता है। वे मानते हैं कि मोदी के सत्तासीन होने के साथ भारत में सावरकर के हिंदुत्व संबंधी विचारों को लागू करने की शुरुआत हो चुकी है। राष्ट्रहित के नाम पर कोई भी कानून बनाने, कहीं भी जुलूस निकालने, कोई भी नारा लगाने  और किसी पर भी अत्याचार करने की छूट मिलती जा रही है। यहां सावरकर का पुण्यभूमि का विचार लागू किया जा रहा है। चूंकि हिंदुत्व के सिद्धांत के अनुसार भारत हिंदुओं के लिए पुण्यभूमि है इसलिए उनकी देशभक्ति पर कभी भी संदेह नहीं किया जा सकता। भले ही वह देशभक्ति के नाम पर कितना ही अत्याचार और हिंसा करे। इसीलिए अनंतमूर्ति कहते हैं कि हमें इस मान्यता को चुनौती देनी चाहिए कि कोई व्यक्ति बहुमत के माध्यम से सत्ता में आ गया है इसलिए उसकी आलोचना न की जाए। वास्तव में लोकतंत्र वहां फलता फूलता है जहां पर गैर-बहुसंख्यावाद को प्रोत्साहन दिया जाता है। गांधी और टैगोर के लिए राष्ट्र-राज्य का अर्थ बुराइयों का केंद्रीकृत होते जाना है। जबकि गोडसे और मोदी के लिए राष्ट्र-राज्य ही ईश्वर और परम तत्व है।

हालांकि अनंतमूर्ति सरदार पटेल और नेहरू में भी राष्ट्र-राज्य के अहंकार को पनपते हुए देखते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि अगर राष्ट्र-राज्य और कारपोरेट के गठजोड़ से होने वाले अत्याचार, लूट और उससे पैदा होने वाले कट्टर राष्ट्रवाद का जवाब देना है तो गांधी के  `हिंद स्वराज’ और टैगोर के `गोरा’ को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए और उस पर चर्चा होनी चाहिए।

यह एक विडंबना है कि 1948 में जब गांधी के शरीर को तीन गोलियों से समाप्त किया गया तो उनकी हत्या करने वाले ने कहा था कि वे हिंदू धर्म को नष्ट कर रहे हैं, वे हिंदुस्तान को नष्ट कर रहे हैं। वे मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीतियां चला रहे हैं। वे जानते हैं कि उनके अनशन से जिन्ना पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है इसलिए वे भारत सरकार और उसके नेताओं को झुकाने के लिए अनशन कर रहे हैं। इसलिए उन्हें भारत का राष्ट्रपिता कहने की बजाय पाकिस्तान का राष्ट्रपिता कहा जाना चाहिए। हत्या करने के बाद गोडसे ने अदालत में सुनवाई के दौरान जो बयान दिया था उसमें यह बातें थीं। गोडसे ने साफ शब्दों में कहा था कि वह सावरकर की विचारधारा से प्रभावित है।

लेकिन मुश्किल यह है कि शरीर से हत्या किए जाने के बाद गांधी के विचार आज भी जोर मार रहे हैं। इसलिए जरूरत उनके विचारों की हत्या करने की है और इसीलिए गांधी को कहीं कट्टर देशभक्त तो कहीं कट्टर हिंदू साबित करने की कोशिश की जा रही है। कहीं कहा जा रहा है कि गांधी की देशभक्ति तो धर्म से निकली थी और वह वैसा धर्म था जो हिंदुस्तान में ही पैदा होता है और धर्म को रिलीजन कहने वाले यूरोप के लोग उसे समझ नहीं सकते। लेकिन गांधी जिस तरह के हिंदू थे और जिस तरह के धार्मिक थे, वैसा हिंदू और वैसा धार्मिक नेता तो छोड़िए वैसा कार्यकर्ता जिस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पैदा करने लगेगा उस दिन वह दुनिया का सबसे ज्यादा सम्मानीय संगठन बन जाएगा और पूरा विश्व संयुक्त राष्ट्र की बजाय उसी की ओर उम्मीद के साथ देखेगा।

गांधी की धर्म की समझ तो उनकी प्रार्थना सभाओं में दिखाई पड़ती है जहां वे सभी धर्मों की प्रार्थना करते थे। यही कारण था कि विभाजन के समय उनकी प्रार्थना सभाओं पर सांप्रदायिक हिंदू और मुस्लिम दोनों समान रूप से आपत्ति करते थे। क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन प्रार्थनाओं को अपने आयोजनों में शामिल करने का साहस करेगा?  गांधी से जब पूछा गया कि उन्होंने अहिंसा का दर्शन कहां से प्राप्त किया तो उनका कहना था कि उन्होंने बाइबल के `सरमन आन द माउंट’ के प्रसंग से इसे लिया। हालांकि कभी कभी वे गीता से भी अहिंसा का दर्शन प्राप्त करने की बात करते थे। उनके इस प्रसंग पर मशहूर पत्रकार और इतिहासकार विलियम शरर ने `लीड काइंडली द लाइट’ में विस्तार से लिखा है।

गांधी ने सत्याग्रह कहां से पाया इस बारे में अगर आप उनके द्वारा लिखी गई चर्चित पुस्तक दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि इसकी प्रेरणा उन्हें इस्लाम से मिली थी। जब नागरिकता संबंधी अंग्रेजी कानून के विरोध में वे लोग एक सभा कर रहे थे तो एक मुस्लिम भाई ने कहा कि वे अल्लाह के नाम पर अपनी जान दे देंगे। गांधी ने इस बात को पकड़ लिया और ईश्वर का नाम लेकर अपनी जान की बाजी लगाने का विचार बनाया। वहीं से सत्याग्रह का प्रयोग निकला और बाद में ईश्वर की जगह पर सत्य आ गया। यह जानना रोचक है कि गांधी के लिए रामराज्य का मतलब अयोध्या में मस्जिद गिराकर राम का मंदिर बनाकर उनके नाम पर नागरिक अधिकारों का दमन करना नहीं था। उनके लिए रामराज्य का मतलब टालस्ताय के  `किंगडम आफ गाड’ से था, खलीफा के पवित्र शासन से था और रैदास के `बेगमपुरा’ की अवधारणा से था। वे इस मुहावरे का प्रयोग इसलिए करते थे क्योंकि इसे बहुत सारे लोग समझ लेते थे।

जो लोग गांधी को लेकर देशी विदेशी, यूरोपीय और भारतीय की बहस चलाते हैं और यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके विचार के सूत्र तो सौ प्रतिशत भारतीय धर्मग्रंथों से निकले थे वे एक प्रकार का भ्रम फैलाते हैं। आप महात्मा गांधी के विचारों की बीच पुस्तक  `हिंद स्वराज’ उठाकर देख लीजिए तो पाएंगे कि उसके संदर्भ ग्रंथ के तौर पर सिर्फ दो भारतीय लेखकों की पुस्तकों का उल्लेख है जिनमें एक हैं दादाभाई नौरोजी और दूसरे हैं रोमेश चंद्र दत्त। पहली पुस्तक का नाम था  `पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ और दूसरी का `इकानामिक हिस्ट्री आफ इंडिया।’ बाकी ग्रंथों में टालस्टाय की छह किताबें, रस्किन की दो, थोरो की दो, प्लेटो, शेरार्ड, कारपेंटर, टेलर, ब्लाउंट, मैजिनी और मैक्स नार्थयू की एक-एक किताब शामिल हैं।

इस्लाम और ईसाई धर्म में गांधी की रुचि इतनी थी कि वे यरवदा जेल में इन्हीं धर्मों की कक्षाएं लेना पसंद करते थे। इसीलिए वे यरवदा जेल को मंदिर भी कहते थे। यह सही है कि गांधी गीता को मां की संज्ञा देते थे और तुलसी की रामायण को अपना प्रेरक ग्रंथ मानते थे। वे उनसे वह अर्थ नहीं निकालते थे जो अन्य हिंदू निकालते हैं। यहां तक कि गीता से तिलक ने हिंसा का सिद्धांत निकाला तो गांधी ने अहिंसा का। कुरान, बाइबल, गीता, महाभारत, रामायण, उपनिषद, जिंद, अवेस्ता जैसे सभी धर्मों के ग्रंथों को पढ़ने और उस पर आचरण करने का प्रयास करने वाले गांधी ने यही कहा था कि सारे धर्म अपूर्ण हैं। वे ईश्वर यानी सत्य तक पहुंचने के विविध मार्ग हैं। लेकिन सत्य तक पहुंचना आसान नहीं है। उनका असली प्रेरक तत्व सत्य ही था। पर वह सत्य वैसा नहीं था जैसा कि नाथूराम गोडसे ने समझा था। क्योंकि नाथूराम ने कहा था कि गांधी सत्य और अहिंसा की बातें करते हैं और ऐसा करना कोई नई बात नहीं है। इससे किसे इनकार हो सकता है। लेकिन गांधी का सत्य केवल मुंह जबानी जुमला नहीं था। वे उसके लिए किसी की जान लेने की बजाय अपनी जान देने को तैयार रहते थे। उन्होंने बचपन में हरिश्चंद्र नाटक देखा था और कहते हैं कि अपने मन में उसे बार बार खेलते रहे। हकीकत में वे उसे जीवन से अंत तक खेलते रहे और उन्होंने अपने सत्य के लिए जब सीने पर गोली खाई तब भी वे उस नाटक को खेल रहे थे।

गांधी का हिंदूपन इतना ही नहीं था। वे कहते थे कि मैं समस्त हिंदू धर्म ग्रंथों में विश्वास करता हूं लेकिन अपने विवेक के अनुसार उसमें संशोधन की छूट लेता हूं। अपने इसी विवेक और मानवीय संवेदना के कारण वे जमींदारों, पूंजीपतियों और ब्रिटिश राज से लड़ने का साहस रखते थे और अपने धर्म की अस्पृश्यता जैसी रूढ़ियों और स्त्री अधिकारों से जुड़ी तमाम बुराइयों को चुनौती देने का साहस रखते थे। लेकिन गांधी के स्वराज का अर्थ सिर्फ ब्रिटिश सेना की गुलामी से मुक्ति नहीं था। वह ब्रिटिश पूंजीपतियों से भी मुक्ति थी। पर वह ब्रिटिश सेना से मुक्ति दिलाकर भारतीय सेना और भारतीय पूंजीपतियों की गुलामी नहीं थी। वे राज्य और पूंजी की शक्ति पर व्यक्ति की स्वतंत्रता और सत्य के नियम का अंकुश लगाना चाहते थे। लेकिन गांधी सिर्फ विचार में नहीं हैं वे आचरण में भी हैं। इसीलिए गांधी का कोई शिष्य उन तक नहीं पहुंच पाया। यही कारण है कि वे दिल्ली में आजादी का जश्न छोड़कर कोलकाता के दंगों में हिंदुओं को शांत कराने गए तो नोवाखाली में मुस्लिमों को शांत कराने गए। वे पाकिस्तान भी जाने वाले थे तो सरदार पटेल और नेहरू ने उन्हें दिल्ली में रोक लिया। यही कारण है कि उन्हें एक असंभव संभावना कहा जाता है। हजारों शाखाएं चलाने वाला और लाखों सेवा परियोजनाएं चलाने वाला संघ परिवार अगर गांधी को समझ लेता तो देश में गाय की रक्षा के नाम पर लोगों को पीट पीटकर न मारा जाता और न ही अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के इलाके में मोटरसाइकिलों पर जयश्रीराम कहते हुए जुलूस निकाल कर हिंसा को उकसाया जाता। गांधी ने न तो हिंदुओं पर आंख मूंदकर विश्वास किया था और न ही मुस्लिमों पर। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में देख लिया था कि लोग उनके साथ आंदोलन में उतरे जरूर लेकिन वे अहिंसा में विश्वास नहीं कायम कर सके। वे रक्तपात करते हुए एक दूसरे की जान लेने पर आमादा हैं। इसलिए वे सत्य और अहिंसा के लिए निरंतर काम करने के पक्ष में थे। उनके लिए भारत की आजादी का मतलब बहुसंख्यावाद की स्थापना और दुनिया में दबंगई करने किए नहीं था। उनके लिए भारत इसलिए आजाद होना चाहिए ताकि वह विश्व के कल्याण के लिए अपने को बलिदान कर सके।

यह सही है कि भागवत जी के नाम में मोहन है और महात्मा गांधी के नाम में भी मोहन था। लेकिन सिर्फ इतने से मोहन जी महात्मा को समझ लेंगे यह जरूरी नहीं। मोहन से महात्मा तक की यह यात्रा बहुत लंबी और कठिन है। उस पर चलना खांडे की धार पर चलने जैसा है। अनंतमूर्ति कहते हैं, `` जब तक (सावरकर की तरह) एकता के विचार को केंद्र में रखकर चला जाएगा तब तक विविधता का नाश होता रहेगा। जब विविधता को केंद्र में रख कर चला जाएगा और उसे अधिकतम सीमा तक खींचा जाएगा तब आप पाएंगे कि भारत एक है।’’

सभी धर्मों को समान रूप से आदर व अधिकार देने और स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति होने के बावजूद गांधी धर्म को एक निजी मामला मानते थे। वे चाहते थे कि राज्य सभी धर्मों से समान व्यवहार करे लेकिन वे नहीं चाहते थे कि धर्म राज्य के कारोबार में हस्तक्षेप करे। यानी वे भारत में एक सेक्यूलर राज्य की स्थापना चाहते थे। उन्होंने चालीस के दशक में इस पर काफी जोर दिया है। इस बात को इतिहासकार इरफान हबीब, विपिन चंद्र, रवींद्र कुमार, कुमकुम संगारी, सुकुमार मुरलीधरन ने सहमत से प्रकाशित पुस्तक  `गांधीः एक पुनर्विचार’ में तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है। गांधी की यह दृष्टि सावरकर और जिन्ना की दृष्टि से एकदम अलग थी। हालांकि वे दोनों अपने को गांधी से बड़ा सेक्यूलर बताते थे लेकिन वे धर्म आधारित राज्य के ही पक्ष में थे। संघ और उसके संगठन दूसरे दलों पर भले मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाए और उन्हें छद्म धर्मनिरपेक्ष कहे लेकिन उसके चिंतन में तो सेक्यूलर देश है ही नहीं। इस मामले में गांधी अद्भुत व्यक्ति हैं जो बताते हैं कि धार्मिक होकर भी कैसे सेक्यूलर राजनीति की जा सकती है। इसलिए गांधी का पाठ करने की सभी को स्वतंत्रता होने के बावजूद उनके कुपाठ की स्वतंत्रता नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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