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पूंजीवाद, लोकसभा चुनाव परिणाम और कार्यभार

आज ज़रूरत है कि शासक वर्गों की आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ और जनता के बुनियादी मुद्दों पर तमाम क्रांतिकारी वर्गों और समूहों को गोलबंद कर इस पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र को उजागर किया जाए। 
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फोटो साभार : PMO

लगभग दो माह लंबी चली चुनावी प्रक्रिया के तहत भारत में अठारहवीं लोकसभा चुनाव का समापन हो चुका है। इस चुनाव में बहुत सारी ऐसी घटनाएं हुईं, जो चुनावी प्रक्रिया पर संदेह व्यक्त करने के लिए काफी हैं। चुनाव के लिए काफी सक्रिय उप चुनाव आयुक्त अरूण गोयल ने चुनाव से कुछ समय पहले अचानक इस्तीफा दे दिया। चुनाव से ठीक पहले प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बैंक खाते को फ्रीज किया गया और विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और स्टार प्रचारक राहुल गांधी की हेलीकॉप्टरों की जांच की गईl जबकि सत्ताधारी पार्टी के किसी भी स्टार प्रचारक या अध्यक्ष की चेकिंग की कोई जानकारी नहीं मिली। मतों के आंकड़े को बताने में चुनाव आयोग द्वारा एक हफ्ते का समय लेने जैसी कार्रवाई निष्पक्ष चुनाव होने पर संदेह व्यक्त करते हैं। 

यह चुनाव इसलिए भी याद रखा जायेगा कि भारत की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण लोकसभा चुनाव लड़ने से इसलिए मना कर देती है क्योकि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं हैं। इस चुनाव में रिकॉर्ड 8889.74 करोड़ की नकदी, ड्रग्स, उपहार और ज्वेलरी जैसे चीजें 49 दिनों (1 मार्च 2024 से 18 मई 2024 तक) में जब्त की गई हैं। यह चुनाव इसलिए भी याद रखा जायेगा कि भारत के प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के 76 दिनों में रिकॉर्ड 80 ‘इंटरव्यू’ पूंजीपति पक्षीय मीडिया को दिया। 

प्रधानमंत्री ने 2019 में जहां 145 सभाएं की थी वहीं 2024 में 76 दिनों में 206 जनसभाएं और रोड शो किये हैं। इस चुनाव में चुनाव आयोग किसी प्रचारक या व्यक्ति को नहीं पार्टी को नोटीस जारी कर जवाब मांगती है। 

सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह था कि चुनाव आयोग सत्ता पक्ष की तरफ आंखे बंद कर खड़ा था, सत्ता पक्ष के खिलाफ होने वाली शिकायतों पर आंखे मूंदे था, वहीं विपक्ष पार्टी से एक दिन के अंदर जवाब मांगता है, जैसा कि जयराम रमेश के साथ हुआ। 

इस चुनाव में एक तरफ सरकार की सभी मशीनरी सरकार का साथ दे रही थी तो ‘लोकतंत्र’ का चौथा स्तंभ कही जाने वाली ‘मीडिया’ भी इंटरव्यू के नाम पर सरकार के पक्ष में प्रचार का और विपक्ष पर हल्ला बोलने का काम कर रही थी। चुनाव आयोग का काम होता है वोट करने और इच्छा न होने पर नोटा बटन के लिए लोगों को जागरूक करना, लेकिन नोटा को लेकर चुनाव आयोग का कोई भी विज्ञापन प्रिंट या इलेक्ट्रिनिक मीडिया में देखने को नहीं मिला। फिर भी देश के 0.99 प्रतिशत (63,72,220) मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाकर कहना चाहा कि जनतंत्र के लिए कोई भी अच्छा नहीं है। यहां तक प्रधानमंत्री के सीट पर 8,478 लोगों ने नोटा का बटन दबाया। ऐसे लोगों की संख्या नोटा दबाने वालों से अधिक रही जो जानते हैं कि इस जनतंत्र के लिए कोई भी अच्छा नहीं है। फिर भी उन्होंने वर्तमान सरकार की दमघोंटू सत्ता संचालन से ऊब कर बदलाव के लिए मतदान किया।

यह चुनाव इसलिए भी याद किया जायेगा कि चुनाव के अंतिम चरण में ख़बरों के अनुसार 58 मतदान कर्मियों की मौत गर्मी से हुई, जिसे सरकारी लापरवाही ही कहा जाना चाहिए।  

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस चुनाव में किसी तरह जीत दर्ज कर जवाहर लाल नेहरू के रिकॉर्ड की बराबरी करना चाहते थे। उसी रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 400 पार का नारा दिया था क्योंकि पंडित नेहरू तीसरी बार 494 सीटों में से 361 सीट जीत कर प्रधानमंत्री बने थे। मोदी का यह सपना पूरा नहीं हुआl वह तीसरी बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन बीजेपी बहुमत से दूर रही। मोदी और आरएसएस का एजेंडा चल नहीं पाया, जिसके लिए वह जाने जाते हैं। मोदी ने बहुत जोर-शोर से उन मुद्दों को उठाने की कोशिश भी की। वे मछली, मटन से लेकर मुगल, मंगल सूत्र और मुजरे तक की बात करते रहे, लेकिन वह अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब नहीं रहे। 

उन्होंने अपने को बायलोजिकल भी मानने से इनकार कर दिया और एक तरह से अपने आप को अवतार कहने की कोशिश की। रामजन्म भूमि ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने प्रधानमंत्री को विष्णु का अवतार बताया था, नरेन्द्र मोदी का इशारा भी शायद उसी तरह का था। यही कारण है कि उनको राम को लाने वाला बता दिया गया और चुनाव में पोस्टर तक चिपकाये गये कि जो राम को लाये हैं, हम उनको लायेंगे। 22 जनवरी को आरएसएस, बीजेपी और सरकार द्वारा प्रयोजित राम मन्दिर का कार्यक्रम चलाया गया। केन्द्र सरकार के दफ्तरों, औद्योगिक इकाइयों में आधे समय की छुट्टी कर दी गई, स्कूलों की भी छुट्टी कर दी गई, भाजपा शासित कई राज्यों ने 22 जनवरी को छुट्टी रखने का ऐलान कर दिया गया ताकि वे नरेन्द्र मोदी द्वारा प्राण प्रतिष्ठा को लाइव देख सकें। मंदिरों, मुहल्लों को राम नाम के बैनरों और झण्डों से पाट दिया गया ताकि अगला चुनाव जीता जा सके। चुनाव प्रचार के दौरान 17 अप्रैल, 2024 को विज्ञान का प्रयोग कर रामलाला के कपाट पर सूर्याभिषेक किया गया। नरेन्द्र मोदी प्रचार के दौरान इस घटना को हेलीकाप्टर में बैठ कर लाइव देख रहे थे, जिसका प्रसारण सभी मीडिया चैनलों द्वारा किया गया। वाराणसी विश्वनाथ मंदिर और कॉरीडोर का हवाला देकर मोदी के जयकारे किये गये। इन सबके बावजदू अयोध्या में बीजेपी की हार हो गई। नरेन्द्र मोदी वाराणसी में कांग्रेस के एक साधारण नेता के सामने किसी तरह जीत दर्ज कर पाये, जबकि नरेन्द्र मोदी के नमांकन के दिन एनडीए के सभी घटक दल और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री वाराणसी में मोदी के साथ शक्ति प्रदर्शन किया। 

नरेन्द्र मोदी के बनारस सीट चयन के  पीछे मकसद रहा है कि पूर्वांचल के कई सीटों पर बीजेपी को लाभ होगा। इस तरह बीजेपी को 2014 और 2019 में लाभ देखा जा चुका हैl लेकिन 2024 में पूर्वांचल के ज्यादा सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। यह चुनाव परिणाम एक तरह से नरेन्द्र मोदी की कम होती लोकप्रियता की गवाही है। यह उनकी नैतिक हार है l उन्होंने हर प्रकार के दांव चलाये ताकि समाज में ध्रुवीकरण हो और बीजेपी को अपने बलबूते सरकार बना कर आरएसएस को 100 साल पूरा होने का गिफ्ट मनमर्जी कानून लाकर दे सके। फिलहाल यह सपना अधूरा प्रतीत होता हैl लेकिन इसे पूरा कराना नामुमकिन नहीं है l 

मोदी सरकार ने मंत्रिमंडल गठन में यह दिखा दिया है कि वे किसी दबाव में नहीं हैं और अपने सहयोगी दलों को मुख्य मंत्रालय से दूर रखा है। इसी तरह कांग्रेस ने भी अपना तेवर दिखाते हुए सरकार गठन से पहले ही शेयर मार्केट घोटाला और नीट परीक्षा में पेपर लीक के मामले को लेकर सरकार पर हल्ला बोल दिया। वाम और अपने आप को नागरिक समाज के बताने वाले लोग नीतीश कुमार तो कभी चन्द्रबाबू नायडू की तरफ देख रहे हैं। उनकी आशा है कि आने वाले समय में ये लोग अपना समर्थन वापस ले लेंगे और मोदी सरकार गिर जायेगी। नीतीश जैसे समाजवादियों ने आरएसएस को मजबूत करने का काम किया है। उनका सम्बंध एनडीए से नहीं आरएसएस के साथ रहा है और इन्होंने इमरजेंसी के बाद मिल कर सरकार का गठन किया था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद इन्हीं समाजवादियों ने मिलकर आरएसएस समर्थित भाजपा सरकार को सामाजिक मान्यता दिलाई थी। चन्द्रबाबू नायडू जैसे नेता एकीकृत आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए अपने आप को सीईओ कहलाने में ज्यादा प्रसन्न दिखते थे। चन्द्रबाबू नायडू को पूंजीवाद समर्थित मोदी सरकार से क्यों परेशानी होगी? उनको प्रसन्नता होगी कि वह बड़े पूंजीपतियों की सेवा करने के लिए और ज्यादा उतावले होंगे। उनकी और मोदी की जोड़ी पूंजीपति हितों की और अच्छी  सेवा करेगी। बीजेपी का पुराना अनुभव देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि एक साल के अन्दर ही दूसरी पार्टियों में तोड़-फोड़ कर बीजेपी अपनी बहुमत के आंकड़े तक पहुंच सकती है। 

यह चुनाव इस बात को और बल देती है कि आर्थिक हित ही सर्वोपरी है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ लोगों ने वोट किया तो कुछ लोगों ने मोदी सरकार की निरंकुश सत्ता के खिलाफ वोट दिया। दलित और पिछड़ा वर्ग के लोग भी संविधान बचाने के नाम पर आरक्षण बचाने के लिए वोट किया वो भी आर्थिक पहलू से जुड़ा है।  मोदी के पक्ष में वोट देने वाले भी ज्यादातर वे लोग थे जो मोदी के कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी हैं। 

जब आर्थिक स्थिति अच्छी हो तो आप राष्ट्रवादी और धार्मिक हो सकते हैं और इस तरह के जुमलेबाजी करके लोगों को बरगला सकते हैं। लोगों की नारजगी का न तो एनडीए सरकार और न ही इस पूंजीवादी व्यवस्था के पास स्थायी सामाधान है। पूंजीवादी पार्टियां लोगों का मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए धार्मिक, जातीय, क्षेत्रीय भावनाओं को भड़का कर लड़ाती रहती हैं और राज करती हैं। कांग्रेस या शासक वर्गों की अन्य कोई पार्टी भाजपा की  कॉरपोरेट पक्षीय एवं जनविरोधी आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर सकतीं, क्योंकि इन सबों की आर्थिक नीतियां एक ही हैं l इसलिए आज जरूरत है कि शासक वर्गों की आर्थिक नीतियों के खिलाफ और जनता के बुनियादी मुद्दों पर तमाम क्रांतिकारी वर्गों और समूहों को गोलबंद कर इस पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र को उजागर किया जाए। सड़क की लड़ाई से ही जनता के हक-अधिकारों की रक्षा होती है और विपक्ष भी मजबूत होता है। बढ़ते जनाक्रोश को अगर सही दिशा में मोड़ कर पूंजीवादी चरित्र को उजागर नहीं किया जायेगा तो यह भावना अपने आप कमजोर नहीं होगी और उत्पीड़ित वर्गों, जातियों एवं अल्पसंख्यक लोगों को नुकसान पहुंचायेगा।

पूंजीवाद अपने आर्थिक संकट को सामाजिक संकट मे बदलने में कामयाब हो जायेगा। लोग अपने बुनियादी मुद्दे महंगाई-बेरोजगारी, शिक्षा-स्वास्थ्य से भटक कर जाति, धार्मिक, क्षेत्रीय मुद्दे पर लड़ाती रहेगी जैसा की मणिपुर का उदाहरण हमारे सामने हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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