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रिकॉर्ड फसल, बढ़ती क़ीमतें, गिरती ख़रीद

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कमज़ोर होने की वजह से खुले बाज़ार में बढ़ती क़ीमतें पहले से ही उच्च महंगाई से पीड़ित लोगों पर और अधिक दबाव डाल रही हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

हाल के वर्षों में भारतीय लोगों को एक भयावह विरोधाभास का सामना करना पड़ा, और इस साल यह विरोधाभास फिर से जोरदार तरीके से सामने आया है। एक तरफ खाद्यान्नों का उत्पादन - ज़्यादातर अनाज - हर गुज़रते साल के साथ “रिकॉर्ड” स्तर पर पहुंच रहा है और फिर भी खुदरा कीमतें बढ़ती रहती हैं, सरकारी खरीद कम होती जा रही है और किसान लगातार परेशान रहते हैं क्योंकि उन्हें अच्छा मुनाफ़ा नहीं मिल पाता है।

इस साल (2023-24) चावल का उत्पादन 1367 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया, जो अपने आप में एक नया रिकॉर्ड है। पिछले एक दशक में चावल के उत्पादन में लगभग 30 फीसदी की वृद्धि हुई है, जो अभूतपूर्व है। इस बीच, इस साल गेहूं का उत्पादन 1129 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया, जो भी एक ऊंचा रिकॉर्ड है। एक दशक में गेहूं उत्पादन में वृद्धि लगभग 31 फीसदी रही है। (नीचे चार्ट देखें। कृषि सांख्यिकी के लिए सरकार के एकीकृत पोर्टल से लिया गया डेटा)

यह उम्मीद की जा रही थी कि, इस तरह की प्रचुर मात्र में पैदा हुए अनाज से सरकार के पास अच्छा स्टॉक जमा होगा, सरकारी एजेंसियों द्वारा बड़ी मात्रा में खरीद की जाएगी और इसे कानूनी रूप से अनिवार्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के साथ-साथ स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील योजना और आईसीडीएस के तहत संचालित आंगनवाड़ियों जैसी महत्वपूर्ण पोषण योजनाओं में शामिल किया जाएगा। अच्छी खरीद का मतलब यह भी होगा कि किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का भुगतान किया जाएगा जो भारतीय खाद्य निगम या विभिन्न राज्य-स्तरीय एजेंसियों जैसी खरीद एजेंसियों को बेचते हैं।

संक्षेप में, रिकॉर्ड फसल का मतलब सबसे ज़रूरतमंद वर्गों को भोजन और नकदी देना होगा। इससे खुले बाज़ार में कीमतों पर भी नियंत्रण रखा जा सकेगा क्योंकि उन्हें आमतौर पर एमएसपी के मुकाबले बेंचमार्क किया जाता है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि कई पीडीएस के दायरे में नहीं आते हैं – ऐसी संख्या के करोड़ों में होने का अनुमान है क्योंकि सब्सिडी वाला अनाज पाने वालों की वर्तमान संख्या 2011 की जनगणना पर आधारित है।

लेकिन दुख की बात है कि यह सब नहीं हो रहा है, जैसा कि हम नीचे देखेंगे।

बढ़ती महंगाई

सरकार के उपभोक्ता मामलों के विभाग के आंकड़ों के अनुसार खुदरा गेहूं की कीमतों में लगभग 6 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि सांख्यिकी मंत्रालय के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष में यह वृद्धि लगभग 7 फीसदी रही है। हालांकि, कई मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि कुछ थोक बाजारों में व्यापारियों को बेची जाने वाली अधिक कीमतों के कारण कीमतों में लगभग 8 फीसदी की वृद्धि हुई है। उपभोक्ता मामलों के विभाग के आंकड़ों के अनुसार चावल की कीमतों में और भी अधिक वृद्धि हुई है जो 13 फीसदी की वृद्धि है।

प्रोटीन का एक प्रमुख स्रोत यानी दालों की कीमतों में पिछले एक साल में बड़ा तेज उछाल आया है। चना दाल की कीमतों में 17 फीसदी, तुअर/अरहर की कीमतों में 27 फीसदी, उड़द की कीमतों में 13 फीसदी और मूंग की कीमतों में लगभग 9 फीसदी की वृद्धि हुई है। पिछले कुछ वर्षों में दालों की बढ़ती खपत के बावजूद, भारत दालों के उत्पादन को निर्धारित करने वाले अव्यवस्थित नीतिगत विकल्पों के कारण आयात पर निर्भर है। 2023-24 में, तुअर/अरहर का उत्पादन 33.85 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया था, जो पिछले वर्ष की तुलना में मामूली वृद्धि है जब यह 33.12 लाख मीट्रिक टन था। लेकिन अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि इससे पहले के वर्षों में अरहर का उत्पादन बहुत अधिक था - 2020-21 में यह 43.16 लाख मीट्रिक टन था और 2021-22 में 42.2 लाख मीट्रिक टन था। चने का उत्पादन 2021-22 में 135.44 लाख मीट्रिक टन और 2022-23 में 122.67 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गया था, लेकिन 2023-24 में यह घटकर 115.76 लाख मीट्रिक टन रह गया है। इसी तरह, उड़द का उत्पादन 2021-22 और 2022-23 में 27.76 लाख मीट्रिक टन और 26.31 लाख मीट्रिक टन तक पहुंचने के बाद 2023-24 में घटकर 23 लाख मीट्रिक टन रह गया है। मूंग का उत्पादन भी पिछले साल के मुक़ाबले 36.76 लाख मीट्रिक टन से घटकर इस साल 29.16 लाख मीट्रिक टन रह गया है।

कम खरीद और घटता स्टॉक

खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग द्वारा मासिक रूप से प्रकाशित खाद्यान्न बुलेटिन के अनुसार, जून 2024 तक केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक 299.05 लाख मीट्रिक टन था, जो जून 2023 की तुलना में 5 फीसदी कम है, जब यह 313.88 लाख मीट्रिक टन था। कुछ साल पहले, 2021 में, जून में गेहूं का स्टॉक 602.91 लाख मीट्रिक टन था। अप्रैल 2024 में, गेहूं का स्टॉक 16 साल के निचले स्तर 75.02 लाख मीट्रिक टन पर आ गया था, जो स्टॉकिंग के मानदंड यानी 74.60 लाख मीट्रिक टन से थोड़ा ही ऊपर था। तब से खरीद ने स्टॉक को बढ़ा दिया है, लेकिन जैसा कि हम नीचे देख सकते हैं, कम खरीद के कारण स्टॉक अपर्याप्त हो गया है। इस बीच, जून 2024 में चावल का स्टॉक 325.18 लाख मीट्रिक टन बताया गया, जो जून 2023 के स्तर से बहुत अधिक है जो 262.23 लाख मीट्रिक टन था।

संकट की कुंजी खरीद में निहित है। इस वर्ष, गेहूं खरीद का लक्ष्य 310 लाख मीट्रिक टन था, लेकिन खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के पास उपलब्ध नवीनतम रिपोर्टों के अनुसार, वर्तमान में गेहूं की खरीद 260.71 लाख मीट्रिक टन हुई है, जिसमें से अधिकांश खरीद पूरी हो चुकी है। यह लगभग पिछले वर्ष (262 लाख मीट्रिक टन) के समान स्तर पर है और 2021-22 से अधिक है, जब यह घटकर केवल 187 लाख मीट्रिक टन रह गया था। लेकिन उससे पहले 2020-21 में गेहूं की खरीद 433 लाख मीट्रिक टन तक पहुंच गई थी।

यह उतार-चढ़ाव क्यों? एक महत्वपूर्ण कारक सरकारों (मुख्य रूप से राज्य एजेंसियों) द्वारा खरीद के लिए तंत्र स्थापित करने के लिए किए गए प्रयास हैं। उदाहरण के लिए, एक महत्वपूर्ण तत्व खरीद केंद्र हैं - यदि खरीद तंत्र को अधिक संख्या में स्थापित किया जाता है और ये प्रभावी ढंग से काम करते हैं, तो किसानों को वहां बेचना सुविधाजनक लगेगा। अन्यथा यदि ये केंद्र दूर-दराज में होते हैं, तो कम संसाधनों वाले छोटे किसान अपनी उपज को इन केंद्रों तक ले जाने के बजाय व्यापारियों को कम कीमतों पर अपना गेहूं बेचना पसंद करेंगे।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मौजूदा खरीद सीजन में 21,080 खरीद केंद्रों की “योजना बनाई गई” थी जबकि कथित तौर पर केवल 12,197 केंद्रों पर ही “कारोबार” हुआ, यानी कोई खरीद हुई है। स्वाभाविक रूप से, इससे अप्रभावी खरीद होगी।

मई 2024 के खाद्यान्न बुलेटिन के अनुसार, मध्य प्रदेश ने मई के अंत तक केवल 48.38 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदा है, जबकि पिछले साल 70.97 लाख मीट्रिक टन और 2021-22 में 128.16 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदा गया था। दिलचस्प बात यह है कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब केंद्रीय कृषि मंत्रालय हैं। उत्तर प्रदेश ने इस साल 9.27 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदा है, जो पिछले साल 2.2 लाख मीट्रिक टन से अधिक है, लेकिन 2021-22 में खरीदे गए 56.41 लाख मीट्रिक टन से काफी कम है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर मंडराता खतरा

कम खरीद का सीधा मतलब है कि पीडीएस के माध्यम से वितरण के लिए कम खाद्यान्न का उपलब्ध होना। या, सरकार के लिए खुले बाजार में बिक्री के लिए खाद्यान्न जारी करने और कीमतों को नियंत्रित करने की गुंजाइश सीमित है। पिछले साल, सरकार ने गेहूं की कीमतों पर लगाम लगाने के प्रयास में अपने स्टॉक से 100 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले बाजार में बेचा था। इससे कुछ हद तक मदद मिली। इस साल यह कैसे होने वाला है, यह कोई नहीं जानता है। उद्योग लॉबी पहले से ही मांग कर रही है कि गेहूं का आयात किया जाना चाहिए, हालांकि सरकार ने घोषणा की है कि मौजूदा 40 फीसदी आयात शुल्क जारी रहेगा, इस प्रकार इसने आयात की संभावना को रोक दिया गया है।

कुछ साल पहले, खाद्यान्नों के केंद्रीय भंडार में गेहूं की कमी के कारण, सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेहूं की जगह मोटे अनाज या चावल को शामिल किया था। यह बात लोगों के एक बड़े वर्ग को पसंद नहीं आई, जिन्होंने गेहूं के लिए सांस्कृतिक वरीयता के अलावा बाजरे की खराब गुणवत्ता की शिकायत की थी।

लेकिन बड़ी तस्वीर चिंताजनक है

किसानों को अपनी उपज निजी व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, कभी बेहतर कीमतों के कारण, तो कभी ढीली खरीद प्रणाली के कारण। यह पूरी सरकारी व्यवस्था को खत्म कर देगा, जिसका असर पीडीएस और अंततः खुले बाजार की कीमतों पर पड़ेगा। क्या सरकार अपने नए अवतार में उभरते इस संकट को समझ रही है या इसे वह अवसर मान रही है, जिसे वह अब निरस्त किए गए तीन कृषि कानूनों के साथ हासिल नहीं कर पाई, क्या कोई भी इसका अनुमान लगा सकता है।

मूलतः अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Record Harvest, Rising Prices, Falling Procurement

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