गेहूं के संकट से कैसे निपटेगी मोदी सरकार?
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, इस साल जून के अंत में, गेहूं की सरकारी खरीद लगभग 188 लाख टन थी, जो पिछले साल के मुक़ाबले 433 लाख टन काम यानि 57 प्रतिशत कम है। पिछले दो दशकों में यह सबसे कम खरीद है। 2002 में गेहूं की खरीद 164 लाख टन कम थी। ज़ाहिर है दो दशक पहले जनसंख्या भी काफी कम रही होगी।
इससे जुड़ा एक और परेशान करने वाला तथ्य यह है: सरकारी गेहूं का स्टॉक 14 साल के निचले स्तर यानि 311 लाख टन पर आ गया है। पिछली बार इससे कम स्टॉक 2008 में था, जब जून में सरकारी गोदामों में 241 लाख टन अनाज़ ही बचा था। निश्चित रूप से यह एक खराब मानवाला सून वर्ष था, इसलिए उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ था।
नीचे दिए गए चार्ट में दिखाए गए कम खरीद के आंकड़ों और स्टॉक की स्थिति ने अब तक नई दिल्ली में खतरे की घंटी बजा दी होगी। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 1 जुलाई, 2022 को, गेहूं का स्टॉक 285 लाख टन तक गिर गया था, जो जुलाई में 275.8 लाख टन के वैधानिक स्टॉकिंग मानदंड से सिर्फ 10 लाख टन अधिक था। आने वाले महीनों में इसके परिणाम गंभीर होंगे; यदि कोई प्राकृतिक आपदा आ जाती है या अचानक गेहूं के वितरण की जरूरत पड़ जाती है, तो ऐसी स्थिती के लिए स्टॉक खतरनाक रूप से कम है। फिर, राशन प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से वितरण का सवाल भी है। इसके अंतर को कैसे पूरा किया जाएगा?
हालांकि, मई महीने में अंतिम समय में गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध और आटा और अन्य उत्पादों पर निर्यात की सीमा लगाने के बाद, सरकार ने एकमात्र जो कार्रवाई की वह यह कि इसने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेहूं के बजाय चावल का वितरण शुरू कर दिया, जिससे गेहूं की खपत करने वाले राज्यों में असंतोष पैदा हुआ है।
इस साल का उत्पादन पिछले साल लगभग 1090.59 लाख टन से घटकर 1060.41 लाख टन हो गया है, जिसका मुख्य कारण मार्च के अंत और अप्रैल में अत्यधिक और असामान्य गर्मी का होना है। हालांकि, इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि खरीदे गए 187 लाख टन गेहूं में से करीब 75 लाख टन सूखा हुआ अनाज बताया जा रहा है।
कई राज्यों के लिए आवंटन में कमी
भविष्य में आने वाले गेहूं संकट के प्रति मोदी सरकार का अड़ियल रवैया पहले से दिखाई दे रहा था, जब उसने पहले गेहूं के निर्यात को प्रोत्साहित किया और फिर अचानक खतरे का एहसास हुआ तो निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। उस समय तक, खरीद में भारी गिरावट होने से नुकसान हो चुका था क्योंकि सरकार के द्वारा गेंहू न खरीदने से व्यापारियों ने किसानों से गेहूं उठा लिया था।
4 मई को, सरकार ने स्थिति को संभालने के लिए मलहम लगाना शूरु कर दिया। इसने घोषणा की कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत गेहूं आवंटन में शेष पांच महीनों (सितंबर तक) तक 55 लाख टन की कटौती की जाएगी और इसके बदले चावल दिया जाएगा।
फिर, 14 मई को, खाद्य सचिव सुधांशु पांडे ने घोषणा की कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से वितरण के लिए राज्यवार आवंटन में गेहूं से चावल के अनुपात में बदलाव किया जा रहा है। 60:40 के अनुपात में गेहूं और चावल पाने वाले राज्यों को यह 40:60 के अनुपात में मिलेगा, जबकि 75:25 में मिलने वालों को यह 60:40 के अनुपात में मिलेगा। खाद्य मंत्रालय ने दावा किया कि इन बदलावों से चालू वित्त वर्ष के शेष दस महीनों (जून-मार्च) में लगभग 61 लाख टन गेहूं की बचत होगी।
दस राज्यों: बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु के लिए गेहूं का आवंटन कम कर दिया गया था। ये राज्य पीडीएस के अंतर्गत आने वाले लगभग 81 करोड़ लाभार्थियों में से लगभग 55 करोड़ (यानि 67%) हैं। इन बदलावों के साथ, इन राज्यों के लिए गेहूं का आवंटन पहले के 15.36 लाख टन से घटकर 9.39 लाख टन हो जाएगा। इस अंतर (करीब 6 लाख टन) की भरपाई चावल से की जाएगी।
हालांकि केंद्र सरकार ने दावा किया है कि यह सब राज्य सरकारों के परामर्श से किया जा रहा है, यदपि, दो भाजपा शासित राज्यों, गुजरात और उत्तर प्रदेश ने अपने मूल आवंटन की बहाली की मांग की है। यूपी को पीडीएस में प्रति व्यक्ति/प्रति माह 3 किलो गेहूं और 2 किलो चावल मिल रहा था, जिसे बदलकर 2 किलो गेहूं और 3 किलो चावल कर दिया गया है। गुजरात में प्रति व्यक्ति/प्रति माह 3.5 किलो गेहूं और 1.5 किलो चावल मिल रहा था, जिसे बदलकर 2 किलो गेहूं और 3 किलो चावल कर दिया गया है।
केंद्र सरकार ने उत्तराखंड, केरल और तमिलनाडु के लिए "टाइड ओवर" गेहूं आवंटन में 1.13 लाख टन की कटौती की है। यह आवंटन पहले से लक्षित पीडीएस (टीपीडीएस) योजना के दौरान आवंटन के औसत स्तर को बरकरार रखने के लिए किया जाता है जिसे एनएफएसए द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
आने वाले समय में क्या होगा?
पिछले रिकॉर्ड के अनुसार, इस बात की संभावना है कि सितंबर के बाद पीएमजीकेएवाई समाप्त हो जाएगी। यह कुछ ऐसी बात है जिसे सरकार करना चाहती थी लेकिन चुनावी कारणों ने इसे इसे जारी रखने पर मजबूर होना पड़ा। इससे बहुत असंतोष पैदा होने की संभावना है क्योंकि कमाई अभी भी कम है, बेरोजगारी अभी भी अधिक है, और अर्थव्यवस्था की तथाकथित रिकवरी या सुधार अभी भी एक दूर का सपना है।
लेकिन पीडीएस के माध्यम से खराब गुणवत्ता, सिकुड़ा हुआ गेहूं और वह भी कम मात्रा में वितरित करने के परिणाम भी अधिक गंभीर होंगे, और फिर गेंहू को चावल के साथ बदलने से भी असंतोष बना रहेगा। 2011-12 में राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) द्वारा किए गए अंतिम पूर्ण उपभोग व्यय सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, दिल्ली और महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति गेहूं की खपत अखिल भारतीय औसत 4.288 किलोग्राम (ग्रामीण) और 4.011 किलोग्राम (शहरी) प्रति माह थी, जबकि गुजरात और झारखंड में, ग्रामीण क्षेत्रों में गेहूं की खपत इस औसत से कम थी, लेकिन शहरी क्षेत्रों में अधिक थी। ओडिशा, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में, प्रति व्यक्ति प्रति माह औसत गेहूं की खपत अखिल भारतीय औसत से कम थी।
इसलिए, उन राज्यों में असंतोष पैदा होना तय है जहां गेहूं की जगह चावल ने ले ली है। यह पहले से ही यूपी और गुजरात द्वारा उठाई गई आपत्तियों में दिखाई दे रहा है। हालाँकि, इन राज्य सरकारों के पास केंद्र सरकार की धृष्टता के सामने कई विकल्प नहीं होंगे।
इस सब का मतलब यह है कि परिवार या तो खराब गुणवत्ता वाले गेहूं खाएँगे, और चावल की ओर रुख कर लेंगे, या शायद खुले बाजार से गेहूं खरीदने की कोशिश करेंगे। पिछले एक साल में थोक आटे की कीमतों में 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, और निर्यातकों के खुले बाजार में वापस आने से जिनके पास अनाज का ढेर है, से भी कीमतों में गिरावट की संभावना नहीं है। पहले से ही धधकती महंगाई की स्थिति में गरीब लोगों द्वारा खुले बाजार में गेहूं की खरीद उनकी लड़खड़ाती आर्थिक स्थिति के लिए एक और झटका होगी।
और, याद रखें, गेहूं की जगह चावल का इस्तेमाल होने का मतलब यह होगा कि चावल का स्टॉक भी कम हो जाएगा। अब कोई भी केवल यह उम्मीद कर सकता है कि चालू खरीफ सीजन में चावल के उत्पादन में कोई महत्वपूर्ण गिरावट न आए, हालांकि धान की बुवाई पिछले साल की तुलना में मानसून की देरी की वजह से लगभग 17 प्रतिशत कम होने की आशंका है।
घटनाओं की यह पूरी की पूरी श्रृंखला जो स्थिति सामने लाती है, वह मोदी सरकार द्वारा देश के सामने से आने वाले संकट का अनुमान लगाने और उसे संभालने में पूर्ण अक्षमता को दर्शाती है, भले ही इसमें लाखों परिवारों की खाद्य आपूर्ति का मसला ही क्यों न शामिल हो। गलत तरीके से निर्यात को प्रोत्साहन देने से लेकर आवंटन में नौकरशाही वाली कटौती करना और गेहूं की जगह चावल देना, और खराब गुणवत्ता वाले गेहूं तथा खरीफ चावल की फसल में संभावित कमी को लेकर कोई तैयारी न करना आदि, कुप्रबंधन की एक अफ़सोसजनक कहानी है।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः
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