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दुनिया भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रवाद को कैसे देखती है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं की जमकर आलोचना हो रही है।
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प्रतीकात्मक छवि। साभार: विकिमीडिया कॉमन्स

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अंतर्राष्ट्रीय यात्राएं लगातार चल रही हैं, जबकि मणिपुर हिंसा में निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं और असहाय पीड़ितों को शरणार्थी शिविरों में विस्थापित किया जा रहा है। अपनी पिछली सरकार में, यानी 2014 से 2019 तक, उन्होंने हर महाद्वीप के देशों की यात्रा कर एक अविश्वसनीय रिकॉर्ड बनाया था। दूसरे कार्यकाल में, मुख्य रूप से कोविड-19 महामारी के कारण उनकी ये यात्राएं धीमी पड़ गई थीं। लेकिन वे फिर से शुरू हो गई हैं, और उनके साथ चलने वाला प्रचार भी वापस आ गया है। कथित तौर पर, उन्होंने भारत की छवि को ऐसे स्तर पर पहुंचाया है, कि जैसे वे एक महान विश्व नेता हैं, और भारत न केवल "लोकतंत्र की जननी" है बल्कि एक "संपन्न लोकतंत्र" भी है।

दुनिया में कई स्वतंत्र संस्थाएं हैं जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता पर निगरानी रखती हैं और उनके मुताबिक भारत का स्तर गिर रहा है। अधिकांश अंतरराष्ट्रीय और घरेलू सूचकांकों में भारत निचले पायदान के करीब पहुंच गया है। अब, भारत के प्रधानमंत्री को कई मुस्लिम-बहुल देशों की यात्रा के दौरान सम्मानित किया गया है, लेकिन उनमें से कई देश लोकतांत्रिक नहीं हैं और, इससे भी अधिक, वे भारत के साथ व्यापार और रणनीतिक संबंध विकसित करने के इच्छुक हैं, इसलिए नहीं कि यह देश लोकतंत्र की "मां" हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस जैसे पश्चिमी लोकतंत्र, आर्थिक और राजनीतिक कारणों से भारत के और करीब आ सकते हैं, या भारत के मानवाधिकार रिकॉर्ड, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों की स्थितियों को नजरअंदाज करने का विकल्प चुन सकते हैं।

पिछली सरकारों में पश्चिमी दुनिया के साथ भारत के संबंध कहीं अधिक अच्छे थे। भारत गुटनिरपेक्षता का झंडाबरदार था, और जैसे-जैसे देश के भीतर लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई और अल्पसंख्यकों की मुश्किलें कम हुई, तो ऐसी स्थिति में भारत बड़ी शक्तियों से भी ईमानदारी से हाथ मिला सकता था। जवाहरलाल नेहरू की लोकतंत्र के प्रति निष्ठावान कार से शुरू होकर, पश्चिमी मीडिया और संस्थान भारत की आंतरिक स्थिति के प्रति इतने आलोचक नहीं थे। लेकिन अब वह आलोचक हैं। वर्तमान में, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस प्रधानमंत्री मोदी के लिए रेड कार्पेट बिछा रहे हैं, उन देशों में भारतीय सत्तारूढ़ पार्टी की नीतियों के खिलाफ गंभीर और अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों को डराने और धमकाने की कोशिश करने वाली नीतियों के कई आलोचक हैं।

जहां मोदी की अमेरिका और फ्रांस की हालिया यात्राओं को कार्यालयों में बैठे बड़े पदों वाले लोगों से प्रशंसा मिल रही थी, तो वहीं उन देशों के प्रमुख अख़बारों में आलोचनात्मक संपादकीय विरोध प्रदर्शन, और यूरोपीय संसद जैसे संगठनों द्वारा प्रास्ताव पारित होते भी दिखे। विरोध करने या असहज सवाल पूछने वालों को "भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप" के लिए ट्रोल किया गया या आलोचना की गई, लेकिन मुद्दा यह है कि भारतीय समाज के सबसे कमजोर वर्गों के साथ किए गए अत्याचारपूर्ण व्यवहार को अब कालीन के नीचे छिपा कर नहीं रखा जा सकता है। यह इंटरनेट का युग है, जिसने दुनिया को छोटा कर दिया है, और साहसी पत्रकारों और कार्यकर्ताओं की ग्राउंड रिपोर्ट ने मानवाधिकारों के उल्लंघन का खुलासा किया है। अपराधियों को पूरी छूट और हुकूमत का दूसरी ओर देखना अब भारत का "रहस्य" नहीं रह गया है भले ही सरकार सीधे तौर पर अन्याय को प्रोत्साहित न करती हो।

अमेरिका में, जबकि राष्ट्रपति जो बाइडेन को हमारे प्रधानमंत्री से गले मिलने का अवसर हासिल हुआ, तो वे मोदी को व्हाइट हाउस में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करने के लिए राजी करा सकते थे। लेकिन मोदी मात्र दो सवालों के जवाब देने को तैयार हुए और इससे स्थिति स्पष्ट हो गई। वॉल स्ट्रीट जर्नल की सबरीना सिद्दीकी ने उनसे पूछा कि उनकी सरकार भारत में अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ कथित भेदभाव को रोकने के लिए क्या कर रही है। बेशक, बाइडेन ने इस मुद्दे को सार्वजनिक रूप से इसलिए नहीं उठाया, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका भारत को अपने अगले दक्षिण एशियाई सहयोगी के रूप में विकसित कर रहा है (पाकिस्तान की जगह लेने के लिए, जो अब स्पष्ट रूप से पश्चिम एशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका के लक्ष्यों के लिए सहायक नहीं रहा है)।

अब भारत को चीन की तरक्की का मुकाबला करने के लिए अंकल सैम के साथ सहयोग करने के लिए तैयार किया जा रहा है। सिद्दीकी के सवाल पर, मोदी ने कुछ गैर-जरूरी जवाब दिए कि 'हम एक लोकतंत्र हैं, हम भेदभाव नहीं करते हैं' इत्यादि-इत्यादि। जवाब में, भाजपा की अच्छी तरह से तैयार की गई ट्रोल सेना को सिद्दीकी के खिलाफ उतारा गया। ट्रोलिंग इतनी तीव्र थी कि व्हाइट हाउस के प्रवक्ता को उनके बचाव में आना पड़ा और दोहराया कि वे पत्रकारों के इस तरह के उत्पीड़न को अस्वीकार करते हैं।

जो बाइडेन जो चीज नहीं कह सके उसे संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा। उन्होंने सीएनएन पर एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं की गई, तो भारत टूट सकता है। उन्हें भी भाजपा के असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने ट्रोल किया, और कहा कि भारत में "हुसैन" ओबामा हैं जिनसे निपटा जाना हैं। कुल मिलाकर, अपनी विदेशी यात्राओं के दौरान मोदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के अलावा, प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखे के प्रमुख लेख में मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों का विवरण दिया। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका की सहयोगियों की पसंद की आलोचना करते हुए लिखा, "अमेरिकी सरकार ने जिन अद्भुत लोगों को साझेदार के रूप में तैयार किया उनमें ईरान के शाह, पाकिस्तान के जनरल मोहम्मद जिया उल-हक, अफगान मुजाहिदीन, इराक के सद्दाम हुसैन, की एक पूरी की पूरी श्रृंखला दक्षिण वियतनाम में टिन-पॉट तानाशाहों और चिली के जनरल ऑगस्टो पिनोशे जैसे शामिल हैं।" अमेरिकी विदेश नीति का एक केंद्रीय सिद्धांत, अक्सर, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए लोकतंत्र है, वह खुद के (गैर-श्वेत) दोस्तों के प्रति तानाशाही रहा है।

फ़्रांस का मामला भी अलग नहीं था; राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने मोदी का गर्मजोशी से स्वागत किया और दोनों लोकतंत्रों के बीच दोस्ती की प्रशंसा की गई, जबकि यूरोपीय संसद के स्ट्रासबर्ग सत्र में मणिपुर में हिंसा और भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति से संबंधित छह प्रस्ताव पेश किए गए, और एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों के ‘उत्पीड़न, और हिंदू बहुसंख्यकवाद पर चिंता जताई गई थी।

फ्रांस के अग्रणी समाचार पत्र ले मोंडे ने भारत में अल्पसंख्यकों और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के साथ खराब व्यवहार की निंदा करते हुए कहा लिखा कि: "क्या हम इस तथ्य को नजरअंदाज कर सकते हैं कि मोदी के नेतृत्व में भारत एक गंभीर संकट से गुजर रहा है, जिसमें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, गैर सरकारी संगठन और पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं?”

क्या हमें प्रमुख समाचार पत्रों की इन टिप्पणियों, विरोध प्रदर्शनों और ओबामा जैसे लोगों की राय को बाहरी हस्तक्षेप के रूप में लेना चाहिए, या हमारे देश के उभरते मानदंडों और संस्कृति को सुधारने के लिए आत्मनिरीक्षण करना चाहिए? ये वो सवाल है जिसका जवाब जनता को देना होगा।

(लेखक एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

How Does World see Indian Democracy and Nationalism?

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