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कैसे असम बीफ़ को एक संघीय मुद्दा बनाने पर तुला हुआ है

असम का नया मवेशी संरक्षण विधेयक संविधान के अनुच्छेद 48 का उल्लंघन करता है और राज्य में गोरक्षकों की गुंडागर्दी को बढ़ावा देगा।
कैसे असम बीफ़ को एक संघीय मुद्दा बनाने पर तुला हुआ है

असम मवेशी संरक्षण विधेयक, 2021, पशु-व्यापार, उनके वध और राज्य में गोवंश के मांस की बिक्री और खरीद को नियंत्रित करने का लक्ष्य रखता है। फिर हिंदुत्व के उफान वाले दौर में इस विधेयक से असम के अलावा मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों में लोगों के भीतर चिंता की लहरें उमड़ आई हैं।

इन राज्यों को लगता है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा की गौ-संरक्षण की चाहत से बीफ़ की आपूर्ति मांग से कम हो पाएगी और कीमतों में भारी इज़ाफा हो जाएगा। यह चिंताएं पूर्वोत्तर की अजीबो-गरीब़ भौगोलिक स्थिति के चलते उपजी हैं। बता दें ऊपर उल्लेखित 6 राज्यों में बीफ की आपूर्ति असम के रास्ते होती है।

हालांकि सरमा के विधायी उपाय मवेशियों के अंतर्राज्यीय परिवहन की अनुमति देते हैं, बशर्ते व्यापारियों और इन्हें लाने-ले जाने वाले लोगों ने सरकार से वैधानिक अनुमति ले रखी हो। बहुत बड़े पैमाने पर माना जा रहा है कि मवेशी संरक्षण विधेयक, 2021 से अनावश्यक निगरानी बढ़ेगी और पशु व्यापार बदतर स्थिति में पहुंच जाएगा। यह डर मेघालय के मुख्यमंत्री कोनरा़ड संगमा ने कुछ इन शब्दों में बयां किया है, "हम यह मुद्दा ना केवल असम सरकार के सामने उठाएंगे, बल्कि अगर इस कानून ने दूसरे राज्यों से मेघालय में मवेशी लाने की प्रक्रिया को बाधित किया, तो हम केंद्र के सामने भी इस मुद्दे को पेश करेंगे।"

मेघालय की खासी जयंतिया कसाई संगठन के महासचिव जेनेरस वालारपिह ने कहा कि गुवाहाटी और शिलांग में बीफ़ की कमी की बात सामने आ रही है। वे कहते हैं, "बल्कि, गुवाहाटी में खासतौर पर अब बीफ़ एक दुर्लभ वस्तु बनता जा रहा है। बता दें मेघालय अपनी जरूरत का 90 फ़ीसदी से ज़्यादा बीफ़ दूसरे राज्यों से असम के रास्ते आयात करता है।"

उत्तरपूर्व की आबादी का बड़ा हिस्सा बीफ़ और पोर्क (सुअर का मांस) का सेवन करता है। लेकिन फिर भी भारत में बीफ़ की खपत के आंकड़े मिलना मुश्किल है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस की रिपोर्टों से अकादमिक जगत के लोगों ने कुछ जानकारी के ज़रिए भारत में बीफ़ की खपत का एक अनुमान लगाने की कोशिश की है। जनवरी, 2019 को प्रकाशित किए गए एक पेपर में दावा किया गया कि पिछले कुछ सालों में मेघालय में सालाना 1.89 लाख पशुओं का वध किया गया। इनमें से 40 फ़ीसदी पशु बाहर से राज्य में आए। यह पेपर ‘इंडियन जर्नल ऑफ़ एनिमल साइंस’ में प्रकाशित हुआ था। 

इंडियन जर्नल ऑफ़ एनिमल साइंस में प्रकाशित इस पेपर में सुमित महाजन, जनालिन एस पापांग और के के दत्ता ने अनुमान लगाया कि पूर्वोत्तर के 8 राज्यों में 2009-10 में भारत की कुल बीफ़ खपत की 9.98 फ़ीसदी खपत हुई थी। 2011 में भारत की कुल आबादी में इस क्षेत्र की आबादी की हिस्सेदारी सिर्फ़ 3.77 फ़ीसदी थी। इससे पता चलता है कि इन राज्यों में हिंदुओं के अलावा दूसरे धर्म के लोगों में बड़े पैमाने पर बीफ़ खाया जाता है। इसके बाद के दौर में भी यह ख़पत बढ़ने की ही संभावना है। 

यह देखा जा सकता है कि असम के मवेशी संरक्षण विधेयक, 2021 से पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों को उनकी बीफ़ के पकवानों से हाथ धोना पड़ेगा, जिसके चलते उनकी सांस्कृतिक पहचान में हस्तक्षेप होगा। यह कहना बिल्कुल सही है कि इस विधेयक की मंशा धार्मिक है। इसके चलते विधेयक का उद्देश्य पशुवध को नियंत्रित करने के बजाए, बीफ़ खाने वाले लोगों पर अपनी शर्तों को थोपे जाना हो जाता है।

सरमा सरकार संविधान के अनुच्छेद 48 का इस्तेमाल कर इस विधेयक को जरूरी ठहराने की कोशिश कर रही है। अनुच्छेद 48 "गाय, बछड़ों और दूसरे दुधारू और भारा ढोने वाले पशुओं का वध करने पर प्रतिबंध लगाने की वकालत करता है, ताकि कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक तरीकों पर आधारित किया जा सके।"

यहां अनुच्छेद 48 धार्मिक भावनाओं और विश्वासों के आधार पर पशुवध को प्रतिबंधित नहीं करता। बल्कि असम पशुधन संरक्षण अधिनियम, 1950, जिसकी जगह कानून बनने के बाद 2021 का विधेयक लेगा, वह स्पष्ट शब्दों में धर्म का जिक्र नहीं करता। जैसे- यह 14 साल से ज़्यादा उम्र वाली गायों को वध से छूट नहीं देता और "ईद-उल-जुहा और बकरीद के मौके पर किसी भी पशु के वध की अनुमति देता है।

लेकिन इसके उलट 2021 का विधेयक धर्म को उभार कर लाता है। ऐसे में यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद 48 का उल्लंघन है। क्योंकि यह विधेयक 14 साल की उम्र से ज़्यादा, या, काम करने या गर्भधारण करने में अक्षम गायों के वध को रोकता है। यह समझना मुश्किल है कि कैसे एक बीमार और बूढ़ी गाय वैज्ञानिक आधार पर पशुपालन को सहायता करती है।

दूसरी चीज, 2021 का विधेयक हिंदुओं, सिख, जैन या दूसरे "बीफ़ ना खाने वाले समुदायों" की बहुलता वाले इलाकों में बीफ़ का प्रदर्शन, खरीद या बिक्री प्रतिबंधित करता है। इसके अलावा विधेयक मंदिर, सत्र (वैष्णव विहार) और दूसरे धार्मिक संस्थानों के 5 किलोमीटर की परिधि में भी यही प्रतिबंध लागू करता है। पांच किलोमीटर का प्रतिबंध लगाने का तर्क समझ से परे है, क्योंकि बीफ़ तो एक किलोमीटर की दूरी पर भी दिखाई नहीं देता, ना ही उसकी गंध आती है। 

विधेयक के प्रावधान इसे संविधान के साथ विरोधाभास में लाते हैं। इन प्रावाधानों को एक दूसरे कानून के साथ तुलनात्मक तौर पर पढ़िए, जो पशुओं (गाय, बछड़े से इतर) का लाइसेंस से इतर या निश्चित की गई जगह के अलावा किसी जगह पर वध प्रतिबंधित करता है। यह बिल्कुल साफ़ नज़र आ रहा है कि मांस कारखानों के अलावा असम में पशुओं के वध, उनकी बिक्री और खरीद के लिए कोई जगह निश्चित नहीं होगी। असम में पशुवध पर एक अप्रत्यक्ष प्रतिबंध लगाया जा रहा है।

2021 का विधेयक संघ परिवार द्वारा गोवध को एक धार्मिक मुद्दा बनाकर आवाज़ बुलंद के परिणामस्वरूप आया है, जिसका प्रतीक लिचिंग की बेहद भयावह घटनाएं रही हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन साल बाद, मई 2017 में असम में लिंचिंग का पहला मामला दर्ज किया गया था। गुवाहाटी से 125 किलोमीटर दूर नागांव में दो मुस्लियो युवाओं को गाय की चोरी के शक में पीट-पीटकर मार डाला गया था। तीन महीने बाद, गुवाहाटी के पास सोनापुर में एक कट्टर हिंदू समूह ने पशुओं को ले जा रहे वाहनों के तीन चालकों की पिटाई की थी।

अप्रैल, 2019 में बिस्वानाथ चारियाली शहर में एक बुजुर्ग मुस्लिम शख़्स को बुरे तरीके से पीटा गया और सुअर का मांग खाने पर मजबूर किया गया था। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि संबंधित शख़्स अपने रेस्त्रां से बीफ़ बेच रहा था, जबकि उसका परिवार यह काम पिछले 35 साल से कर रहा था। जून, 2021 में तिनसुकिया जिले में गाय चोर होने के शक में एक 28 साल के युवा की लिंचिंग कर दी गई थी। उसका नाम सरत मोहन था। 

2021 के विधेयक से इस तरह की प्रवृत्ति को बल मिलेगा और लोग पशु व्यापार में जाने से हतोत्साहित होंगे। जैसे- 1950 के अधिनियम के तहत किसी शख़्स को 6 महीने की जेल और 1000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। लेकिन 2021 के विधेयक में एक दोषी शख़्स को 3 से 8 साल तक की सजा दी जा सकती है और उसपर 3 से 5 लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। अगर वो अपराध को दोहराता है, तो सजा भी दोगुनी होगी। 

इसके आगे और बुरा यह है कि 2021 के विधेयक में प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले शख़्स को ज़मानत कोर्ट के विवेक के आधार पर मिलेगी। जब तक कोर्ट शख़्स को ज़मानत नहीं देगा, तब तक वह जेल में सड़ता रहेगा। 

मतलब साफ़ है कि पशु व्यापार में शामिल होने का ख़तरा और कीमत काफ़ी बढ़ जाएगी। वैधानिक अनुमति के बिना पशुधन को ले जाने के आरोपी व्यक्ति का वाहन और उसके पशु ज़ब्त किए जा सकेंगे। इसी तरह, तय किए गए अधिकारी ऐसे किसी भी परिसर में घुसने और गाड़ी व पशुओं को ज़ब्त करने की ताकत रखेंगे, जिसके बारे में इन अधिकारियों का सोचना है कि वहां नए विधेयक के तहत कोई अपराध हुआ हो।

इस तरह के प्रावधानों को भविष्य में मुस्लिमों को प्रताड़ित करने वाले उपकरणों के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि यही मुस्लिम असम में बीफ़ के मुख्य उपभोगकर्ता हैं और पशु व्यापार में भागीदार हैं। जैसे- वाहन को उतनी ही राशि की ज़मानत देकर छुड़वाया जा सकता है, लेकिन बरामद किए गए पशुओं को गोशाला भेज दिया जाएगा। गोशाला में पशुओं को रखने का खर्च आरोपी से वसूला जाएगा। अगर आरोप सिद्ध हो जाते हैं, तो पशु और वाहन सरकार की संपत्ति हो जाएंगे।

2021 के विधेयक की धारा 18 कहती है, “अच्छी मंशा से किए गए कृत्य या इस अधिनियम के तहत या यहां बताए गए नियमों के तहत की गई कार्रवाई के लिए किसी भी व्यक्ति पर कोई मुक़दमा, कानूनी प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकेगी, ना ही उसे सजा दी जा सकेगी।” यह प्रावधान 1950 के कानून से हूबहू उठाया गया है। ऐसे प्रावधान आमतौर पर अधिनियमों में सरकारी नौकरों को कानूनी प्रक्रिया से बचाने के लिए शामिल किए जाते हैं।

असम में ऐसा माहौल है कि कई लोग कहते हैं कि धारा 18 में “किसी भी व्यक्ति” को “किसी भी सरकारी नौकर” शब्द पद से बदल देना चाहिए, वहीं कट्टरपंथी हिंदु गोरक्षक समूहों की गतिविधियों की व्याख्या “अच्छी मंशा” के तहत मानकर की जा सकती है। यही 2021 के विधेयक और इसके निर्माता हिमंता बिस्वा सरमा का उद्देश्य है।

यह उदाहरण बताते हैं कि क्यों 2021 का विधेयक पूर्वोत्तर में पशु व्यापार को नुकसान पहुंचाएगा और ना केवल असम में बल्कि इलाके के दूसरे क्षेत्रों में भी बीफ़ की ख़पत कम कर देगा। यह विधेयक अब पूर्वोत्तर के लोगों को अब शेष भारत से अलग महसूस करने की एक और वज़ह देगा। बल्कि आने वाले महीनों में बीफ़ दो राज्यों के आपसी या संघ से राज्यों के टकराव का मुद्दा बन सकता है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

How Assam is Turning Beef into a Federal Issue

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