कैसे चीन पश्चिम के लिए ओलंपिक दैत्य बना
1990 की शुरुआत में, ओलंपिक आंदोलन में शामिल होने के लगभग एक दशक के भीतर बीजिंग ने साल 2000 के ओलंपिक खेलों को आयोजित करने की दावेदारी शुरू कर दी थी। लेकिन तब तक अमेरिका की चीन के प्रति नीति बदलने लगी थी। वह दिन निकल चुके थे जब अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और रोनाल्ड रीगन ने सोवियत संघ की कठोर राजनीति की पृष्ठभूमि में चीन से मित्रवत व्यवहार करना शुरू कर दिया था।
पहले शीत युद्ध के खात्मे के अंत तक, अमेरिका की साम्राज्यवादी भाषणबाजी को दिशा देने के लिए साम्यवाद का विरोध एक ज़रिया बन गया। इसके पक्ष में नवउदारवादी "मानवाधिकारों" का सार्वभौमिक सशस्त्रीकरण किया गया। यह एक ऐसी ज़मीन थी, जो साम्राज्यवादी बुनियाद वाले बुर्जुआ लोकतांत्रिक देशों की तरफ झुकी हुई थी। इस ज़मीन पर प्रतिस्पर्धा के लिए चीन की जिम्मेदारी लगभग माओ के काल जितनी ही थी।
जल्द ही अमेरिका की मुख्यधारा की मीडिया ने बीजिंग की ओलंपिक के लिए दावेदारी का संयुक्त विरोध शुरू कर दिया। यहां तक कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने चीन की नाज़ी जर्मनी से तक तुलना कर दी। इस बारे में हॉन्गकॉन्ग यूनिवर्सिटी के इतिहासकार ज़ू गुओकी 2008 में अपनी किताब़ ओलंपिक ड्रीम्स: चाइना एंड स्पोर्ट्स, 1895-2008 में लिखा, "सवाल साल 2000 के बीजिंग पर उठ रहा था, लेकिन जवाब बर्लिन 1936 से दिया जा रहा था।"
कांग्रेस के दोनों सदनों में बहुमत ने अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ से मानवाधिकार के आधार पर इस दावेदारी को खारिज़ करने की अपील की। लेकिन बीजिंग ओलंपिक आयोजन के लिए हुई हर दौर के मतदान में आगे रहा, लेकिन आखिरी दौर में सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) से 45-43 से हार गया। बाद में यह साफ़ हुआ कि सिडनी आयोजन समिति ने दो मतों की बढ़त सीधे-सीधे रिश्वत (आईओसी द्वारा जैसा बताया गया) द्वारा हासिल की ती, बल्कि लंदन स्थित एक मानवाधिकार समूह के नेतृत्व में चीन के खिलाफ़ एक दुष्प्रचार करने का कार्यक्रम भी चलाया गया था। अंग्रेजी मूल के साम्राज्यवादियों के बीच संबंध मजबूत साबित हुआ और सिडनी ओलंपिक, ऑस्ट्रेलिया द्वारा वहां के मूलनिवासियों के नरसंहार को प्रदर्शित करने वाला मंच बना।
लेकिन अपनी हार और खेलों के पश्चिमी शक्तियों द्वारा राजनीतिकरण से सीख लेते हुए बीजिंग ने एक बार फिर 2008 के लिए आयोजन के लिए अपनी दावेदारी करना शुरू कर दिया। इस बार बीजिंग आसानी से जीत गया, चीन के साथ इस बार साल 2000 की हार के चलते उपजी बड़े पैमाने की सहानुभूति थी। साथ ही एक तीक्ष्ण प्रचार अभियान भी था, जिसका उद्देश्य उन हमलों को विफल करना था, जिनके चलते चीन को साल 2000 की मेजबानी नहीं मिल पाई थी।
बोली लगाने वाली समिति के अधिकारी वांग वेई ने अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ को भरोसा दिलाया कि "चीन में इन खेलों के आने से ना केवल अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि सभी सामाजिक क्षेत्रों, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और मानवाधिकारों को बढ़ावा मिलेगा।" ओलंपिक शुरू होने के कुछ महीने पहले ही तिब्बत में बड़े स्तर की अशांति को प्रोत्साहन देने के बावजूद, पश्चिमी प्रचार समूहों द्वारा सीमित बॉयकॉट की अपील का कोई फर्क नहीं पड़ा। 2008 का ओलंपिक, इतिहास में चीन के "उभरकर वापसी करने" वाले पल के तौर पर दर्ज किया गया। साथ ही महाशक्ति बनने के क्रम में इसने चीन के आत्मविश्वास को भी बढ़ाया।
बताते चलें कि ओलंपिक के कठोर आलोचक जूल्स बॉयकॉफ की किताब पॉवर गेम्स से मैंने इस लेख समेत अन्य लेखों के लिए शोध करने में काफ़ी मदद ली है। लेकिन वहां भी 2008 में चीन के बारे में बनी इस धारणा का जिक्र नहीं है। ना ही यह बताया गया है कि चीनी इतिहास के व्यापक दायरे में इन खेलों की क्या अहमियत है। इसके बजाए बॉयकॉफ इन खेलों को पूरी तरह कुलीन परियोजना के तौर पर देखते हैं और पूरा ध्यान आलोचनात्मक धारणाओं पर केंद्रित करते हैं, बल्कि 2022 के बीजिंग खेलों में उनकी हालिया टिप्पणी में यह आलोचनात्मकता दोगुनी हो गई है। बीजिंग द्वारा 2008 में ओलंपिक समिति को दिलाए गए भरोसे पर उनकी प्रतिक्रिया में सबसे ज़्यादा ध्यान देने वाली बात रही- "मानवाधिकारों के सपनों की बात कहीं आई ही नहीं। यह बताना जरूरी है कि आज ना तो चीन और ना ही अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ यह घोषणा कर रहा है कि ओलंपिक से लोकतंत्र का विस्तार होगा।"
बॉयकॉफ इस परिघटना को सकारात्मक विकास के तौर पर नहीं देख सके कि इससे चीन का अपने तंत्र में आत्म विश्वास बढ़ा है, जो पश्चिमी साम्राज्यवादियों की शर्तों से मुक्त है। जैसा न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, "सरकारों को पहले इन खेलों को सफल बनाने के लिए अपने आलोचकों को शांत करना पड़ता था, तब चीन ने दुनिया की शर्तें पूरी करने की कोशिश की थी। लेकिन अब दुनिया को चीन की शर्तें माननी होंगी।"
यह ओलंपिक को राजनीतिक लक्ष्य के तौर पर देखने वाले अभियानों में व्यापक विश्लेषण कमी को स्पष्ट करता है। यह विश्लेषण, भिन्न देशों द्वारा की जाने वाली मेजबानी को, साम्राज्यवादी वैश्विक तंत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए देखने से चूक जाते हैं। ओलंपिक और मानवाधिकारों को एक ही वर्ग में रखने से प्रभावी तौर पर, मौजूदा दौर में प्रचलित पश्चिमी समझ को पुख़्ता किया जाता है। व्यवहारिक स्तर पर इसके चलते ओलंपिक की मेजबानी करने वाले, साम्राज्यवादी बुनियाद वाले देशों बनाम् ऐसे देश जो साम्राज्यवादी नहीं रहे, उनके साथ असमान व्यवहार देखा जाता है।
इतना तय है कि ओलंपिक विरोधी अभियान ओलंपिक की मेजबानी करने वाले शहरों में होने वाले सामाजिक विस्थापन का विरोध करने में सही हैं। (मैंने पहले एक ऐसे ही समूह एनओलंपिक्स, एलए के साथ काम किया है, जिसने 2028 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक को अभिजात्यकरण और पुलिसिंग के नस्लीकरण से जोड़ने का शानदार काम किया है।
लेकिन अफ़गानिस्तान पर अवैध अमेरिकी हमले पर नाराज़गी कहां, जब साल्ट लेक सिटी में ओलंपिक आयोजित किया गया था? ब्रिटेन द्वार इराक़ में किए गए युद्ध अपराधों पर नारज़गी कहां थी, जब लंदन में 2012 में ओलंपिक खेल आयोजित किए गए थे? जापान द्वारा अपने साम्राज्यवादी दौर के युद्ध अपराधों को लगातार नकारने पर नाराज़गी कहां है, जबकि 2021 में टोक्यो में ओलंपिक आयोजित किए गए थे? बता दें बॉयकॉफ द्वारा चीन और कजाकिस्तान पर इस तरह के आरोप लगाए गए थे, जबकि यह निश्चित हो गया था कि 2022 के खेलों की मेजबानी के लिए चीन और कजाकिस्तान ही आखिरी दौर में हैं। मतलब यहां सभी मेजबान देशों को "मानवाधिकार के पैमाने पर भयावह" बतलाना, सिर्फ़ साम्राज्यवादी ताकतों के दायरे से बाहर रहने वाले देशों के लिए है।
अपने शैशव दौर में मौजूद, बहुराष्ट्रीय ओलंपिक विरोधी आंदोलन को इन वैचारिक अंधानुकरण करने वाले तत्वों से आगे जाने की जरूरत है। तभी यह आंदोलन 1960 और 1970 के दशक के महान नस्लभेद विरोधी आंदोलन की बराबरी कर पाएगा, जिसने अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति को हिला दिया था। लेकिन ओलंपिक विरोधी आंदोलन में यह फिलहाल दिखाई नहीं देता, क्योंकि बॉयकॉफ और उनके साथी "वामपंथी" खेल लेखक डेव जिरिन, 2022 के खेलों पर अपनी कवरेज में फिलहाल ज़िनजियांग और पेंग शुआई के मामले में अमेरिकी गृह विभाग की स्थिति की बात को ही आगे बढ़ा रहे हैं।
नई उभरती ताकतें
आप यह पूछ सकते हैं कि चीन अंतरराष्ट्रीय खेल की दुनिया में ओलंपिक में पीछे रहने के अपने सालों (1952 से 1980) में क्या कर रहा था? अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ "पिंग पॉन्ग कूटनीति" का बहुत अच्छा दस्तावेज़ीकरण पहले ही हो चुका है, जिससे हमें एक भद्दे "उत्तरी ऐतिहासिक-भौगोलिक" पक्षपात का पता चलता है। लेकिन अब जब चीन और पश्चिम के बीच 'अलगाव' की अपील की जा रही हैं और "बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव" से दक्षिण-दक्षिण सहयोग की बात हो रही है, तब GANEFO (गेम्स ऑफ़ द न्यू इमर्जिंग फोर्सेज़) के दबे इतिहास को बताना जरूरी हो जाता है।
GANEFO साम्राज्यवाद विरोधी इंडोनेशिया की सुकर्णों सरकार के तेज-तर्रार कदम से उपजा था। सुकर्णो साम्राज्यवादी विरोधी दूरदर्शी नेता थे, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सह-संस्थापक भी थे। इंडोनेशिया ने 1962 के एशियाई खेलों के मेजबान के तौर पर इज़रायल और च्यांग काई शेक की कुओमिंतांग सत्ता को खेल का न्योता देना से इंकार कर दिया था। जिसके चलते इंडोनेशिया को अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति से निष्कासित कर दिया गया था।
जवाब में सुकर्णो ने कहा,
"अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने खुद को साम्राज्यवादी उपकरण साबित किया है। अब खुलकर कहें तो खेलों का राजनीति से कुछ ना कुछ तो लेना देना है। अब इंडोनेशिया खेलों को राजनीति के साथ मिलाने की घोषणा करता है और अब "गेम्स ऑफ द न्यू इमर्जिंग फोर्सेज़- GAENFO" को स्थापित करते हैं।।।। जो पुरानी वैश्विक व्यवस्था के खिलाफ़ उठाया गया कदम होगा।"
1963 में इन खेलों को मदद करने के लिए चीन उत्साह के साथ आगे आया। चीन ने 48 देशों के 2200 एथलीट्स की जकार्ता यात्रा का खर्च उठाया, इनमें से ज़्यादातर देश वैश्विक दक्षिण में स्थित थे। चीन ने इस खेल में सबसे ज़्यादा पदक हासिल किए। दूसरे नंबर पर सोवियत दल और इंडोनेशियाई मेजबान रहे। तीसरी दुनिया के देशों से उभरे खिलाड़ियों ने इन खेलों को खूब सहयोग किया।
अब कभी कोई दूसरा GANEFO नहीं होगा, क्योंकि अमेरिका समर्थित तख़्तापलट ने सुकर्णो को 1965 में सत्ता से बेदखल कर दिया और सुहर्तो की तानाशाही को स्थापित कर दिया। लेकिन आज इतिहास का यह प्रकरण बेहद अहम हो जाता है। बीजिंग 2022 और कूटनीतिक बॉयकॉट (भले ही वो कितनी असफल रही हों) की सीखें बताती हैं कि अमेरिका और वैश्विक उत्तर में उसके साथी कभी चीन को अपने कुलीन समूह का हिस्सा नहीं मानेंगे।
फिलहाल मेजबान के तौर पर चीन के अधिकारियों द्वारा खेलों के राजनीतिकरण की निंदा करने के दबाव को समझा जा सकता है। लेकिन चीन और दुनिया के लोगों के लिए यह बुद्धिमानी भरा होगा कि वे याद रखें कि कामग़ारों और वंचित देशों द्वारा ओलंपिक का राजनीतिकरण का एक लंबा और उजला इतिहास रहा है। चीन का इस परंपरा में उच्च स्थान है, जिसपर उसे गर्व हो सकता है।
यह लेख पहली बार कियाओ पर प्रकाशित किया गया था। इसे ग्लोबट्रॉटर के साथ साझेदारी में सह-प्रकाशित किया गया है। चार्ल्स सू कियाओ कलेक्टिव और नो कोल्ड वार कलेक्टिव के सदस्य हैं।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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