पंजाब के दलित कैसे किसान आन्दोलन का हिस्सा बन गए?

संत रविदास और अंबेडकर की छवियों वाले फ्लेक्स को हाथों में थामे हुए गुरप्रीत लल्ली अपने दोस्तों से बार-बार फोटो खींचने का आग्रह कर रहे हैं, जिसे वे किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन में अपनी भागीदारी के यादगार के तौर पर भविष्य के लिए सहेज कर रखना चाहते हैं।
लल्ली, सत गुरु रविदास धर्म समाज, लुधियाना के अपने दल-बल के साथ दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर हाल ही में लागू किये गए तीन कृषि कानूनों और प्रस्तावित बिजली (संशोधन) विधेयक को निरस्त किये जाने की माँग को लेकर डेरा डाले हुए है, जिसकी तुलना किसानों के संगठनों ने भारतीय कृषि की ताबूत में कील ठोंकने से की है।
लल्ली जोकि पंजाब में रविदसिया जाति (दलित) से आते हैं, ने बताया कि ये कानून हाशिये पर पड़े समुदायों की उन्नति के लिए एक बड़ा झटका साबित होने जा रहे हैं, जिसे उन्होंने दशकों के संघर्ष के बाद जाकर हासिल किया था। न्यूज़क्लिक से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा “पारंपरिक तौर पर अधिकांश दलित समुदाय भूमिहीन थे। यह हमारे लंबे और कड़ी मशक्कत से किये गए संघर्ष का ही परिणाम है जिसके चलते हमारी पंचायतों में हमें जमीन के पट्टे हासिल हो सके थे। हालाँकि ये जमीनें इतनी पर्याप्त नहीं थी कि इनसे कुछ खास रिटर्न हासिल हो सके। लेकिन अब जबकि इन कानून अनुबंध आधारित खेती और बड़ी जोत-आधारित कृषि की सुविधा को मुहैय्या कराया जा रहा है, तो ऐसे में हम जैसे लोग ही इससे सबसे बुरी तरह से प्रभावित होने जा रहे हैं।”
वे आगे कहते हैं “दूसरी बात यह है, जो कई लोगों को नजर नहीं आ रही है, वो यह है कि एपीएमसी बाजारों में काम करने वाले अधिकतर श्रमिक दलित समुदाय से आते हैं, और एक बार इसके ध्वस्त हो जाने पर उन्हें विस्थापन का सामना करना पड़ेगा। इसलिए यह हमारे लिए दोहरा झटका है, जिन्होंने हाल ही में गरिमापूर्ण एवं सम्मान का जीवन जीना शुरू किया था।”
आँखों में आँसू लिए उन्होंने आगे कहा “अब हमें भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है, क्योंकि आज हम अच्छा कमा खा रहे हैं। मैं जर्मन जूते, कनाडा की बनी कमीज और इटालियन जैकेट पहनता हूँ, क्योंकि हमारे पूर्वजों ने हमारे खातिर संघर्ष किया है। यह अब हमारे जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है। हम इस संघर्ष को बीच में ही नहीं छोड़ सकते।”
सामाजिक भेदभाव की उपस्थिति के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा “हमें उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अन्य राज्यों की तरह खुल्लम-खुल्ला भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है, लेकिन मैं समझता हूँ कि यह अब कहीं ज्यादा छुपे तौर पर जारी है। उदाहरण के लिए स्कूल प्रशासन विद्यार्थियों को अलग-अलग रंगों के आधार विभिन्न हाउस में विभाजित कर देते हैं। मेरे बच्चे रेड हाउस में हैं। दिलचस्प बात यह है कि मैं भी रेड हाउस में ही था। दूसरा, उनके रजिस्टरों में अब धर्म और जाति का कॉलम भी बने हुए हैं। इस नवजात उम्र में वे बच्चों को क्या यही सब सिखा रहे हैं?”
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के प्रति घोर अविश्वास के बारे में पूछे जाने पर लल्ली के बगल में खड़े अवतार सिंह बोल पड़ते हैं “हमें उनकी बातों पर कोई यकीन नहीं रहा। कानून एक लिखित दस्तावेज होते हैं, इसमें मौखिक का कोई मोल नहीं। हमें मौखिक आश्वासनों की कोई दरकार नहीं है। हम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक कानून बनाये जाने को देखना चाहते हैं। उन्होंने किसी भी किसान या उनके संगठनों से उनकी राय (इन कानूनों को पारित करने से पहले) नहीं पूछी थी। कुलमिलाकर हम सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि देश को इस तरह से नहीं चलाया जा सकता है। वे किसी सड़कछाप ज्योतिषि के तोते की तरह बर्ताव कर रहे हैं।”
लागत मूल्यों और अपनी फसल पर मिलने वाले रिटर्न के बारे में बात करते हुए उनका कहना था “यदि मुझे प्रति एकड़ लागत का हिसाब लगाना हो तो हम चावल की पैदावार के लिए एक एकड़ पर 35,000 रूपये नकद खर्च करते हैं, जबकि मैंने अपनी उपज मात्र 60,000 रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से बेची थी। गेंहूँ पर भी इसी प्रकार के रिटर्न की उम्मीद की जा सकती है। यदि सरकार ने एमएसपी पर कानून पारित कर दिया तो मैं समझता हूँ कि हम कम पानी की खपत वाली फसलों को (जिसमें कम लागत लगेगी) उगा सकने में सक्षम हो सकते हैं।”
मुख्य मंच से दूर खड़े पंजाब राज्य बिजली बोर्ड कर्मचारी संघ के अध्यक्ष अवतार सिंह कैंथ ने महँगाई से लेकर निजीकरण तक के बारे में अपनी चिंताओं को प्रकट किया। कैंथ ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यदि निजी खिलाडियों को जमाखोरी की छूट दी गई तो दलित समुदाय के सदस्य इसके सबसे बड़े भुक्तभोगी साबित होने जा रहे हैं।
उनका तर्क था “हम सुन रहे हैं कि अडाणी एग्रो द्वारा विशाल साइलो का निर्माण चल रहा है। अगर इन जैसे निगमों द्वारा चावल, दालों, सरसों या मूंगफली जैसी आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी की जाती है तो इससे मजदूरों को सबसे अधिक नुकसान होने जा रहा है। उनकी आय वैसे भी पहले से ही कम है। ऐसे में इन खून के इन प्यासे निगमों के बीच कोई भला कैसे जीवित रह सकेगा?”
वे बड़े पैमाने पर निजीकरण और समुदायों पर इसके चलते पड़ रहे प्रभावों को लेकर भी चिंतित दिखे। उनका कहना था “मैं इस बारे में खुद बिजली बोर्ड से एक उदाहरण का हवाला देता हूँ। एक समय बोर्ड ने 1,10,000 स्थायी कर्मचारियों को नियुक्त किया हुआ था। लेकिन लागत में कटौती के नाम पर कर्मचारियों की संख्या को घटाकर इस संख्या को 40,000 तक कर दिया गया है। कई कर्मचारियों को या तो दूसरे विभागों में स्थानांतरित कर दिया गया या कर्मचारियों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति कबूल कर ली थी।”
उन्होंने आगे बताया “अब हमें पुनर्गठन के नाम पर एक ताजा लक्ष्य दिया गया है जिसमें कर्मचारियों की संख्या को अब सिर्फ 25,000 तक कम करने का लक्ष्य रखा गया है। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि कोई भी निजी कंपनी हमारे लिए सीटें आरक्षित करके रखने नहीं जा रहा है। नया बिजली बिल ऐसा प्रतीत होता है कि यह निजीकरण और आउटसोर्सिंग को नया बढ़ावा देने जा रहा है। हमने अब पहले से ही चंडीगढ़ बोर्ड के निजीकरण के उदाहरण को देख लिया है।”
राज्य में किसानों और दलित आन्दोलन के एक साथ आने पर टिप्पणी करते हुए कैंथ ने कहा “हम अपने स्वंय के मुद्दों को लेकर संघर्ष करते रहे हैं। हमारी आबादी का बेहद छोटा हिस्सा ही सरकारी क्षेत्र में काम कर रहा है। इसलिए सीधी भर्ती, पदोन्नति इत्यादि मामलों को लेकर हमारे खुद के अपने मुद्दे हैं। हाँ, यह सही है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने दो साल पहले एससी एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कमजोर करने का काम किया था तो भारी उथल-पुथल देखा गया था, और तब आम आबादी ने हमारा समर्थन नहीं किया था। लेकिन यह आंदोलन भिन्न है। यह एक जनांदोलन में तब्दील हो चुका है और इसने विभिन्न समुदायों को करीब लाने का काम किया है। पंजाब में हिंदुत्व का प्रभाव बेहद कम होने के कारण यहाँ पर अत्याचार का स्तर अपमानजनक स्तर तक नहीं है। लेकिन भेदभाव बना हुआ है और हम सामूहिक तौर पर इसका मुकाबला करेंगे। इस आन्दोलन ने हमारे अंदर नई उम्मीद जगाई है।”
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