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सपा-कांग्रेस की रार कहां तक जाएगी?

17 नवंबर को मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग होगी। लेकिन प्रदेश में जिस तरह सपा, कांग्रेस के लिए कांटा बनती रही है, इसका असर इंडिया गठबंधन पर भी देखने को मिलने लगा है। फिलहाल तो प्रदेश की कई सीटों पर सपा-कांग्रेस आमने-सामने हैं।
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साल 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान चल रही भाजपा की लहर से समाजवादी पार्टी की सत्ता को बचाने के लिए राहुल गांधी ने अखिलेश यादव के साथ जोड़ी बना ली। दोनों प्रदेश का कोना-कोना घूमे, लोगों के बीच पहुंचे, ढेरों वादे किए... मग़र जनता का विश्वास नहीं जीत पाए, आखिरकार सपा की सत्ता चली गई और भाजपा ने पूर्ण बहुमत से सरकार बना ली।

इस हार के कई सालों बाद भी अखिलेश मीडिया के सवालों पर यही जवाब देते रहे कि अगर वो एक बार दोस्ती कर लेते हैं तो निभाते हैं। शायद इसी दोस्ती का नतीजा रहा कि वो कांग्रेस के साए में ‘इंडिया’ का हिस्सा बने।

वैसे तो ‘इंडिया’ का निर्माण लोकसभा चुनाव 2024 के लिए हुआ है, मग़र उससे पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, जिसने ‘इंडिया’ में टकराव के कई कारणों को उजागर कर दिया है। कहने का मतलब ये है कि इन विधानसभा चुनावों ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव की दोस्ती वाली भाषा को पूरी तरह से बदलकर रख दिया, और कारण है महज़ सीटों की चाहत।

यानी जिस राहुल गांधी को वो दोस्त कहते थे, अब वो उन्हीं की पार्टी को बुरा भला कहने पर उतारू हैं। वो कहने लगे हैं कि राहुल गांधी की पार्टी धोखेबाज़ और चालू है। अखिलेश कहते हैं कि कांग्रेस नहीं चाहती कि हम उनके सहयोगी दल बने। कांग्रेस के पास मौका था कि वो छोटे दलों को साथ लेकर एक गठबंधन का संदेश दिया जाता लेकिन वो सोचते हैं कि उनके साथ जनता खड़ी है तो अब उन्हें ‘पीडीए’ इस बार जवाब देगी। अखिलेश कहते हैं कि भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस की नीतियां एक जैसी हैं, दोनों पार्टियां भ्रष्टाचार और लूट में लिप्त हैं, साथ ही इन पार्टियों की गलत नीतियों के कारण किसान परेशान हैं, जबकि महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है। भाजपा और कांग्रेस एक ही है, उनकी नीतियां एक जैसी हैं, दोनों पार्टियों ने मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार और लूट मचा रखी है।

दरअसल समाजवादी पार्टी का कहना है कि उनके नेताओं की कांग्रेस नेता कमलनाथ से सीट बंटवारे को लेकर बातचीत चल रही थी, लेकिन 15 अक्टूबर को कांग्रेस उम्मीदवारों की लिस्ट आने के बाद सपा और कांग्रेस के रिश्तों में खटास आ गई। समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से सबसे ज्यादा नाराजगी बिजावर सीट को लेकर है। अखिलेश यादव की पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में छतरपुर की बिजावर सीट जीती थी, लेकिन कांग्रेस ने इस सीट पर भी उम्मीदवार का ऐलान कर दिया। कांग्रेस ने यहां चरण सिंह यादव को मैदान में उतारा है जो कि सूबे में सपा के एक वरिष्ठ नेता के चचेरे भाई हैं।

दिलचस्प ये है कि कुछ सीटों पर सपा-कांग्रेस आमने-सामने हैं...

बिजावर के अलावा कांग्रेस की लिस्ट में 4 सीटें ऐसी थी जहां समाजवादी पार्टी पहले ही टिकट दे चुकी थी। अब मध्य प्रदेश में 5 सीटों पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी आमने-सामने है। भांडेर, राजनगर, बिजावर, चितरंगी और कटंगी सीट पर कांग्रेस और सपा, दोनों ने ही उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। बिजावर में कांग्रेस के चरण सिंह यादव को और सपा ने डॉक्टर मनोज यादव को उम्मीदवार बनाया है। राजनगर में कांग्रेस ने विक्रम सिंह को तो सपा ने बृजगोपाल पटेल को टिकट दिया है। भाण्डेर में कांग्रेस की तरफ से फूल सिंह और सपा की तरफ से रिटायर्ड जिला जज डी. आर. राहुल ताल ठोकेंगे।

अब मध्यप्रदेश में हो रही इन राजनीतिक घटनाओं को उत्तर प्रदेश की राजनीति से जोड़कर देखना लाज़मी हैं, फिर ऐसे वक्त पर जब अखिलेश यादव की पार्टी की ओर से ऐसे ऐलान का दावा है कि अगर लोकसभा में कांग्रेस के साथ गठबंधन में रहती है, तो सपा 65 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जिसे कांग्रेस बोगस बता रही है।

यहां एक बात ये भी बहुत ज़रूरी है कि उनकी पार्टी के भीतर ही अब उनके नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं। उदाहरण के लिए सपा के दिग्गज नेता रवि प्रकाश वर्मा को ही ले लीजिए। रवि प्रकाश सपा के महासचिव भी रहे हैं। उन्होंने इस दावे के साथ सपा छोड़कर कांग्रेस ज्वाइन कर लिया कि उन्हें सपा में घुटन महसूस होती है। उधर दूसरी ओर रवि वर्मा की बेटी पूर्वी वर्मा ने भी मल्लिकार्जुन खड़गे का आशीर्वाद लिया है। और इन सभी राजनीतिक घटनाओं पर उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय कहते हैं कि ये तो बस शुरुआत है, अभी बहुत से नेता राहुल गांधी के साथ काम करने के लिए कांग्रेस का दामन थामने वाले हैं।

फिलहाल ‘इंडिया’ के भीतर रार से ‘इंडिया’ को जो नुकसान होगा वो होगा ही, मग़र इसका फायदा उठाने के लिए अमित शाह भी अपनी चाल चल चुके हैं। कई मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि पार्टी सूत्रों ने कंफर्म किया है कि राज्य की अपनी तीन दिवसीय यात्रा के दौरान 31 अक्टूबर को उनकी अध्यक्षता में एक बंद कमरे में हुई बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य के भाजपा नेताओं से कहा कि वे हर जरूरी साधन के साथ सपा और बसपा उम्मीदवारों को कांग्रेस पार्टी के वोट काटने में मदद करें।

क्योंकि करीब 90 सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस को ग़ैर-भाजपा दलों से चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। अब इन 90 में से सपा, बसपा या आम आदमी पार्टी 25 सीटों पर एंटी इनकंबेंसी वोट को बांट सकती है।

विंध्य और ग्वालियर-चंबल के अलावा, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में भी ऐसी सीटें हैं जहां सपा और बसपा का कुछ प्रभाव है। बावजूद इसके कि पिछले चुनावों में पूरे क्षेत्र में भाजपा की ओर साफ-साफ झुकाव दिखा था। 2018 के चुनावों में, सपा और बसपा दोनों को बुंदेलखंड क्षेत्र में एक-एक सीट मिली, जिसमें 26 विधानसभा सीटें हैं – जिनमें 6 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं- जो उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे 6 जिलों में फैली हुई हैं। वहीं भाजपा ने 16 तो कांग्रेस ने 8 सीटें जीती थीं।

अब इसी उत्तर प्रदेश से सटे मध्यप्रदेश के संभाग के लिए सपा परेशान हैं, जिसमें नौबत यहां तक आ गई है कि लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश की सीटों पर सपा समझौता नहीं करना चाहती है। अखिलेश यादव की इस हनक के पीछे वो हर बार पीडीए की दलील देते हैं... तो जानना बेहद ज़रूरी है पीडीए में ऐसा क्या है? और वो ‘इंडिया’ के लिए नुकसान तो नहीं है...

अखिलेश दरअसल पीडीए फॉर्मूला में पिछड़े वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक वोटर्स आते हैं। प्रदेश में कमजोर होती मायावती की बहुजन समाज पार्टी के वोट बैंक को साधने का प्रयास सपा के लिए थोड़ा नया है लेकिन यह हैरान करने वाली बात नहीं है। आमतौर पर एम-वाई समीकरण यानी कि मुस्लिम और यादव के लिए जानी जाने वाली सपा अब गैर यादव ओबीसी और दलितों में पैठ बनाने की भी कोशिश कर रही है। हालिया विधानसभा चुनाव में उसे अल्पसंख्यक समुदाय का भरपूर समर्थन मिला था लेकिन बसपा से छिटक कर दलित वोट भाजपा के खाते में चला गया। अखिलेश इसी वोट पर दावा करना चाहते हैं।

पीडीए की शक्तियों को गिनाते हुए कई बार अखिलेश यादव ये दावा भी कर चुके हैं कि गठबंधन के दौरान यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि उस राज्य में कौन सी पार्टी ज्यादा मजबूत है। इसके हिसाब से ही सीटों का बंटवारा किया जाना चाहिए। शायद अखिलेश अपनी इसी बात पर अमल कर रहे हैं।

यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि अखिलेश यादव ख़ुद और उनकी पार्टी के लोग पीडीए के ज़रिए अखिलेश को ही सबसे बड़ा नेता बताते रहे हैं, जो शायद कांग्रेस जैसी पार्टिंयों को नागवार गुज़र रहा है। यानी अगर ‘इंडिया’ के इर्द-गिर्द या ‘इंडिया’ में ही पीडीए का फॉर्मूला फिट करने की कोशिश भी की जाए, तो लीडरशिप की परेशानियों से गुज़रना पड़ेगा ही।

फिलहाल ये देखना दिलचस्प होगा कि सपा-कांग्रेस की रार कहां तक जाती है और ‘इंडिया’ को कितना फायदा कितना नुकसान पहुंचाता है। 

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