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जब कृषि नीतियां ही ग़लत हैं तो गेहूं के लिए एमएसपी कितना मददगार होगा?

रबी फ़सल गेहूं के उच्च एमएसपी को लेकर ख़ुशी मनाना बचकानी बातें हैं। एमएसपी तय करते समय कृषि में उत्पादन लागत पर जब तक ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक किसानों को लाभ नहीं होगा।
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 18 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई बैठक में छह रबी फ़सलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का फ़ैसला किया। रबी की प्रमुख कृषि फ़सल गेहूं के एमएसपी 2022-23 में 2,015 रुपये प्रति क्विंटल को बढ़ाकर 2023-24 के मार्केटिंग सीजन के लिए 2,125 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया गया। 110 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि पिछले वर्ष की तुलना में 5.46% अधिक है। लेकिन कृषि उत्पादन लागत कई वर्षों से तेज़ी से बढ़ रही है। बढ़ती क़ीमतों से अपनी घटती क्रय शक्ति से किसान और मज़दूर चिंतित हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा घोषित एमएसपी नौ राज्यों द्वारा सुझाए गए मूल्य प्रति क्विंटल से कम है।

सरकार के अनुसार, प्रति क्विंटल गेहूं की मात्रा में 100% की वृद्धि होती है और इससे किसानों को लाभ होगा। लेकिन किसान संगठन और कुछ राजनीतिक दल इस वृद्धि को कृषि उत्पादन लागत बढ़ने की तुलना में बहुत कम बताते हैं। वे स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करने की मांग करते हैं, जिसमें कृषि वस्तुओं के एमएसपी को सी-2 उत्पादन लागत पर 50% लाभ पर तय करना शामिल है। सी-2 लागत में इनपुट का मूल्य शामिल है जिसे किसान बाज़ार से ख़रीदते हैं और साथ ही उनका अपने स्वयं का इनपुट जो फ़सल उगाने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

एमएसपी प्रणाली के विरोध के बावजूद इन क़ीमतों ने खुले बाज़ार में किसानों के उत्पीड़न को कम करने में मदद की है। हालांकि केवल कुछ राज्य ही इन क़ीमतों पर कुछ कृषि वस्तुओं की ख़रीद करते हैं, वे अन्य राज्यों और क्षेत्रों को संकेत देते हैं जहां कृषि-वस्तुओं को एमएसपी पर नहीं ख़रीदा जाता है, इस प्रकार किसानों की पीड़ा को कम करने में मदद होता है।

भारत ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपनी कृषि मूल्य नीतियां शुरू कीं। कृषि मूल्य नीति में एक महत्वपूर्ण चरण 1965 में था, जब कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की गई थी। इसकी स्थापना के बाद से, इस आयोग ने केंद्र सरकार को कुछ कृषि-वस्तुओं के एमएसपी की सिफारिश की है, जिसका केंद्र आमतौर पर पालन करता है। प्रारंभिक वर्षों में, आयोग द्वारा कुछ कृषि वस्तुओं के लिए अनुशंसित एमएसपी, विशेष रूप से खाद्यान्न की भारी कमी के दौरान किसानों के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ। लेकिन कुछ समय बाद, अनुशंसित और घोषित एमएसपी किसानों के हितों के ख़िलाफ़ हो गया, जिसकी उनके संगठनों और कुछ राजनीतिक दलों ने तीखी आलोचना और विरोध की।

इस विरोध को रोकने के लिए वर्ष 1987 में केंद्र ने कृषि मूल्य आयोग का नाम बदलकर कृषि लागत एवं मूल्य आयोग या सीएसीपी कर दिया ताकि यह महसूस किया जा सके कि एमएसपी तय करते समय कृषि में उत्पादन लागत को ध्यान में रखा जाता है। यह सही साबित नहीं हुआ, जिसका किसान संगठन और कुछ राजनीतिक दल समय-समय पर विरोध करते रहे हैं।

कृषि वस्तुओं का एमएसपी लाभदायक तरीक़े से तय करना ज़रूरी है। जिस पहलू पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वह यह है कि देश में कृषि-जलवायु परिस्थितियों के अनुसार उपयुक्त फ़सलें बोई जानी चाहिए। भारत को जोन बनाना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों की फ़सल लाभदायक क़ीमतों पर ख़रीदी जाए। केंद्र और राज्य सरकारों को भी सीमांत किसानों की मदद करनी चाहिए, जिनके पास बाज़ारों के लिए बहुत कम या बिल्कुल भी सरप्लस नहीं है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि ये किसान मनरेगा के तहत अपने खेतों में काम करें।

मान लीजिए फ़सलों के एमएसपी के निर्धारण पर डॉ स्वामीनाथन की सिफ़ारिशों को उसकी सही भावना से लागू किया जाता है तो उस स्थिति में यह स्वाभाविक रूप से उन किसानों को लाभान्वित करेगा जिनके पास बाज़ार में बेचने के लिए वस्तुएं हैं। इसलिए, एमएसपी को इस तरह से तय किया जाना चाहिए जो किसानों की मदद करे और उन्हें सम्मानजनक तरीक़े से जीवन की ज़रूरतों जैसे भोजन, कपड़ा, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, एक स्वच्छ वातावरण और सामाजिक सुरक्षा आदि चीज़ों को पूरा करने की अनुमति दे।

किसान, खेतिहर मज़दूर और ग्रामीण कामगार अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं। स्वामीनाथन की सिफ़ारिशों के बाद, जैसे-जैसे खेत का आकार बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे किसानों की आय भी बढ़ेगी। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 77वें दौर के अनुसार, सीमांत किसान (1 हेक्टेयर से कम के मालिक) 2018-19 में देश के कुल किसानों का 76.5% थे, जबकि बाकी में छोटे, अर्ध-मध्यम, मध्यम और बड़े किसान के रूप में वर्गीकृत अन्य सभी किसान शामिल हैं। कई राज्यों में, अधिकांश सीमांत किसानों के पास स्थानीय बाज़ार में बेचने के लिए बहुत कम या कोई सरप्लस नहीं है।

खेतिहर मज़दूर और ग्रामीण कामगार ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था के निचले पायदान पर हैं - वे अधिक कमज़ोर हैं, अधिक काम करते हैं और ज़्यादा से ज़्यादा दुतकारे जाते हैं। ये दोनों वर्ग भी सामान्यतः भूमिहीन हैं। चूंकि उनके पास अपने श्रम को बेचने के अलावा उत्पादन का कोई अन्य साधन नहीं है, इसलिए उन्हें कृषि वस्तुओं के एमएसपी में वृद्धि से सीधे तौर पर कोई फ़ायदा नहीं होगा।

साठ के दशक के मध्य में, खाद्यान्न की गंभीर कमी को नियंत्रित करने के लिए अपनाई गई नई कृषि प्रौद्योगिकी के मद्देनज़र मशीनरी और घास फूस को नष्ट करने वाली दवाओं के इस्तेमाल ने कृषि के भीतर कृषि श्रमिकों के लिए रोज़गार के अवसरों को काफ़ी कम कर दिया। कृषि क्षेत्र में आधुनिक मशीनरी और दैनिक जीवन में प्लास्टिक और सिंथेटिक सामानों के उपयोग ने ग्रामीण कामगारों के काम खोजने की संभावना को कम कर दिया। कुछ राज्यों में, इससे उनका बड़े पैमाने पर विस्थापन भी हुआ।

सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण कामगारों के रोज़गार में भारी गिरावट के कारण, उन्होंने काम की तलाश में शहरी क्षेत्रों की ओर रुख किया। लेकिन वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयों में मशीनरी और स्वचालन के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल ने पहले से कार्यरत श्रमिकों को भी बाहर निकलने का रास्ता दिखा दिया। सेवा क्षेत्र की इकाइयां आम तौर पर कम संख्या में अंग्रेज़ी बोलने वाले और कंप्यूटर की समझ रखने वाले श्रमिकों को काम पर रखती हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रवासी सीमांत किसान, खेतिहर मज़दूर और रोज़गार की तलाश करने वाले ग्रामीण कामगारों को बाहर कर दिया जाता है। यही कारण है कि हम दिहाड़ी मज़दूरों को "श्रम वर्गों" में संभावित नियोक्ताओं का इंतज़ार करते हुए देखते हैं। जिन दिनों उन्हें काम नहीं मिलता है, वे महंगी चाय के साथ लायी गयी मोटी सूखी रोटी खाते हैं और वे बहुत निराश होकर घर लौट जाते हैं।

सीमांत किसानों, खेतिहर मज़दूरों और ग्रामीण कामगारों को मनरेगा के तहत साल में जितने दिन काम करने को तैयार हैं उतने दिनों के लिए काम खोजने की ज़रूरत है। मनरेगा मज़दूरी केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी दरों के बराबर होनी चाहिए। कृषि क्षेत्र पर निर्भर इन तीनों वर्गों को उनकी आवश्यकता के अनुसार ब्याज मुक्त ऋण मिलना चाहिए (ताकि ऋण ऋण न बने)। केंद्र और राज्य सरकारों को गांवों में सहकारी स्वामित्व वाली कृषि-प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना के लिए वित्तीय और अन्य सहायता प्रदान करनी चाहिए। इससे और रोज़गार के बढ़ते अवसरों से उन्हें पैसा बढ़ने का लाभ प्राप्त करने में मदद मिलेगी।

गांवों में शामलात और पंचायत भूमि से प्राप्त आय ग़रीबों के कल्याण के लिए होती है। सिख धर्म हमें सिखाता है कि ग़रीबों का मुख गुरु का गोलक होता है। इसलिए राज्य सरकारें सीमांत किसानों, खेतिहर मज़दूरों और ग्रामीण कामगारों को सहकारी कृषि में संलग्न होने के लिए इन ज़मीनों को किराया मुक्त दें। राज्य को उन्हें वित्तीय और अन्य सहायता देनी चाहिए। यदि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर इलाज दी जाए तो इन वर्गों के जीवन में भी सुधार हो सकता है।

लेखक पटियाला स्थित पंजाबी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

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