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ख़बरों के आगे-पीछे:  भारत और दुनिया के किसान आंदोलनों का फ़र्क़

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और बकौल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'लोकतंत्र की जननी’ यानी भारत के आंदोलन की तुलना यूरोप के अलग-अलग देशों में चल रहे किसान आंदोलन से करें तो पता चलेगा कि वास्तविक लोकतंत्र क्या होता है।
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फोटो साभार : द ट्रिब्यून

पंजाब के किसान पिछले दो हफ्ते से ज्यादा समय से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। वे दिल्ली आना चाहते हैं लेकिन हरियाणा सरकार ने जबरदस्त बाड़ेबंदी करके किसानों को पंजाब की सीमा पर ही रोक दिया है। आंदोलन के दौरान एक युवा किसान शुभकरण सिंह सहित आठ लोगों की मौत हो चुकी है। पिछली बार जब किसान एक साल तक आंदोलन करते रहे थे तब सात सौ किसानों की जान गई थी। इस बार उनको रोकने के लिए ट्रैक्टर के हाईवे पर जाने पर रोक लगी है तो कई जिलों में इंटरनेट बंद कर दिए गए। अब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और बकौल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'लोकतंत्र की जननी’ यानी भारत के आंदोलन की तुलना यूरोप के अलग-अलग देशों में चल रहे किसान आंदोलन से करें तो पता चलेगा कि वास्तविक लोकतंत्र क्या होता है।

लगभग पूरे यूरोप में किसान किसी न किसी मामले को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। फ्रांस में हजारों किसान ट्रैक्टर लेकर राजधानी पेरिस पहुंचे क्योंकि उन्हें राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की कृषि नीतियां पसंद नहीं है। इटली में लगातार सूखे से परेशान किसान आंदोलन कर रहे हैं। यूरोपीय संघ के सबसे बड़े देश जर्मनी में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। ग्रीस से लेकर पुर्तगाल और स्पेन तक किसानों के आंदोलन चल रहे हैं। राजधानियों में ट्रैक्टर रैलियां हो रही हैं और कहीं भी उनको रोका नहीं जा रहा है। दूसरी ओर 'लोकतंत्र की जननी’ भारत में किसानों को रोकने के लिए ऐसी बाड़ेबंदी हुई है, जैसी भारत और पाकिस्तान की सीमा पर भी नहीं है।

भारतीय युवा रूस में भाड़े के सैनिक बने

भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के लिए रूस ने अपनी सेना में कई भारतीय युवाओं की भर्ती की है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक करीब 100 भारतीय नौजवान रूसी सेना में नौकरी कर रहे हैं। उनमें से कुछ को मोर्चे पर तैनात किया गया है। यानी वे रूस की तरफ से युद्ध लड़ रहे हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह संभवत: पहला मौका है, जब भारतीयों के सामूहिक रूप से भाड़े के सैनिक बनने की खबर आई है। रूस की सेना के लिए दुबई के जरिए अनुबंधित किए गए इन भारतीय नौजवानों के परिजनों का दावा है कि इन लोगों की नियुक्ति रूसी सेना की सहायता के लिए की गई थी, लेकिन यूक्रेन सीमा के पास ले जाकर उन्हें बताया गया कि उन्हें लड़ाई भी लड़नी है।

मुद्दा उछलने के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि इन भारतीयों को स्वदेश लाने के लिए भारत सरकार रूस की सेना के साथ संपर्क में है। लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर भारतीय नौजवान विदेशों में कहीं भी, कैसा भी काम पाने के लिए इतने व्यग्र क्यों हैं? आखिर खुद भारत सरकार ने युद्ध-ग्रस्त इजराइल में मेहनत-मजदूरी करने के लिए हजारों युवाओं को भेजने का करार किया है। वहां जाने के लिए जुटी भीड़ में शामिल नौजवानों ने मीडिया से कहा था कि उन्हें इजराइल जाने का जोखिम मालूम है, लेकिन उन्हें लगता है कि 'यहां भूखों मरने से बेहतर वहां काम करते हुए मरना है।’ असल मुद्दा युवाओं में समा गई यही हताशा है। उत्तर प्रदेश में पुलिस भर्ती परीक्षा में जो नजारा दिखा है, उससे आसानी से समझा जा सकता है कि ऐसी हताशा क्यों पैदा हो रही है।

महंगाई दर नहीं घटी तो फॉर्मूला बदल देंगे

यह एक कड़वी हकीकत है कि भारत में महंगाई कभी कम नहीं होती है। जब मीडिया में महंगाई कम होने की हेडलाइन बनती है तो उसका मतलब होता है कि महंगाई बढ़ने की दर कम हुई है यानी महंगाई कम रफ्तार से बढ़ेगी। फिलहाल तो मुश्किल यह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद महंगाई दर काबू में नहीं आ रही है। केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक को महंगाई दर चार फीसदी पर स्थिर करने का लक्ष्य तय दिया है, लेकिन उसमें मुश्किल आ रही है। इसीलिए सरकार अब महंगाई के आकलन का फॉर्मूला बदलने जा रही है।

याद करें कि मौजूदा सरकार ने जीडीपी के आकलन का आधार वर्ष कैसे बदल दिया था। पहले 2004-2005 वित्त वर्ष के आधार पर जीडीपी की दर का आकलन होता था, जिसे बाद में मोदी सरकार ने बदल कर 2010-11 कर दिया। इससे जीडीपी की ऊंची दर दिखाने में सुविधा हो गई।

अब खबर है कि सरकार खुदरा महंगाई के आकलन का फॉर्मूला बदलने जा रही है। अभी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई के आकलन में सबसे ज्यादा महत्व खाने-पीने की चीजों के दामों को दिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योकि खाने-पीने की चीजों पर हर घर का सबसे ज्यादा बजट खर्च होता है। इसलिए फल-सब्जियों और अनाज के सीजन के हिसाब से महंगाई दर में उतार-चढ़ाव होता रहता है। अब सरकार खाने-पीने की चीजों का वेटेज कम करने जा रही है ताकि महंगाई दर कम हो जाए और स्थिर भी हो जाए। इसका मतलब होगा कि जब कभी प्याज, टमाटर, लहसुन जैसी चीजों के दाम आसमान छुएंगे तब भी महंगाई दर पर असर नहीं होगा। अभी खाने पीने की चीजों की वेटेज 50 फीसदी है, जिसे कम करके 40 फीसदी तक लाया जा सकता है।

कॉरपोरेट दिग्गजों के बुरे दिन

चौंकिए मत, क्योंकि यह खबर गौतम अदाणी और मुकेश अंबानी के बारे में नहीं है। दरअसल सरकार के इन दोनों चहेतों के अलावा दूसरे कुछ कॉरपोरेट दिग्गजों के इस समय बुरे दिन चल रहे हैं। हालांकि सबके बुरे दिन आने की वजह अलग-अलग है लेकिन खोजने पर कोई समान वजह भी मिल ही जाएगी। बहरहाल, पिछले कुछ दिनों में कई बड़े कॉरपोरेट दिग्गज मुश्किल में आए हैं। ताजा नाम विजय शेखर शर्मा का है, जिन्हें पेटीएम के चेयरमैन पद से इस्तीफा देना पड़ा है। कंपनी पर रिजर्व बैंक की पाबंदियों और शेयर बाजार में भारी नुकसान के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा है। उनसे कुछ ही दिन पहले ऑनलाइन एजुकेशन की कंपनी बायजू के संस्थापक बायजू रविंद्रन और उनके परिवार को कंपनी के बोर्ड से ही हटा दिया गया। यह फैसला निवेशकों ने किया।

इस बीच खबर है कि जी समूह और सोनी के बीच विलय की योजना के पटरी से उतरने के बाद सेबी को दो हजार करोड़ रुपए की गड़बड़ी का पता चला है और इस सिलसिले में जी एंटरेनमेंट के मुख्य कर्ताधर्ता पुनीत गोयनका को पूछताछ के लिए बुलाया जा सकता है। जेल में बंद जेट एयरवेज के संस्थापक नरेश गोयल के बारे में पिछले दिनों खबर आई थी कि वे कैंसर से पीड़ित हैं और इलाज के लिए अदालत में आवेदन लगाया हुआ है। आईसीआईसीआई समूह की चंदा कोचर और उनके पति को जमानत मिल गई है लेकिन मुश्किलें अभी बरकरार हैं।

राहुल का एजेंडा और भाजपा की चिंता

कांग्रेस नेता राहुल गांधी पिछले साल के विधानसभा चुनावों में उठाए गए अपने मुद्दों से पीछे नहीं हट रहे हैं। उन्होंने अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा का फोकस दलित, आदिवासियों और पिछड़ों पर रखा है। वे बार-बार यह सवाल उठा रहे है कि भारत में शासन चलाने में इन समुदायों की क्या भूमिका है। इसे वे ऐसे तरीके से पूछ रहे हैं, जिसके लिए उनकी आलोचना भी हो रही है। लेकिन वे इस मुद्दे को नहीं छोड़ रहे हैं। वे बता रहे हैं कि भारत सरकार के 90 सचिवों में से सिर्फ तीन ओबीसी हैं। उन्होंने अब यह भी कहना शुरू किया है कि देश की बड़ी कंपनियों में किसी कंपनी का शीर्ष अधिकारी पिछड़े, दलित या आदिवासी वर्ग का नहीं है। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए राहुल पूछ रहे हैं कि राममंदिर के उद्घाटन में अंबानी, अडानी तो बुलाए गए लेकिन किसी पिछड़े, दलित या आदिवासी को क्यों नहीं बुलाया गया? वे जाति गणना कराने और आरक्षण बढ़ाने की जरुरत भी बता रहे हैं। भाजपा को उनकी इस रणनीति के चलते नुकसान की आशंका सता रही है। इसलिए उसने अपनी चुनावी रणनीति में कुछ बदलाव किया है।

कहा जा रहा है कि भाजपा लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान दलित और आदिवासी बहुल इलाकों में मंदिर की बजाय सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र ज्यादा करेगी। इसका मतलब है कि भाजपा को लग रहा है कि मंदिर का मुद्दा दलित और आदिवासी समुदाय में बहुत ज्यादा अपील नहीं करेगा। इसके उलट राहुल गांधी के सवाल ज्यादा अपील कर सकते हैं।

संदेशखली मामले में फंस गईं ममता

पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने उत्तर 24 परगना जिले के संदेशखली मामले को बहुत गलत तरीके से हैंडल किया, जिसका नतीजा है कि सरकार इस मामले में फंस गई है। चूंकि लोकसभा चुनाव नजदीक है, लिहाजा यह मामला ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के लिए भी मुश्किलें पैदा कर सकता है। भाजपा ने इस मामले को हाथों हाथ लेकर बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया है। प्रधानमंत्री मोदी भी अभी तक मणिपुर भले नहीं गए लेकिन इस मुद्दे को लेकर बंगाल का दौरा करने में उन्होंने देरी नहीं की। यहां तक कहा जाने लगा है कि संदेशखली ममता बनर्जी के लिए नंदीग्राम साबित हो सकता है। गौरतलब है कि ममता बनर्जी ने नंदीग्राम हिंसा को मुद्दा बना कर वाम मोर्चा की साढ़े तीन दशक पुरानी सरकार को हरा दिया था। बहरहाल, संदेशखली में शिबू हाजरा भी आरोपी है लेकिन सारा फोकस शाहजहां शेख पर बना है। हाईकोर्ट को आदेश देना पड़ा है कि शाहजहां शेख को जल्दी से जल्दी गिरफ्तार किया जाए। अदालत की नाराजगी के बाद राज्य सरकार ने वादा किया कि वह एक हफ्ते में उसे गिरफ्तार करेगी। सवाल है कि सरकार ने इतना समय क्यों लगाया कि अदालत को आदेश देना पड़ा? जब ईडी के अधिकारियों पर शाहजहां शेख के लोगों ने पथराव किया और उसके बाद उस पर महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यहार करने के आरोप लगे तभी अगर राज्य की पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया होता तो अदालत को आदेश नहीं देना पड़ता। अब सरकार उसे गिरफ्तार भी कराएगी और राजनीतिक नुकसान भी उठाएगी।

राज्यसभा में अभी सौ तक नहीं पहुंची भाजपा

तमाम तिकड़मों के बावजूद भाजपा राज्यसभा मे एक सौ सीट का आंकड़ा नहीं छू पाई। इस बार उसने दो अतिरिक्त सीटें हासिल कीं। उसे हिमाचल प्रदेश की सीट नहीं मिलने वाली थी लेकिन उसने कांग्रेस में तोड़-फोड़ करके अपना उम्मीदवार जितवा लिया। इसी तरह उत्तर प्रदेश में उसे सात ही सीटें मिलना थीं लेकिन रालोद से तालमेल के बाद उसने आठवीं सीट से उम्मीदवार उतार दिया और समाजवादी पार्टी के सात विधायकों को तोड़ कर वह सीट जीत ली। इस तरह भाजपा के 28 सदस्य रिटायर हुए और 30 लोग वापस आ गए। फिर भी उसके सदस्यों की संख्या 97 पहुंची है। वैसे इस साल अभी नौ सीटों के चुनाव और होना है, जिनमें से केरल की तीन और झारखंड की दो सीट है, जबकि चार मनोनीत सीटें जुलाई में खाली हो रही हैं। केरल में दो सीट लेफ्ट फ्रंट को और एक सीट कांग्रेस को मिलेगी। झारखंड में भी भाजपा के समीर उरांव रिटायर हो रहे है और वह एक सीट उसे मिल जाएगी। राज्यसभा के मनोनीत सांसदों में चारों भाजपा के ही हैं, इसलिए चार नए लोगों के आने पर भी 97 की संख्या में कोई इजाफा नहीं होगा। बहरहाल यह जरूर हुआ है कि एनडीए बहुमत के नजदीक पहुंच गया है। नीतीश कुमार, एचडी देवगौड़ा और जयंत चौधरी की वजह से एनडीए के सांसदों की संख्या 117 हो गई है। इस तरह 245 सदस्यों के उच्च सदन में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए अब बहुमत से सिर्फ छह सीट पीछे है।

कांग्रेस और आप कैसे चुनाव लड़ेंगे

वैसे विरोधाभास तो कांग्रेस और वाम मोर्चा की राजनीति का भी बहुत बड़ा है। दोनों पार्टियां केरल में एक दूसरे के खिलाफ लड़ेंगी, जबकि देश के बाकी हिस्सों में उनके साथ लड़ने की तैयारी है। लेकिन वहां का विरोधाभास ज्यादा नहीं दिखाई देगा क्योंकि केरल से उत्तर या पूर्वी भारत के बाकी राज्यों में भौगोलिक दूरी बहुत है। लेकिन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेता तो पंजाब में एक दूसरे को चोर-बेईमान ठहरा रहे हैं और उससे पंजाब से सटे हरियाणा व दिल्ली में दोनों पार्टियां एक साथ चुनाव लड़ रही हैं। ऐसे में दोनों पार्टियों का प्रचार कैसे होगा और वे कैसे आम लोगों के बीच कोई राजनीतिक मैसेज बनवा पाएंगे? गौरतलब है कि दोनों पार्टियों ने साझा सहमति से पंजाब में अलग-अलग लड़ने का फैसला किया, जबकि हरियाणा में कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के लिए कुरुक्षेत्र की सीट छोड़ी। दिल्ली की सात सीटों में से चार पर आम आदमी पार्टी और तीन पर कांग्रेस को लड़ना है। सो, हरियाणा और दिल्ली में दोनों पार्टियों के नेता साझा प्रचार करेंगे। लेकिन बगल के राज्य पंजाब में दोनों एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने पिछले दिनों कांग्रेस के बड़े नेताओं- प्रताप सिंह बाजवा और नवजोत सिंह सिद्धू को निशाना बनाया। कांग्रेस नेता राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार और वादाखिलाफी के आरोप लगा रहे हैं। सवाल है कि पंजाब में दोनों पार्टियां कैसे लोगो को यकीन दिलाएंगी कि वे एक दूसरे की विरोधी है और हरियाणा व दिल्ली में कैसे यकीन दिलाएंगी कि वे एक दूसरे के साथ हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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