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राजस्थान चुनाव: क़र्ज़माफ़ी पर नहीं कोई चर्चा, क्या हैं किसानों के मुद्दे?

“किसानों की आय दोगुनी करने, बिजली अधिनियम में संशोधन करने और किसानों के मुद्दों को हल करने के सरकार के वादे अधूरे हैं।”
agriculture

राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दलों की तैयारियां ज़ोरो पर हैं। तमाम दावों और वादों का सिलसिला जारी है। सभी दल किसानों की भी बात कर रहे हैं लेकिन किसान के मन में आख़िर क्या है और इस चुनाव को लेकर वे क्या सोचते हैं, ये जानने के लिए न्यूज़क्लिक की टीम ने राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के सीकर और चूरू जिले के किसानों से बातचीत की और उनसे जुड़े मुद्दे समझने की कोशिश की। इन इलाको में किसानों का आंदोलन काफ़ी मजबूत रहा है, इसके अलावा कई किसान नेता इस बार चुनवी मैदान में भी है। कांग्रेस जहां पिछले चुनाव में पूर्ण क़र्ज़माफ़ी का वादा कर सत्ता में आई थी, तो वहीं बीजेपी ने भी किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। लेकिन किसान खुद इन वादों को लेकर क्या सोचते हैं, जानने की कोशिश करते हैं।

राजस्थान के सीकर जिले के भादर गांव में रहने वाले सुरेश बागरिया और उनके दोस्त प्याज़ की बढ़ती कीमतों और आने वाले महीनों में मुनाफ़ा कमाने की संभावना पर चर्चा करने के लिए एक खाट पर बैठे हुए थे। बागरिया का परिवार पीढ़ियों से पारंपरिक रूप से प्याज़ उगाता रहा है। बागरिया ही नहीं बल्कि इस पूरे इलाके में प्याज़ एक प्रमुख फसल है। प्याज़ के भाव को लेकर इस क्षेत्र में किसानों ने कई बार बड़े आंदोलन भी किए हैं।

चुनाव और राजनीति पर बातचीत के बीच, बागरिया ने कहा कि “मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी दोनों ने पिछले चुनावों में किए गए वादों पर बहुत कम काम किया। जहां कांग्रेस का अभियान किसानों की क़र्ज़माफ़ी पर निर्भर था, वहीं भाजपा ने दोगुनी आय का वादा करके हमें लुभाने की कोशिश की। हालांकि, ऐसा लगता है कि अशोक गहलोत ने इस बार ऋण माफ़ी पर पूरी तरह से चुप्पी साध ली है। इस बार उन्होंने एक नया वादा - गौ धन गारंटी के तहत एक दुधारू गाय देने का - वादा किया है।”

बागरिया और उनके दोस्तों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि प्याज़ उगाने की लागत 5 रुपये प्रति किलोग्राम आती है लेकिन पिछले दो सीज़न में घटती कीमतों ने उन्हें इसे 1.75 रुपये प्रति किलोग्राम से भी कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर किया।

हमने इस पर उनसे सवाल किया कि जब आपको लगातार घाटा सहन करना पड़ रहा है तो आप बार-बार प्याज़ ही क्यों बो रहे हैं? इस पर उन्होंने कहा, “हमने दो साल पहले इसमें अच्छा मुनाफ़ा कमाया था, लेकिन पिछले दो सीज़न पूरी तरह से निराशाजनक रहे हैं। बीज, उर्वरक और कीटनाशकों की कीमतें तेज़ी से बढ़ी हैं, और इसी तरह हमारी लागत भी बढ़ी है। कृषि अब एक जुआ है और किसान उम्मीद कर रहे हैं कि किसी दिन उनका जैकपॉट लग जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर हमें अपनी एक फसल का ठीक दाम मिल गया तो हमारा पिछ्ला घाटा पूरा हो सकता है, इसी उम्मीद में हम हर बार क़र्ज़ लेकर नया जुआ खेल रहे हैं।”

क़र्ज़माफ़ी के बारे में पूछे जाने पर बागरिया ने कहा कि सहकारी बैंकों के केवल 50,000 रुपये तक के क़र्ज़ ही माफ किये गये हैं। उन्होंने दावा किया कि "पूरी पंचायत में केवल चार किसानों को ही इसका लाभ मिला।”

एक अन्य किसान राजेंद्र कुमार अपनी कहानी बताते हैं कि "पिछले सीज़न में व्यापारी 5 पैसे प्रति किलो भी अतिरिक्त देने को तैयार नहीं थे। मैंने 1.80 रुपये प्रति किलोग्राम मांगा, जबकि वह 1.75 रुपये प्रति किलोग्राम पर अड़े हुए थे। पैसे बचाने के लिए मुझे खुद ही बैग उतारने पड़े। प्याज़ के साथ हमारी समस्या यह है कि इसे भंडारण में नहीं रखा जा सकता या इसका पाउडर नहीं बनाया जा सकता। व्यापारी ये जानते हैं और वे इसका फायदा उठाते हैं क्योंकि हमें इसे जल्द से जल्द बेचना पड़ता है।”

राजेंद्र आगे कहते हैं, "हम दूध भी बेचते थे और इससे हमें अच्छा मुनाफ़ा होता था लेकिन मोदी सरकार ने दूध पाउडर आयात करने का फ़ैसला किया जिससे दूध की कीमतें भी गिर गईं।" वित्त मंत्रालय ने जून 2020 में 10000 टन दूध पाउडर आयात करने की मंज़ूरी दे दी थी, जबकि प्रमुख डेयरियों के पास दूध पाउडर का पर्याप्त स्टॉक था।”

सीकर से दूर, चूरू जिले की राजगढ़ तहसील में किसान पुनिया, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत दावों का भुगतान न होने की समस्या से जूझ रहे हैं। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि विभिन्न बीमा कंपनियों ने किसी न किसी बहाने से 72,000 किसानों के दावों को खारिज कर दिया है।

पुनिया कहते हैं, “हम बीमा कंपनियों की चालों पर पैनी नज़र रखते हुए संघर्ष कर रहे हैं। यह योजना रबी और खरीफ फसलों पर किसानों से क्रमशः 2 और 1.5 प्रतिशत योगदान लेती है और शेष योगदान राज्य और केंद्र सरकार द्वारा दिया जाता है। इस योगदान का भुगतान किसानों को बीज और उर्वरकों पर सब्सिडी के माध्यम से क्यों नहीं किया जा सकता?”

उन्होंने कहा कि “दावों को पूरा करने में बैंक और बीमा कंपनियां निरंकुश व्यवहार करती हैं। यदि किसान ने किसान क्रेडिट कार्ड पर किसी भी प्रकार का ऋण लिया है तो वे बैंक खाते से ऑटोमैटिक ढंग से प्रीमियम काट लेंगे। हालांकि, गैर-क़र्ज़दार किसानों को अक्सर अपना प्रीमियम जमा करने से मना कर दिया जाता है। नुकसान का आकलन फसल काटने की विधि के माध्यम से भी किया जाता है, जहां सामान्य मापदंडों के मुकाबले नुकसान का आकलन करने के लिए फसल को 3x3 फीट के भूखंड में काटा जाता है। अक्सर किसान की अनुपस्थिति में फसल काट ली जाती थी। हालांकि हमारे लगातार संघर्षों ने कंपनियों को दावों के भुगतान करने के लिए मजबूर किया है।”
 
फसल बीमा योजना पर कई बार किसान आंदोलन का नेतृत्व कर चुके निर्मल कुमार, जो वर्तमान में तारनगर विधानसभा से माकपा की ओर से चुनावी मैदान में भी हैं, उन्होंने कहा कि “पहले तो यह स्पष्ट करना चाहिए कि ये योजना मोदी सरकार ने शुरू नहीं की है। ये योजना यूपीए के कार्यकाल में 'मौसम आधारित फसल बीमा योजना' के नाम से शुरू की गई थी। बाद में इसका पुनर्गठन किया गया और इसका नाम प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना रखा गया। किसानों को इसका लाभ उन्हीं जिलों में मिल सका, जहां किसान आंदोलन की पहुंच है।”

निर्मल कहते हैं, “देश में हर जगह किसानों को इसका लाभ नहीं मिला। सभी सामान्य बीमा कंपनियां इस व्यवसाय में कूद गईं क्योंकि यह अत्यधिक लाभदायक है। आम तौर पर, एक बीमाधारी व्यक्ति अपने प्रीमियम का भुगतान करता है, लेकिन इस योजना के तहत, अधिकांश पैसा राज्य और केंद्र सरकारों के माध्यम से दिया जाता है।”

सरकारें इस योजना के वित्तपोषण के लिए बजट में किसान कल्याण निधि के तहत धन का उपयोग कर रही हैं। इसी साल जुलाई में राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि बीमा कंपनियों ने पिछले सात साल में इस योजना के तहत 57,000 करोड़ रुपये बचाए हैं। 2022-23 में बीमा कंपनियों को प्रीमियम के रूप में 27,900.78 करोड़ रुपये मिले, जबकि दावों में उन्होंने 5,760.80 करोड़ रुपये का भुगतान किया।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए किसान नेता और दंतरामगढ़ से माकपा उम्मीदवार अमरा राम ने स्वतंत्रता के बाद भारत में किसानों की गंभीर वित्तीय दुर्दशा का उल्लेख किया और आर्थिक कठिनाइयों के लिए उनकी ऋणग्रस्तता को ज़िम्मेदार ठहराया।  

राम ने कहा, "हमने पहली बार 1970 में राजस्थान के इस हिस्से में भूमि सुधार को लेकर लड़ाई लड़ी थी और दलित भूमिहीन परिवारों को 50,000 एकड़ ज़मीन पुनर्वितरित करने में सफल रहे थे। उसके बाद अन्य संघर्ष ऋण माफ़ी और किसानों तक पानी पहुंचाने पर केंद्रित रहे।"

राम ने ज़ोर देकर कहा, "किसान ऋण माफ़ी की मांग तभी करते हैं जब उन्हें अपनी उपज के लिए पूरी कीमत नहीं मिलती है। उदाहरण के लिए, सीकर में, प्याज़ की खुदरा कीमतें 50-60 रुपये प्रति किलोग्राम के आसपास होने के बावजूद किसान 6-7 रुपये प्रति किलोग्राम पर प्याज़ बेचते हैं। यह असमानता व्यापारिक कंपनियों को समृद्ध करती है और गरीब किसानों के खर्च को बढ़ाती है।"

उन्होंने यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान किसानों के कॉरपोरेट शोषण के ख़िलाफ़ स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में विफलता को रेखांकित किया। राम ने किसानों के कल्याण, विशेष रूप से कृषि उपज के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित करने के संबंध में कांग्रेस और भाजपा दोनों के वादों को अधूरा बताया। उन्होंने कहा, "किसानों की आय दोगुनी करने, बिजली अधिनियम में संशोधन करने और किसानों के मुद्दों को हल करने के सरकार के वादे अधूरे हैं। राजस्थान में मूंगफली और बाजरा जैसी महत्वपूर्ण फसलों के ऑनलाइन सैटेलाइट सर्वेक्षण का प्रस्ताव अभी तक पूरा नहीं हुआ है।"

मनरेगा और बिजली सब्सिडी के संबंध में, किसान नेता ने विलंबित भुगतान और अतिरिक्त शुल्क का हवाला देते हुए कहा कि वादा किए गए लाभ और वास्तविक वितरण में ढेरों विसंगतियां हैं। हालांकि वे तीन कृषि कानूनों के सामूहिक विरोध में आशा देखते हैं। उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए चल रहे संघर्षों के बावजूद, वह व्यवस्था परिवर्तन के बारे में आशावादी बने हुए हैं।

आख़िर में वे कहते हैं, "इतिहास हमें सिखाता है कि व्यवस्थाओं को बदलने में सामाजिक परिवर्तन सामूहिक विश्वास से आते हैं। किसानों के चल रहे सामूहिक संघर्ष इस परिवर्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम का संकेत देते हैं।"

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