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कर्नाटक : सिद्धारमैया के लिए 'कृषि संकट' से निपटना बड़ी चुनौती

कर्नाटक में 2022 में 3339 किसानों की आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए थे जो देश में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। यह भारत में 16,152 किसानों की आत्महत्या के मामलों का 20.5 प्रतिशत है।
Siddaramaiah
फ़ोटो : PTI

कर्नाटक के पुनः निर्वाचित मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को एक विकट सामाजिक-आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। मई और जून 2023 में कर्नाटक में 42 किसानों ने आत्महत्या की। यह बात तब सामने आई जब बीजेपी नेता कोटा श्रीनिवास पुजारी ने इस मुद्दे पर 13 जुलाई 2023 को विधान परिषद में स्थगन प्रस्ताव पेश किया। प्रस्ताव का जवाब देते हुए कांग्रेस के कृषि मंत्री एन.चालुवरयास्वामी ने इन आत्महत्याओं की बात स्वीकार की। उन्होंने परिषद को आश्वस्त करने का प्रयास किया कि कांग्रेस सरकार किसानों को लेकर चिंतित है। उन्होंने इसे राजनीतिक मुद्दा न बनाने की भी अपील की।

लेकिन यह पहले से ही एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका था क्योंकि कृषि संकट और किसानों की आत्महत्याएं चुनाव अभियान में प्रमुख राजनीतिक मुद्दे के रूप में सामने आई थीं। कई राजनीतिक पर्यवेक्षक हाल ही में संपन्न चुनावों में किसानों के संकट और आत्महत्याओं को भाजपा की हार का कारण मानते हैं। आख़िरकार, भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के अपने गृह जिले हावेरी में, पिछले दो महीनों में राज्य के कुल 42 जिलों में 18 किसानों ने आत्महत्या कर ली। स्वाभाविक रूप से बोम्मई को चुनाव में पद से हटा दिया गया।

समस्या और भी ज्यादा गहरी है। कर्नाटक में 2022 में 3339 किसानों की आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए थे जो देश में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। यह भारत में 16,152 किसानों की आत्महत्या के मामलों का 20.5 प्रतिशत है।

ऊंचे स्तर की ऋणग्रस्तता, गंभीर सूखा और खेती की बुनियादी अव्यवहार्यता कर्नाटक में निरंतर किसान आत्महत्याओं के पीछे तीन प्रमुख कारण दिखते हैं। आइए इन तीन कारकों की विस्तार से जांच करें।

किसानों पर कर्ज

बेंगलुरु स्थित इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज के एक अध्ययन के अनुसार, 2011 में कर्नाटक में 62% किसान परिवार कर्जदार थे, जबकि अखिल भारतीय औसत केवल 49% है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब और केरल के बाद कर्नाटक पांचवां उच्चतम स्तर का ऋणग्रस्त राज्य है। इससे भी बुरी बात यह है कि 2 हेक्टेयर तक भूमि वाले 42% किसानों ने निजी साहूकारों से उधार लिया है और वे 36% प्रति वर्ष औसत ब्याज लेते हैं। इसके विपरीत, जिन लोगों ने संस्थागत स्रोतों से उधार लिया है वे 12% ब्याज का भुगतान करते हैं।

यहां तक कि एक भी फसल की विफलता या प्राकृतिक आपदा का प्रभाव भी किसानों को कर्ज के भंवर में धकेल सकता है, क्योंकि एक सामान्य वर्ष में उनके द्वारा अर्जित अधिशेष (surplus) मामूली होता है। कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन की एचडी कुमारस्वामी सरकार द्वारा जुलाई 2018 की ऋण माफी ने किसानों को कुछ राहत दी थी। लेकिन कर्ज माफी से छोटे और सीमांत किसानों की तुलना में बड़े अमीर किसानों को ज्यादा फायदा हुआ। उदाहरण के लिए, जबकि 1 एकड़ तक की भूमि वाले केवल 20% किसान और 1 से 2.5 एकड़ तक की भूमि वाले 37.9% किसान ऋण माफी से लाभान्वित हुए, 7.5 से 10 एकड़ श्रेणी के 87.5% किसान और 10 एकड़ से ऊपर की श्रेणी के 75% किसान इससे लाभान्वित हुए। चार साल के भीतर, 2022 के अंत तक, हाल के चुनावों की पूर्व संध्या पर एक और ऋण माफी की मांग फिर से उठी। लेकिन केवल जद (एस) ने ऋण माफ करने का चुनावी वादा किया और दो प्रमुख दलों, कांग्रेस और भाजपा ने माफी का वादा नहीं किया।

कर्नाटक में, 1 हेक्टेयर तक की भूमि वाले किसानों में कुल कृषक परिवारों का 61% हिस्सा था और 18% परिवारों के पास 1 से 2 हेक्टेयर भूमि थी। दूसरे शब्दों में, छोटे और सीमांत किसानों की हिस्सेदारी 79% है, लेकिन कुल ऋण में उनकी हिस्सेदारी केवल 52% है जबकि मध्यम और अमीर किसानों, जिनमें 21% कृषक परिवार हैं जिनकी ऋण में हिस्सेदारी 48% है।

1 हेक्टेयर तक भूमि वाले सीमांत किसानों की श्रेणी में ऋण का केवल 36% हिस्सा उत्पादक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है और ऋण का बाकी 64% उपभोग, विवाह, शिक्षा या स्वास्थ्य देखभाल के लिए उपयोग किया जाता है। चूंकि इन ऋणों का बड़ा हिस्सा गैर-आय-सृजन (non-income-generating) गतिविधियों में उपयोग किया जाता है, इसलिए उन्हें पुनर्भुगतान करना मुश्किल होता है। जब ब्याज और दंड ब्याज जमा हो जाता है तो वे कर्ज के जाल में फंस जाते हैं। उधार लेने के बाद केवल 4-5 वर्षों में, वे ऋण के भंवर में फंस जाते हैं और ऋण राशि का 60% से अधिक बकाया ब्याज के रूप में इकट्ठा हो जाता है।

31 दिसंबर 2017 तक, कर्नाटक में सभी किसानों का कुल कर्ज 1.2 लाख करोड़ रुपये था, जो जीएसडीपी (GSDP) के 10% के बराबर था, जिसके लिए किसानों को प्रति वर्ष 14,400 करोड़ रुपये का ब्याज देना पड़ रहा है। चूंकि यह कुल बजट व्यय के 57% के बराबर था, इसलिए इन सभी ऋणों की माफ़ी संभव नहीं थी। इसलिए, कुमारस्वामी ने किसानों की कुछ चुनिंदा श्रेणियों के लिए केवल 36,000 करोड़ रुपये की चरणबद्ध ऋण माफी की घोषणा की और आखिरकार व्यवहार में उनकी सरकार ने 2018-19 के बजट में 6500 करोड़ रुपये और 2019-20 के बजट में 12,650 करोड़ रुपये आवंटित किए। दूसरे शब्दों में, वादे की गई छूट का केवल आधा हिस्सा दिया गया।

कर्नाटक में बार-बार सूखा

कर्नाटक राज्य प्राकृतिक आपदा निगरानी केंद्र (KSNDMC) के अनुसार, पिछले 11 वर्षों में, कर्नाटक में 8 वर्षों में सूखा, 2 वर्षों में बाढ़ के अलावा 2021 में कोविड-19 भी देखा गया। बार-बार सूखा पड़ने और कभी-कभी मूसलाधार वर्षा से किसानों की फसलों को भारी नुकसान होता है। कर्नाटक का 61% खेती योग्य क्षेत्र सूखा-प्रवण (drought-prone) है, लेकिन केवल 17% किसान ही फसल बीमा योजना के दायरे में हैं।

कर्नाटक में खेती की व्यवहार्यता संकट में

किसानों की ऋणग्रस्तता और बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, कम फसल की पैदावार, कृषि उपज की कीमतों में उतार-चढ़ाव, उच्च इनपुट लागत, अपर्याप्त विपणन सुविधाएं और अविकसित कृषि बुनियादी ढांचे भी कर्नाटक में खेती को तेजी से अलाभकारी बना रहे हैं। इसका असर कई फसलों के घटते रकबे (acerage) के रूप में दिख रहा है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक कृषि मूल्य समिति (KAPC) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, मुख्य खाद्य फसल-धान और वाणिज्यिक फसल-मिर्च दोनों का क्षेत्रफल 36% कम हो गया है।

छोटे और सीमांत किसानों के बीच भूमि हस्तांतरण भी गंभीर है और उनमें से कई अपनी जमीन खो रहे हैं और मजदूर बनते जा रहे हैं। एनएसएसओ (NSSO) के आंकड़ों के अनुसार, कर्नाटक में भूमिहीनता, जो 1987-88 में 40% थी, 2011 में बढ़कर ग्रामीण आबादी का 47% हो गई।

पिछली भाजपा सरकार ने रियल एस्टेट दिग्गजों और कॉर्पोरेट घरानों सहित गैर-किसानों को कृषि भूमि खरीदने की अनुमति देने के लिए कर्नाटक भूमि सुधार अधिनियम में भी संशोधन किया था। इससे पहले खेती योग्य कृषि भूमि केवल दूसरे किसानों को ही बेची जा सकती थी।

केंद्र जिन 3 कृषि कानूनों को पारित करना चाहता था, उनके अनुरूप, केंद्र ने कर्नाटक में भाजपा सरकार को एपीएमसी अधिनियम में संशोधन करने के लिए भी प्रेरित किया। तदनुसार, बोम्मई सरकार ने अधिनियम में संशोधन किया, ताकि किसान कृषि उपज विपणन समितियों (APMCs) के बाहर व्यापारियों और कंपनियों को उनके द्वारा प्रस्तावित कीमत पर बेच सकें, न कि APMC में सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी (MSP) पर। किसानों को आशंका थी कि इससे वे कॉरपोरेट की दया पर निर्भर हो जायेंगे। हालांकि उन्होंने लड़ाई लड़ी और मोदी सरकार को तीन कृषि बिल वापस लेने के लिए मजबूर किया, परंतु कर्नाटक के किसान राज्य के कानून के खिलाफ ऐसा करने में सफल न हो सके।

चुनाव के दौरान कांग्रेस ने वादा किया था कि वह इस कानून को खत्म कर देगी। सिद्धारमैया सरकार का पहला कदम था बोम्मई सरकार द्वारा किए गए पहले के संशोधन को वापस लेने के लिए एक विधेयक पेश करना। बीजेपी और जेडीएस इस कदम का विरोध कर रहे हैं।

बोम्मई सरकार ने कर्नाटक वध रोकथाम और मवेशी संरक्षण अधिनियम 2020 (Karnataka Prevention of Slaughter and Preservation of Cattle Act 2020) भी पारित किया। इसने बूचड़खाने में मवेशियों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। इसलिए किसान बूढ़े मवेशियों के बोझ तले दब गए, जिन्हें खिलाना तो पड़ता था, लेकिन कृषि उत्पादन में उनका उपयोग नहीं किया जा सकता था। इससे किसान अपनी आय के एक महत्वपूर्ण स्रोत से भी वंचित हो गये।

कर्नाटक के जीएसडीपी (GSDP) में कृषि की हिस्सेदारी 1993 में 33% से घटकर 2005 में 20% हो गई लेकिन राज्य का दो-तिहाई कार्यबल अभी भी कृषि पर निर्भर है।

कर्नाटक में भूमि सुधार स्वर्गीय देवराज शासन के दौरान किए गए थे। केरल और पश्चिम बंगाल के बाद, कर्नाटक में भूमि सुधार सबसे अधिक उन्नत थे। लेकिन भाजपा सरकार के दौरान रिवर्स लैंड रिफॉर्म (reverse land reform) आदर्श बन गया।

1996 से 2005 के बीच 4,50,000 हेक्टेयर कृषि भूमि को गैर-कृषि कार्यों के लिए स्थानांतरित कर दिया गया। स्थायी चरागाहों में 7,30,000 हेक्टेयर की कमी हो गई, जिससे चरवाहा कुरुबा समुदाय संकट में आ गया। लेकिन उच्च भूमि क्षरण के कारण, वर्तमान परती में 7,33,000 हेक्टेयर की वृद्धि हुई।

जबकि कर्नाटक की सिंचाई क्षमता 3.46 मिलियन हेक्टेयर अनुमानित है, केवल 2.38 मिलियन हेक्टेयर भूमि सिंचित की गई है।

इन सभी कारकों की वजह से कर्नाटक में किसान एक स्थायी संकट में फंस गए हैं।

सबसे बढ़कर, कीमतों में तेज उतार-चढ़ाव और व्यापारी माफिया द्वारा लूट के कारण किसानों को गंभीर नुकसान होता है। उदाहरण के लिए, कूर्ग में मिर्च की कीमतें बढ़ने पर मिर्च की खेती करने वाले किसानों ने बड़ी संपत्ति अर्जित की और उन्होंने कई घर बनाए, जो 'मिर्च महल' के नाम से मशहूर हैं। इसके बाद, जब मिर्च की कीमतें गिर गईं तो उन्हें अपना कर्ज चुकाने के लिए इन घरों को गिरवी रखना पड़ा।

कोलार जिला टमाटर का गढ़ है और यह किसानों पर मूल्य अस्थिरता के प्रभाव को सबसे अच्छी तरह दर्शाता है। पहले जब बेंगलुरु में टमाटर 40 रुपये किलो बिकता था तो किसानों को 8-10 रुपये प्रति किलो दाम मिलते थे। अब बेंगलुरु में टमाटर 140 रुपये बिक रहा है लेकिन कोलार में किसानों को 40-45 रुपये प्रति किलो ही मिल रहा है। वे थोक व्यापारी हैं, न कि किसान जो माला-माल हो रहे हैं।

किसानों के आक्रोश के चलते हार की आशंका को देखते हुए बोम्मई ने फरवरी 2023 में बजट में किसानों को 5 लाख रुपये तक ब्याज मुक्त ऋण देने की घोषणा की। उन्होंने बीज, उर्वरक और कीटनाशकों की खरीद के लिए 10,000 रुपये की अतिरिक्त सब्सिडी की भी घोषणा की। उन्होंने कृषि श्रमिक महिलाओं को प्रति माह 500 रुपये देने की भी घोषणा की। चुनाव की पूर्वसंध्या पर कुछ भी उन्हें बचा न सका।

समस्या का हल

केएपीसी ने एक रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि बागवानी फसलों की कीमतें भी सरकार द्वारा उत्पादन लागत, इनपुट कीमतों, सामान्य मुद्रास्फीति सूचकांकों और संभावित वैश्विक बाजार मूल्य झटकों को ध्यान में रखते हुए तय की जानी चाहिए।

केएपीसी (KAPC) ने आपदाओं के कारण बागवानी फसलों के नुकसान के लिए मुआवजे को 13,500 रुपये से बढ़ाकर 50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर करने की भी सिफारिश की।

केएपीसी ने कमी भुगतान प्रणाली (deficiency payment system) की भी सिफारिश की, जिसका अर्थ है कि यदि बाजार मूल्य एमएसपी से नीचे है तो सरकार को अंतर का भुगतान करना चाहिए। उसने पीडीएस और मध्याह्न भोजन के लिए स्थानीय खरीद का भी सुझाव दिया।

केएपीसी ने मूल्य गिरावट के समय किसानों से कृषि सामग्री की खरीद के माध्यम से मूल्य स्थिरीकरण (price stabilization) के लिए 5000 करोड़ रुपये का एक चक्रीय कोष (revolving fund) स्थापित करने की भी सिफारिश की।

सबसे बड़ी बात यह है कि किसान संगठनों द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर इसकी मांग करने से पहले ही केएपीसी ने मांग की थी कि एमएसपी को कानूनी दर्जा दिया जाना चाहिए।

कांग्रेस के चुनावी वादों को पूरा करने की दिशा में सिद्धारमैया द्वारा घोषित महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, महिलाओं के लिए मुफ्त खाद्यान्न, शिक्षित युवाओं के लिए बेरोजगारी भत्ता आदि तत्काल राहत के रूप में स्वागत योग्य हैं। लेकिन अब समय आ गया है कि उनकी सरकार किसानों द्वारा आत्महत्या को शून्य करने के लक्ष्य को हासिल करने हेतु बहुआयामी कृषि संकट जैसी बुनियादी सामाजिक-आर्थिक चुनौती का समाधान करे।

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