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कोरोना के इलाज को लेकर कैसी चल रही है दुनिया की लड़ाई?

उम्मीद है कि इस साल के अंत तक यह पता चल जाएगा कि हमारे पास कोरोना वायरस से लड़ने के लिए वैक्सीन है। लेकिन इसके बाद की प्रक्रिया भी बहुत मुश्किल है। सारे देश की रेगुलेटरी अथॉरिटी इसे चेक करेगी। तब इसका उत्पादन शुरू होगा।
coronavirus
Image courtesy:Al Jazeera

बहुत सारे जरूरी सवालों के साथ इस समय सबके मन में एक सवाल यह चल रहा है कि कोविड-19 का इलाज क्या है? कब इस बीमारी से लड़ने वाली दवाई हमारे बीच मौजूद होगी? कब इस मानसिक तनाव से छुटकारा मिलेगा कि कोरोना वायरस का कोई इलाज नहीं है?  कोरोना वायरस से जुड़े इस पहलू को समझने की कोशिश करते हैं।  

वायरस से लड़ने का सबसे बढ़िया तरीका है कि वैक्सीन हो। लेकिन अगर वैक्सीन नहीं है तो  prophylaxis से भी काम चलाया जाता है। अब आप पूछेंगे कि ये वैक्सीन और  prophylaxis क्या है?  वैक्सीन वायरस के ही मरे हुए या कमजोर सैंपल होते हैं। जिन्हें हमारे शरीर के अंदर डाला जाता है। ताकि हमारे शरीर में पहले से मौजूद एंटीबाडी को सही तरह की जानकारी मिल जाए।

हमारा शरीर वायरस से लड़ने के लिए तैयार हो जाए, वायरस को मारने के लिए तैयार हो जाए।  लेकिन Prophylaxis मतलब रोग होने के पहले ही दवा खाने वाली स्थिति। यानी रोग होने से पहल दवा ख़ा ली, अब हो सकता है कि रोग न हो।  

टेस्ला और स्पेसएक्स जैसी कम्पनियों के मालिक, साइंटिस्ट, इंजीनियर एलन मास्क, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, भारत का इंडियन मेडिकल कॉउन्सिल रिसर्च सेंटर तक कह रहा है कि कोरोना वायरस से लड़ने के लिए chloroquine और hydroxychloroquine का इस्तेमाल कर सकते हैं।

हालाँकि ICMR के  के निदेशक बलराम भार्गव ने प्रेस को सम्बोधित कर कहा कि chloroquine और  hydroxychloroquine का केवल वही डॉक्टर, नर्स या स्वास्थ्यकर्मी कर सकते हैं, जो पहले से मौजूद कोरोना के मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं और उनमें अभी तक कोरोना से संक्रमित होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई दिए हैं।

साथ ही कोरोना के कन्फ़र्म मरीज़ के घरवालों, जिनमें अभी तक कोई लक्षण नहीं दिखाई दिए हैं उन्हें भी hydroxychloroquine का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है।

अब आप पूछेंगे कि यह   chloroquine और hydroxychloroquine  क्या है ? तो जवाब है कि यह prophylaxis है।  एक पत्ता 10 रुपये से भी कम में आता है। और ऐसी दवा है जिसे मलेरिया और गठिया जैसे रोगों के लिए कई सालों से खाया जाता रहा है। इसके साइडइफ़ेक्ट खतरनाक होते हैं। नॉर्मल डोज़ लेने के बाद लोगों में चक्कर, उलटी, मितली, धुंधला दिखना या सिरदर्द जैसे साइडइफ़ेक्ट देखे गए हैं. वहीं अगर इसे ज़्यादा मात्रा में लिया जाए तो मौत हो सकती है।

वैज्ञानिक सत्यजीत रथ कहते हैं कि तीन वजह है जिसकी वजह से लोग  chloroquine और hydroxychloroquine  की बात कर रहे हैं। पहला यह कि इसका इस्तेमाल मलेरिया के लिए किया जाता रहा है, ताकि मलेरिया न हो। दूसरा क्लोरोकवीन का इस्तेमाल कई तरह के बायोलॉजिकल प्रोसेस के तौर पर पहले से किया जाता रहा है जैसे कि इन्फ्लमेट्री बीमारियां। मतलब शरीर का इम्यून सिस्टम जब शरीर पर खुद ही हमला करने लगता है और कोशिकाएं मरने लगती है तो शरीर में घट रही ऐसी टूट-फूट को इन्फ्लेमेशन कहा जाता है और बीमारी को इंफ्लेमटरी बीमारी कहा जाता है। हालाँकि अभी भी विज्ञान ठीक ढंग से नहीं जान पाया है कि क्लोरोकवीन इन बिमारियों पर काम कैसे करता है।

तीसरा, आज से बीस साल पहले कोरोनावायरस फैमिली के पहले वायरस कोव-1 का पता चला था। तब से वैज्ञानिक एंटीवायरल के तौर पर दवाओं के इस्तेमाल को भी समझ रहे हैं। जिन्हें एक मोटे कैटेगरी रीपरपज़्ल ड्र्रग में बांटकर समझा जाता है। ऐसे ड्रग या दवा जो शरीर द्वारा कोशिकाओं के मारने की कोशिश को रोकने का काम करते हैं। अभी इनके बारे में विज्ञान को खुद पूरी जानकारी नहीं है।  

जहाँ तक मौजूदा कोरोनावायरस का सवाल है तो इस मामले में अभी तक की स्थिति यह है कि क्लोरोक़्वीन की लड़ने की क्षमता बहुत कम है। जब स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है और मरीज वेंटिलेटर का इस्तेमाल करने लगता है तब इन दवाइयों से अभी तक कोई फायदा नहीं है। इसलिए इसे एंटी वायरल दवा नहीं कहा जा सकता। न ही व्यवहार में इसके इस्तेमाल के बारे में सोचा जा सकता है।  

एड्स, इबोला और जीका वायरस के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली दवाईंयां भी कोरोना वायरस से लड़ने के लिए इस्तेमाल की जा रही है। इसकी वजह यह है कि यह सब आरएनए वायरस हैं।  और कोरोना वायरस भी आरएनए वायरस है। इसलिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है।  लेकिन यह भी कारगर नहीं है।

फिर भी इंडियन मेडिकल कॉउन्सिल रिसर्च सेंटर का कहना है कि क्लोरोकवीन का इस्तेमाल वो लोग कर सकते है जिनके घर में कोरोना वायरस का मरीज है लेकिन उन्हें कोरोना वायरस का संक्रमण नहीं हुआ है। कुल मिला जुलाकर संक्षेप में समझा जाए तो यह है कि जो संक्रमण के अभी शुरुआती दिनों में हैं, उनके लिए कोलोरोकवीन जैसी दवा कारगर हो सकती है।

इस पर वैज्ञानिक सत्यजीत रथ कहते हैं कि एक हद तक यह बात ठीक है। लेकिन यह भी समझना चाहिए कि यह महामारी है। हम में से हर एक इंसान इसका संभावित रोगी है। ऐसी स्थिति में कमजोर से गंभीर मामला होने पर कोई देरी नहीं लगती। सरकारी नीति बहुत बड़े स्तर पर ऐसी दवाइयों बनाने में जुटे तो यह गलत दिशा होगी।

जैसाकि यह बात सबको पता है कि वैक्सीन बनाने में 12 से 18 महीने का समय लग सकता है।  इस पर वैज्ञानिक सत्यजीत रथ कहते हैं कि हाल फिलहाल की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम निश्चित तौर नहीं जानते कि क्या हम कोरोना वायरस के खिलाफ प्रोटेक्टिव इम्यून रेस्पोंस सिस्टम बना सकते हैं या नहीं। यानी क्या ऐसा वैक्सीन बना सकते हैं जिसके एक बार इस्तेमाल से फिर से संक्रमण का खतरा न हो। एक प्रभावी वैक्सीन बनाने की तरफ बढ़ने से पहले अगर यह बात पता होती है तो वायरस बनाने में आसानी होती है।

अभी दस दिन पहले ही चीन में चार बंदरों पर जाँच किया गया था। उस पर इस्तेमाल एंटी वायरस का इस्तेमाल जब इंसान कोरोना वायरस से संक्रमित कोशिका पर किया गया तो पाया गया कि एंटीवायरस संक्रमण को रोक दे रहा है। यह एक बहुत ही बढ़िया खबर है।

अभी हाल फिलहाल अमेरिका, चीन, जर्मनी और ब्रिटेन के वैक्सीन ट्रायल डिजायन को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मान्यता दे दी है, जिस पर काम चल रहा है। उम्मीद है कि इस साल के अंत तक यह पता चल जाएगा कि हमारे पास कोरोना वायरस से लड़ने के लिए वैक्सीन है। लेकिन इसके बाद की प्रक्रिया भी बहुत मुश्किल है। सारे देश की रेगुलेटरी अथॉरिटी इसे चेक करेगी। तब इसका उत्पादन शुरू होगा। तब यह आगे बाजार की तरफ बढ़ेगी। इसमें भी लम्बा समय लगता है।

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