Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

आइसीआइएमओडी के अध्ययन में खुलासा, बड़े भूस्खलन का नतीजा थी-चमोली आपदा 

वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के दृष्टि से भी पूरे विनाश की जांच की ।
आइसीआइएमओडी के अध्ययन में खुलासा, बड़े भूस्खलन का नतीज़ा थी-चमोली आपदा 
चित्र-डाउन टू अर्थ के सौजन्य से। 

उत्तराखंड के चमोली जिले में हालिया आई विनाशकारी बाढ़ हिमनद सरोवर के फटने (जीएलओएफ) से नहीं बल्कि नंदादेवी पर्वतमाला में रोंटी चोटी के नीचे चट्टानों के खिसकने के कारण से आई थी। यह त्रासद परिघटना हुई ऋषि गंगा पनबिजली परियोजना (एचपीपी) के लगभग 22 किलोमीटर ऊपरी हिस्से में। वहां से उसके टुकड़ों के नीचे गिरने से एक ऊर्जा पैदा हुई, जिससे बर्फ पिघल गई। परिणामस्वरूप विपलवकारी बाढ़ आई। इसने घाटी के धरातल पर पहले की भौगोलिक घटनाओं के चलते जमे हुए मलबे और बर्फ को फिर से एकत्रित कर, उसे पानी की धारा की तरफ धकेल दिया और प्रलयंकारी बाढ़ की ऊंची-ऊंची लहरें पैदा कर दी।

यह निष्कर्ष अंतरराष्ट्रीय समेकित पहाड़ विकास केंद्र (आइसीआइएमओडी) के वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों का आठ सदस्यीय दल का है, जिसने उस हादसे का विस्तार से अध्ययन किया है। 

विगत 4 और 6 फरवरी 2021 के बीच एक मजबूत पश्चिमी विक्षोभ भारत के कश्मीर और दक्षिण-पश्चिम हिस्से हो कर गुजरा था, जो पूरी तरह से एक मजबूत संवहनी अस्थिरता से आवेशित था। आइसीआइएमओडी के दल का अनुमान है कि यही विक्षोभ इस क्षेत्र में भारी वर्षा कराने और फिर विनाश लाने का एक कारण हो सकता है।

ऋषि गंगा, धौलीगंगा और अलकनंदा नदी घाटियों में आई प्रचंड बाढ़ की वजह से चमोली जिले में 7 फरवरी को भयंकर विध्वंस हुआ था। इस विनाशकारी बाढ़ में 70 से ज्यादा लोगों की डूबने से मौत की पुष्टि हो गई है जबकि 134 से अधिक तादाद में लोगों का अभी तक कोई अता-पता नहीं है। इस प्रचंड बाढ़ ने तपोवन विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजना को तो बहा ही ले गई और ऋषि गंगा पनबिजली परियोजना को आंशिक क्षति पहुंचाया है। चमोली क्षेत्र में तीखी ढलान वाली ऊंची-ऊंची पर्वतश्रेणियां हैं। इन्हीं में एक नंदा देवी पर्वत भी है, जो भारत की दूसरी सबसे ऊंची (समुद्र तल से 7,816 मीटर) चोटी है। 

चमोली में जहां बाढ़ आई थी, वह उत्तराखंड की उस जगह से मात्र 60 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में है, जहां इसके पहले 2013 में भी भयानक बाढ़ आई थी। यह आपदा चमोली जिले के तपोवन इलाके में ही नंदा गोमती चोटी (7050 मीटर) के उत्तरी हिस्से में ऋषि गंगा नदी के नजदीक आई थी। ऋषि गंगा नदी धौलीगंगा की एक सहायक नदी है, रायखन्ना ग्लेशियर (समुद्रतल से 5375 मीटर) से निकलती है और आगे जा कर अलकनंदा की धारा में मिल जाती है। पर्वतमालाओं में काफी ऊंचाई पर हिमनद हैं और उनकी चोटियां हिमाच्छादित रहती हैं, जो वसंत और ग्रीष्म ऋतुओं में पिघलती हैं। पिघल कर वह निचले इलाकों के लिए जलस्रोत बनती हैं। यह पानी का एकमात्र स्रोत होने तथा इन पर्वतों की खड़ी स्थलाकृति होने के कारण, यहां की अनेक सहायक नदियों पर पनबिजली परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। वर्तमान में, उत्तराखंड में 3900 मेगावाट पनबिजली का उत्पादन किया जाता है। पानी से 20,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन के अनुमान के साथ अनेक परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं, उनसे 3200 मेगावॉट अतिरिक्त बिजली उत्पादित होने की आशा है। 

आइसीआइएमओडी के अध्ययन में पाया गया कि चमोली में 1980 से लेकर 2018 के बीच अधिकतम तापमान बढ़कर 0.032 डिग्री सेंटीग्रेड तक चला गया था। इसके अलावा, उत्तराखंड में 2021 की जनवरी पिछले 60 सालों में सबसे गर्म रही थी। इसी साल, (2021) की 6 से 10 फरवरी के बीच पर्वतों पर जमे बर्फ के घनत्व में भी गिरावट आई है। इन वैज्ञानिकों का विचार है कि चमोली में भयानक बाढ़ जैसी आपदा सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन की वजह से नहीं आ सकती। स्थायी तुषार या पर्माफ्रोस्ट (permafrost) (ऐसी धरती जिसमें मिट्टी लगातार कम-से-कम दो वर्षों तक पानी जमने के तापमान यानी शून्य सेंटीग्रेड से कम तापमान पर रही हो। इस प्रकार की धरती में मौजूद पानी अक्सर मिट्टी के साथ मिलकर उसे इतनी सख़्ती से जमा देता है कि मिट्टी भी सीमेंट या पत्थर जैसी कठोर हो जाती है।) के पिघलने-जमने के चक्र में बढ़ोतरी होना इस घटना के होने की एक आंशिक वजह रही होगी। यह घटना तथा इससे संबंधित मलबों का प्रवाह/ बाढ़ ऋषि गंगा, धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों के प्रवाह स्थलों पर बने चार जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुंचाया है। ऋषि गंगा पनबिजली परियोजना (13.2 मेगावॉट) घटनास्थल से 14 किलोमीटर ढलान की तरफ रानी गंगा (देखें चित्र-10) गांव के नजदीक बनाई गई है, जो चट्टान खिसकने से बहने वाले मलबे के जबरदस्त धक्के की पहली शिकार बनी थी। निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजना (520 मेगावॉट) दूसरी थी, जिसे बाढ़ से नुकसान पहुंचा था। यह रानी गंगा पनबिजली परियोजना से 8 किलोमीटर नीचे है। नदी-जल से चलने वाली इस परियोजना के डायवर्सन डैम को अवसादन (सेडिमेन्टेशन) से भारी नुकसान पहुंचा था। डैम मलबों से भर गया था, जिसे घटना के पहले और बाद में दूरसंवेदी तस्वीरों में देखा जा सकता है। 

आइसीआइएमओडी के अध्ययन में यह भी कहा गया है कि आइपीसीसी 2019 की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि यह पर्वतीय क्षेत्र कई जलमंडलों (क्रिस्फेयर्स पृथ्वी की सतह जहां पानी जम जाता है) को आवरणहीन कर दिया है। इन खतरों की बारम्बारता, उनके परिमाण और क्षेत्रों के बदलने के अनुमान लगाये गये हैं, क्योंकि जलमंडलों में लगातार गिरावट आ रही है। हिमालय क्षेत्र के हिंदू कुश में प्रपात के रूप में खतरों को प्रपात के जैसे विनाश की घटना में तब्दील हो जाना एक सामान्य घटना मानी जाती है। इसका सबसे ताजा और महत्त्वपूर्ण उदाहरण 2013 में आई उत्तराखंड की बाढ़ की विभीषिका है। यह भारी वर्षा के साथ आई थी और उसके बाद इसमें भूस्खलनों, अचानक बाढ़ों, और चोराबरी झील के फटने तथा मलबों के बहने की घटनाएं जुड़ती चली गईं थीं। इसमें 6,000 से ज्यादा लोग असमय काल-कलवित हो गए थे और सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी संरचनाओं को भारी नुकसान पहुंचा था। 

भूगर्भीय प्रक्रियायों के सहमेल से होने वाली इसी तरह की अन्य खतरनाक घटनाएं कई पनबिजली परियोजनाओं को भारी नुकसान पहुंचा सकती हैं। मौजूदा समय में काराकोरम-हिमालय क्षेत्र में 37 गीगावॉट बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता के साथ लगभग 105 पनबिजली परियोजनाएं (≥ 40 MW) चल रही हैं। 39 गीगावॉट बिजली उत्पादन के लिए (≥40 MW) की 61 परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। वहीं, 242 गीगावॉट बिजली के लिए 890 परियोजनाएं (≥10 MW) योजना के विभिन्न स्तरों पर हैं। इनमें से अधिकतर परियोजनाएं विगत दो-तीन दशकों में बनी हैं, जो मुख्य रूप से पर्वतीय भूभाग के निचले क्षेत्रों से शुरू हुई हैं। अब ये परियोजनाएं ऊपरी इलाके में स्थापित की जा रही हैं, जहां पहाड़ जनित खतरे की आशंका बहुत अधिक है। अनेक खतरे मिले-जुले रूप में और बारम्बार हो रहे हैं, गिरते प्रपात के जैसे असर के साथ यह प्रणाली पर सघन दुष्प्रभाव डाल सकते हैं। पनबिजली परियोजनाओं पर अधिक खतरे हैं क्योंकि उनकी संरचना नदी नेटवर्क (जैसे डायवर्जन डैम्स/जलाशयों) के समीप होने से पानी से संबंधित खतरे उत्पन्न होने की आशंका ज्यादा हैं। वैज्ञानिकों का यह भी पुख्ता राय है कि पनबिजली की संरचनाएं स्थानीय वातावरण पर अपना असर डालती हैं, जिसकी वजह से अन्य तमाम असर के साथ प्राकृतिक और पर्यावरण प्रवाह, जलीय पारिस्थितिकी में बदलाव और पानी की गुणवत्ता में गिरावट आती है।

चट्टान के खिसकने से चमोली में आई हालिया बाढ़ हिंदू कुश पर्वतमालाओं में कई संभव आपदाओं में से एक है। इस क्षेत्र में आवेग के साथ हिमनदीय सरोवर में आई बाढ़ों, मूसलाधार बाढ़ों, मलबों के प्रवाहों, भूस्खलनों, और हिमस्खलनों, खास कर दोहरे हिमस्खलनों, हिमनद के खिसकने, बर्फ के पिघलने, और अति बरसात जैसे पहाड़ों से संबंधित खतरे सामान्य बात है। 

यह अध्ययन पर्यावरण निगरानी, उसके  विश्लेषण तथा ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के समय संयुक्त रूप से काम करने के लिए सूचना प्रणाली से लैस एक राष्ट्रीय एजेंसी की स्थापना में सतत निवेश की जरूरत बताता है। पहले तो इस क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली संस्थाओं में परस्पर तालमेल और फिर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से समन्वय हिमालय क्षेत्र में एक जबरदस्त पारिस्थितिकी प्रणाली और क्षमता का निर्माण करने में मदद कर सकता है। 

हिंदू कुश-हिमालय एक बहुआयामी हादसों की आशंका वाला वातावरण है। पर्वतीय क्षेत्र में मानवीय दखल तेज गति से बढ़ता ही जा रहा है। पर्वतीय बस्तियां आकार में बढ़ रही हैं और उसके भूभाग के उपयोग में बढ़ोतरी हो रही है। सड़कों के निर्माण और पनबिजली परियोजना लगातार पहाड़ों के लैंडस्केप का लगातार भेदन कर रही है। 

मानवीय रिहाइश के साथ प्राकृतिक खतरों तथा आधारभूत संरचना के बीच निर्भरता एक महत्वपूर्ण आयाम है, जो चमोली की बाढ़ जैसी विकराल घटनाओं को प्रमुख रूप से फैला सकता है। आपदा के जोखिम का प्रबंधन में इसलिए ही एक बहुआयामी खतरों के जोखिम के आकलन के नजरिये को शामिल किये जाने की जरूरत है। 

पर्यावरण के मोर्चे पर, पनबिजली परियोजना का विकास पर्यावरणीय प्रवाहों, जल की गुणवत्ता और जलीय तथा पृथ्वीय पारिस्थितिकी की सेहत पर दुष्प्रभाव पड़ता है। ठीक इसी प्रकार, भौतिक पर्यावरण पनबिजली के विकास और निरंतरता पर कई चुनौतियां पेश करता है। इन परियोजनाओं से जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रवाहों में अंतरों, अति आसाधारण घटनाएं, कटाव और अवसादन, तथा जीएलओएफ-एलडीओएफ, जैसे चुनौतियां पर्यावरण के समक्ष आती हैं।

आइसीआइएमओडी के सूचीबद्ध अन्य अनेक सुझावों में वैज्ञानिकों का कहना है कि वित्तीय, पर्यावरणीय और सामाजिक निरंतरता का एक समग्र सतत ढांचा पनबिजली को एक वहनीय ऊर्जा का विकल्प बनाने में मदद दे सकती है। हिंदू कुश-हिमालयीय क्षेत्र में पनबिजली की निरंतरता के लिए, ढ़ांचागत (जैसे, क्षरण के संरक्षण के कार्य) और गैर ढांचागत (जैसे, नियमों को लागू कर) दोनों ही उपायों के जरिये जोखिम को मिटा कर पर्यावरणीय खतरों को कम करने की जरूरत है। इसके अलावा, भविष्य की ऊर्जा सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन के जोखिम और प्रवाहों में अंतरों को मिटाने को सर्वाधिक अहमियत देने की जरूरत है। इसके लिए भावी जलवायु संबंधी योजनाओं और पानी की उपलब्धता की बेहतर समझदारी की दरकार है। यह समझ क्षेत्र में भावी पनबिजली परियोजनओं की डिजाइन और जगहों पर विचार में परिलक्षित हो सकती है। 

(चंडीगढ़ में रहने वाली सीमा शर्मा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जो पर्यावरण, वन्यजीवन, जलवायु परिवर्तन, समाज और जेंडर मामलों पर लिखती हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

ICIMOD Study Says Chamoli Disaster Was Triggered by Massive Landslide

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest