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आईईए रिपोर्ट: क्या भारत लेगा सबक़, बच पाएंगे जंगल?  

कोरोना संकट ने बताया, दुनिया ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोत से भी चल सकती है। तो क्या भारत जैसा देश डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ पावर जेनरेशन मॉडल नहीं अपना सकता?
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image courtesy; Hindi Water Portal

मन में कोई शंका उपजे, उससे पहले याद कर लें कि सहारनपुर से हिमालय के धवल शिखर का दिखना या वर्षों बाद गंगा का स्वत: एक सीमा तक साफ हो जाना यूं ही संभव नहीं हो जाता। इसके पीछे वजहें हैं। और इन्हीं वजहों का विस्तार से वर्णन करती है, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) की ये रिपोर्ट। रिपोर्ट बताती है कि कोरोना संकट के बीच दुनिया भर में जहां एक तरफ तेल और कोयला जैसे परंपरागत ऊर्जा स्रोत की मांग में (6 फीसदी तक) कमी आई है, वहीं रीन्यूएबल एनर्जी की मांग बढी है। अब इसका सीधा सा अर्थ है कि अर्थव्यवस्था में मन्दी है तो तेल और कोयले की जरूरत में कमी आई है। इससे करीब 6 फीसदी कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है। नतीजा, पर्यावरण साफ हुआ है। लेकिन, इसका अर्थ ये भी नहीं है कि आगे भी स्थिति यही रहेगी, जब एक बार अर्थव्यवस्था फिर से गतिमान हो जाएगी। तो फिर दुनिया के पास विकल्प क्या है? ऊर्जा खपत के नाम पर प्रदूषण झेलना या कि स्वच्छ ऊर्जा का अधिकाधिक विकल्प तलाशना और उसका इस्तेमाल करना?   

स्वच्छ ऊर्जा ही विकल्प

इस सवाल का जवाब भी आईईए की रिपोर्ट में ही छुपा हुआ है। आईईए के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर फतिह बिरोल बताते हैं, “मौजूदा संकट में जो एनर्जी इंडस्ट्री उभर रही हैं, वो पहले के मुकाबले निश्चित तौर पर अलग होगी।” उनका इशारा रीन्यूएबल और क्लीन एनर्जी से जुड़े इंडस्ट्री की तरफ है। हालांकि, बिरोल ये मानते है कि एक बार लॉकडाउन खत्म होने के बाद स्थिति फिर से पहले जैसी हो सकती है। इसलिए वे दुनिया भर की सरकारों से आग्रह करते हैं कि इकोनॉमिक रिकवरी के लिए प्लान बनाते समय सभी सरकारें अपनी योजना के केन्द्र में स्वच्छ ऊर्जा का विकल्प शामिल करें।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रोफेसर डैनियल कैमन, जिन्होंने अमेरिका के लिए “ग्रीन स्टीम्यूलस” का प्रस्ताव दिया है, कहते हैं, “कोरोना संकट ने लोगों को एक बेहतर वातावरण का अनुभव कराया है और इससे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में हम क्लीन एनर्जी की तरफ जाएंगे।” हाल ही में, साउथ कोरिया ने अपने इकोनॉमिक प्लान में क्लीन एनर्जी को महत्व देते हुए इसमें निवेश बढाने की बात कही है। जर्मनी और इंग्लैंड में भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के प्रयासों में पर्यावरणीय मुद्दों को शामिल करने की बात कर रहे हैं। तो सवाल है कि इस सब के बीच भारत क्या कर रहा है और क्या कर सकता है?

भारत की स्थिति

उरुग्वे स्थित वर्ल्ड रेनफॉरेस्ट नामक गैर-सरकारी संस्था ने भारत में वनों की कटाई को ले कर एक रिपोर्ट तैयार की है। नवंबर, 2019 की ये रिपोर्ट बताती है कि 1980 से 2019 के बीच, भारत में दस लाख से अधिक हेक्टेयर वन क्षेत्र का खनन, पावर प्लांट, ट्रांसमिशन लाइंस, बान्ध और अन्य प्रोजेक्ट के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी। सिर्फ, 2015 से 2018 के बीच ही सरकार ने 20 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र को नष्ट करने (काटने) के लिए फॉरेस्ट क्लियरेंस दे दिया है। खनन के कारण वनों के नष्ट होने का सर्वाधिक असर ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और झारखंड जैसे राज्यों में हुआ है, जहां खनन कार्य अधिक होता है। अभी छत्तीसगढ के सरगुजा जिले में 1 लाख 70 हजार हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य में भी कोयला खनन के लिए अडानी समूह को सरकार से फॉरेस्ट क्लियरेंस मिल चुका है। हालांकि, मामला अभी अदालत और ग्राम सभा में लंबित है और स्थानीय लोगों के भारी विरोध के कारण ये जंगल बचा हुआ है। लेकिन, सरकारी रूख को देखते हुए, इसका बच पाना भी मुश्किल लगता है। अब इन आकडों के बाद, भारत में पर्यावरण, प्रदूषण आदि की स्थिति समझने के लिए और किसी आकड़े की जरूरत रह नहीं जाती। तो क्या कोई रास्ता बचता है?

 क्या है रास्ता

केंद्र सरकार ने 2022 तक 175 गीगावाट रीन्यूएबल एनर्जी क्षमता हासिल करने का लक्ष्य रखा था। कोयला या तेल की तुलना में रीन्यूएबल एनर्जी का विकल्प सस्ता भी है। लेकिन, हाल ही में कोयला आधारित कंपनियों को कार्बन टैक्स में छूट देने के सरकारी प्रस्ताव से सरकार के इस लक्ष्य को धक्का पहुंच सकता है। चूंकि, अभी भी 60 फीसदी बिजली का उत्पादन नन-रीन्यूएबल एनर्जी सोर्स के जरिए होता है, ऐसे में क्लीन एनर्जी का लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार को काफी मेहनत करनी होगी। हालांकि, केन्द्र सरकार ने इस क्षेत्र के लिए 100 फीसदी एफडीआई की मंजूरी दे दी है और इस सेक्टर में काम करने वाली कंपनियों के लिए कई छूटों और प्रोत्साहनों की भी घोषणा की हैं। फिर भी, मौजूदा कोरोना संकट के दौरान पर्यावरण में आए सुखद बदलाव से सबक लेते हुए सरकार को रीन्यूएबल एनर्जी पर अधिक से अधिक फोकस करना चाहिए। भारत जैसे देश को बिजली उत्पादन का विकेन्द्रीकरण (डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ पावर जेनरेशन) मॉडल अपनाना चाहिए। इसे माइक्रो जेनरेशन कहा जाता है, जिसमें कोई व्यक्ति, कोई संस्था, कोई छोटा-मोटा उद्योग या स्थानीय समुदाय अपनी जरूरत के लिए जीरो कार्बन उत्सर्जन के आधार पर अपने लिए बिजली का उत्पादन कर सकता है। इसमें सोलर, विंड और बायोमास एनर्जी के विकल्प शामिल है।

वरिष्ठ वकील और एनर्जी एक्सपर्ट सुदीप श्रीवास्तव का कहना है, “दुख की बात है कि पिछले एक हफ्ते के दौरान, प्रधानमंत्री ने कोल और माइनिंग को बूस्ट करने के लिए बैठक की हैं। कंवेंशनल सोर्स वाले पावर सेक्टर को बढाने के लिए बैठक हुई है। मुझे लगता नहीं कि भारत सरकार इस रिपोर्ट से कोई सीख ले रही है या लेना चाहती है।”

 

 (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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