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यूक्रेन के संकट का आईएमएफ कनेक्शन
जिस आईएमएफ ने नियंत्रणात्मक व्यवस्था के लिए सुगमताकारक के रूप में अपनी शुरूआत की थी, वह उसी नियंत्रणात्मक व्यवस्था का विनाशक बन गया है और नवउदारवादी व्यवस्था को लाने का हथियार बन गया है।
प्रभात पटनायक
12 Mar 2022
Translated by राजेंद्र शर्मा
 Ukraine Crisis
रोमानिया (एएनआई): यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध के बीच शुक्रवार को रोमानिया-यूक्रेन सीमा पर सिरेत के पास यूक्रेनी शरणार्थियों और फंसे हुए विदेशी नागरिकों के लिए भोजन और अन्य आवश्यक चीजों का इंतजाम किया गया।

यूक्रेन की नाटो में शामिल होने की मंशा के चलते, रूस की सुरक्षा चिंताओं पर तो मीडिया में काफी चर्चा हुई है। लेकिन, यूक्रेन के साथ आईएमएफ के कनेक्शन पर शायद ही कोई खास ध्यान दिया गया है, जबकि यह पहले वाले मुद्दे के ही समांतर मुद्दा है। जैसा कि सभी जानते हैं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष दुनिया भर में अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे, विकसित दुनिया की पूंजी की घुसपैठ के लिए ‘खुलवाता’ है। यह किया जाता है, अनेकानेक मजदूर वर्ग-विरोधी तथा जन-विरोधी, कटौतियों के फैसले मनवाने के जरिए, इन अर्थव्यवस्थाओं को ‘निवेशक-अनुरूप’ बनवाने के जरिए।

आईएमएफ यूक्रेन में तख्तापलट से पहले

सामान्यत: इसके हिस्से के तौर पर इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को और उनके भू-संसाधनों को भी, विकसित दुनिया की पूंजी अपने हाथों में ले लेती है। आईएमएफ सामान्य रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए इसी औजार का इस्तेमाल करता है कि जिन देशों को अपने भुगतान संतुलन को संभालने के लिए ऋण की जरूरत होती है, उन्हें इस तरह के ऋण देने के बदले में, वह अपनी ही शर्तें थोप देता है।

बहरहाल, आईएमएफ यह सामान्य भूमिका तो अदा करता ही है, इसके अलावा मौके-मौके वह एक खास भूमिका भी अदा करता है और यह भूमिका है, अमरीकी सरकार के शीतयुद्धीय लक्ष्यों में मददगार की। और यूक्रेेन के मामले में वह करीब-करीब शुरूआत से ही यह खास भूमिका भी अदा करता आया है और यूक्रेन की अर्थव्यवस्था के दरवाजे, विकसित दुनिया की पूंजी के लिए खुलवाने की आम भूमिका तो खैर अदा करता ही आया है।

2014 से पहले, जब विक्टर यानुकोविच यूक्रेन के राष्ट्रपति थे, यह देश यूरोपीय यूनियन के साथ अपने व्यापार एकीकरण के हिस्से के तौर पर, आईएमएफ के साथ वार्ताओं में लगा हुआ था। आईएमएफ ने इसके लिए यूक्रेन से अनेक कथित ‘सुधार’ करने की मांग की थी। इनमें मजदूरियों में कटौतियां करना और स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्रों में कथित सुधार करना तथा उन्हें घटाना शामिल था, जबकि ये क्षेत्र यूक्रेन के प्रमुख रोजगार प्रदाता क्षेत्रों में थे। इसके अलावा, उसे प्राकृतिक गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी में कटौतियां करनी थीं, जो सब्सिडियां सभी यूक्रेनी नागरिकों को दी जाती थीं ताकि उनके लिए ऊर्जा सस्ती हो जाए। (फेअर में, ब्रिस ग्रीन की रिपोर्ट, 24 फरवरी)। लेकिन, राष्ट्रपति यानुकोविच इन कथित ‘सुधारों’ को लागू करने के प्रति अनिच्छुक थे क्योंकि इनसे जनता पर भारी बोझ पड़ऩे जा रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने आईएमएफ से समझौते के लिए बातचीत ही बंद कर दी और इसकी जगह पर रूस के साथ बातचीत करना शुरू कर दिया।

यूक्रेन में तख्तापलट और उसके बाद

यही उनका अक्षम्य ‘अपराध’ बन गया। आईएमएफ के साथ बातचीत तोडऩे का तो मतलब था, न सिर्फ उस अंतर्राट्रीय पूंजी के वर्चस्व निकल भागना, जो कि यूक्रेन पर नवउदारवादी निजाम थोपने पर आमादा थी, बल्कि इसका मतलब तो पश्चिमी साम्राजी ताकतों तथा खासतौर पर अमरीका के तथा इसलिए नाटो के भी वर्चस्व से दूर चले जाना था। दूसरे शब्दों में, नाटो तथा आईएमएफ कोई ऐसे अलग-अलग संगठनों की तरह सामने नहीं आ रहे थे, जो अपने ही लक्ष्यों को लेकर, अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में काम कर रहे थे बल्कि वे ऐसे संगठनों के तौर पर काम कर रहे थे जिनके लक्ष्य एक-जैसे या आपस में मिलते-जुलते थे। अब, यानुकोविच की आईएमएफ की ओर से मुंह फेरकर रूस की ओर रुख करने की जुर्रत से खफा अमरीका ने तय कर लिया कि और नुकसान नहीं होने देगा। अमरीका-प्रायोजित तख्तापलट के जरिए उन्हें अपदस्थ कर दिया गया। यह तख्तापलट, यूक्रेन के उन नाजी तत्वों की मदद से किया गया था, जो इस तख्तापलट की तैयारियों के हिस्से के तौर पर आयोजित किए गए यानुकोविच-विरोधी प्रदर्शनों में अगली कतारों में रहे थे। इन नाजी तत्वों को अब औपचारिक रूप से भी यूक्रेनी सेना में शामिल किया जा चुका है। यह किया गया है यूक्रेनी सेना में अजोव बटालियन के शामिल किए जाने के जरिए। यह ऐसी धुर-दक्षिणपंथी, पूरी तरह से वालंटियरों से गठित, इन्फेंट्री सैन्य यूनिट है, जो इससे पहले यूक्रेनी नेशनल गार्ड का सैन्य रिजर्व हुआ करती थी।

2014 के तख्तापलट के बाद जो सरकार सत्ता में आयी, उसने फिर से यूरोपीय यूनियन के साथ बातचीत शुरू कर दी। इसके लिए उसने आईएमएफ से 27 अरब डॉलर के ऋण का वादा भी हासिल कर लिया। लेकिन, इसके लिए उसे अपनी ‘नेक नीयती’ का सबूत देना पड़ा था और उसने यह सबूत पेश किया था अपने देश के नागरिकों के लिए गैस-सब्सिडी आधी कर देने के जरिए। आईएमएफ के इस ऋण में कई उल्लेखनीय विशेषताएं थीं। पहली तो यही कि यह काफी बड़ा ऋण था और इस तरह के हालात में आईएमएफ सामान्यत: जितना ऋण मुहैया कराता है, उससे छ: गुने से भी ज्यादा बड़ा ऋण था। दूसरे, यह ऋण एक ऐसे देश में दिया जा रहा था, जहां उस समय गृहयुद्ध चल रहा था, जबकि आईएमएफ आम तौर पर ऐसा नहीं करता है। तीसरे, करीब-करीब शुरूआत से सभी को पता था कि यह कर्ज चुकाया जाने वाला नहीं है और इसलिए, इस कर्ज को एक ही तरीके से वसूल करने की उम्मीद की जा सकती है और वह है, विकसित दुनिया की पूंजी द्वारा इस देश की भूमि के रकबे तथा खनिज संसाधनों का, जिनमें प्राकृतिक गैस खास है, अपने हाथ में ले लिया जाना।

यूक्रेन, यूरोप का अगला ग्रीस होगा

इसलिए, यूक्रेन में आईएमएफ की गतिविधियां सिर्फ उसकी नीति के सामान्य पहलू को ही सामने नहीं लाती हैं, जोकि विकसित दुनिया की पूंजी के लिए दूसरे देशों की अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे खुलवाने का पहलू है बल्कि इसके अलावा एक अतिरिक्त पहलू को भी सामने लाती है। और यह अतिरिक्त पहलू है, अमरीका के शीतयुद्धीय लक्ष्यों में मदद करने का। विकसित दुनिया की पूंजी के लिए यूक्रेन के बाजारों को, भूमि तथा प्राकृतिक संसाधनों को खुलवाने का लक्ष्य तो, 2014 में आईएमएफ द्वारा इससे काफी कम ऋण दिए जाने से भी हासिल किया जा सकता था। लेकिन, आईएमएफ ने जो असाधारण रूप से बड़ा ऋण उसे दिया है, यूक्रेन को अपने प्रभाव क्षेत्र में खींचना चाह रहे अमरीकी प्रशासन, यूक्रेन के धनकुलीनों जोकि अपनी संपदा डॉलरों या यूरो में देश के बाहर लेकर जाना चाहते हैं और आईएमएफ के बीच, जो कि इस सब के लिए साधन जुटाने जा रहा था, मिलीभगत को सामने ले आता है।

अब, रूस के चढ़ाई करने के बाद, यूक्रेन ने एक बार फिर मदद के लिए आईएमएफ का दरवाजा खटखटाया है। आईएमएफ के वर्तमान प्रबंध निदेशक, क्रिस्टेलिना जियोर्जिएवा ने आईएमएफ के निदेशक मंडल से सिफारिश की है कि उसे मदद मुहैया करायी जानी चाहिए। बेशक, यह तो अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यूक्रेन ने आईएमएफ से ठीक-ठीक कितनी मदद मांगी है और किस काम के लिए यह मदद मांगी है। फिर भी एक बात तय है कि एक बार इस क्षेत्र का मौजूदा संकट खत्म हो जाए, फिर भले ही इसके खत्म होने की सूरत कोई भी निकले यूक्रेन, यूरोप का दूसरा ग्रीस बनने जा रहा है। ग्रीस के मामले में भी आईएमएफ ने अपने सामान्य नियम-कायदों के मुकाबले कहीं बड़ा ऋण दिया था। इसमें से ज्यादातर ऋण तो वास्तव में यही सुनिश्चित करने के लिए था कि ग्रीस को जिन यूरोपीय बैंकों ने ऋण दिए थे, उन्हें अपना पैसा वापस मिल जाए। और अब ग्रीस हमेशा के लिए कर्ज के जाल में फंस गया है।

आईएमएफ साम्राज्यवाद के औजार की भूमिका में

इसका अर्थ यह है कि आईएमएफ, अपनी शुरूआत से अब तक बहुत बदल चुका है। 1944 में ब्रेटन वुड्स में जब आईएमएफ की शुरूआत हुई थी, इसे एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का हिस्सा होना था, जो नियंत्रणात्मक आर्थिक रणनीति के चलाए जाने पर आधारित था। वास्तव में इस अंतर्राष्ट्रीय निजाम के मुख्य रचियता ब्रिटिश अर्थशास्त्री, जॉन मेनार्ड केन्स, जो कि अर्थव्यवस्था में नियंत्रणात्मक हस्तक्षेप के पैरोकार थे और अमरीका के प्रतिनिधि, हैरी डैक्स्टर व्हाइट थे। इस अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत, जहां हरेक देश व्यापार व पूंजी नियंत्रण लगा सकता था तथा उन्हें जारी रख सकता था, अगर किसी खास देश में भुगतान संतुलन की समस्या पैदा हो तो वह आईएमएफ से ऋण ले सकता था, ताकि अपनी अर्थव्यवस्था को ‘स्थिर’ कर सके। वहां से शुरू करने के बाद से आईएमएफ अब ‘ढांचागत समायोजन’ का पैरोकार बन गया है। वह अब सिर्फ तात्कालिक भुगतान संतुलन समस्याओं पर काबू पाने लिए ऋण ही नहीं दे रहा है, जो ऋण तभी तक के लिए दिए जाते थे जब तक कि भुगतान संतुलन घाटे का सामना कर रही अर्थव्यवस्था अपने आप को स्थिर नहीं कर लेती, वह अब वास्तव में नवउदारवादी व्यवस्था को आगे बढ़ाता है यानी ऐसी नीतियों को आगे बढ़ाता है जो सभी व्यापार व पूंजी नियंत्रणों को खत्म कराने, सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों का निजीकरण करने और ‘श्रम बाजार में लचीलापन’ लाने यानी ट्रेड यूनियनों पर हमला करने की नीतियां हैं।

संक्षेप में यह कि जिस आईएमएफ ने नियंत्रणात्मक व्यवस्था के लिए सुगमताकारक के रूप में अपनी शुरूआत की थी, वह उसी नियंत्रणात्मक व्यवस्था का विनाशक बन गया है और नवउदारवादी व्यवस्था को लाने का हथियार बन गया है। अब वह अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का औजार ही बन गया है, जो दुनिया के कोने-कोने में उसकी घुसपैठ करा रहा है। लेकिन, वह सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का ही औजार नहीं है बल्कि उन पश्चिमी महानगरीय ताकतों के हथियार का भी काम कर रहा है, जिनका हाथ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की पीठ पर है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हितों की रक्षा करने के साथ-साथ वह, पश्चिमी महानगरीय शक्तियों के समूचे दमनकारी तंत्र का भी हिस्सा बन गया है।

जाहिर है कि पुतिन की लड़ाई किसी भी तरह से अंतर्राष्टीय वित्तीय पूंजी के खिलाफ लड़ाई नहीं है। वह कोई समाजवादी नहीं हैं और अपने पड़ेसी देश पर, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हित में काम करने वाले एक संगठन के बोलबाले के खिलाफ वह किसी तरह का विचारधारात्मक संघर्ष नहीं चला रहे हैं। उनको चिंता है तो सिर्फ रूस की सुरक्षा की। उनकी चिंता इतने तक ही सीमित है कि नाटो उसकी घेरेबंदी नहीं कर सके। यानुकोविच को, आईएमएफ की ‘मदद’ की जगह पर मदद देने की पुतिन की पेशकश भी इसी चिंता से संचालित थी। दूसरे शब्दों में उन्हें अमरीका के भू-रणनीतिक हितों के प्रोमोटर के रूप में आईएमएफ की भूमिका की ही चिंता है, न कि आम तौर पर नवउदारवाद के प्रोमोटर के रूप में आईएमएफ की भूमिका की। वास्तव में, नवउदारवादी निजाम से पैदा होने वाली भारी असमानता और शुद्ध कंगाली भी, खुद पुतिन ने रूस में जो ‘हासिल’ किया है, उससे बहुत भिन्न नहीं हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

How IMF is Closely Linked with the Ukraine Crisis

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