डॉलर के घटते वर्चस्व के निहितार्थ
एक सुरक्षित मुद्रा का डॉलर का दर्जा ठीक-ठीक किस तरह से साम्राज्यवाद के साथ जुड़ता है? इस सवाल के दो हिस्से हैं। पहला, यह कि डॉलर का यह दर्जा किस तरह से अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ जुड़ा हुआ है। और दूसरा यह कि यह दर्जा कैसे कुल मिलाकर जो साम्राज्यवादी व्यवस्था है, उसके साथ जुड़ा हुआ है।
डॉलर को सोने जैसा खरा क्यों माना जाता है
डॉलर का सुरक्षित मुद्रा होना उसे (और आम तौर पर डॉलर में मूल्यांकित परिसंपत्तियों) को, विश्व अर्थव्यवस्था में संपदा रखने का माध्यम बना देता है। यह वही भूमिका है जो पहले सोने जैसी मूल्यवान धातुएं और उससे कम हद तक चांदी भी, ऐतिहासिक रूप से अदा करती आयी थीं। मुद्राएं भी, एक तयशुदा दर पर सोने में परिवर्तनीय होने के जरिए, लंबे अर्से से यह भूमिका अदा करती आ रही थीं। और दूसरे विश्व युद्घ के बाद कायम हुई ब्रेटन वुड्स प्रणाली में भी ऐसी ही व्यवस्था रखी गयी थी। बेशक, डॉलर अब आधिकारिक रूप से किसी निर्धारित दर पर सोने से परिवर्तनीय नहीं रह गया है। फिर भी दुनिया के संपत्तिशाली, दो लिहाज से डॉलर को सोने जितना ही खरा मानते हैं।
पहला तो यह कि मालों के विपरीत, परिसंपत्ति को इस रूप में रखने में, उसे संभालने-रखने का खर्चा बहुत ही कम आता है। दूसरे, डॉलर के मूल्य में साल-दर-साल उतार-चढ़ाव भले ही आते रहें, फिर भी मालों के सापेक्ष उसके मूल्य में लगातार गिरावट की अपेक्षा नहीं की जाती है। और यह सुनिश्चित किया जाता है, श्रम की पर्याप्त रूप से बड़ी सुरक्षित सेना (बेरोजगारों की फौज) बनाए रखने के जरिए, जिससे अमेरिका में डॉलर में मजदूरी को दबाए रखा जा सके। और दूसरी ओर, राजनीतिक बाध्यताएं पैदा करने तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के माध्यम से ‘‘शर्तें’’ लादने के जरिए, तीसरी दुनिया के प्राथमिक माल उत्पादकों को, अपने मालों की कीमतें दबाए रखने के लिए मजबूर करने के जरिए।
लेकिन, अगर दुनिया भर के धनवान डॉलर को ‘‘सोने जितना खरा’’ मानते हैं, तो व्यावहारिक मानों में इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका जैसे अथाह सोने की खान पर ही बैठा हुआ हो, जिससे सोना निकाल-निकाल कर वह अपने चालू खाता घाटे को पाटता रह सकता है और इसके लिए उसे अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने की कोई जरूरत नहीं होगी। बेशक, डॉलर कोई ऐसी इकलौती मुद्रा नहीं है, जिसके रूप में दुनिया की संपदा रखी जाती है। यूरो, पाउंड, स्टर्लिंग तथा येन जैसी अन्य मुद्राएं भी हैं, जिनके रूप में या जिनमें मूल्यांकित परिसंपत्तियों के रूप में भी, दुनिया में संपदा रखी जाती है। लेकिन, ये मुद्राएं भी संपदा रखने का माध्यम इसीलिए बन पाती हैं क्योंकि डॉलर के सापेक्ष उनकी कीमत का भी लगातार अवमूल्यन होने की उम्मीद नहीं की जाती है। ये अन्य उन्नत देश भी, अपनी सकल मांग के स्तर तथा इसलिए बेरोजगारी की दर का भी इस हिसाब से सामायोजन करते हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि डॉलर के सापेक्ष उनकी मुद्राएं, अपना मूल्य बनाए रखें और इस तरह ये प्रत्याशाएं खुद को बनाए रखती हैं। संक्षेप में यह कि इन अन्य मुद्राओं का भी संपदा रखे जाने के माध्यम का दर्जा, डॉलर के ऐसे दर्जे से ही निकलता है। इस तरह, डॉलर ही है जो मूल ‘‘सोने जैसी खरी’’ मुद्रा है और यही वह तथ्य है जो अमेरिका के लिए बिना किसी दिक्कत के, अपने चालू खाता घाटे की भरपाई करते जाना संभव बनाता है।
पूंजीवाद का अगुआ और चालू खाता घाटा
लेकिन, पहली बात तो यह है कि इस तरह के घाटे पैदा होते ही क्यों हैं? पूंजीवाद के समूचे इतिहास में ही अग्रणी पूंजीवादी देश, अन्य उदीयमान पूंजीवादी ताकतों के सापेक्ष, आम तौर पर चालू खाता घाटा बनाए रहा है और यह संबंधित अग्रणी पूंजीवादी देश को, उनके अपने बाजार तक पहुंच हासिल कराता है (फिर चाहे उसकी प्रतिद्वंद्वी शक्तियां अग्रणी देश से अपने बाजारों को बचाने की व्यवस्था ही क्यों नहीं कर चुकी हों)। इसके बल पर संबंधित देश, अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी कर सकता है और इस तरह अपनी ही नेतृत्वकारी भूमिका को सुरक्षित बनाए रख सकता है। वास्तव में यह तो संबंधित पूंजीवादी देश के अग्रणी होने की जैसे एक शर्त ही होती है कि वह, दूसरों के सापेक्ष चालू खाता घाटा चलाता रहे। जब ब्रिटेन पूंजीवादी दुनिया का नेता था, वह महाद्वीपीय यूरोप तथा अमेरिका के सापेक्ष, जो तब उसके सामने उदीयमान प्रतिद्वंद्वी शक्तियां थीं, बराबर चालू खाता घाटा बनाए रहा था।
लेकिन, ब्रिटेन इन देशों के साथ अपने घाटों की भरपाई, अपने उपनिवेशों के जरिए, दुनिया भर से सोने व विनिमय की कमाई की विशाल मात्रा में से, एकतरफा बंटवारे के माध्यम से कर लेता था। इसके लिए, उपनिवेशों पर शासन के बल पर देनदारियां थोप दी जाती थीं, जिस प्रक्रिया को उचित ही ‘‘इकतरफा’’ निकासी कहा जाता है। इसके पूरक के तौर पर, उपनिवेशों तथा अर्द्ध-उपनिवेशों पर निरुद्योगीकरणकारी निर्यात थोपे जाते थे और यह इस हद तक होता था कि समग्रता में अग्रणी पूंजीवादी शक्ति का भुगतान संतुलन, चालू खाता लाभ दिखाता था और वह पूंजी निर्यात करने की भी स्थिति में आ जाती थी। यह विडंबना है कि वह, एक समूह के रूप में देखा जाए तो ठीक उन्हीं देशों में पूंजी निर्यात कर रहा था, जिनके साथ उसका चालू खाता घाटा चल रहा था यानी महाद्वीपीय यूरोप, अमेरिका तथा गोरी बसावटों वाले दूसरे ठंडे इलाके।
पूंजीवादी दुनिया में अमेरिकी वर्चस्व का औजार
बहरहाल, अब अमेरिका उस पैमाने पर ‘‘निकासी’’ हासिल नहीं कर सकता है। वह तीसरे देशों यानी उदीयमान पूंजीवादी ताकतों के अलावा अन्य देशों के लिए, पर्याप्त मात्रा में निरुद्योगीकरणकारी निर्यात भी नहीं कर सकता है। इसलिए, आज उसे मजबूरी में कुल मिलाकर चालू खाता घाटे की व्यवस्था चलानी पड़ रही है और इस घाटे की भरपाई वह डॉलर छापकर या डॉलर में मूल्यांकित आइओयू वचनपत्रों के निर्यात के जरिए करता है। इसलिए, दुनिया की सुरक्षित मुद्रा के रूप में डॉलर की भूमिका, समूची पूंजीवादी दुनिया पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिहाज से, अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है।
यही है जो अमेरिका में और इसलिए समूची पूंजीवादी दुनिया में ही, आर्थिक गतिविधियों के स्तर को तय करता है। जहां दूसरे हरेक देश के हाथ इस तथ्य से बंधे होते हैं कि उनकी सरकारें, ब्रेटन वुड्स व्यवस्था के दौर में जिस तरह से अपना खर्च बढ़ाने के जरिए सकल मांग को बढ़ा सकती थीं, अब वैसा नहीं कर सकती हैं क्योंकि वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी ने उन पर, जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटे के लिए एक सीमा लगा रखी है; अमेरिका के लिए ऐसी कोई रोक नहीं है। इसकी वजह यह है कि अमेरिका से वित्तीय पूंजी का शायद ही कोई पलायन होगा क्योंकि उसकी मुद्रा, डॉलर को तो ‘सोने जैसा खरा’ ही माना जाता है। इसलिए, ‘परिसंपत्ति मूल्य बुलबुलों’ के असर को छोड़ दिया जाए तो, दुनिया में आय के वितरण के किसी स्तर विशेष पर, अमेरिकी सरकार द्वारा खर्चों का स्तर ही, पूंजीवादी विश्व अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधि के स्तर को तय करता है। यह तो हो सकता है कि अमेरिकी सरकार खुद ही अपने खर्चे को सीमित करने का फैसला कर ले, ताकि शेष दुनिया के ऋण के फंदे में फंसने से खुद को बचा सके (यह ऋण शेष दुनिया के हाथों में जमा डॉलरों ओर अमेरिकी सरकार के बांडों के रूप में होगा); लेकिन उसके लिए ऐसा करने की कोई मजबूरी नहीं है। वह जो भी निर्णय लेता है, अपनी नीति के मामले के तौर पर लेता है। लेकिन उसके इस निर्णय से यह तय होता है कि पूंजीवादी दुनिया में उत्पाद तथा रोजगार के पहलू से क्या होगा और क्या नहीं।
डॉलर की हैसियत में समूची पूंजीवादी व्यवस्था का हित
इस पूरे ही मामले को हम एक और तरीके से भी देख सकते हैं। जरा देर के लिए कल्पना कर लीजिए की डॉलर को विश्व की सुरक्षित मुद्रा का दर्जा हासिल नहीं है। उस सूरत में अमेरिका को, डॉलर के विदेशी विनियम मूल्य में गिरावट के जरिए, अपने चालू खाता घाटे को खत्म करने की कोशिश करनी पड़ेगी। डॉलर के इस तरह के अवमूल्यन को अगर वाकई असरदार होना है तथा देश के अंदर ही मुद्रा में मजदूरी तथा कीमतों में बढ़ोतरी के चलते बेअसर होकर ही नहीं रह जाना है, तो उसे अनिवार्य रूप से वास्तविक मजदूरियों को निचोडऩा होगा। लेकिन, अगर ऐसा होता है कि वहां घरेलू मजदूर वर्ग का प्रतिरोध सामने आएगा और उसकी काट करने के लिए बेरोजगारी में काफी बढ़ोतरी करनी होगी, ताकि इसके हथियार से मजदूरों की मजदूरी के लिए सौदेबाजी करने की ताकत को तोड़ा जा सके। लेकिन, अगर अवमूल्यन मजदूरों के प्रतिरोध को कमजोर करने के जरिए कारगर भी हो जाता है तब भी, इस पर जवाबी कार्रवाई के तौर पर अन्य उन्नत देश भी ऐसा ही करेंगे क्योंकि उनकी कीमत पर ही तो अमेरिका अपने निर्यात बढ़ा रहा होगा, जिससे वह अपने चालू खाता घाटे को कम कर सके।
इसलिए, अगर डॉलर का दर्जा सुरक्षित मुद्रा का नहीं होता, तो अमेरिका पूंजीवादी दुनिया का अगुआ भी नहीं बना रह सकता था। तब तो उसे अन्य विकसित पूंजीवादी देशों के साथ पड़ोसी जाए भाड़ में वाली होड़ में उलझना पड़ेगा, जिसमें इनमें से हरेक देश दूसरे से बाजार छीनने की कोशिश कर रहा होगा और उसे अपने घर पर मजदूरों के आज के मुकाबले कहीं कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा होगा। और अगर, मजदूरों की मजदूरी के लिए सौदेबाजी करने की ताकत को दबाने के लिए, खुद अमेरिका में बेरोजगारी को बढ़ाया जाता, तो इससे तो समूची पूंजीवादी दुनिया में ही आर्थिक गतिविधियों का स्तर नीचे चला जाता। अन्य देशों में आर्थिक गतिविधियों के इस तरह घटे हुए स्तर के प्रभाव की काट, वहां शासन का हस्तक्षेप बढ़ाने के जरिए करना संभव नहीं होता क्योंकि वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के जमाने में, हरेक देश की अपनी सीमाओं में राज्य को इस तरह की सक्रियता दिखाने की इजाजत ही नहीं होती है।
डॉलर का वर्चस्व साम्राज्यवाद का आधार
यह भी इस बात का खुलासा करता है कि क्यों सुरक्षित मुद्रा के रूप में डॉलर की भूमिका, समग्रता में पूंजीवादी व्यवस्था के लिए ही फायदे की है; यह स्थिति सिर्फ अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि समूची विकसित पूंजीवादी दुनिया के लिए फायदे की है। यही वह चीज है जो इस पूरी व्यवस्था में ही एक सुसंगतता लाती है और उसका आसानी से काम करना संभव बनाती है। लेकिन, यही चीज समूची साम्राजी व्यवस्था को भी साधे रखती है क्योंकि यह पूरी व्यवस्था ही साम्राज्यवाद पर टिकी हुई है।
सुरक्षित मुद्रा के रूप में डॉलर, सिर्फ संपदा रखने का ही माध्यम नहीं है बल्कि वह धन के संचरण का माध्यम भी है। वास्तव में वह संपदा रखने का माध्यम, धन के संचरण का भी माध्यम हुए बिना तो हो ही नहीं सकता था। यह सब इसीलिए है कि देशों को एक-दूसरे से व्यापार करने के लिए, डॉलरों की जरूरत होती है। अगर, विश्व बाजार में मांग की तुलना में, तीसरी दुनिया में उत्पादित किसी कच्चे माल की या गर्म इलाके में पैदा होने वाले किसी मजदूरी-माल की तंगी हो जाती है, तो उसकी कीमतें बढ़ जाती हैं। लेकिन, जाहिर है कि इसका मुद्रास्फीतिकारी प्रभाव किसी ऐसी अर्थव्यवस्था में ही ज्यादा होगा, जहां उक्त माल ही एकमात्र उत्पाद हो या एकमात्र प्रमुख उत्पाद हो। इसके मुकाबले उन अर्थव्यस्थाओं में मुद्रास्फीतिकारी प्रभाव कम ही रहेगा, जिनमें यह अनेकानेक उत्पादों में से एक उत्पाद भर हो। यानी ऐसी तंगी का मुद्रास्फीतिकारी प्रभाव, तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में ही ज्यादा पड़ेगा, जबकि विकसित पूंजीवादी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में, जहां खासा मूल्यसंवर्धन होता है, मुद्रास्फीतिकारी प्रभाव कम ही पड़ेगा। और तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में इस अपेक्षाकृत ज्यादा मुद्रास्फीति के चलते, डॉलर की तुलना में तीसरी दुनिया की मुद्रा के अवमूल्यन की प्रत्याशा से, पूंजी का पलायन शुरू हो जाएगा और यह वास्तव में अवमूल्यन का कारण बन सकता है और यह दुष्चक्र चलता चला जाएगा। बहरहाल, इस तरह के अवमूल्यन की रोकथाम के लिए, तीसरी दुनिया पर ‘कटौतियां’ थोपी जाएंगी और इस तरह वहां बेरोजगारी और बढ़ायी जाएगी तथा आमदनियों को सिकोड़ दिया जाएगा।
डॉलर के वर्चस्व का अंत !
इस तरह, समग्रता में उन्नत पूंजीवादी दुनिया की मजदूरी मालों तथा कच्चे मालों की बढ़ती हुई मांग को, उनके उत्पादन में किसी बढ़ोतरी के बिना भी, खुद तीसरी दुनिया में ही आमदनियों को सिकोडऩे तथा इसके जरिए, इस तरह के मजदूरी मालों तथा कच्चे मालों की मांग को घटाने के जरिए, पूरा कर लिया जाता है। लेकिन, अगर तीसरी दुनिया में देशों के बीच व्यापार के माध्यम के रूप में डॉलर का इस्तेमाल नहीं हो रहा हो और तीसरी दुनिया के देश अपना ज्यादातर व्यापार आपस में ही कर रहे हों, तो वह नहीं होगा जो पीछे बताया गया है। इसलिए, डॉलर का वर्चस्व समकालीन साम्राज्यवाद का आधार ही है।
आज डॉलर के इसी वर्चस्व के लिए खतरा पैदा हो रहा है। यह खतरा पैदा हो रहा है, स्थानीय मुद्राओं में व्यापार की व्यवस्थाओं के और ब्रिक्स के देश जिस तरह एक नयी मुद्रा शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसी नयी मुद्राओं में व्यापार की संभावनाओं के, जोर पकडऩे से। इस सिलसिले को खासतौर पर ऐसे अनेक देशों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है, जिन पर विकसित पूंजीवादी देशों ने ‘पाबंदियां’ थोप दी हैं। बेशक, ऐसा तो नहीं है कि डॉलर का वर्चस्व बस बैठने ही वाला हो, फिर भी धीरे-धीरे उसके पराभव होने की प्रक्रिया शुरू जरूर हो गयी है।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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