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भारत-चीन में 1962 की जंग जैसी स्थितियाँ दोबारा बन रही हैं?

जब तक हम चीन की मंशा को ठीक तरीक़े से नहीं समझते हैं, उनके साथ बातचीत करने का कोई मतलब नहीं निकलेगा।
भारत-चीन

भारतीय विश्लेषक भारत-चीन के बीच जारी तनाव और सैन्यकरण की तुलना 2017 के डोकलाम विवाद कर रहे हैं। यह सब एक बार फिर विवादित क्षेत्र में सड़क बनाने के चलते हो रहा है।

डोकलाम में भारत को डर था कि चीन द्वारा वहां सड़क बनाने से उसे उन ऊंचाईयों तक पहुंच मिल जाएगी, जहां से वो हमारे सिलीगुड़ी कॉरिडोर को नुकसान पहुंचा सकेगा, जो भारत को अपने पूर्वोत्तर के हिस्से से जोड़ता है। 

लद्दाख में भारतीय विश्लेषकों का मानना है कि चीनी सेना ने खुद को ऐसी स्थिति में पहुंचा लिया है, जहां वो भारत द्वारा बनाई जा रही सड़कों को चुनौती दे सकता है। भारत द्वारा बनाई जा रही यह सड़कें शिनज़ियांग को तिब्बत से जोड़ने वाले हाईवे NH 219 और अक्साई चिन को ख़तरा बना सकती हैं।

दिलचस्प है कि चीन ने तब हमारा विरोध नहीं किया था, जब 1962 के बाद 2008 में हमने दौलत बेग ओल्डी एयरबेस खोला था, ना ही तब किया था जब भारत ने इस एयरबेस को इतनी तेजी से विकसित किया कि 2013 में वहां हमने लॉकहीड मार्टिन का C-130J ट्रांसपोर्ट एयरक्रॉफ्ट उतार दिया।

चीन ने तब भी विरोध नहीं जताया जब 255 किलोमीटर लंबी दार्बुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड को बनाया गया, जो हर मौसम में चलती है। ध्यान रहे कि इस रोड के ज़रिए सेना को जो रसद दो दिन में पहुंचती थी, वह महज़ 6 घंटे में पहुंचने लगी है। यह खेल बदलने वाला कदम था।

लेकिन लद्दाख में जारी उठापटक के बीच हम यह सब बातें भूल गए। इसलिए जब हम अपना विश्लेषण करते हैं, तो कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं।

जब चीन को दौलत बेग ओल्डी मिलिट्री बेस को खोलने से कोई दिक्कत नहीं हुई, जो अक्साई चिन की एलएसी से उत्तरपश्चिम में महज़ 9 किलोमीटर और काराकोरम दर्रे से सिर्फ़ 10 किलोमीटर दूर है, जो तिब्बत को शिनजियांग से जोड़ता है, तो उसे अब क्यों दिक़्कत हो रही है।

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दुनिया की छत पर दोनों देशों में जारी तनातनी

दरअसल अब चीन इस इलाके में बढ़ते भारतीय इंफ्रास्ट्रक्चर को नजरंदाज नहीं कर सकता। इस इलाके को वहां सब सेक्टर नॉर्थ कहा जाता है। यह सियाचिन ग्लेशियर के पूर्व में पड़ता है और एकमात्र इलाका है, जहां भारत से अक्साई चिन में प्रवेश मिलता है।

साफ़ है कि चीन नहीं चाहता कि सब सेक्टर नॉर्थ में कोई चुनौती देने वाला सैन्य ढांचा खड़ा हो। लेकिन हमने DSDBO रोड की उप-सड़कें भी बनाना शुरू कर दीं, जो उत्तर की ओर बनाई गईं, जिनसे हम चीनी रक्षातंत्र के निकट तक पहुंच बना सकते हैं। इन सड़कों को ''फिंगर्स'' कहा गया।

 सिंधु घाटी से सब सेक्टर नॉर्थ के उत्तर तक चीन का रणनीतिक तौर पर बेहद अहम NH 219 गुजरता है, जो शिनज़ियांग को तिब्बत से जोड़ता है। यहां नगारी में चीन की एक एयरफील्ड मौजूद है। (नगारी डेमचोक से सिर्फ़ 50 किलोमीटर दूर है और यहां हमारे पास भौगोलिक स्थितियों का फायदा है, नगारी को चुमार से भी ख़तरे में डाला जा सकता है।)

ऐतिहासिक तौर पर 1962 के युद्ध से पहले चीन ने सोचा था कि तिब्बत-शिनज़ियांग हाईवे को बचाने के लिए जरूरी ज़मीन उसने सुरक्षित कर ली है। यहां तक कि 1962 के युद्ध में भी चीन ने एकतरफा युद्ध विराम घोषित कर दिया था, और जितनी अतिरिक्त ज़मीन पर कब्जा किया था, उसे छोड़ दिया। यहां तक कि चीन ने रणनीतिक तौर पर अहम उन इलाकों को भी छोड़ दिया, जहां से हमें अक्साई चिन और NH 219 तक पहुंच मिल सकती है। लेकिन आज यह जगहें हॉटस्पॉट बन चुकी हैं।

इतना कहना ठीक ही होगा कि चीन का सोचना है कि भारत इन खाली जगहों पर दोबारा कब्ज़ा कर रहा है और यहां वैसा सैन्य निर्माण कर रहा है, जिससे NH 219 को ख़तरा पैदा हो सकता है। चीन भारतीय गतिविधियों को बहुत शंका की नज़र से देखने लगा है।

कहीं न कहीं चीन का मानना है कि भारत लंबे वक़्त में उस स्थिति को दोबारा स्थापित करना चाहता है, जो 1950 के पहले थी। इसके लिए अक्साई चिन औऱ दूसरे इलाकों को वापस हासिल करना होगा, जिन्हें चीन ने 1962 की जंग में जीत लिया था।

भारतीय सेना की उत्तरी कमांड के कमांडर रहे पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग ने हाल में लिखा, ''मैं जितना भी चीन के वृहद राजनीतिक लक्ष्यों का अनुमान लगाने की कोशिश करूं, पर उसका सीधा राजनीतिक लक्ष्य है कि LAC के आसपास यथास्थिति (स्टेट्स को) को अपनी शर्तों पर बरकरार रखा जाए। ताकि अक्साई चिन और NH219 को कैसी भी स्थिति में सुरक्षित रखा जा सके।''

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आख़िर दोनों देशों का आपसी विश्वास कैसे टूटा? इसकी जड़े UPA के शासनकाल में शुरू होती हैं। रणनीतिक तौर पर पूर्वी लद्दाख में भारत की फॉरवर्ड पॉलिसी यूपीए के दौरान शुरू हो गई थी। यह विदेश नीति के सैन्यकरण पर आधारित थी, जो 2010 से 2014 के बीच में और तेज हो गई।

यह 2008 के बाद का वह दौर था, जब भारत और अमेरिका के संबंधों में एक ऐतिहासिक बदलाव आ रहा था और भारतीय रणनीतिक गणित में अमेरिका की पारस्परिकता की डॉक्ट्रीन घर करने लगी थी। उस प्रक्रिया ने किसी तरह भारत को अमेरिका के पाले में बांध दिया।

भारत की नौकरशाही के कुछ लोगों ने ऐसा करने में तब सहयोग दिया गया होगा, जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए कमज़ोर हो रहा था, घरेलू राजनीति एक उथल-पुथल के दौर में पहुंच चुकी थी, जो कांग्रेस का बीमारूपन उजागर कर रही थी।

जैसे भी भारत की विदेश नीति अमेरिकी गठबंधन के साथ सहयोग करने लगी। धीरे-धीरे चीन से दृढ़ता के साथ पेश आने का विश्वास बना और इस विश्वास के तहत माना गया कि चीन सिर्फ़ इसी भाषा से डरेगा। अब चीन और अमेरिका का तनाव भी बढ़ रहा है।

देश में उग्र राष्ट्रवाद की लहर जारी है, भारतीय जनता को भी विश्वास हो चला है कि भारतीय सेना आज चीन के बराबर ताकतवर है। हिमालय की ठंडी वादियों में भारत चीन की सेना को लहुलुहान कर सकता है।

लेकिन ऐसे विश्वास केवल धोखा देते हैं। चीन एक महाशक्ति है। हाल के दशकों में भारत की सेना मजबूत हुई है, लेकिन तथ्य यह है कि इस दौरान चीन ने ऐसी तकनीकों से खुद की सेना का आधुनिकीकरण किया है, जो भारत की पहुंच से बहुत दूर हैं।

भारत में अवास्तिविक सोच काफ़ी प्रबल है। यह उस वर्ग में भी है, जिसे बेहतर जानकारी है। यह सोच डोकलाम के बाद और ताकतवर हो गई है, जिसे सत्ता ने अपनी जीत के तौर पर दिखाया। लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि उस प्रकरण में भारत सरकार को सिर्फ़ मुंह छुपाने लायक जगह मिली थी।

इस बीच बहुत सारे उकसावे वाले काम भी किए गए। तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत में जगह देना, पीओके और गिल्गित-बाल्टिस्तान पर आक्रामक दावे, ''वन चाइना पॉलिसी'' के उल्लंघन का जिक्र, ''वुहान वायरस'' के नाम पर अमेरिका का राग अलापना, 60 बिलियन डॉलर वाले चाइना-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर को चुनौती देना और चीन के रोकथाम के लिए अमेरिका के नेतृत्व के ''क्वॉड'' गठबंधन में शामिल होने जैसे कदम चीन को उकसाने जैसी घटनाएँ हैं।

भले ही यह मामूली बातें रही हों, पर इनकी वजह से भारत और चीन के बीच माहौल जहरीला हो गया और आपसी संदेह पैदा हो गया।

लेकिन जब अगस्त में भारत ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाया, जिसमें अक्साई चिन पर दावा किया गया, तब हमने रेखा पार कर दी। नक्शे पर अक्साई चिन पर किए गए इस दावे को चीन के नज़रिए में रणनीतिक मंशा वाला माना गया होगा। जिसमें तिब्बत की शिनज़ियांग से जुड़ाव को खत्म करना था। चीन ने ना तो इससे ज़्यादा कुछ माना होगा और ना इससे कम।

बल्कि जब यह सारी घटनाएं हो रही थीं, तब रणनीतिक संचार पूरी तरह बंद था। यह पिछले अक्टूबर से ही बंद था।

भारतीय नीतियों में आए इन बड़े बदलावों से स्वाभाविक तौर पर चीन ने एलएसी पर रोड बनाने और DSDBO से अक्साई चिन और दूसरे इलाकों तक फीडर रोड बनाने के कदमों को नए मायनों में देखना शुरू किया।

आपसी अविश्वास के घने बादल छा गए, जिनका हाल के वक़्त में छंटना बहुत मुश्किल लग रहा है। जब तक हम चीन की मंशा को ठीक तरीके से नहीं समझते, उनके साथ बातचीत का कोई मतलब नहीं रहेगा।

क्या चीन अपने क्षेत्रफल का विस्तार चाह रहा है? अगर ऐसा है तो फिर बातचीत की कोई जगह नहीं बचती। लेकिन चीन बार-बार कह रहा है कि वो भारत के साथ जंग नहीं चाहता, ना ही भारत चीन के साथ जंग चाहता है।

क्या ऐसा है कि चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी कोरोना वायरस के चलते इतनी कमज़ोर हो गई है कि उसे अपनी ताकत दिखाने के लिए भारत से टकराव करना पड़ रहा है? यह सवाल कितना भी बेतुका नज़र आए, लेकिन इसे पूछना जरूरी है। 

या फिर चीन जानबूझकर भारत को नीचा दिखाना चाहता है? अगर चीन की ऐसी मंशा होती तो उसके पास सैन्य तरीकों को छोड़कर दूसरे हथियार भी मौजूद हैं। क्यों चीन हिमालय में एक खूनी खेल खेलता।

क्या चीन पाकिस्तान के साथ दो मोर्चों पर भारत के खिलाफ़ जंग छेड़ने की साजिश रच रहा है? इतना साफ़ है कि इस दिशा में भी किसी तरह के अनुभवजन्य साक्ष्य मौजूद नहीं हैं।

आख़िर चीन का क्या गणित हो सकता है? आश्चर्यजनक तौर पर, भारत में शायद ही यह सोचने की कोई इच्छा है कि चीन को भी दीर्घकाल में हमसे सुरक्षात्मक चिंताएँ हो सकती हैं।

यहां कुछ भी ईमानदारी से मूल्यांकित करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि घटनाएँ सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाने से जुड़ी हैं, जो ज़ाहिर है कि वापस नहीं लिया जा सकता। क्योंकि यह सत्ताधारी दल की विचारधारा से जुड़ा है। ऊपर से हमारी विदेश नीति अमेरिका के आस-पास बुनी हुई है, लेकिन उसके बारे में हमारे सम्मानीय लोग बात भी नहीं करना चाहते। क्योंकि हाल में भारत-चीन के मामले पर ट्रंप ने मध्यस्थता की बात की थी, साफ़ है वो तटस्थता का इशारा कर रहे थे और मौजूदा विवाद में पड़ना नहीं चाहते।

हम यह महसूस नहीं कर पाते हैं कि दरअसल सरकार के शब्दों को हमारे पड़ोसी देश गंभीरता से लेते हैं। चाहे वह चीन, नेपाल या बांग्लादेश हो। शायद हम बांग्लाादेश को सहमत करवा सकते हैं कि हम उनके लोगों को ''दीमक'' नहीं मानते।

लेकिन क्या सरकार चीन से कह सकती है कि अक्साई चिन पर दावा सिर्फ़ घरेलू राजनीत का दिखावा है, इसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। इसे नीतिगत बात नहीं माननी चाहिए, जबकि यह सरकार में उच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा कहा गया हो, जो किसी दिन अक्साई चिन पर कब्ज़े की बात कहते हैं?

जब चीन ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने पर कड़ा विरोध किया, एक बार नहीं बल्कि दो बार, तब बी हमने उन्हें नज़रंदाज कर दिया। ऊपर से हम अमेरिका के साथ ''क्वॉड'' गठबंधन में शामिल हो गए, इसमें हमने अपनी सहभागित मंत्रीस्तरीय कर दी और ताईवान, कोरोना के मामलों में अमेरिकी कदमों पर चलते हुए बीजिंग को नीचा दिखाया।

15-16 जून को भारतीय सैनिकों के मारे जाने को लेकर भारत में जनभावना उमड़ पड़ी हैं। लोगों में बदले की भावना है। लेकिन जब तक भारत की चीन नीति में खामियों पर जनता में जागरुकता नहीं होगी, तब तक किसी भयावह घटना पर तार्किक प्रतिक्रिया संभव नहीं होगी।

अब सारी ज़िम्मेदारी भारतीय नेतृत्व की है। भारतीय राष्ट्रवाद का उपयोग एक निकट भविष्य में देश को मध्यम आय वाला देश बनाने के लिए होना चाहिए था, ताकि करोड़ों लोगों की ज़िंदगी को प्रभावित करने वाली गरीब़ी को दूर किया जा सके। लेकिन यह एक उन्माद और सत्ताधारी लोगों द्वारा दिखावट का सामान बनकर रह गया है।

अनुच्छेद 370 हटाने से क्या फायदा हुआ, इस पर विचार किया जा सकता है। लेकिन इस बात में कोई मतभेद नहीं है कि इससे भारत और चीन के संबंध तयशुदा तौर पर ख़राब हुआ है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

India-China 1962 War Redux?

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