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भारतीय विदेश नीति: एक नई हठधर्मिता की शुरुआत

अब राष्ट्र हित के नाम पर पक्षपातपूर्ण स्वार्थों को हासिल किया जाता है।
MEA
Courtesy : The Indian Express

भारतीय विदेश नीति एक ऐसा क्षेत्र है जहां नरेंद्र मोदी सरकार ने खुद को चाक चौबंद साबित किया है और इसके विदेश मंत्री एस जयशंकर अधिकांश लोगों के विपरीत केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक मुखर सदस्य के रूप में सामने आये हैं। उनके दृष्टिकोण और कथन का लोग सावधानीपूर्वक अध्ययन और विश्लेषण करते हैं।

इसलिए, चौथे रामनाथ गोयनका स्मृति व्याख्यान में उन्होंने जो आख्यान दिया, उसपर व्यापक बहस और बातचीत बनती है। ऐसा इसलिये, क्योंकि उनके व्याख्यान भारतीय नागरिकों को देश की विदेश नीति के संदर्भों को समझने की अनुमति देते हैं, जिसमें इसके अतीत के साथ वर्तमान में होने वाली अगली पहल का आकलन होता नजर आता है।

विदेश नीति के सवाल पर मोदी सरकार का दृष्टिकोण उनके इस बात में छिपा है कि “.....प्रतिरक्षा एक नाजुक अभ्यास कार्य है, चाहे यह गुट-निरपेक्ष और पूर्व के दौरान किये जाने वाले रणनीतिक स्वायत्तता का सवाल हो या भविष्य की अत्यधिक व्यस्तताएं हों। लेकिन एक बहु-ध्रुवीय विश्व में यह संभव ही नहीं कि किसी से आप मुक्त हो पाएं...इस सन्दर्भ में, इसके पास कई गेदें हैं जिन्हें हवा में उछाल दिया गया है, और उसी समय इस आत्मविश्वास और कौशल को प्रदर्शित करने की आवश्यकता है कि देखो एक भी गेंद गिरने पाई।”

वे जोर देते हैं कि “सच्चाई यह है कि वैश्विक पायदान पर उपर की ओर चढने के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाओं की जरूरत पड़ती है, चाहे वह पारंपरिक हो या एकल, राजनीतिक हो या आर्थिक। जरूरी नहीं कि सभी जोखिम नाटकीयता लिए हुए हों, अक्सर सिर्फ विश्वास के साथ जोड़-घटाव और मजबूती से उस काम के दिन प्रति दिन के हिसाब रखने के प्रबंधन से हासिल किया जा सकता है। लेकिन इन सब का समेकित प्रभाव वैश्विक स्थिति निर्धारण में लंबी छलांग के रूप में सामने आता है। जिसे एक हद तक हम आज होते हुए देख सकते हैं।”

और वे बताते चलते हैं कि “आज हम बदलाव के नोक पर खड़े हैं। कहीं अधिक आत्मविश्वास से प्रतीत होता है कि अलग-अलग लक्ष्यों की खोज और विरोधाभासों को दूर करने का प्रयास हो रहा है। उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जोखिम उठाना उसका आंतरिक गुण है। एक राष्ट्र जिसे एक अग्रणी ताकत के रूप में खुद को बनाने की इच्छा बलवती है, वह अनसुलझे सीमा-विवादों, गैर-एकीकृत भौगोलिक क्षेत्रों और कमतर अवसरों के दोहन को जारी रखने वाली नीति को अपनाये नहीं रख सकता। और इन सबसे उपर, स्पष्ट तौर से नजर आ रहे बदलते वैश्विक क्रम में हठधर्मिता की राह पर नहीं चल सकता है।”

इसके माध्यम से जो नजर आता है वह एक व्यावहारिक कठोर निर्णय लेने वाला दृष्टिकोण है, जो "हठधर्मिता से परे देखने और समानता की वास्तविक दुनिया में प्रवेश करने की इच्छा" को संपन्न करता है। हठधर्मिता, अपनी राय में, अपने और दुनिया के एक लंबे दृष्टिकोण के साथ मूल्य-आधारित विदेश नीति के लिए व्यंजना है, और वह इसका उपहास करता है।

हालांकि मूल्य-आधारित विदेश नीति में कुछ भी नया नहीं है जो रूस-भारत-चीन के साथ-साथ जापान-अमेरिका-भारत या शंघाई सहयोग संगठन के साथ चतुर्भुज वार्ता का हिस्सा होने को अस्वीकार करता है। वे सऊदी अरब और ईरान का भी उल्लेख करते हैं, लेकिन यहां गेंद ईरान पर गिर गई है।

हालाँकि, उनका तर्क अभी भी अपना वजूद रखता है, जहाँ तक वह स्वयं मानते हैं कि ज्यादातर देश भी ऐसा ही कुछ कर रहे हैं। जिसका अर्थ यह है कि भारत सहित जल्द या बाद में प्रत्येक देश को भी इसी रास्ते पर चलना होगा: फिर इसके बाद क्या? क्योंकि वास्तविकता स्थायित्व में नहीं बल्कि तरलता में होती है।

उदहारण के लिए सी राजा मोहन हमारा ध्यान, रूस-चीन साझेदारी को भारतीय महासागर तक विस्तार देते हुए उद्धृत करते हैं कि रूस, चीन और दक्षिणी अफ्रीका की नौसेनाओं द्वारा ‘मोरिस’ नामक एक अभ्यास आयोजित करने के लिए संदर्भित करते हैं। वे इस वास्तविकता को उद्धृत करते हैं कि रूसी नौसैनिक पनडुब्बी ने हाल ही में पश्चिमी देशों से बाहर श्रीलंका के हमबंतोता पोर्ट का दौरा किया है और रुसी परमाणु बमवर्षकों ने दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया है। यह पहली बार है कि दक्षिणी अफ्रीका ने पश्चिम से बाहर जाकर पहुंचने का प्रयास किया है। ईरान ने भी, अरब सागर में रूसी और चीन के साथ नौसैनिक अभ्यास की पेशकश की है।

दूसरे शब्दों में भारत ने, जिसने अपना सारा ध्यान चीन द्वारा पेश की गई चुनौती पर केन्द्रित कर रखा है, जो वह कर नहीं सकता। लेकिन रूस-चीन सैन्य गठबंधन जो क्रमशः एक वैश्विक पदचाप सुनाई पड़ रही है, से अवश्य चिंतित होना चाहिए, जो खासकर भारतीय महासागर में चिंता पैदा करता है।

भारतीय विदेश नीति शुरू से ही रूस को भारत के दीर्घकालिक और विश्वसनीय सहयोगी के रूप में रखती आई है, लेकिन चीन के साथ रूस के संबंध बहुत तेजी से विकसित हो रहे हैं। इसके अलावा, रूस ने ‘भारत-प्रशान्त’ क्षेत्र के बजाय खुद को एशिया-प्रशांत तक सीमित कर रखा है, जो चीन की मान्यता की ही पुष्टि करता है। इसलिए, जबकि भारत "गेंदों के बाजीगरी” करने पर यकीन करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन गठजोड़ों में बदलाव हो रहे हैं जो इसके लिए एक चुनौती है।

अग्रणी स्थिति के बारे में

अब, कोई भी भारतीय ऐसा नहीं होगा जो वैश्विक स्थिति में भारत के अग्रणी स्थान प्राप्त करने का विरोध करे। लेकिन सवाल यह है कि हम "नेतृत्व की स्थिति" से क्या समझते हैं, और यह भी कि इसे कैसे प्राप्त किया जाए।

क्या भारत किसी भी दूसरे अधिनायकवादी शासन की तरह ही अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करना चाहेगा, बजाय इसके कि पहले खुद को एक सुगठित और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था बनाने पर अपना ध्यान केंद्रित करे। जिससे वह अपने नागरिकों के जीवन को गौरवहीन स्थिति से ऊपर उठा सके, इससे पहले कि यह एक नेतृत्वकारी भूमिका में पहुँच जाए जो हमें कई संकटों में रख छोड़ती है?

इस अर्थ में, "कई गेंदों के साथ एक समय में बाजीगरी करने की कला" भारत के नेतृत्व के दावे को आगे बढ़ाने में मदद नहीं कर सकती। क्योंकि न तो भारत की अर्थव्यवस्था ही और न ही सेना का वह कद है, जिसका आज के समय में इतना सम्मान हो।

भारत की अर्थव्यवस्था मंदी का सामना कर रही है और भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक संधि (RCEP) के अंतिम क्षणों में पलक झपकते ही दुनिया को यह बता दिया है कि अभी भी भारतीय उद्योग को प्रतिस्पर्धा से डर लगता है। आर्थिक मंदी ने आरसीईपी के सबसे प्रबल समर्थकों को भी "हाथ में संकट" के बारे में खतरे की घंटी बजाने पर मजबूर कर दिया है।

जहाँ तक सेना का सवाल है, यह अभी तक आयात पर निर्भर ताकत ही बनी हुई है और जो घर के भीतर युद्ध लड़ने और पाकिस्तानी अनियमितताओं को रोकने में कहीं अधिक माहिर है, और यह वर्तमान में एक गंभीर मुद्रा संकट से जूझ रहा है।

जोखिम उठाना एक स्वागतयोग्य सोच है, लेकिन अपनी आंतरिक कमजोरियों से बेखबर बने रहना लापरवाही और संवेदनहीनता का परिचायक है। यह चीन के साथ एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन का जोखिम उठाने का एक पहलू और अपने पड़ोस में दोस्ताना देश ईरान के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) के दबाव के कारण रिश्तों को गिराते जाना एक दूसरा पहलू है। यदि यह अमेरिका के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने के लिए भुगतान करने के लिए एक छोटी सी कीमत है तो भारतीय अभी भी इसके सकारात्मक नतीजे को देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं।

बहु-प्रतीक्षित भारत-अमेरिकी रक्षा व्यापार और प्रौद्योगिकी पहल (DTTI), जिसके बारे में कहा गया था कि इससे भारत की सैन्य और गैर-सैन्य इस्तेमाल के लिए उच्च प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की शुरूआत होगी। लेकिन अब आंतरिक रूप से इस समझौते के प्रमुख आकर्षण के केंद्र, भारत के लिए जेट इंजन के सह-विकास के सौदे को हटाकर काफी हद तक घटा दिया गया है।

यह फैसला इसलिए लिया गया क्योंकि संयुक्त उपक्रम के द्वारा रक्षा उत्पादन के पुर्जों को निर्मित करने के लिए लिया गया था, क्योंकि अमेरिका के पास निर्यात नियंत्रण कानून हैं और यह बौद्धिक संपदा अधिकारों पर स्वामित्व और नियंत्रण पर दूसरों को हिस्सेदारी नहीं देना चाहता, जहां सैन्य साधन का संबंध है।

अमेरिका ने "विश्वसनीय तकनीकी क्षमता" के साथ किसी भी घरेलू भारतीय साझीदार के रूप में पाने में भी असमर्थता व्यक्त की है। इसके बारे में एक कहावत है कि जो चीज दूर से दिखने में अच्छी लगती है, वह करीब से देखने पर अच्छा लगने से कोसों दूर होती है।

इसके अलावा, जयशंकर द्वारा अतीत की आलोचना को एक हठधर्मिता के रूप में बाधा के रूप में करना विवादास्पद है, खासकर जब सामान्यीकरण द्वारा किसी स्थिति की बारीकियों को रेखांकित करने की भूमिका को गौण किया जा रहा हो।

उदाहरण के लिए, 1947-'49 के दौरान कश्मीर के भारत में विलय को लेकर पाकिस्तान के साथ भारत के प्रथम युद्ध में, यह सेना का फैसला था कि 1948-49 की सर्दियों में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के अंदर नहीं जायेगी। क्योंकि भारतीय सेना की लॉजिस्टिक रेखा लम्बी खिची होगी, जबकि उसके बजाय पाकिस्तानी सैनिकों को रणनीतिक रूप से बेहतर पोजीशन हासिल है।

अब इस सैन्य फैसले को एक मिथक में परिवर्तित कर दिया गया है, और इसका उपयोग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक नेतृत्व की लानत-मलामत करने और विरोधाभासी रूप से सरदार वल्लभभाई पटेल के लिए कर रही है। लेकिन इन बारीकियों के अलावा भी कई दूसरे जरूरी मसले हैं।

ऊर्जावान कूटनीति

इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि भारतीय राजनयिक उन देशों तक पहुंच बना रहे हैं जिन्हें पहले नजरअंदाज कर दिया जाता था। राष्ट्रपति शी जिनपिंग और मोदी के बीच वुहान अनौपचारिक शिखर सम्मेलन यह सुनिश्चित करने के लिए एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी कि मतभेदों को संघर्ष में नहीं बदला जायेगा।

हाल ही में, श्रीलंका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति, गोताबया राजपक्षे तक पहुँच बनाने को लेकर जो फुर्ती दिखाई गई है, वह एक अधिक सक्रिय कूटनीति का प्रमाण है। विदेश मंत्री अपने रूस-भारत-चीन (आरआईसी) के साथ-साथ जापान-अमेरिका-भारत, शंघाई सहयोग संगठन के साथ-साथ चतुर्भुज वार्ता में भारत की निपुणता की ओर इशारा करते हुए काफी हद तक सही हैं।

इसके अलावा, भारतीय राजनयिक उन देशों तक पहुँच बना रहे हैं, जहाँ तक पिछली सरकारों ने अपनी पहुँच बनाने की कोशिश नहीं की थी। इसलिए, बहु-संरेखण के दावे में थोड़ी बहुत विश्वसनीयता तो माननी पड़ेगी-"एक ही समय में कई गेंदों की बाजीगरी"? लेकिन असल मुद्दा यह है कि यह "बाजीगरी" कब तक चल सकती है? असल जीवन में  एक बाजीगर को हवा में गेंद फेंकना बंद करना पड़ता है।

तो पहली बात यह पूछनी है कि क्या हम बहु-ध्रुवीय दुनिया में या द्विध्रुवीय दुनिया में रह रहे हैं, जिसमें अमेरिका और चीन शीर्ष में शामिल हैं, जिसमें दूसरे स्थान पर पीछा कर रही ताकतें कौन सी हैं? अमेरिकी और चीनी अर्थव्यवस्थाओं का आकार बाकियों से काफी अधिक हैं, जिसमें अमेरिका के पास भारी सैन्य श्रेष्ठता हासिल है। लेकिन चीन ही एकमात्र ताकत है जो निकट भविष्य में अमेरिका का पीछा करने में सक्षम है, ऐसा लगता है कि एक चोंच मारने वाला आदेश निर्दिष्ट है। यह दो-ध्रुवीय विवाद है जो दूसरे स्थान पर खड़े देशों के लिए आपसी और पारस्परिक हित के लिए आपस में जोड़ने और संरेखित करने के लिए नया रास्ता खोलता है।

रूस, अपनी सभी सैन्य शक्ति के प्रदर्शन के रूप में, आर्थिक रूप से अमेरिका और चीन से काफी पीछे है। इसने अपनी सैन्य ताकत का काफी लाभ उठाया है क्योंकि एक वैश्विक खिलाड़ी के रूप में उभरने के लिए यह कोई छोटी मोटी चीज नहीं है। इसकी वजह यह है कि इसका चीन के साथ गहरा गठबंधन है, जो इसकी कमजोर अर्थव्यवस्था की क्षतिपूर्ति करने का काम करता है।

उनका यह गठजोड़ अब धीरे-धीरे एक वैश्विक पहचान प्राप्त कर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक बहु-ध्रुवीय दुनिया में यह मान्यता है कि कोई भी शक्ति दूसरों से बहुत आगे नहीं है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी शक्ति अपने ढलान पर हो सकती है, जिसे आज चीन द्वारा चुनौती मिल रही है। लेकिन उसका दबदबा उस बिंदु तक नहीं पहुंच पाया है, जहां कोई यह दावा कर सके कि अमेरिका अब महाशक्ति नहीं रहा। इसकी तुलना में अन्य ताकतों द्वारा प्राप्त की गई शक्ति और प्रभाव अपेक्षाकृत मामूली है, अगर सीमित नहीं है तो। यह वह अवधारणा है जहाँ पर विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है कि हम एक बहु-ध्रुवीय दुनिया में रहते हैं।

भारतीय और चीनी अर्थव्यवस्था के आकार पर विचार करें तो हम पाते हैं कि भारत की  2.7 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था चीन की 13.6 बिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था के आकार का पांचवा हिस्सा है। या चीन के 2 ट्रिलियन डॉलर विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में भारत के 300 बिलियन डॉलर के उत्पादन की तुलना करें। या उनके सैन्य बजट का आकार को देखें, जिसमें भारत के 54 बिलियन डॉलर की तुलना में चीन 250 बिलियन डॉलर को खर्च करता है।

ध्यान रहे कि 1987 तक भारत और चीन की जीडीपी लगभग बराबर थी। 2000 तक  चीन की जीडीपी भारत की तुलना में दोगुनी हो चुकी थी और 2014 तक यह भारत की तुलना में पांच गुना से अधिक पहुँच गई। यह भारत की चीन से काफी पीछे रह जाने की ही प्रकृति है और जहाँ पर भारतीय बाजारों में चीनी सामानों के बाढ़ का डर है, जिसने अपने अंतिम क्षणों में भारत को आरसीईपी पर हस्ताक्षर न करने के बारे में फैसला लेने पर मजबूर किया है।

इसे दूसरे तरीके से समझें। भारत दक्षिण एशिया पर अपने प्रभाव क्षेत्र को मानकर चलता है। लेकिन इस क्षेत्र में भी इसके दबदबे को उसके पडोसी देशों के साथ चीनी जुड़ाव की गहनता और गहराई ने निष्प्रभावी साबित कर दिया है। इस प्रकार, भारत को अपने ही इलाके में चीन के साथ संघर्ष में जाना पड़ेगा, क्योंकि यह चीन के आर्थिक और वित्तीय दबदबे का मुकाबला नहीं कर सकता है।

बाजीगरी का खेल

हालांकि जयशंकर जी की बहु-ध्रुवीय दुनिया आज समग्र वैश्विक सच्चाई को नहीं जब्त कर सकती है, लेकिन कई अन्य पहलू भी हैं जो उनके कुछ तर्कों को रेखांकित करते हैं। उदाहरण के लिए, "कई गेंदों के साथ बाजीगरी करने" और किसी एक को भी नहीं गिरने देने के बारे में बड़े बड़े दावों के बावजूद सच्चाई ये है कि जहाँ एक तरफ सऊदी अरब के साथ भारत के संबंधों में गुणात्मक सुधार हुआ है वहीं अमेरिका द्वारा व्यापार प्रतिबंधों की धमकी के तहत ईरान के साथ उसके संबंधों में लगातार गिरावट का दौर जारी है (तेल के मामले में, विशेष रूप से ईरान के साथ)।

जहाँ तक इजरायल और फिलिस्तीन के साथ सम्बन्धों का प्रश्न है, यह एक कठोर सच्चाई है कि भारत इजरायल के 50% सैन्य उत्पादों को खरीदता है। आज वह इजराइल की आतंकवाद-विरोधी और कानून व्यवस्था की चिंताओं को इजरायल की मदद से तालमेल बिठाने में लगा है, जिसमें इजरायल के क्रूर तौर-तरीके शामिल हैं। इसके विपरीत, फिलिस्तीनियों के साथ भारत का जुड़ाव पूर्ण और ठण्डा पड़ गया है। इसलिए हम यह दावा नहीं कर सकते कि दोनों देशों के बीच भारत के सम्बन्ध एक समान हैं।

एक दूसरे उदाहरण से इसे समझते हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण चीन सागर (SCS) पर जहां इसके हित अमेरिकी हितों से मेल खाते हैं और जहां अमेरिका की अगुई वाला नौसैनिक आयुध अक्सर चीन को भड़काने के मकसद से घुसपैठ करता है। एससीएस में इस घुसपैठ पर यदि चीन बदले की कार्रवाई करता है तो भारत का इस पर क्या रुख होगा, जिसे वह अपना क्षेत्रीय समुद्री इलाका मानता है?

हो सकता है कि चीन अपने एकाधिकारी दावों पर जोर देने के चलते गलती कर रहा हो,  लेकिन हाल के घटनाक्रम दिखा रहे हैं कि, चीन और आसियान देश वर्तमान में एससीएस में एक आचार संहिता के लिए एक करार पर वार्ता में व्यस्त हैं।

भारत के रक्षा मंत्री ने इस पर एक टिप्पणी करते हुए उल्लेख किया है कि इन वार्ताओं में "उन राज्यों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता है जो इन वार्ताओं के हिस्सेदार नहीं हैं"। तो क्या  भारत चीन और आसियान देशों के बीच जो आचार संहिता बनेगी उसके आधार पर काम करेगा, और चीन से आग्रह करेगा कि वह भारतीय व्यवसायिक जहाजों को एससीएस  के तहत आजाद रूप से आने जाने की अनुमति देगा? या क्या यह इसका विरोध करेगा- जैसा कि अमेरिका करने जा रहा है- एससीएस में अमेरिका के साथ-साथ अपनी भुजाओं को फड़काने का काम करेगा?

इन सबसे ऊपर अपने मजबूत दृष्टिकोण के सभी दावों के साथ, भारत खुद को विचारधारात्मक और हठधर्मिता में बदल लेता है जब उसकी बारी पाकिस्तान के बारे सोचने की आती है। भारत के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान के संबंध में जो एक बात उजागर की है, उसमें सब चीजों को शामिल करने के साथ आतंकवाद का भी आरोप लगाया गया है। लेकिन कोई भी इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता है कि अतीत में भी ऐसा ही था।

वर्षों से यह दावा किया जा रहा था कि पाकिस्तानी सेना और नागरिक सरकार दो समानांतर शक्ति-केंद्र हैं और यदि सेना वार्ता की मेज पर नहीं है, तो पाकिस्तान के साथ किसी भी समझौते पर पहुँचना बेहद मुश्किल है। अब पाकिस्तान में असैनिक सरकार के मुखिया के रूप में इमरान खान को एक मिलिट्री पिट्ठू बताना अब सही नहीं है। यदि इस समय भारत सरकार ने यह दिखाती है कि वह भारत-पाकिस्तान समीकरणों को दांव पर लगाने के लिए तैयार है, तो इसका सिर्फ यही मतलब निकलता है कि उसे पाकिस्तान के साथ बातचीत की कोई जल्दी नहीं है।

वर्तमान में यह सत्तारूढ़ दल के घरेलू हितों के अनुकूल नहीं दिखता है, जबकि अभी उसे नीरसता के रूप में देखा जा रहा है, जबकि वे आतंकवाद के सवाल पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने और नष्ट कर उसे घुटनों के बल लाने के विचारों को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं। यह सब इस विश्वास पर आधारित है कि पाकिस्तानी प्रतिष्ठान भारत के खिलाफ अपनी दुश्मनी कभी नहीं छोड़ेंगे, हालाँकि यह भी उतना ही सच है कि भाजपा जैसी विचारधारात्मक दल कभी भी पाकिस्तान से नफरत करने और उसे नुकसान पहुंचाने की अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ने वाली।

फिर जयशंकर जी के व्याख्यान का क्या किया जाना चाहिए? युद्ध और शांति के मामले में और साथ-साथ युद्ध और राजनीति में, सिद्धांत और नियमों का प्रमुख स्थान होता है और उन्हें लागू किया जाता है। लेकिन समकालीन दुनिया में हम जो कुछ भी देख रहे हैं, उसमें जंगल-राज और अराजक गतिविधियों की भरमार दिखाई पड़ रही है।

तथ्यों से तोड़-फोड़, तथ्यों से जानबूझकर छेड़छाड़ और खुलेआम झूठ अब नए नियम हैं। विदेशों में और देश के भीतर युद्ध, बिना किसी क़ानूनी संयम या नैतिक आचरण की चिंता के बिना लड़े जाते हैं। यह नियम प्रतिद्वंद्वी को परास्त करने और असहमत होने वालों को नुकसान पहुंचाने वाला है।

इसलिए केवल यही उम्मीद की जानी चाहिए कि एक ही कठोर-नियम वाले और अनैतिक रवैया अपनाना एक नई हठधर्मिता साबित हो जाएगा, जिसका सम्बन्ध विदेश नीति से है। क्योंकि जो बात सामने आ रही है वह मिथ्या स्वयंसिद्ध की मान्यता पर आधारित है जिसमें कहा जा रहा है कि "कोई स्थायी दोस्त नहीं होता है, सिर्फ अपने-अपने स्वार्थ ही स्थाई होते हैं"।

वास्तव में पड़ोस में अगर दोस्त हों तो यह सुनिश्चित करता है कि उनके साथ मतभेद कभी भी झगड़े में तब्दील नहीं होंगे, और इसे पहली प्राथमिकता के क्रम में रखा जायेगा। क्योंकि, यह किसी भी समाज और उसके नागरिकों की प्रगति के लिए सबसे अच्छी गारंटी का काम करता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि संबंध खराब हैं  तो उन्हें हल करने के तरीके खोजना कहीं अधिक आवश्यक है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सबसे यादगार योगदानों में से एक यह था कि उन्होंने अपनी खुद की कांग्रेस पार्टी में युद्ध उन्मादियों से बचाव करते हुए पाकिस्तान के साथ युद्ध को खारिज कर दिया था। उन्होंने हम सभी को याद दिलाते हुए कहा था कि भारत और पाकिस्तान दोनों में शांति के लिए बड़ा आधार मौजूद है। उन्होंने कहा कि हमें युद्ध शांति और घृणा में लिप्त होने के बजाय उस शांति क्षेत्र को विकसित करने पर जोर देने ध्यान देना चाहिए।

बीजेपी जैसी विचारधारा के आधार पर चलने वाले दल के तहत, "राष्ट्रीय हित" वही प्रतीत होता है जो उसकी पार्टी के हित में हो। आखिर कोई और किस प्रकार से समझा सकता है कि अमेरिकी दबाव के चलते इस "गेंद के साथ बाजीगरी" करने वाली सरकार ने ईरान से सस्ता और बेहतर तेल की खरीद को रोकने का फैसला किया है, जिससे अमेरिका सहित किसी और देशों से महँगा तेल खरीदने की तुलना में भारतीयों और घरेलू तेल शोधन ईकाइयों को अधिक लाभ होता।

"राष्ट्रीय" हित में कही जाने वाली बातों से सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि अब राष्ट्र हित की आड़ में पक्षपातपूर्ण स्वार्थ साधे जाते हैं। जयशंकर जी के व्याख्यान की यही सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

India’s Foreign Policy: A New Dogma in the Making

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