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जेएनयू के अंदर ही नहीं बाहर भी भारत की आत्मा की 'हत्या' कर दी गई!

जेएनयू के बहुत सारे छात्रों का कहना है कि केवल लाठी देखकर यह मत समझिए कि कुछ गुंडों ने जेएनयू के स्टूडेंटों पर हमला किया है। असलियत यह है कि पूरे सरकारी तंत्र ने मिलकर JNU पर हमला किया है।
JNU attack
Image Courtesy: Hindustan Times

हम बहुत दूर से जब किसी मामले को देखते हैं तो हमारे मन के किसी कोने में हमेशा एक बात मौजूद रहती है कि जरूर मामले के दो पक्ष होंगे। आम जुबान में कहा जाए तो यह कि ताली एक हाथ से नहीं बजती। लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में 5 जनवरी की शाम जो घटना घटी उसका केवल एक ही पक्ष था कि नकाब पहने कुछ लोग हाथ में लाठी, डंडा और रॉड लेकर विश्वविद्यालय में घुसे और विश्विद्यालय के छात्रों, शिक्षकों और संपतियों पर जमकर हमला किया। विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर पुलिस प्रशासन तक विश्वविद्यालय में हुए इस बर्बर हमले को चुपचाप देखती रही।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के बहुत सारे छात्रों का कहना है कि केवल लाठी देखकर यह मत समझिए कि कुछ गुंडों ने जेएनयू के स्टूडेंटों पर हमला किया है। असलियत यह है कि पूरे सरकारी तंत्र ने मिलकर JNU पर हमला किया है। इसमें नीचे से लेकर ऊपर तक सब शामिल हैं। और सबको अगर आप गुंडा कहें तो इसमें कोई गलत बात नहीं होगी। और इसकी गवाह सारी मीडिया है।

5 जनवरी की शाम विश्विद्यालय के अंदर चल रहे हमला के दौरान जब विश्वविद्यालय के छात्रों के फेसबुक पोस्टों और व्हाट्सऐप संदेशों के जरिए दिल्ली के नागरिक समाज से मदद मांगने की गुहार करने लगा तब मुझे भी पता चला जवाहर लाल विश्वविद्यालय में कुछ अनहोनी घट रही है।

एक पत्रकार और नागरिक होने के नाते मैंने भी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। जिस ऑटों से जेएनयू की तरफ जा रहा था उसे जेएनयू से तकरीबन 2 किलोमीटर पहले मुनिरका मोड़ पर रोक दिया गया। पुलिस ने वहां पर बैरिकेटिंग कर रखी थी कि कोई भी सवारी जेएनयू की तरफ न जाए। ऑटो से उतरने के बाद वहां से पैदल चला। सड़कें सुनसान थी, स्ट्रीट लाइट बंद कर दी गयी थी, सड़कों के किनारे स्थानीय लोगों का कुछ झुंड खड़ा था। और हर जगह पर लोग हंसते हुए कह रहे थे कि वाह बढ़िया हो रहा है जेएनयू को पीटा जा रहा है। अंधेरी सड़कों पर ऐसी हंसी मजदूर वर्ग के लोगों की थी। विडम्बना देखिए जो विश्वविद्यालय पूरी दुनिया में कमजोरों, मजदूरों के हकों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों के गढ़ तौर पर जाना जाता है, वही लोग जब पीट रहे थे तब मजदूर उन पर हंस रहे थे।

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मैं अँधेरी सड़कों में इन विरोधाभासों को सोचते हुए आगे बढ़ता हूं। फिर सोचता हूं कि इसमें इन लोगों की कोई ग़लती नहीं, इन्हें यही तो दिखाया, समझाया जा रहा है कि जेएनयू में देशद्रोही पढ़ते हैं, टुकड़े-टुकड़े गैंग रहता है। हमारी सरकार, उनकी एजेंसियां और मीडिया सब मिलकर कई बरस से इसी झूठ पर मेहनत कर रही हैं। तो उसका अंजाम तो यही होगा।

थोड़ा आगे अचानक राजकमल प्रकाशन समूह के सोशल मीडिया प्रभारी सुमेर से मुलाकात हुई, जो पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मेरा बैचमेट हुआ करता था। वह हांफते हुए चला आ रहा था, उसने डरते हुए कहा कि जेएनयू गेट के बाहर हद से अधिक डरावना माहौल है। गेट के बाहर शायद बजरंग दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक के लोगों ने तांडव मचा रखा है। नफ़रती नारे लगा रहे हैं। किसी को अंदर नहीं जाने दे रहे हैं। योगेंद्र यादव ( सामाजिक कार्यकर्ता और स्वराज इण्डिया के अध्यक्ष) ने जब अंदर जाने की कोशिश की तो उन्हें थप्पड़ मारकर, देश का गद्दार कहकर इन लोगों ने बाहर कर दिया। सुमेर के साथ कुछ दूसरे संस्थान के पत्रकार भी थे, जो अपना टूटा हुआ कैमेरा दिखाकर जेएनयू गेट के बाहर फैले आतंक की कहानी बता रहे थे।

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इनसे बात करने के बाद मैं फिर से जेएनयू की तरफ बढ़ चला। जेएनयू गेट के बाहर का नज़ारा ऐसा था कि चुपचाप बाहर की स्ट्रीट लाइट बंद कर दी गयी थी। अँधेरा था। जेनएयू गेट पर ताला लग चुका था। न अंदर से बाहर किसी को आने दिया जा रहा था और न ही बाहर से किसी को अंदर जाने दिया जा रहा रहा था। बाहर तकरीबन दो सौ से चार सौ लोगों की भीड़ थी। इस भीड़ में दो तरह के लोग शामिल थे। पहला जेएनयू से नफ़रत में डूबे लोगों का समूह। जिसमें ज्यादातर 18 से 30 साल के लड़के थे। जिनकी संख्या मुश्किल से तकरीबन 50 थी। ये भड़काऊ नारे लगा रहे थे। दूसरे तकरीबन 200 से अधिक लोग, जो शायद दिल्ली के नागरिक सामाज के लोग थे। ये डरकर चुपचाप सारी दहशतगर्दी को देखे जा रहे थे। या यह कह लीजिये कि यह पक्ष अंदर गुस्सा लिए हुए अहिंसा के रास्ते को अपनाते हुए जेएनयू गेट के बाहर सारी दहशतगर्दी देख रहा था।

लेकिन इनके अलावा यहाँ मौजूद दो और समूहों पर गौर किया जाना चाहिए। पहला पुलिस प्रशासन जो सैकड़ों की संख्या में था और चुपचाप अपने सामने सबकुछ देख रहा था। दूसरा स्थानीय लोगों का समूह जिनमें उनकी आवाज ज्यादा थी, जो जेएनयू से नफ़रत में डूबे हुए थे। कभी शांत हो रहे थे, कभी भड़काऊ नारे लगाने वालों का साथ दे रहे थे।

अब इस पृष्ठभूमि पर गेट के बाहर हुई घटनाओं को समझिये। रात दस बजे तक जेएनयू गेट के सामने लाइटें बंद थीं। लोग डरकर भाग रहे थे। पत्रकार भी थे। वीडियो बनाने पर उनसे फोन छीन रहे थे। फोन चेक कर रहे थे। गेट के आगे एक बड़ी भीड़ नारे लगा रही थी ‘वंदे मातरम’ ‘भारत माता की जय’ ‘गोली मारो सालों को’ ‘दिल्ली पुलिस ज़िंदाबाद’ दूसरी और किनारे-किनारे पुलिस खड़ी थी। गेट बंद था वहाँ भी पुलिस थी। अचानक थोड़ी देर बाद बुद्ध विहार की तरफ जाने वाली गली के आगे भीड़ योगेंद्र यादव को बुरी तरह मारने लगती है। सामने खड़े कुछ लोग पुलिस के आगे रोते हुए गिड़गिड़ा रहे हैं कि उनको मार देंगे बचा लो। पुलिस वाले कहते हैं ऑर्डर नहीं है।

वो कहते हैं मारने से तो बचा लो ऑर्डर बाद में देखना। जेएनयू के लोग भागकर पहुंचते हैं। कुछ पुलिस वाले भी। उनको बचाते हैं। ह्यूमन चेन बनती है गेट के आगे। और अचानक पाँच मिनट में मारने वाले लोग गायब हो जाते हैं। उनके जाने के बाद लाइटें जलती हैं। पुलिस एक्टिव होती है। ह्यूमन चेन को घेरकर खड़ी हो जाती है। कितना अजीब है कि एक पूरी भीड़ थी और पाँच मिनट में गायब हो जाती है। उसी टाइम रोड लाइटें भी चालू हो जाती हैं। आप समझ सकते हैं क्या हो रहा है। अब बहुत लोग हैं। इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे हैं। गुंडे गायब हो गए।

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योगेंद्र यादव पर तीन बार हमला हुआ। इन तीनो हमलों को देखा रहा कोई भी व्यक्ति कह सकता है कि यह योगेंद्र यादव की लिंचिंग करने की कोशिश थी। योगेंद्र यादव जैसे ही गेट की तरफ बढ़ने की तरफ कोशिश करते थे, भीड़ उनकी तरफ आती थी। गद्दार, अर्बन नक्सल कहकर मारने बढने लगती थी। पीछे से भारत माता के जयकारे के नारे लगते थे और भीड़ फिर मारती थी। और योगेंद्र यादव यह कहकर आगे बढ़ते थे मैं तुमसे डरने वाला नहीं। उनके साथी उन्हें पीछे खींच लेते थे। साथियों को भी चोटे लगती थी। वह फिर आगे बढ़ते थे, फिर उनके साथी उन्हें पीछे खींच लेते थे। यह सिलसिला चलता था। एक बार तो ऐसा हुआ की सामने से हाथ जोड़कर कुछ लोगों ने कहा कि आप यहां से चले जाइये और पीछे से आकर उपद्रवी थप्पड़ मारने लगे। इसमें सबसे खतरनाक बात यह थी कि यह सबकुछ पुलिस के सामने हो रहा था। और पुलिस इस लिंचिंग की कोशिश को चुपचाप देख रही थी।

धीरे-धीरे उपद्रवियों का हंगामा शांत हुआ। ऐसा लगा जैसे वह अपना काम करके चले गए हों। अब दूसरे पक्ष से नारे लगने से शुरू हुए। दिल्ली पुलिस हाय-हाय, आंबेडकर हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिन्दा है। तब वहाँ मौजद कुछ लोगों से बात करने का मौका मिला। इस भीड़ में मौजूद श्वेता कहती हैं कि अब स्ट्रीट लाइट भी जला दी गई,पुलिस भी मुस्तैद हो गई है। कुछ देर पहले स्ट्रीट लाइट बंद थी। अंधेरा था। लींचिंग का माहौल था। जो आ रहे थे, वह पीट रहे थे। योगेंद्र यादव जितनी बार आए उतनी बार हमले का शिकार हुए। पुलिस यह सब देख रही थी। आप बताइए आपके टैक्स के खर्चे पर पलने वाली इस पुलिस को आप क्या कहेंगे?

श्वेता अपनी बात रख ही रहीं थी कि अचानक दिल्ली के सरकारी स्कूल में गणित पढ़ाने वाले टीचर बीरेंद्र चौहान अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि मैं आठ बजे से यहां पर हूँ। कुछ छात्र संगठनों द्वारा 'भारत के गद्दारों को गोली मारो सालों को' का नारा खुलेआम लगाया जा रहा है और पुलिस मूकदर्शक बनकर निहार रही है। भीड़ कह रही है हम मीडिया को संभाल लेंगे तुम मारों सालों को। अब आप तय कीजिए देशद्रोही कौन है। अपने ही जैसे विद्यार्थियों को मारने के लिए उतावली भीड़ या गेट के अंदर मौजूद विद्यार्थी जिनके पास जाने से हम जैसों को रोका जा रहा था या वह सरकार जिसके निगरानी में यह सबकुछ हो रहा है।

आगे बढ़ने पर मुकेश कुमार से मुलाकात होती है। वह कहते हैं कि मैं मुनिरका में ही रहता हूँ। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करता हूँ। जेएनयू आना जाना लगा रहता है। मेरे जीवन को बदलने में जेएनयू की बहुत बड़ी भूमिका है। इसलिए मैं शाम से यही पर खड़ा हूँ। आपने देखा होगा कि वह देश के गद्दारों को गोली मारों सालों को जैसे नारे लगा रहे थे। बीच- बीच में भारत माता की जय, वंदे मातरम् भी कह रहे थे, जन-गण-मन भी गा रहे थे। उन्हें हिम्मत यहीं से मिलती है कि वह इन नारों के आड़ में गंदे से गन्दा काम कर लेंगे और लोग उन्हें कुछ नहीं कहेंगे। लेकिन असलियत यह है कि वह जितनी बार ऐसा उतनी बार भारत माता की आत्मा मरती है।

इस बात को सुनकर एक पुलिस वाले भाई साहेब मुझे कहते हैं कि मैं भी आपसे कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन नाम उजागर मत कीजिएगा। मैं कहता हूँ कहिये जो भी आपको कहना कहिए वह कहते हैं कि अगर जेएनयू खुद को इतना ही पढ़ा लिखा मानता है तो यह कैसे हो रहा है कि उसके ठीक सामने वाले मुहल्ले में रहने वाले लोग उसके खिलाफ हैं। उसे देशद्रोही मानते हैं। फिर मुझे पहली वाली बात याद आती है कि जेएनयू को लेकर इस पूर्वाग्रह का कारण वही मीडिया का निगेटिव प्रचार है।

पुलिस की चुप्पी पर पुलिस वाले ने कहा कि यह तो दिल्ली है और मीडिया के सामने सबकुछ हो रहा है, इसलिए शायद आपको लग रहा हो कि पुलिसिया चुप्पी पहली बार है लेकिन असलियत यह है कि पुरे हिन्दुस्तान में हर रोज ऐसी घटनाएं होती है और हमें चुप रहने का आदेश दिया जाता है।

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इसी बीच मीडिया के खिलाफ नारा लगता है कि गोदी मीडिया बायकॉट। और पुलिस वाले भाई साहेब कहते हैं कि मीडिया की वजह से पूरे हिंदुस्तान को नफ़रत भरे जहर में तब्दील किया जा चुका है, जो जेएनयू जैसी जगहों को सबसे पहले मारना चाहता है। मैं कहता हूँ कि आप भी तो इसमें शामिल हैं ,वो कहते हैं मुझे जितना कहना था मैंने कह दिया।

तभी अचानक उस भीड़ से एक महिला साथी निकलती है और पुलिस के सामने सिगरेट पीकर धुआं उड़ाते हुए निकलती है। पुलिस कहती है कि तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम हमारे सामने सिगरेट पी रही हो और महिला कहती है कि तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम खुलेआम भारत का कत्ल कर रहे हो। और मैं चुपचाप इस दृश्य को सोचते हुए निकल जाता हूँ...। 

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