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मेक इन इंडिया व पीएलआई की नाकामी दिखाते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आंकड़े

मोदी सरकार के पास बढ़ती बेरोजगारी का कोई समाधान नहीं है।
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फाइल फ़ोटो। PTI

गत 31 मार्च को रिजर्व बैंक द्वारा जारी अक्टूबर-दिसंबर 2022 तिमाही व अप्रैल-दिसंबर 2022 के 9 महीने के आयात-निर्यात आंकड़े भारत में औद्योगिक उत्पादन व रोजगार के बढ़ते संकट के रुझान को स्पष्ट करते हैं। बेतहाशा बेरोजगारी भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे विकट समस्याओं में से है। 2014 के चुनाव में 2 करोड़ सालाना रोजगार का वादा नरेंद्र मोदी के ‘अच्छे दिन’ के सपने का प्रमुख हिस्सा था। बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन का प्रधान उपाय औद्योगिक उत्पादन अर्थात मैनुफैक्चरिंग का चौतरफा विस्तार ही है। मोदी सरकार ने भारत में मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए मेक इन इंडिया, प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई), निर्यात सब्सिडी, नए श्रम कानून, आदि कई योजनाओं का ऐलान किया है। पश्चिम व चीन के बीच बढ़ते टकराव के मद्देनजर निर्यात बाजार में चीन की जगह हासिल करने का मौका पाने हेतु विदेशी पूंजीपतियों को भारत में उत्पादन कर दुनिया में निर्यात करने का आमंत्रण नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति व बारंबार विदेश यात्राओं का एक मुख्य आधार रहा है।

अक्टूबर-दिसंबर 2022 के व्यापार आंकड़ों में रिजर्व बैंक व मीडिया रिपोर्टों का मुख्य ध्यान चालू खाते के घाटे में कमी (पिछले साल इसी तिमाही के 30.9 अरब डॉलर से कम होकर गत तिमाही में 18.2 अरब डॉलर) और वस्तुओं के आयात-निर्यात घाटे में कमी (78.3 अरब डॉलर की तुलना में 72.7 अरब डॉलर) पर ही रहा। लेकिन सरकारी आर्थिक नीति के मद्देनजर गौर करें तो भारत से वस्तुओं का निर्यात इस तिमाही में 105.6 अरब डॉलर ही रह गया, जबकि पिछले साल यह 108.9 अरब डॉलर था। इसमें से भी रूस के सस्ते क्रूड को रिफाइन कर रिलायंस द्वारा पेट्रोलियम पदार्थों के पुनर्निर्यात को निकाल दें तो वस्तुओं का निर्यात पिछले साल के 91.3 अरब डॉलर के मुकाबले गिरकर इस बार 82.9 अरब डॉलर ही रह गया।    

फिर भी भुगतान संतुलन के चालू खाते में घाटा कम हुआ, तो इसकी वजह सेवाओं के निर्यात में वृद्धि है। सेवा निर्यात इस तिमाही में पिछले वर्ष के मुकाबले 16 अरब डॉलर बढ़कर 83 अरब डॉलर हो गया  और 9 महीनों की अवधि में इनमें 65 अरब डॉलर की वृद्धि होकर 239.5 अरब डॉलर हो गए। इनमें 45% हिस्सा आईटी सेवाओं का है एवं शेष में कंसल्टेंसी, अकाउंटिंग, कानूनी, स्वास्थ्य, पर्यटन, आदि सेवाएं शामिल हैं। गौरतलब बात यह है कि सेवाओं की निर्यात वृद्धि में भी बड़ा हिस्सा भारतीय आईटी कंपनि‍यों के बजाय विदेशी कंपनि‍यों द्वारा भारत के तुलनात्मक रूप से सस्ते कुशल श्रम का लाभ लेने के लिए यहां खोले गए वैश्विक कैपेबिलिटी केंद्रों का है। विदेशों से भारत भेजी जाने वाली रकम भी पिछले साल के 23.5 अरब डॉलर से बढ़कर 30.9 अरब डॉलर हो गई। यह वो रकम है जो मुख्यतः विदेशों में रोजगार करने वाले भारतीयों द्वारा भेजी जाती है।

सेवाओं का निर्यात हो या विदेशों में रोजगार करने वाले भारतीय ये दोनों असल में श्रम शक्ति का निर्यात है। अतः हम पाते हैं कि भारत मैनुफैक्चरिंग हब बन रोजगार सृजन करने के बजाय अपना सरप्लस बेरोजगार व वैश्विक स्तर पर तुलनात्मक रूप से सस्ता श्रम निर्यात करने वाला देश बन कर रह गया है। पेट्रोलियम पदार्थों के पुनर्निर्यात को छोड़ दें तो सेवा निर्यात वस्तुओं के निर्यात से अधिक हो चुके हैं। विदेशों में काम करने वाले भारतीयों द्वारा भेजी गई रकम जोड़ दें तो श्रम निर्यात कुल वस्‍तु निर्यात से भी अधिक हो चुका है। सर्विसेज एक्सपर्ट प्रमोशन काउंसिल के अनुसार अगले वित्तीय वर्ष तक अकेले सेवा निर्यात ही पेट्रोलियम पदार्थों सहित कुल वस्‍तु निर्यात से अधिक हो जाएंगे। 

किसी भी देश में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन तथा तकनीकी विकास के कारण कृषि व असंगठित क्षेत्रों में सरप्लस हो चुके बेरोजगार श्रम बल को बेहतर रोजगार उपलब्ध कराने का एकमात्र तरीका मैनुफैक्चरिंग का चौतरफा विस्तार ही है। औद्योगिक उत्पादन व रोजगार में तीव्र वृद्धि से मजदूरी दर में भी वृद्धि होती है और कामगारों का जीवन स्तर ऊंचा होता है। इससे समाज में आय संकेंद्रण व असमानता में कुछ हद तक कमी होती है। इसके बजाय सेवा आधारित निर्यात सीमित रोजगार ही पैदा करते हैं। साथ ही ये रोजगार पहले से ही संपन्न मध्यम व उच्च मध्यम वर्ग को ही लाभ पहुंचाते हैं क्योंकि इनमें काम करने के लिए जिस लंबी अवधि वाले विशिष्ट उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसके अत्यंत महंगा होने के कारण उसे प्राप्त करने की क्षमता इस तबके के पास ही है। इस प्रकार अल्प संख्या में उच्च वेतन वाले रोजगार तो विशाल तादाद में बेरोजगारों या न्यूनतम जीवन स्तर से भी नीचे वाले किसी तरह जिंदा रहने वाले रोजगार होते हैं। इनके साथ ही तथाकथित स्वरोजगार (जैसे पकौड़ा तलना!) तथा कृषि पर निर्भर बड़ी संख्या भी है जो असल में छिपी बेरोजगारी ही है। सेवाओं व श्रम शक्ति के निर्यात पर टिकी अर्थव्यवस्था में आय संकेंद्रण तथा असमानता को कम होने के बजाय और भी बढ़ती जाती है।

पिछले सालों में सरकार ने उत्पादन संबंधी प्रोत्साहन (पीएलआई) के नाम पर तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक की पूंजी विभिन्न देशी-विदेशी कॉर्पोरेट को दी है। इसका मकसद घरेलू मैनुफैक्चरिंग को वैश्विक होड़ में बराबरी के स्तर पर लाकर भारत में मैनुफैक्चरिंग करने वाली कुछ विश्व चैंपियन कंपनियां तैयार करना बताया गया है। कहा गया है कि इससे उच्च तकनीक के नवीनतम क्षेत्रों में पूंजी निवेश आकर्षित होगा, उत्पादन में कार्य कुशलता बढ़ेगी, उत्पादन में उच्च परिमाण से बचत हासिल होगी, निर्यात में तेजी से इजाफा होगा और भारत वैश्विक औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला की एक अहम कड़ी बन जाएगा।

उत्पादन प्रोत्साहन हेतु सार्वजनिक बजट से पूंजी देने के अतिरिक्त मोदी सरकार की दूसरी नीति आत्मनिर्भरता या आयात प्रतिस्थापन की है। सरकार देशी-विदेशी पूंजीपतियों को पूंजी, टैक्स छूट, सस्ती जमीन, शुल्क रियायतें आदि देकर कह रही है कि वे अधिकाधिक कलपुर्जे विदेशों से आयात कर यहां सिर्फ अंतिम उत्पाद को असेंबल करने के बजाय उसका स्थानीयकरण करें अर्थात ज्यादा पुर्जे यहीं बनाएं। उसे लगता है कि इससे मैनुफैक्चरिंग की पूरी आपूर्ति श्रृंखला को ही देश में लाना मुमकिन होगा। इसके लिए विदेशी पूंजीपतियों को रियायतों के बदले तकनीक हस्तांतरण करने के लिए कहा जा रहा है। साथ ही इन कलपुर्जों पर ऊंचा आयात कर लगाकर महंगा किया जा रहा है ताकि इनके आयात के बजाय इन्हें देश में ही बनाने को प्रोत्साहन मिले।

इस नीति का तीसरा अंग मजदूर वर्ग द्वारा लंबे संघर्ष से हासिल श्रम अधिकारों पर तेज होता आक्रमण है। देशी-विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ावा दे उच्च तकनीक आधारित निर्यातोन्मुख औद्योगिक विकास के लिए पूंजी की एक बड़ी शर्त सस्ती मजदूरी दर के साथ ही फौजी अनुशासन में बिना किसी प्रतिरोध के लंबे घंटे तक काम करने वाले असंगठित आज्ञाकारी मजदूरों की अबाध आपूर्ति है। ये घर-परिवार से दूर पूंजीपति मालिकों के आठों पहर नियंत्रण में रहने वाले प्रवासी मजदूर हों तो और भी अच्छा, ताकि खुद मजदूरों को भी असेंबली लाइन की तरह एक नियंत्रित तीव्र गति से संचालित कर उच्च उत्पादकता हासिल की जा सके। कम मजदूरी व उच्च उत्पादकता – इस मकसद से ही सरकार कोरोना लॉकडाउन के दौरान काम के दिन को 12 घंटे तक बढ़ाने सहित श्रमिकों के बहुत से अधिकार छीनने वाले चार नए लेबर कोड लेकर आई।

किंतु मेक इन इंडिया व पीएलआई आदि के जरिए भारत को दुनिया भर में निर्यात हेतु मैनुफैक्चरिंग हब बनाने की यह नीति सरकार की सभी कोशिशों के बावजूद कामयाब नहीं हो रही है। वास्तव में भारतीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और निर्यात आय में मैनुफैक्चरिंग का हिस्सा निरंतर घटता जा रहा है। इसके तीन मुख्य कारण हैं।

एक, पूरी दुनिया में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की स्थापना के बाद विस्तार की किसी भी संभावना के खत्म हो जाने से पूंजीवाद लगभग अंतहीन व असमाधेय वैश्विक आर्थिक संकट में फंस गया है। इस ने दो दशक पहले के चीन व जर्मनी की तरह भारत के लिए निर्यातोन्मुखी आर्थिक विकास की गुंजाइश अत्यंत न्यून कर दी है। आर्थिक संकट ऐसे समस्त इरादों को नाकाम कर रहे हैं। अतः इन नीतियों से मैनुफैक्चरिंग उत्पादन व निर्यात में कोई वास्तविक वृद्धि नहीं हो रही है।

दो, भारतीय पूंजीवाद विभिन्न वजहों से बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों में शामिल होने में खुद को असमर्थ पाता है। इसके घरेलू अंतर्विरोध व कमजोरियां उसे बाजार को उस निर्बाध रूप से खोलने से रोकते हैं जो आज की वैश्विक औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला का अंग बनने के लिए आवश्यक है। आज औद्योगिक उत्पादन की जो प्रकृति है – एक मोबाइल फोन उत्पादन की आपूर्ति श्रृंखला 60-70 देशों से मिलकर बनती है – उसमें हरेक अवयव की आपूर्ति विश्व में मौजूद सबसे सस्ते स्रोत से न करने पर बाजार होड़ में टिक पाना नामुमकिन है। 1950 के दशक से लेकर आज तक का इतिहास है कि आयात प्रतिस्थापन के लिए उच्च कस्टम ड्यूटी की नीति कई बार इस्तेमाल में लाई गई। पर हर बार भारतीय पूंजीपतियों ने वैश्विक बाजार के लिए अपनी होड़ क्षमता व तकनीकी कुशलता बढ़ाने के बजाय घरेलू भारतीय बाजार में अपने उत्पादों के दाम बढ़ाकर ऊंचे मुनाफे कमाने का आसान रास्ता चुना। अतः आयात प्रतिस्थापन द्वारा निर्यातोन्मुख विकास की नीति हर बार असफल सिद्ध हुई है।

तीन, बांग्लादेश व वियतनाम से लेकर विश्व के कई देश निर्यातोन्मुख विकास की ऐसी ही नीति लागू कर मैनुफैक्चरिंग में चीन का विकल्प बनने की इस होड़ में शामिल हैं। वियतनाम का कुल वस्‍तु निर्यात तो भारत को पहले ही पीछे छोड़ चुका है। चिप निर्माण जैसे क्षेत्रों में तो खुद अमरीका 280 अरब डॉलर की निवेश योजनाओं के साथ प्रतियोगिता में शामिल है। अतः अधिक संभावना यही है कि वैश्विक औद्योगिक आपूर्ति श्रृंखला में चीन की जगह लेने की यह वैश्विक होड़ पूंजीवादी व्यवस्था के नियम अनुसार अति-उत्पादन के रूप में एक नवीन तथा अधिक गंभीर औद्योगिक व वित्तीय संकट को ही जन्म देगी।

ऐसी स्थिति में मोदी सरकार अपने समस्त दावों के बावजूद इन नीतियों से भारत को मैनुफैक्चरिंग हब व निर्यात का केंद्र बनाने की कोशिशों में सफल होती नजर नहीं आ रही है। भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के आंकड़े इसी की पुष्टि करते हैं। ऐसे में इस सरकार के पास रोजगार सृजन का भी कोई कारगर उपाय मौजूद नहीं है और भविष्य में बेरोजगारी के और भी विकराल होने की आशंका है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत है)

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