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इंटरनेट शटडॉउन : अंग्रेजों की "फूट डालो, राज करो" की नीति का दोहराव

एक प्रदर्शन के दौरान इंटरनेट बंद किया जाना प्रदर्शनकारियों की आवाज़ को पूरे तरीक़े से दबाना है। यह सिर्फ़ सेंसरशिप ही नहीं है, यह जानकारी पर मार्शल लॉ की घोषणा है।
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1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार में जनरल डायर और उसके सिपाहियों की गोलीबारी में करीब़ एक हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। पूरे देश को हिलाकर रख देने वाली यह नरसंहार अंग्रेजों की "फूट डालो और शासन करो" की औपनिवेशिक नीति का नतीज़ा था। आज हम इसी "फूट डालो और शासन करो" की नीति को फिर से जिंदा होते हुए देख रहे हैं। इसे गलत जानकारी के संगठित प्रसार और जबरदस्ती थोपे गए इंटरनेट शटडॉउन के ज़रिए देश पर थोपा जा रहा है।

26 जनवरी को भारत के किसानों ने दिल्ली में अलग-अलग तरफ से एक लाख ट्रैक्टरों के साथ परेड निकाली थी। यह तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ़ नवंबर 2020 से चल रहे किसानों के सतत् संघर्ष की परिणिति थी। इन तीन कानूनों के ज़रिए भारतीय कृषि क्षेत्र का निजीकरण कर भारतीय किसानों की आजीविका को बर्बाद किया जा रहा है।

ट्रैक्टर परेड के दिन पहले से तय रूट पर जाने से किसानों को रोका गया, उनपर आंसू गैस के गोलों से हमला किया गया और उनके साथ बेहद क्रूर हिंसा की गई। हिंसा में कई लोग बुरे तरीके से घायल हो गए। रैली के दौरान और बाद में भी, केंद्र सरकार ने दिल्ली के कई हिस्सों में इंटरनेट बंद कर दिया। इसके बाद हरियाणा ने भी अपने 22 में से 17 जिलों में इंटरनेट सेवाएं रोक दीं। SMS सेवाओं को भी फिलहाल रद्द कर दिया गया है। 

बता दें 2019 में इंटरनेट शटडॉउन लगाने वाले देशों की सूची में भारत 121 शटडॉउन के साथ सबसे ऊपर था। 

इंटरनेट शटडॉउन से क्या हासिल होता है

सरकार कहती है कि कानून-व्यवस्था को बनाए रखने और सोशल मीडिया पर गलत जानकारी फैलेने से रोकने के लिए इंटरनेट को बंद किया जाता है। अगर यही मंशा है, तो शटडॉउन अनिश्चित्ता भरे होते हैं, क्योंकि इनके ज़रिए गलत जानकारी फैलाने वाले व्यक्तिगत मामलों का समाधान नहीं किया जा सकता। ऊपर से शटडॉउन जानकारी को पूरे तरीके से रोकने में पूरी तरह नाकाम रहते हैं। सोशल मीडिया का नियंत्रण और फर्ज़ी ख़बरों को सटीक कानूनों और सहगामी तरीकों वाले एक मजबूत डाटा सुरक्षा तंत्र का निर्माण कर रोका जा सकता है। लेकिन इसके लिए अब तक कोई प्रयास नहीं किए गए हैं। इस दौरान वॉट्सऐप और फ़ेसबुक जैसे मंचों पर लगातार गलत जानकारियां हमारे बीच फैलाई जा रही हैं। ऊपर से इंटरनेट शटडॉउन के दौरान लोगों का आपस में संचार मुश्किल हो जाता है उन्हें खाद्यान्न और स्वास्थ्य आपूर्ति जैसे जैसे जरूरी संसाधनों की उपलब्धता भी कठिन हो जाती है। फिलहाल प्रदर्शनकारी किसानों को भी खाद्यान्न और स्वास्थ्य आपूर्ति की बहुत ज़्यादा जरूरत है।

इंटरनेट शटडॉउन भारत के संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी उल्लंघन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इंटरनेट सेवाओं पर अपरिभाषित प्रतिबंध गैरकानूनी होगा और इंटरनेट पर प्रतिबंध को "आवश्यकता और अनुपात" की परीक्षा से गुजरना होगा। कोर्ट ने कहा कि सरकार को एक संभावित लक्ष्य दिखाना होगा, साथ ही उसे पाने के लिए किसी वैकल्पिक तरीके की खोज करनी होगी। अगर ऐसा संभव नहीं हो पाता तो अंतिम हथियार के तौर पर शटडॉउन लगाना चाहिए। एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान कानून-व्यवस्था को बनाए रखने का लक्ष्य और जल्दबाजी में लगाए गए शटडॉउन, दोनों ही सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ जाते हैं।

ग़लत जानकारी से आगे ग़लत मंशा वाली जानकारी

सरकार हमें गलत जानकारी/फर्ज़ी ख़बरों के लिए चेतावनी देती है, लेकिन यहां हम लगातार गलत मंशा वाली जानकारियों से जुड़े मामले देख रहे हैं। यह एक तरह की गलत जानकारी ही है, जहां जानबूझकर खास उद्देश्य के लिए गलत जानकारी को ख़बरों और सूचनाओं का लबादा पहनाया जाता है। हाल में किसान आंदोलन पर खालिस्तानियों का मोर्चा होने के आरोप लगाए गए, यह तक कहा गया कि वे पाकिस्तानी आतंकवादी हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में टीवी चैनलों ने मीडिया ट्रॉयल चलाई। यह घटनाएं इसी गलत मंशा वाली जानकारियों और सूचनाओं के प्रसारण का उदाहरण हैं। किसी के लिए भी यहां तटस्थ सत्य की झलक पाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि टीवी न्यूज चैनलों द्वारा हमारे पास बहुत बड़ी मात्रा में गलत मंशा वाली जानकारियां पहुंचाई जाती हैं। टीवी चैनलों में बहुत सारे विकल्पों की मौजूदगी की बात सिर्फ़ एक तरह का धोखा है, क्योंकि इन सभी चैनलों के मालिक कुछ मीडिया कॉरपोरेशन ही हैं। रिलायंस के खिलाफ़ किसानों के प्रदर्शन पर कंपनी ने कहा, "हमारा किसान कानूनों से कोई लेना-देना नहीं है।" यह साफ़ है कि कंपनी का यह वक्तव्य झूठ है और किसानों के पास इस मामले में बहुत स्पष्टता वाला पूर्वज्ञान मौजूद था। इस बीच मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाला देश का सबसे बड़ा मीडिया न्यूज़ नेटवर्क, नेटवर्क-18 अपने सभी मीडिया ऑउटलेट्स के साथ किसानों के आंदोलन की साख खराब करने में लगा रहा।

आज मौजूद इंटरनेट टीवी की तुलना में ज़्यादा लोकतांत्रिक माध्यम है। लेकिन हमें यहां यह समझने में कोई गलती नहीं करनी चाहिए कि इस माध्यम में डिजिटल एकाधिकार वाली कंपनियां प्रतिबंध लगाती हैं और छेड़खानी करती हैं। एक ही सवाल के लिए गूगल अलग-अलग लोगों को अलग-अलग जानकारी पहुंचाता है, मतलब हमारे सामने एक ही तरह की सामग्री पेश कर हमें एक "फिल्टर बबल" में रखा जा रहा है। वहीं फ़ेसबुक ने हाल में बिना किसी चेतावनी के "किसान एकता मोर्चा" का पेज बंद कर दिया था, यह पेज किसान आंदोलन का प्रतिनिधित्व करता था और इसके लाखों फॉलोवर्स थे। इनके बेहद कड़े फिल्टरों (नियंत्रकों) से गुजरकर जो जानकारी हमारे पास पहुंचती है, उसे भी यह सोशल मीडिया कंपनियां मनमुताबिक तरीके से सेंसर कर सकती हैं।

जहां एक तरफ गलत मंशा वाली जानकारियों को संगठित तरीके से फैलाया और प्रसारित किया जा रहा है, वहीं इंटरनेट शटडॉउन होने के चलते किसानों के लिए प्रदर्शन के दौरान होने वाली घटनाओं की किसी भी तरह की जानकारी देना मुश्किल हो जाता है।

बड़े स्तर की निगरानी (मास सर्विलांस) के दौर में इंटरनेट शटडॉउन

गणतंत्र दिवस पर हो रहे प्रदर्शनों के बीच में इंटरनेट को बंद कर दिया गया, इतना ही नहीं, प्रदर्शनों पर ड्रोन के ज़रिए नज़र भी रखी गई। यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ही एक मुद्दा नहीं है, बल्कि यहां किसानों की आवाज घोटने के साथ उनपर सैन्य स्तर की निगरानी रखी जा रही है, जिसमें उनकी ऑनलाइन गतिविधियों को भी जोड़ा जाता है, इससे प्रदर्शनकारियों का आपस में समन्वय और प्रदर्शनस्थल से बाहर के लोगों के साथ संचार मुश्किल हो जाता है। इसके चलते प्रदर्शनकारियों और जनविमर्श पर सरकार को अभूतपूर्व नियंत्रण हासिल हो जाता है।  

हम जिन फ़ेसबुक पेज को लाइक करते हैं, हम जिन दोस्तों से बात करते हैं, हम जिन कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं, हम जिन जगहों पर घूमने जाते हैं, हम जिन ख़बरों को पढ़ते हैं, हम जिस शब्दावलियों को खोजते हैं, हम जिन वीडियो को देखते हैं, यह सारी गतिविधियां हमारी सोशल मीडिया गतिविधियों के तहत आती हैं। इन सारी गतिविधियों का इस्तेमाल हमारी प्रोफाइल बनाने के लिए किया जाता है। इस प्रोफाइल और हमारे साथ जुड़े लोगों की प्रोफाइल के ज़रिए हमारे व्यवहार का सटीक ढंग से आंकलन लगाया जाता है। यही वह डाटा होता है, जिसे सोशल मीडिया कंपनियां हमें विज्ञापन दिखाने और अपने उत्पाद बेचने के लिए इस्तेमाल करती हैं।

सरकार भी किसी स्थिति के तात्कालिक भविष्य का अनुमान लगा सकती है और उस पर नियंत्रण कर सकती है, वहीं इस दौरान किसानों को अंधेरे में रखा जा सकता है।

सरकार को ऐसा नियंत्रण हासिल करने के लिए किसानों को चार दीवारी के भीतर बंद करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ़ इंटरनेट को बंद कर आसानी से ऐसा किया जा सकता है। यह एक तरह की जेल ही है।

प्रदर्शनकारियों को कुचलने का हथियार है इंटरनेट शटडाउन

"एनार्कियल एंड रेवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट, 1919" जिसे लोकप्रिय तौर पर "रॉलेट एक्ट" के नाम से जाना जाता है, उसे स्वतंत्रता की आवाज़ों को कुचलने के लिए लाया गया था। अंग्रेजों ने यह कानून किसी भी, बल्कि हर तरह की गतिविधि जिसमें शांतिपूर्ण जमावड़ा भी शामिल था, उसे "साजिश" साबित करने के लिए बनाया था, ताकि गिरफ़्तारियों, प्रतिबंधों को थोपने और स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी किसी भी गतिविधि को दबाने के लिए उठाए गए कदमों को न्यायसंगत ठहराया जा सके। प्रेस की स्वतंत्रता को गंभीर तरीके से कम कर दिया गया था और इन गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी प्रकाशित नहीं हो सकती थी।

1919 के इस कानून में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल ओ'डायर के हवाले से लिखा गया था, "....क्रांतिकारी प्रोपगेंडा के प्रसार को तेजी से रोकना होगा, हिंसक और देशद्रोही अपराधों में तेजी से सजा देनी होगी; इनके पीछे शामिल लोगों को हटाना होगा और उन्हें नज़रबंद करना होगा; अख़बारों की कपटपूर्ण गतिविधियों पर लगाम लगानी होगी; और हर वह सावधानी रखनी होगी जिससे खुले विद्रोह की ज़हर भरी शिक्षाओं से सेना और लोगों को दूर रखा जा सके...."

स्वतंत्रता आंदोलन पर प्रतिबंध, लोगों पर थोपी गई सेंसरशिप-निगरानी का पर्याय हो गया। ऐसे भयावह उत्पीड़न के दौरान भी प्रदर्शन बेहद ताकत से जारी रहे और राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए भूख बढ़ती ही गई। इस कानून की आड़ में छुपकर 13 अप्रैल, 1919 को जनरल डॉयर और उनके सिपाहियों ने जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण जमावड़े पर गोलीबारी कर दी, जिसमें 1000 के करीब लोगों की मौत हो गई।

जलियांवाला बाग का भयावह नरसंहार कोई अपवाद या अकेली घटना नहीं है, बल्कि यह ब्रिटेन की उसी नीति का नतीज़ा थी, जिसके ज़रिए भारत को हर कीमत पर गुलाम रखा जाने की मंशा थी। शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर गोलीबारी की यह घटनाएं ब्रिटेन द्वारा कीनिया और ऑयरलैंड में भी दोहराई गईं। जलियांवाला बाग हत्याकांड, धर्म से परे भारतीय लोगों की एकता को विभाजित करने और तत्कालीन उथल-पुथल में भारतीयों पर शासन करने की औपनिवेशिक मंशा का नतीज़ा था।

फिर हिंदू और मुस्लिम में विभाजन करने के लिए फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाई गई। आज इंटरनेट शटडॉउन और गलत मंशा वाली जानकारियों के कैंपेन के चलते हमें मैदान की सच्चाई जानने और किसानों से बात कर पाने में मुश्किल हो रही है। यह एक सजग नागरिक के निर्माण में बाधा पैदा करता है, जो हमारे लोकतंत्र का आधार है। आज जब पूरे किसान आंदोलन पर एक षड्यंत्र होने का आरोप लगाया जाता है, किसानों की देशभक्ति पर सवाल उठाया जाता है, शांतिपूर्ण प्रदर्शन में हिंसा का सहारा लिया जाता है, तब हमें यह औपनिवेशिक दिनों की याद दिलाता है। नई "फूट डालो और शासन करो" की नीति, अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन कर रहे किसानों और नागरिकों में विभाजन का काम करती है। सरकार ने हमें गणतंत्र दिवस के दिन बांटने का फ़ैसला किया, जबकि इस दौरान देशभक्ति के खोखले नारे लगाए जाना ही अपने-आप में एक विडंबना है।

मनमुताबिक़ ढंग से यह तय करना कि क्या प्रकाशित हो सकता है और क्या नहीं, इससे प्रेस पर सेंसरशिप लगाई जाती है, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है। एक प्रदर्शन के दौरान इंटरनेट बंद किया जाना प्रदर्शनकारियों की आवाज़ को पूरे तरीके से दबाना है। यह सिर्फ़ सेंसरशिप ही नहीं है, यह जानकारी पर मार्शल लॉ की घोषणा है। यह प्रभावी तौर पर आपातकाल को थोपा जाना है। इस वक़्त इन विभाजित करने वाले कदमों और लोगों पर लगने वाले भयावह प्रतिबंधों का विरोध करना हमारी ज़िम्मेदारी बनती है। हमें शटडॉउन को ख़त्म करने और आगे इन्हें कभी लागू ना किए जाने की अपील करनी होगी।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Internet Shutdowns: Revival of British Divide-and-Rule Policy?

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