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क्या कुकी-ज़ो संकट 'ग्रेटर मिज़ोरम' की मांग का आधार बन रहा है?

मणिपुर से विस्थापित हुए ज़ो-कुकी लोगों के भागकर आइज़ॉल में जाने के बाद, जातीय-धार्मिक आधार पर एक इलाक़े का सीमांकन करने की मांग को व्यापक राजनीतिक समर्थन मिल रहा है।
Mizo
युवा मिज़ो एसोसिएशन के महासचिव प्रोफेसर सावमा

आइजोल: ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट के नेता, पूर्व आईपीएस अधिकारी, लालदुहोमा को भारत के सबसे शांतिपूर्ण राज्यों में से एक मिजोरम के छठे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए अभी 20 दिन भी नहीं हुए हैं। हालाँकि, मिज़ोरम शांति समझौते के पूर्व वास्तुकार (जिस समझौते में मिज़ो नेशनल फ्रंट के नेता लालडेंगा शामिल थे) ने दफ्तर संभालते ही शपथ के पहले दिन ही स्पष्ट कर दिया था कि वे मिज़ो-चिन-कुकी (CHIKIM) लोगों के लिए 'ग्रेटर मिज़ोरम' के निर्माण के सपने को पूरा करने को तैयार हैं। 

जब न्यूज़क्लिक ने हाल ही में आइजोल स्थित उनके दफ़्तर में लालडुहोमा से मुलाकात की, तो उन्होंने कहा कि वे 'ग्रेटर मिज़ोरम' के विचार से सहमत हैं और यह लोगों पर निर्भर करता है कि वे इसे चाहते हैं या नहीं।

उन्होंने बताया कि, उन्होंने हाल ही में कुकी-ज़ो लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले मणिपुर के आठ निर्वाचित विधायकों से मुलाकात की है, जहां "उनके बीच काफी बातचीत हुई।"

यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि मिजोरम के पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री लालथनहावला और मिजोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा, जो हाल ही में लालदुहोमा से हार गए थे, दोनों 'ग्रेटर मिजोरम' बनाने की मांग के बड़े समर्थक हैं।

(आइजोल में पत्रकारों से मुलाकात करते सीएम लालदुहोमा)

ज़ोरमथांगा, चुनाव खराब प्रशासन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर हार गए। फिर भी, पद छोड़ने से पहले, उन्होंने कुकी-ज़ो लोगों के पक्ष में एक बड़ा निर्णय लिया था - उन्होंने लगभग 50,000 कुकी-ज़ो लोगों के लिए राज्य के दरवाजे खोल दिए थे, जिन्होंने मणिपुर की पहाड़ियों और इंफाल घाटी में भयंकर मैतेई-कुकी जातीय हिंसा के कारण अपने घर खो दिए थे। लगभग 13,000 कुकी लोग अब मिजोरम के 11 जिलों में रह रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर राहत शिविरों में रहते हैं।

आइजोल के तुइखुआहत्लांग इलाक़े में, राजीव आवास योजना के तहत निर्मित फ़ॉकलैंड कैंप नामक शिविर में लगभग 670 कुकी-ज़ो परिवारों का पुनर्वास किया गया है।

एक हॉल में एक ही छत के नीचे रहने वाले 10 से 12 परिवारों को अलग करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाले कपड़े वाला छोटा शिविर, विस्थापित कुकी-ज़ो लोगों की दुर्दशा की कहानी कहता नज़र आता है जो सभी प्रकार की कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं।

पादरी जॉन ने न्यूज़क्लिक को बताया कि उनके लिए मणिपुर के चंदेल इलाक़े से बाहर निकलना और आइजोल में प्रवास करना और चंदेल से रास्ते में यंग मिज़ो एसोसिएशन द्वारा स्थापित पारगमन शिविरों में रहना अनुकूल था।

उन्होंने कहा कि दोनों मिज़ो, कुकी और चिन एक ही जातीय समुदाय से हैं, उनमें से अधिकांश ने ईसाई धर्म अपनाया हुआ है। पादरी ने कहा कि जातीय संघर्ष के शुरुआती दिनों में चंदेल जिले में अरामबाई तेंगगोल्स ने उनके गांव की चर्च को आग लगा दी थी, जिसके बाद ये लोग अपनी मातृभूमि छोड़कर भाग गए और अब आइजोल से 170 किलोमीटर दूर रह रहे हैं।

कुछ कुकी लोगों ने आइजोल में बताया कि वे वाईएमए और स्थानीय आईटीएलएफ (इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम) की निरंतर निगरानी में रह रहे हैं जो उनकी जरूरतों का ख्याल रख रहे हैं। 

40 वर्षीय सिएन लुनफिम ने बताया कि वह चंदेल में एक झूम किसान से, आइजोल में एक दैनिक वेतन भोगी बन कर रह गए हैं। यहां ऐसी नौकरियाँ उपलब्ध हैं जो प्रति दिन 500 रुपये तक की आय दिलाती हैं, जो काम मुख्य रूप से सड़क-निर्माण क्षेत्र में उपलब्ध है।

गौरतलब है कि राज्य में राष्ट्रीय राजमार्गों को चार लेन का बनाया जा रहा है और नए मुख्यमंत्री लालडुहोमा सड़क निर्माण क्षेत्र में काम को बढ़ावा देने के लिए पहले ही भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अधिकारियों से मुलाकात कर चुके हैं।

लेकिन सिएन लुनफिन के लिए चीजें कठिन हो गई हैं, क्योंकि उन्हें प्रतिदिन 550 रुपये की मजदूरी के साथ छह लोगों के परिवार का भरण-पोषण करना पड़ता है और परिवार राहत शिविर में रहता है। 

इन शिविरों में चावल और दालों का ख़र्च चर्च, वाईएमए और आईटीएलएफ उठा रही हैं, लेकिन प्रोटीन के लिए उन्हें मांस और मुर्गी की जरूरत है, जिसे उन्हें खुद खरीदना पड़ता है। जो रोजगर नहीं कर पाते, उन्हें दाल-चावल खाकर ही संतोष करना पड़ता है।

न्यूज़क्लिक ने आइजोल स्थित उनके कार्यालय में वाईएमए के महासचिव प्रोफेसर सावमा से भी मुलाकात की। वाईएमए मिजोरम में पांच लाख से अधिक सदस्यों वाला सबसे बड़ा गैर सरकारी संगठन है। वाईएमए के सदस्यों को आइजोल शहर की हर सड़क के साथ-साथ चौकियों पर भी देखा जा सकता है।

(आइजोल एक मनोरम दृश्य)

वाईएमए नशीली दवाओं के खतरे पर भी कड़ी नजर रखता है और कानून और व्यवस्था बनाए रखने में प्रशासन को सहायता करता है। “अब तक, हम आईडीपी (आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों) की मदद के लिए दान के रूप में 2.30 करोड़ रुपये जुटाने में सक्षम हुए हैं, जो मणिपुर और यहां तक कि म्यांमार (म्यांमार गृहयुद्ध के कारण चिन शरणार्थियों को विस्थापित किया गया है) से आ रहे हैं।

मिजोरम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे डोंगेल ने 'गेटर मिजोरम' की मांग के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि सदियों से चिन, कुकी और मिजो लोग उत्तर-पूर्व भारत और म्यांमार के पहाड़ी इलाकों में 'भाई' के रूप में रहते हैं। उन्होंने कहा कि, "आपके लिए, राजनीतिक सीमाएं अंतरराज्यीय सीमाओं और अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की तरह हैं जो भूमि का सीमांकन करती हैं, लेकिन इलाक़े के सामान्य लोगों के लिए, यह सिर्फ गांव की सीमा का मामला होता है।"

यहां यह याद रखें कि 'ग्रेटर मिजोरम' में, मणिपुर, असम यहाँ तक कि म्यांमार के कुछ हिस्सों में बसे कुकी-ज़ो समुदाय वाले इलाकों को विलय करने की मांग शामिल है।

एक राजनीतिक विश्लेषक ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए न्यूज़क्लिक को बताया कि, फिलहाल मांग केंद्र सरकार पर अंतरराष्ट्रीय सीमा को बनाए रखते हुए जातीय-धार्मिक आधार पर 'ग्रेटर मिजोरम' बनाने के लिए दबाव डालने की है, जहां चिकिम लोग उत्पीड़न के डर के बिना सौहार्दपूर्ण ढंग से रह सकें।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Is Kuki Zo Crisis Providing Fodder to Demand of ‘Greater Mizoram’?

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