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क्या श्रम मंत्रालय अपने श्रम सुविधा पोर्टल के जरिये सुप्रीम कोर्ट को ठग रहा है?

यह कहना कि सरकार केवल पोर्टल चलाएगी और बाक़ी सिरदर्द श्रमिक का है, अत्यधिक ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार है।
क्या श्रम मंत्रालय अपने श्रम सुविधा पोर्टल के जरिये सुप्रीम कोर्ट को ठग रहा है?

26 अगस्त 2021 को केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने असंगठित श्रमिकों के पंजीकरण हेतु युनिफाइड श्रम सुविधा पोर्टल (USSP) को लॉन्च किया। असंगठित श्रमिकों की गिनती कर उन्हें पंजीकृत करने का फैसला लेने में सरकार को 75 वर्ष का लम्बा वक्त लगा, इससे समझ में आता है कि मेहनतकश भारत के सबसे शोषित तबके के प्रति क्रमशः सत्ता में आई सरकारों का रुख किस कदर लापरवाह रहा है। और ऐसा भी नहीं कि मोटी चमड़ी वाले श्रम नौकरशाहों को किसी प्रकार की नई अनुभूति हुई है और वे अपने से कोई कदम उठा रहे हैं। बल्कि वे बड़ी मजबूरी में सर्वोच्च न्यायालय क आदेश पर यह काम कर रहे हैं।

दीर्घकालिक विलंब

यदि हम असंगठित मज़दूरों के पंजीकरण का इतिहास देखें तो वह श्रम मंत्रालय द्वारा कानून और न्यायालयों की धज्जियां उड़ाने का इतिहास रहा है।

सबसे पहले असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 ने केंद्र और राज्य सरकारों के लिये अनिवार्य बना दिया था कि वे असंगठित श्रमिकों का पंजीकरण करें। इसे श्रम मंत्रालय ने खुद तैयार करके पारित करवाया था पर संसद द्वारा इस कानून के प्रति लेशमात्र भी गम्भीरता नहीं दिखाई गई।

* मोदी सरकार ने 16 अक्टूबर 2014 को ‘श्रमेव जयते’ नाम से एक योजना आरंभ की, जिसका मक्सद था असंगठित मज़दूरों को पंजीकृत करना। इस अवसर पर मोदी ने एक श्रम सुविधा पोर्टल लॉन्च किया। हालांकि कुछ हज़ार श्रमिकों को पंजीकृत करने के बाद स्कीम को बिना कारण बताए चुपके से दफ्ना दिया गया और पंजीकरण की प्रक्रिया बंद कर दी गई। 26 अगस्त 2021 को जो युनिफाइड श्रम सुविधा पोर्टल लॉन्च किया गया वह इसी मृत स्कीम को पुनर्जागृत करके नया नाम दिया गया है। पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि इसका भी लगभग वही हश्र होना है।

* 24 मार्च 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देशित किया कि वे असंगठित श्रमिकों का पंजीकरण करें। कोर्ट ने राज्य सरकारों को कहा कि वे अंसंगठित श्रमिकों के पंजीकरण के बाद उन्हें पहचान पत्र जारी करें। उसने केंद्र को निर्देशित किया कि वह 2008 के कानून के तहत असंगठित श्रमिकों के लिए राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड का गठन करे। केंद्र ने 22 मई 2017 को ऐसे बोर्ड का गठन किया भी तो कार्यकारी बनाने के लिए नहीं, बल्कि कोर्ट की आंख में धूल झोंकने के लिए! 4 अगस्त 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने बोर्ड को आदेश दिया कि वह एक महीने के अंदर इस बाबत रिपार्टे दर्ज करे कि श्रमिकों को लाभ पहुंचाने की दिशा में क्या प्रगति हुई। पर इस निगरानी प्रक्रिया से न कुछ निकला, न ही बाद में बोर्ड के बारे में कुछ पता चला।

फिर, 11 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेशित किया कि अंसंगठित श्रमिकों के पंजीकरण की प्रक्रिया फरवरी 2018 से शुरू कर दे। अपने शिड्यूल में 2008 के असंगठित मज़दूर कानून ने इन श्रमिकों के लिए 10 कल्याणकारी योजनाएं सूचीबद्ध कीं, जिसमें इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धा पेंशन स्कीम, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, जननी सुरक्षा योजना, हथकरघा बुनकर समग्र कल्याण योजना, हस्तशिल्प कारीगर समग्र कल्याण योजना, मास्टर शिल्पकार पेंशन योजना, मछुआरों के कल्याण हेतु राष्ट्रीय योजना व प्रशिक्षण तथा विस्तार, जनश्री बीमा योजना, आम आदमी बीमा योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि पंजीकरण के अभाव में असंगठित श्रमिकों को इन योजनाओं से लाभ नहीं मिल रहे थे।

* 31 मई 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश दिया कि कोर्ट के पिछले निर्देश के पालन संबंधित स्टेटस रिपोर्ट दर्ज करे, जिसके तहत घरेलू कामगारिनों का पंजीकरण होना था।

* फिर 28 जनवरी 2020 को श्रमजीवी महिला समिति नामक एक झारखण्डी एनजीओ की याचिका की सुनवाई करके सर्वोच्च न्यायालय के 3 सदस्यीय पीठ ने श्रम व रोजगार मंत्रालय को आदेश दिया कि वह असंगठित मजदूरों को पंजीकृत करने के लिए एक सॉफ्टवेयर तैयार करे। श्रम व रोज़गार मंत्रालय के वकील ने सॉफ्टवेयर विकसित करने के लिए 6 महीने का समय मांगा। पर एक साल बाद भी इसमें कोई विकास न हुआ।

* फिर 25 मई 2021 को एक सुओ मोटो केस (स्वत: संज्ञान) पर, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने महामारी की वजह से उभरे प्रवासी संकट पर उठाया था, न्यायिक एक्टिविस्ट प्रशान्त भूषण ने दावा किया था कि असंगठित मजदूरों को 2008 के कानून के शिड्यूल में दिये गए लाभ नहीं मिल रहे थे। तब सरकारी वकील ने कहा कि 2008 के कानून को सामाजिक सुरक्षा कोड ने अधिक्रमण कर लिया था। कोर्ट ने यह भी इंगित किया कि सामाजिक सुरक्षा कोड, यद्यपि उसकी अधिसूचना नहीं जारी हुई थी, खण्ड 112 के तहत असंगठित श्रमिकों के पंजीकरण के लिए प्रावधान रखता है। अपने आदेश में कोर्ट ने स्पष्ट कहा किः ‘‘हम केंद्र और राज्य सरकारों को समझाना चाहते हैं कि वे जल्द ही असंगठित मज़दूरों को पंजीकृत कर दें ताकि वे केंद्र व राज्य की तमाम योजनाओं से लाभ ले सकें, जो बिना सही पंजीकरण और पहचान पत्र के जमीनी स्तर पर लागू करना कठिन लगता है।’’

कोर्ट ने आगे कहा, ‘‘कोई सही तंत्र होना चाहिये, जो इसे मॉनिटर करे व इसकी निगरानी करे कि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उच्च अधिकारियों से जमीनी स्तर पर लाभार्थियों को मिल रहे हैं कि नहीं; लाभार्थियों के नाम व स्थान के साथ, ताकि इन योजनाओं का मकसद पूरा हो सके।’’

इसी केस के एक और आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों से कहा कि अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिक कानून या आईएसएमडब्लू (ISMW) एक्ट, जिसमें सभी प्रवासी मजदूरों के पंजीकरण का प्रावधान है, को पूरी तरह लागू करें।

* अंत में 29 जून 2021 को, प्रवासी मज़दूरों की व्यथा कथा सुनते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को एक ब्लंट आदेश दे दिया कि 31 जुलाई से पहले सभी असंगठित मज़दूरों के पंजीकरण की प्रक्रिया पूरी कर दी जाए। पर मोदी सरकार ने यह प्रक्रिया 26 अगस्त 2021 को ही शुरू की। और सुप्रीम कोर्ट को बेवकूफ बनाने के लिए श्रम मंत्रालय ने केवल एक पोर्टल लॉन्च कर दिया, और मजदूरों से अपेक्षा की गई कि वे स्वयं आकर अपना पंजीकरण कराएं। मंत्रालय ने पंजीकरण के लिए विस्तृत नियम भी नहीं बनाए, न ही तय किया कि राज्य सरकारों के विभाग व श्रम यूनियन पंजीकरण में मदद करने के लिए क्या कर सकते हैं।

व्यक्तिगत तौर पर एक श्रमिक अपना आधार नम्बर, बैंक खता नम्बर, जन्म तिथि, गृह जिले का नाम और मोबाइल नम्बर देकर और अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि बताकर अपना पंजीकरण करवा सकता है। पंजीकरण के बाद उसे एक ई-श्रम कार्ड और 12 अंकों का पहचान नम्बर दिया जाएगा। अजीब बात यह है कि मालिक के नाम का जिक्र नहीं होगा। इसके मायने हैं कि इस डाटाबेस को मालिकों व मजदूरों द्वारा फाइल किये गए आईटी रिटर्न्स को मिलाने हेतु कानून को अमल में लाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।

श्रम मंत्रालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि श्रम कल्याण योजनाओं को इसी डाटाबेस के साथ जोड़ दिया जाएगा। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह दोहराया है कि आधार कार्ड को किसी कल्याणकारी योजना के साथ जोड़ा नहीं जाना चाहिये और पंजीकरण कल्याणकारी योजना के लाभ दिलाने के लिए पूर्वशर्त नहीं हो सकती। पर ये आदेश तो मानो हवा हो गए!

श्रम मंत्रालय ने यह भी घोषित किया है कि जो मज़दूर पहले से ईएसआईसी (ESIC), ईपीएफओ (EPFO), कॉन्ट्रैक्ट लेबर रेगुलेशन ऐक्ट 1970 (CLRA), भवन व अन्य निर्माण मजदूर कल्याण बोर्ड जो बीसीडब्लूए (BCWA) के तहत काम करता है और अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिक कानून या आईएसएमडब्लू (ISMW) ऐक्ट के अंतरगत पंजीकृत हैं उनको इस केंद्रीय डाटाबेस में जोड़ दिया जाएगा। पर इनमें से कई तो केवल संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को कवर करते हैं। फिर ठेका मज़दूरों के अलावा औपचारिक श्रमिकों के बीच भी कई श्रेणी के असंगठित मज़दूर होते हैं, जैसे अस्थायी श्रमिक। पर उनको शामिल करने के लिए कोई निर्देश नहीं दिया गया। बिना स्पष्ट किये कि असंगठित मज़दूरों में कौन-कौन शामिल हैं, पंजीकरण की प्रक्रिया आरंभ कर दी गई है।

श्रम मंत्रालय ने यह भी घोषित किया कि यह राज्य सरकारों पर है कि वे आगे आएं और अपने कल्याणकारी योजनाओं/बोर्ड के अंतरगत पंजीकृत असंगठित मज़दूरों को केंद्रीय डाटाबेस के साथ समन्वित करें। अब तक केवल 9 राज्यों ने ऐसा किया है और तमिलनाडु व केरल सहित अन्य कई राज्यों ने नहीं किया। पर केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने इतनी भी जहमत नहीं उठाई कि स्पष्ट कर दे कि क्या राज्यों द्वारा चलाई जा रही विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं, जिनमें काफी फर्क भी है, उनके अंतरगत कल्याणकारी फंड और उनके द्वारा दिये जा रहे लाभ भविष्य के किसी समान केंद्रीय योजना के तहत जारी रखे जाएंगे।

राज्य सरकारों और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से कोई मशवरा नहीं

केंद्रीय श्रम मंत्री ने कहा कि असंगठित मज़दूरों के पंजीकरण की प्रक्रिया को राज्य सरकारों के सहयोग से पूरा किया जाएगा। पर केंद्र ने न ही राज्य सरकारों और न केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से मशवरा लेने की जहमत उठाई; उन्होंने ट्रेड यूनियनों की भूमिका को भी रेखांकित नहीं किया।

केंद्र ने केवल राज्यों को निर्देश दे दिया कि राज्य स्तर पर किये गए पंजीकरण के डाटाबेस को केंद्रीय डाटाबेस के साथ समन्वित कर लें। ज़ाहिर है कि इससे श्रम नेताओं के बीच संदेह पैदा हो रहा है कि तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और यहां तक कि गुजरात जैसे राज्यों की अव्वल कल्याणकारी योजनाओं में कटौती की जाएगी ताकि उन्हें केंद्रीय पंजीकरण में समाहित कर दिया जाए और एक संभावित एकीकृत वृहद-कल्याणकारी योजना को केंद्रीय स्तर पर तैयार किया जाए।

एक ठोस उदाहरण लें- निर्माण मज़दूरों पर केंद्रीय कानून ने कुछ ही योजनाएं सम्मिलित की थीं जबकि गुजरात के निर्माण मज़दूर कानून में 20 योजनाएं थीं। इसी तरह तमिलनाडु के निर्माण मज़दूरों को भी अधिक लाभ मिलते हैं और वे अधिक समग्र हैं। तमिलनाडु की योजना के तहत जब 60 वर्ष आयु पूरा करने के बाद निर्माण मज़दूर की मृत्यु होती है, उसके परिजनों को 2 लाख रुपये दिये जाते हैं। पर केंद्रीय स्कीम के तहत उसे इतना पैसा तभी मिलता है जब उसकी 50 साल की उम्र से पहले मौत हो जाए। यह हास्यास्पद है। सभी श्रमिकों को प्रीमियम भरना पड़ता है, लेकिन इस तरह अधिकतर मज़दूरों के परिजनों को सामाजिक सुरक्षा बीमा से वंचित रहना होगा।

इसी तरह से मोदी सरकार ने असंगठित श्रमिकों के लिए पेंशन योजना घोषित की है, जिसे प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन योजना के नाम से जाना जाता है। इस स्कीम के तहत एक असंगठित मज़दूर, जिसकी आयु 40 वर्ष से कम है, को 2 रुपये प्रतिदिन, यानी 730 रुपये प्रति वर्ष देना होगा जबतक वह 60 साल का नहीं हो जाता और 60 वर्ष की उम्र के बाद उसे 3000 रुपये का मासिक पेंशन मिलेगा। यदि उसकी उम्र 40 वर्ष से अधिक है तो उसे 200 रुपये प्रति माह यानी 2400 रुपये प्रति वर्ष देना होगा और तब उसे 3000 रुपये प्रति माह मिलेगा। यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा दिये जा रहे रेकरिंग डिपाज़िट स्कीम के लाभ से भी बदतर है। कुल मिलाकर श्रमिक को अपने पेंशन के लिए स्वयं पैसा भरना होगा और सरकार की उन्हें वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा देने के मामले में कोई भूमिका नहीं होगी, सिवाय इसके कि वह उनके पैसे निजी बीमा कम्पनियों को दे देगी ताकि वे मजदूरों की बचत के पैसों से सुपर-प्राफिट कमाएं। आहिस्ता-आहिस्ता सारे सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियों का भी निजीकरण हो जाएगा।

संघीय अधिकारों को कुचला जा रहा

कुछ राज्यों में कई श्रम विभाग अधिकारी भ्रम व चिंता की स्थिति में हैं क्योंकि यह संघीय अधिकारों पर एक शातिराना हमला है। नाम न बताने की शर्त पर एक अधिकारी ने कहा, ‘‘यदि सभी असंगठित मज़दूरों को केंद्रीय डाटाबेस से जोड़ा जाना है और केंद्र ही उनकी कल्याणकारी योजनाओं के बारे में निर्णय लेगा, तो केंद्र ही उनके लिए खर्च करे। पर केंद्र इस मामले पर यह आश्वासन नहीं दे रहा। तो राज्यों को ही उन श्रमिकों का खर्च उठाना पड़ेगा जिनका पंजीकरण केंद्रीय डाटाबेस के अंतर्गत हुआ है।’’

तो, डाटाबेस जबकि केंद्रीय होगा, पंजीकरण की प्रक्रिया मुख्यतः राज्यों को ही करानी होगी। यदि सरकार इस बात पर गंभीर है कि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ अंतिम असंगठित श्रमिक को मिले तो यह बेमानी और निरर्थक है कि देश के समस्त असंगठित श्रमिक खुद ही सामने आएं और पोर्टल पर अपना नाम पंजीकृत कराएं। यह कहना कि सरकार केवल पोर्टल चलाएगी और बाकी सिरदर्द श्रमिक का है, अत्यधिक गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार है।

एक ही पोर्टल पर संस्थानों और असंगठित मज़दूरों का पंजीकरण

प्रथम दृष्टया समझ में नहीं आता है कि पोर्टल प्रमुख तौर पर असंगठित मज़दूरों के पंजीकरण के लिए है या कि उनके मालिकों के लिए। यूपीपीएस भी संस्थानों का पंजीकरण करता है। लेबर कोड्स के तहत भी संस्थानों को 9 श्रम कानूनों के तहत रिटर्न फाइल करने है-ईपीएफ (EPF) कानून, ईएसआई (ESI) कानून, सीएलआरए (CLRA) ,1970, बीओसीडब्लू (BOCW) ,1996, आईएसएमडब्लू (ISMW) कानून, 1979। उन्हें सीएलआरए और आईएसएमडब्लू (ISMW) कानूनों के तहत लाइसेंस भी हासिल करनी होती है। अब हर संस्थान को एक लेबर आइडेन्टिफिकेशन नंबर (LIN) मिलेगा और वे इन 9 कानूनों के तहत सेल्फ सर्टिफिकेशन के जरिये ऑनलाइन रिटर्न फाइल कर सकते हैं। यद्यपि श्रम मंत्रालय का कहना है कि यह पोर्टल ‘‘रिटर्न भरने और जांच रिपोर्ट जमा करने के लिए है’’, वह जांच के मापदंडों को स्पष्ट नहीं करता। वह यह भी स्पष्ट नहीं करता कि मालिक यदि किन्हीं कानूनों का उल्लंघन करें तो क्या ट्रेड यूनियन जांच की मांग कर सकते हैं; या फिर यदि असंगठित मज़दूरों की संख्या को कम करके दिखाया जाता है या पूरी तरह नकारा जाता है तो क्या वे जांच की मांग कर सकते हैं।

न ही ऐसे कृत्यों के लिए वह मालिकों पर कोई दंड की बात करता है। मालिकों को एक पासवर्ड दिया जाएगा ताकि वे अपने संस्थान या कम्पनी से संबंधित डाटा देख सकें, और वे उन्हें पुष्ट कर सकते हैं या जरूरत पड़ने पर अपडेट भी कर सकते हैं। पर श्रमिकों और ट्रेड यूनियनों को यह सुविधा नहीं दी गई है। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि यह पोर्टल मालिक पक्षधर है। फिर, यह योजना काफी अलगाव पैदा करने वाली प्रतीत होती है क्योंकि भारी संख्या में असंगठित श्रमिक ऑनलाइन पंजीकरण करने की विधि जानते ही नहीं। इसके अलावा स्वार्थी तत्व बोगस मस्टर रोल भी बना सकते हैं, जिसमें या तो उनके नाम होंगे जो लाभ के हकदार नहीं है क्योंकि वे संगठित क्षेत्र के वर्कर होंगे, या फिर वर्कर होंगे ही नहीं। इस तरह से फंड की भारी घपलेबाज़ी हो सकती है। कई राज्यों में श्रम कल्याण फंड के मामले में वर्कर तभी सदस्य बन सकता है जब वह ट्रेड यूनियन का सदस्य हो। श्रम मंत्रालय इस नाम पर कि मजदूर और सरकार के बीच में सीधा रिश्ता कायम किया जाएगा, यूनियन की भूमिका को पूरी तरह समाप्त कर देता है और उन्हें इतना भी अधिकर नहीं देता कि वह बल्क में पंजीकरण फॉर्म जमा करें।

श्रमिक नेताओं द्वारा विरोध

महाराष्ट्र के सर्व श्रमिक संगठन के अध्यक्ष उदय भट्ट ने न्यूज़क्लिक को बताया ‘‘असंगठित मजदूरों के पंजीकरण की बात केवल जबानी जमा खर्च है। महाराष्ट्र में मठाडी व अन्य मैनुअल वर्कर्स ऐक्ट 1969 है और उसके तहत श्रमिकों को जो फंड मुहय्या कराया गया है वह केंदीय सरकार की स्कीम से कहीं अधिक विकसित और बेहतर है। वह न्यूनतम वेतन भी दिलाता है और मालिकों से वेतन एकत्र करके मजदूरों को देता है ताकि वेतन की कोई चोरी न हो। केंद्र तो समय के साथ सभी कल्याणकारी योजनाओं को एक में समन्वित कर देगा, यहां तक कि पेंशन फंड और ईपीएफ बचत भी, और इन्हें निजी बीमा कम्पनियों को दे देगा। लगता है कि यही मकसद है मोदी सरकार का। कुल मिलाकर केंद्र की यह पहल एक कदम पीछे ले जाता है।’’

तरसेम सिंह जोधां, जो सीटू से सम्बद्ध पंजाब के एक असंगठित मजदूर यूनियन के नेता हैं, न्यूज़क्लिक को बताते हैं कि इस नए यूएसएसपी पंजीकरण पर उनका विरोध चार लेबर कोड्स पर उनके समग्र विरोध का ही हिस्सा है। यह पोर्टल सामाजिक सूरक्षा कोड के तहत ही बनाया जा रहा है, जो अधिसूचित नहीं किया गया और यह कोड उन सभी सामाजिक सुरक्षा लाभों की कटौती करता है जो विभिन्न राज्यों में श्रमिकों को मिल रहे थे। यह एक बेकार का कोड है और 24 अगस्त को हमनें इसके विरु़द्ध पंजाब में जगह-जगह प्रदर्शन किये और हम इस पंजीकरण प्रक्रिया का भी विरोध कर रहे हैं।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सुश्री गीता, जो तमिलनाडु के सशक्त निर्माण मज़दूर ऐसोसिएशन की नेता हैं, ने कहा ,‘‘तमिलनाडु मैनुअल लेबर ऐक्ट कहीं ज्यादा आगे बढ़ा हुआ है। इसके विपरीत प्रवासी या असंगठित मज़दूरों के लिए केंद्र का हर स्कीम त्रुटिपूर्ण है। हम नहीं चाहते कि यह स्कीम हमारे राज्य की योजनाओं को खारिज कर उनकी जगह ले ले। 24 अगस्त को हमने राज्य के 15 शहरों में इस पंजीकरण प्रक्रिया का विरोध किया और हम मांग कर रहे हैं कि तमिलनाडु विधान सभा इसके विरुद्ध एक प्रस्ताव पारित करे।’’

एआईसीसीटीयू के राष्ट्रीय सचिव कमल उसरी ने कहा कि शुरू से ही मोदी सरकार का हर कदम श्रमिक विरोधी और पूंजीपतियों के पक्ष में रहा है। यह नयी चाल भी कोई भिन्न नहीं है और किसी भी तरह से मज़दूरों के हकों को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नहीं है।’’

हम अंत कुमारस्वामी की बात से करते हैं। कुमारस्वामी तमिलनाडु के एक प्रखर ट्रेड यूनियन नेता हैं और लेबर कानून के ज्ञाता भी। उन्होंने कहा,‘‘इसके बजाए कि मज़दूरों का सशक्तिकरण किया जाए और उन्हें कानूनी अधिकारों से लैस किया जाए, सरकार उन्हें हमेशा असंगठित और सरकार के रहमो-करम पर ही रखना चाहती है।’’

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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