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मुद्दा: आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस और रोज़गार का सवाल

आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस या एआई के लाए जाने से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन, यहां हमारे लिए चिंता का असली मुद्दा, इससे पैदा होने वाली भारी बेरोज़गारी का है।
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हालीवुड से जुड़े लेखकों ने, आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस (AI) द्वारा अपनी जगह लिए जाने के खिलाफ जब हड़ताल की थी, उसमें उठाया गया बुनियादी मुद्दा, उस खास हड़ताल के समाधान के बाद एक तरह से पृष्ठभूमि में ही चला गया। लेकिन, यह अब भी बुनियादी मुद्दा बना हुआ है। 

आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस या एआई के लाए जाने से जुड़ी विभिन्न समस्याओं पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन, यहां हमारे लिए चिंता का असली मुद्दा, इससे पैदा होने वाली भारी बेरोज़गारी का है।

समस्या तकनीक में नहीं पूंजीवादी व्यवस्था में है

यह दर्ज करना जरूरी है कि यह समस्या सिर्फ पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत आर्टिफशियल इंटेलीजेंस या एआई के लाए जाने की ही समस्या है। लेकिन, चूंकि आज पूंजीवाद दुनिया के बड़े हिस्से में एक सच्चाई बन चुका है, मेहनतकश जनता के लिए एआई से आ रहा खतरा बहुत ही गंभीर है। काम में साझेदारी, उत्पाद में साझेदारी का अनुसरण करने वाले किसी समाज में, मिसाल के तौर पर समाजवादी समाज में, ऐसी आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस के लाए जाने पर, जो इंसान के काम का बोझ घटाती है, दूसरी नैतिक तथा अन्य आपत्तियां चाहे जो भी हों, कम से कम इस आधार पर आपत्ति नहीं की जा सकती है कि इससे रोजगार छिनता है। लेकिन, एक पूंजीवादी समाज की कार्यपद्धति का काम में साझेदारी, उत्पाद में साझेदारी की नैतिकता से दूर का भी नाता नहीं होता है।

इस लिहाज से पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के अंतर को, एक साधारण से उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए कि एआई या किसी भी श्रम की बचत करने वाली नयी खोज की मदद से, 100 लोगों द्वारा पैदा की जाने वाली उत्पाद की निश्चित मात्रा को, पहले के मुकाबले आधी श्रम शक्ति लगाकर ही पैदा किया जा सकता है; पहले अगर 100 मजदूर पैदा करते थे, जो अब 50 मजदूरों से ही पैदा किया जा सकता है। उस सूरत में अगर ऐसा समाजवादी समाज में हो रहा हो तो, हरेक मजदूर पहले के मुकाबले आधे समय तक ही काम कर रहा होगा, लेकिन उसे मजदूरी पहले के बराबर ही मिल रही होगी। इसका कुल मिलाकर असर यह होगा कि श्रम की बचत करने वाली उक्त नयी खोज, हरेक मजदूर को उपलब्ध आराम को ही बढ़ाने का काम करेगी, जबकि उसे अपने श्रम के बदले में पहले जितनी ही मालों तथा सेवाओं तक पहुंच हासिल हो रही होगी।

समाजवादी व्यवस्था में नतीजे और ही होंगे

दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि 100 लोगों की पूरी की पूरी श्रम शक्ति, पहले के जितने ही समय तक काम करती रहे, लेकिन पहले से दो गुना उत्पाद पैदा कर रही हो यानी उसके आराम का समय तो नहीं बढ़े, लेकिन उसे पहले के मुकाबले दोगुनी मजदूरी मिलने लगे। दूसरे शब्दों में, एक समाजवादी समाज में किसी नयी खोज का आना जो मिसाल के तौर उत्पाद की हर इकाई पर लगने वाले श्रम को आधा कर देती हो, मजदूरों को पहले से ज्यादा खुशहाल बनाएगा। यह अतिरिक्त खुशहाली पहले जितनी ही मालों व सेवाओं तक पहुंच बनाए रखते हुए, आराम का समय बढ़ाने के रूप में आ सकती है या फिर पहले जितने ही श्रम के बदले में, मालों व सेवाओं तक पहुंच को बढ़ाने के रूप में आ सकती है।

लेकिन, एक पूंजीवादी समाज में इस तरह की कोई भी श्रम बचाने वाली नयी खोज, तत्क्षण रोजगार में कटौती करा देगी। हम जिस उदाहरण को लेकर चल रहे हैं उसमें 50 मजदूरों को तत्काल काम से हटा दिया जाएगा, ताकि लागत घटायी जा सके और नयी प्रक्रिया को अमल में लाकर, मुनाफे बढ़ाए जा सकें। और चूंकि 50 अतिरिक्त मजदूरों के बरोजगार होने से, श्रम की सुरक्षित सेना बढ़ जाएगी, इससे मजदूरों की सौदेबाजी की ताकत घट जाएगी और इतना तो तय है कि उनकी मजदूरी की दर नहीं बढ़ रही होगी, उसमें अगर कोई बदलाव होगा तो गिरावट के रूप में ही होगा। इस तरह, पूंजीवाद के अंतर्गत श्रम की बचत करने वाले उपकरणों की उपलब्धता, मजदूरों पर दुहरी चोट करती है–उनकी बेरोजगारी बढ़ा देती है और वास्तविक मजदूरी भी घटा देती है। जिस नयी खोज में इसकी संभावनाएं छुपी होती हैं कि वह इंसान की मेहनत-मशक्कत को घटा दे, जो कि समाजवाद के अंतर्गत ऐसी नयी खोज करती भी है, वही नयी खोज पूंजीवाद के अंतर्गत वास्तव में मजदूरों की दशा बदतर बना देती है। पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के दायरे में एआई का लाया जाना ही है जो मजदूरों पर तबाही ढहाने जा रहा है।

रोज़गार और मशीनरी: कौन सही, कौन ग़लत?

इस तरह का तर्क देना पहली नजर में लुड्डाइटों के भ्रांतिपूर्ण तर्क को सही मानना लग सकता है। लुड्डाइट, उन्नीसवीं सदी के आरंभ में ब्रिटेन में कपड़ा मजदूरों के एक समूह को कहा जाता था, जो मशीनों तो तोड़ते-फिरते थे क्योंकि उनका यह मानना था कि मशीनें ही मजदूरों के बीच बेरोजगारी पैदा करती हैं। लेकिन, लुड्डाइट की दलील की गलती यह नहीं थी कि वे मशीनरी को बेरोजगारी के कारण के रूप में देखती थी। लुड्डाइट की गलती यह थी कि वे इस परिघटना को पूंजीवाद से निकलने वाली परिघटना के रूप में नहीं देखते थे। वे एक सामाजिक परिघटना को, प्रौद्योगिकी से पैदा हो रही और उसमें अंतर्निहित परिघटना की तरह देखते थे। लेकिन, इस परिघटना के कारणों की निशानदेही करने में उनकी चाहे जो भी गलतियां रही हों, वे इस परिघटना को पहचानने में गलती नहीं कर रहे थे। सच्चाई यह है कि वे अर्थशास्त्री ही सैद्धांतिक रूप से गलत थे, जो मशीनरी को रोजगार के लिए लाभदायक मानते थे।

इन अर्थशास्त्रियों में सबसे प्रमुख थे, डेविड रिकार्डो। उनकी यह दलील थी कि अगर यह मान लिया जाए कि मजदूरी हमेशा ही गुजारे के स्तर पर रहती है, श्रम को प्रस्थापित करने तथा इस तरह फौरी तौर पर अतिरिक्त बेरोजगारी पैदा करने के जरिए मशीनरी, मुनाफे का हिस्सा और इसलिए मुनाफे की दर बढ़ा देगी। रिकार्डो, जो कि से नियम में विश्वास करते थे, जिसके अनुसार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कभी सकल मांग की कमी हो ही नहीं सकती है, इससे आगे यह दलील देते थे कि चूंकि तमाम मजदूरी का उपभोग कर लिया जाता है और उपभोग में न आए सारे मुनाफे बचत हो जाते हैं और उनका निवेश कर दिया जाता है, मुनाफे की दर में बढ़ोतरी का नतीजा, पूंजी स्टॉक की हरेक इकाई पर निवेश की दर का बढ़ना होगा यानी पूंजी स्टॉक की वृद्धि दर और इसलिए, उत्पादन तथा रोजगार की वृद्धि दर, बढ़ रही होगी।

इसका अर्थ यह हुआ कि मशीनरी लाए जाने से फौरी तौर पर तो कुछ बेरोजगारी पैदा होती है, लेकिन इससे रोजगार की वृद्धि दर भी बढ़ती है। और इस तरह, कुछ अर्से के बाद न सिर्फ अस्थायी रूप से पैदा हुई अतिरिक्त बेरोजगारी मिट जाती है बल्कि कुल मिलाकर रोजगार, मशीनरी के लाए जाने के बिना जितना रहा होता, उसके मुकाबले बढ़ जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मशीनरी का लाया जाना, फौरी तौर पर चाहे जितनी बेरोजगारी बढ़ाए, इसके चलते लंबी अवधि में इतना रोजगार पैदा होता है, जो मशीनरी के लाए बिना जितना रोजगार रहा होता, उससे ज्यादा होता है।

पूंजीवाद में मशीनरी रोज़गार की दुश्मन है

आज तक रिकार्डो की उक्त दलील, ट्रेड यूनियनों के इस दावे का मुख्य जवाब बनी हुई है कि मशीनरी का लाया जाना, रोजगार के खिलाफ जाता है। लेकिन, उक्त दलील दो स्वत:स्पष्ट कारणों से गलत है। पहला तो यह कि यह एकमुश्त मशीनरी के लाए जाने की कल्पना पर आधारित है। लेकिन, अगर मशीनरी या श्रम की बचत करने वाली नयी खोजों का लाया जाना एक अनवरत प्रक्रिया हो, तब मशीनरी के लाए जाने के हरेक मामले से फौरी तौर पर बेरोजगारी का पैदा होना भी, एक अनवरत सिलसिले का रूप ले लेगा। उस सूरत में वह दिन तो किसी सार्थक समयावधि के अर्थ में शायद कभी आए ही नहीं, जब अंतत: रोजगार का स्तर, जहां से शुरूआत हुई थी, उससे ऊंचा हो जाएगा। किसी भी विशेष समयावधि में तो, रोजगार का वास्तविक स्तर, मशीनरी के निरंतर लाए जाने से पहले की स्थिति के मुकाबले तो घटकर ही होगा।

बहरहाल, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण नुक्ते का संबंध इससे है। पूंजीपति निवेश तब करते हैं, जब उन्हें बाजार के बढऩे की प्रत्याशा होती है, न कि तब जब श्रम की बचत के चलते, इकाई श्रम लागत कम होने से, उनका मुनाफे का अनुपात और इसलिए मुनाफे की दर, ज्यादा हो जाती है। अब उस दौर पर विचार करें, जब मशीनरी लायी जा रही होती है। चूंकि खुद रिकार्डो यह मानते हैं कि तत्काल रोजगार में गिरावट आएगी और वास्तविक मजदूरी चूंकि गुजारे के स्तर से तय होती है, मजदूरी के बिल में और इसलिए मजदूरों के उपभोग में, इस मशीनरी के बिना आए जो होता, उसके मुकाबले गिरावट हो रही होगी। दूसरी ओर, पूंजीपति तो अपने मुनाफे के अपेक्षाकृत छोटे से हिस्से का ही उपभोग करते हैं और वास्तव में आसानी के लिए हम यह मान लेते हैं कि वे अपना पूरा का पूरा मुनाफा ही बचा लेते हैं। इसलिए, संबंधित दौर में अर्थव्यवस्था में उपभोग कुछ घट गया होगा। तब यह मानने का कोई कारण ही नहीं बनता है कि निवेश में कैसे कोई बढ़ोतरी हो सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि संबंधित दौर में सकल मांग में और इसलिए उत्पादन में गिरावट ही हो रही होगी। ऐसी सूरत में निवेश का स्तर भी, पहले के मुकाबले ऊंचा न होकर, जैसा कि रिकार्डो का मानना था, पहले से घटकर ही रह जाएगा। इस तरह, रोजगार का स्तर भी, पहले से घटकर होगा।

औद्योगिक दुनिया की कहानी अलग क्यों थी?

इस तरह, मजदूरों की यह पुरानी दलील कि मशीनरी का लाया जाना, रोजगार के लिए फौरी तौर पर भी और लंबी अवधि में भी, दोनों ही पहलुओं से नुकसानदेह होता है, वैध बनी रहती है। लेकिन, अगर ऐसा ही है तो क्या वजह है कि वास्तव में यूरोप में हमें मशीनरी के आने से, बेरोजगारी में लगातार वैसी बढ़ोतरी दिखाई नहीं देती है, जैसी बढ़ोतरी रिकार्डो के खिलाफ हमारे तर्क के हिसाब से तो होनी चाहिए थी? इसके दो स्वत:स्पष्ट कारण हैं। पहला, गोरों की बसावट वाले सम-शीतोष्ण क्षेत्रों की ओर यूरोप से बड़े पैमाने पर आप्रवासन। इन आप्रवासियों ने इन इलाकों में स्थानीय निवासियों को विस्थापित किया था और उनकी जमीनें हथिया ली थीं। इसने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं में, दूसरी सूरत में जो होता उसके मुकाबले में, बेरोजगारी के स्तर को नीचा और मजदूरी की दरों को ऊंचा बनाए रखा था। डब्ल्यू आर्थर लेविस के अनुसार, ‘‘लान्ग नाइंटीन्थ सेंचुरी’’ यानी पूरी उन्नीसवीं शताब्दी तथा पहले विश्व युद्ध से पहले तक कि अवधि के दौरान, 5 करोड़ यूरोपीय प्रवासी बनकर कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा दक्षिण अफ्रीका में जा चुके थे।

यूरोप में बेरोजगारी के बहुत ज्यादा तीखा न होने की दूसरा कारण था, भारत तथा चीन जैसे गर्म इलाकों के उपनिवेशों तथा अद्ध-उपनिवेशों के पूर्व-पूंजीवादी बाजारों में यूरोपीय मालों की घुसपैठ, जहां इन मालों ने स्थानीय दस्तकारों को विस्थापित करने का काम किया था। यह व्यावहारिक मायनों में बेरोजगारी का निर्यात ही बन गया। यूरोप से मालों का निर्यात, जो इन पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में ‘निरुद्योगीकरण’ तथा इसलिए बेरोजगारी पैदा कर रहा था, साथ ही साथ यूरोप में रोजगार का पैदा किया जाना भी था।

एआई से रोज़गार की चौतरफ़ा तबाही होगी

साम्राज्यवाद, उत्पीड़नकारी और इस तरह जघन्य होने के अलावा, औद्योगिक या विकसित देशों के पूंजीवाद को ये जो खास सुरक्षा वाल्व मुहैया कराता था, अब तो विकसित पूंजीवाद तक को उपलब्ध नहीं हैं, फिर हाशिए के इलाकों में पूंजीवाद को उनके उपलब्ध होने का तो सवाल ही कहां उठता है। सच तो यह है कि केन्स को जो लगता था कि सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी से उसी प्रकार पूंजीवादी घटक के लिए मांग पैदा की जा सकती है, जैसे पूर्व-पूंजीवादी बाजारों ने पहले किया था और इस तरह विकसित दुनिया में घरेलू रोजगार को बढ़ाया जा सकता है, वह अब नव-उदारवाद में तो काम ही नहीं करता है, जिसका सबूत उसका वर्तमान दीर्घ संकट है। इन परिस्थितियों में पूंजीवादी घटक में एआई का बड़े पैमाने पर अपनाया जाना, बहुत बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा करेगा, विकसित दुनिया में भी और हाशिए पर भी। बेरोजगारी का खतरा सिर्फ लेखकों तथा वॉयस कलाकारों के लिए ही नहीं है, जिन्होंने मुखरता से यह मुद्दा उठाया था। आम मजदूरों को भी बहुत भारी खतरे का सामना करना पड़ रहा है। यह महत्वपूर्ण है कि उपयुक्त मांगें उठाते हुए, मजदूरों के संघर्ष छेड़े जाएं, ताकि मुसीबत की संभावनाओं को वास्तविकता का रूप लेने से रोका जा सके।   

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

AI, Hollywood Strike & Ordinary Workers

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